क्याप यानि कुछ अजीब अनगढ़, अनदेखा सा और अप्रत्याशित ! और सच कहूँ तो ये उपन्यास अपने नाम को पूरी तरह चरितार्थ करता है ।
ऐसा क्या अनोखा है इस पुस्तक में ? अनूठी बात ये है कि उत्तरांचल की भूमि से उपजा उनका कथानक जब तक पाठक की पकड़ में आता है तब तक उपन्यास का अंत हो जाता है । उपन्यास का आरंभ जोशी जी ने बेहद नाटकीय ढंग से किया है।
"जिले बनाकर वोट जीतने की राजनीति के अन्तर्गत बनाये गए नए मध्यहिमालयवर्ती जिले वाल्मीकि नगर में, जो कभी कस्तूरीकोट कहलाता था..., फस्कियाधार नामक चोटी के रास्ते में स्थित ढिणमिणाण यानि लुढ़कते भैरव के मन्दिर के पास एक- दूसरे की जान के प्यासे पुलिस डी. आई. जी. मेधातिथि जोशी और माफिया सरगना हरध्यानु बाटलागी की लाशें पड़ी मिलीं । दोनों के ही सीने पर उल्टियों के अवशेष थे।पहला रहस्य ये था कि वे दोनों वहाँ क्या कर रहे थे ।"......और सबसे बड़ा रहस्य ये कि ये दोनों जानी दुश्मन, जो एक अरसे से एक दूसरे को मारने की कोशिश में लगे हुए थे, इकठ्ठा केसे मर गए ।"
अगर ये पढ़ने के बाद आप इस उपन्यास को एक रोचक रहस्यमयी गाथा मान बैठें हों तो आपको थोड़ा निराश होना पड़ेगा । दरअसल जोशी जी का ये उपन्यास १९९९ में घटे इस कांड की भौगोलिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने का एक ईमानदार प्रयास है।
फ्लैशबैक में कही गई ये कथा पहले पाठक को फस्कियाधार के दुर्गम भौगोलिक स्वरूप और इतिहास से अवगत कराती है। इस इलाके की सामाजिक वर्ण व्यवस्था का मार्मिक चित्रण करते हुये जोशी जी लिखते हैं ..
"डूम, जिनकी संख्या बहुत ज्यादा थी, भोजन पानी तो दूर सवर्ण की छाया भी नहीं छू सकते थे । अगर किसी काम से डूम को बुलाया जाता था तो घर के बाहर जिस भी जगह वो बैठता था उस जगह को सोने का स्पर्श पाये पानी से धोना और फिर गोबर से लीपना जरूरी होता था ।फिर उस जगह पर और घरवालों पर गोमूत्र छिड़कना आवश्यक माना जाता था । "
आगे की कहानी नायक के जीवन पथ पर संघर्ष की कथा है । डूम जाति के इस लड़के का पढ़ाई में अव्वल आना उसे लखनऊ पहुँचा देता है। यहीं प्रवेश होता है उसके जीवन में एक ब्राह्मण कन्या और साथ साथ साम्यवादी विचारधारा का । नायक आस ये लगाता है कि क्रान्ति लाने के बाद वो कन्या से अन्तरजातीय विवाह भी कर लेगा और अपने मार्क्सवादी काका की आखिरी इच्छा को भी पूरा करेगा। पर समय के साथ नायक के मस्तिष्क में चल रही योजना मानसिक उथल-पुथल का शिकार हो जाती है।युवावस्था में नायक के मन में चल रहे इस द्वन्द को जोशी जी ने वखूबी इन शब्दों में समेटा है
"हुआ ये कि बी. ए. के द्वितीय वर्ष में पहुँचने के बाद नायक ने ये खोज की कि यद्यपि किसी के साथ कुछ करना चाहने और किसी के साथ बस होना चाहने में जबरदस्त अंतर है और सर्वथा निरपेक्ष भाव से किसी के साथ होने में ही प्रेम की सार्थकता है तथापि साथ होते हुए भी साथ कुछ न करना पौरुष की विकट परीक्षा है। सभी समस्याओं का समाधान करने वाली क्रान्ति बस होने ही वाली है इसमें सन्देह नहीं, किन्तु इस देह में उठा विप्लव उस क्रान्ति की प्रतीक्षा कर सकता है इसमें पर्याप्त संदेह है ।"
जोशी जी का नायक प्रेम की विफलता और साम्यवादी विचारधारा में बढ़ती सुविधाभोगी संस्कृति से इस कदर विक्षुब्ष होता है कि वापस अपनी जड़ों में जाकर क्रान्ति का मार्ग ढ़ूंढ़ने की कोशिश करता है। स्थापना होती है एक गुरुकुल की जिसकी पहली पौध से मेधातिथि जोशी और हरध्यानु बाटलागी जैसे छात्र निकलते हैं । जोशी जी कैसे इन छात्रों की हत्या को पूर्व संदर्भ से जोड़ते हैं उस रहस्य को रहस्य ही बने रहने देना ही अच्छा है ।
जोशी जी का व्यंग्यात्मक लहजा हमेशा से धारदार रहा है और जगह जगह इसकी झलक हमें इस पुस्तक में देखने को मिलती है । क्रान्ति की विचारधारा के राह से भटकने का मलाल लेखक को सालता रहा है । पुस्तक के इस कथन में उनके दिल का दर्द साफ झलकता है
"क्या चीन का लाल सितारा इसीलिए चमका था कि एक दिन विराट बाजार के रूप में चीन की बात सोच -सोच कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गालों के सेहत की लाली चमकने लगे? क्या तेलंगाना आन्दोलन को लेकर क्रान्तिकारी कविताएँ इसलिए लिखी गईं थीं कि हैदराबाद का सी.एम. एक दिन का सी.ई.ओ. कहलाने पर खुश हो ।"
जोशी जी का लेखन सीधा और सटीक है पर काँलेज के दिनों से हत्याकांड तक वापस लाते समय पाठक की रुचि को बाँधे रखने में वो पूर्णतः विफल रहे हैं । यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी कमजोरी है। खुद जोशी जी उपन्यास के अंत में पाठकों से कहते हैं
"आप कहेंगे कि यह कथा तो क्याप जैसी हुई ! धैर्य धन्य पाठकों वही तो रोना है।"
और यही रोना रोते हुए मैंने भी ये उपन्यास समाप्त किया ।
पुस्तक के बारे मेंनाम - क्याप
लेखक - स्व. मनोहर श्याम जोशी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन
पुरस्कार - वर्ष २००६ के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
मूल्य - ६० रुपये
श्रेणी: किताबें बोलती हैं में प्रेषित