शनिवार, नवंबर 25, 2006

कोई बात चले : फूलों की तरह लब खोल कभी...

पिछली पोस्ट में मैंने इस एलबम की कुछ गजलें और त्रिवेणियाँ आप के साथ बाँटीं । आज इस सिलसिले को जारी रखते हुए बात शुरु करते हैं इस इंसानी फितरत से..
कितना खुदगर्ज है इंसान खुद गलतियाँ करता है और भूल जाता है पर दूसरे करें तो उनकी भूल उसे हजम नहीं होती । है इसका कोई उपाय..शायद गुलजार की झोली में एक तरीका है । आप भी गौर करें..!

आओ हम सब पहन ले आईने
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा

सबको सारे हसीन लगेंगे यहाँ

सही तो कहा...एक बार ऐसा आईना आँखों में समा जाए तो फिर तो मन ही बदल जाए हमारा !
चेहरे फूलों की तरह खिल उठें और हमारी वाणी से निकलने लगे बातों की मीठी खुशबू...
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फूलों की तरह लब खोल कभी
ख़ुशबू की ज़ुबां मे बोल कभी


और इस गजल का अगला शेर सुनते ही जावेद अख्तर साहब की वो जबरदस्त नज्म सामने आ जाती है

जानता हूँ मैं तुमको जौक-ए-शायरी भी है
शख्सियत सजाने में इक ये माहिरी भी है
फिर भी हर्फ चुनते हो, सिर्फ लफ्ज सुनते हो
इन के दरमियाँ क्या है तुम ना जान पाओगे


गुलजार साहब इसी बात को हल्के फुल्के अंदाज में कुछ यूँ कहते हैं .

अलफ़ाज़ परखता रहता है
आवाज़ हमारी तोल कभी


और इस बात से तो आप सब इत्तिफाक करोगे कि भूकंप के झटके सिर्फ भूगोलीय प्लेटों के टकराने से नहीं आते, इंसानी रिश्तों की उथल पुथल दिल की सरजमीं को भी हिला कर रखने के लिए काफी होती है

ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डांवांडोल कभी


और ये त्रिवेणी इस के बारे में तो कुछ कहना ही फिजूल है ।
उफ्फ..... एक पिन सा दिल में चुभोती चली जाती है..

सामने आये मेरे, देखा, मुझसे बात भी की
मुस्कुराये भी पुराने किसी रिश्ते के लिये

कल का अखबार था, बस देख लिया, रख भी दिया


पुराने रिश्तों की टीस से उपजे दर्द को एक पढ़ कर रख दिये गये अखबार के माध्यम से खोज निकालने का हुनर सिर्फ गुलजार के ही पास है ।

और चलते चलते जिंदगी के थपेड़ों से उलझते निकलते और फिर मजबूती से आगे बढ़ते इंसान की अदम्य चेतना को सलाम करते हुए गुलजार कहते हैं

आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है डूबता भी है
फिर उभरता है फिर से बहता है
ना समंदर निगल सका इसको , ना तवारीख तोड़ पाई है
वक्त की मौज पर सदा बहता
आदमी बुलबुला है पानी का...

गुलजार की आवाज का जादू तो ऐसा होता है कि घंटों उसकी गूँज मन में समाई रहती है । मुझे लगता है कि ये एलबम और भी अच्छा बन पड़ता अगर कुछ गजलों को गुलजार सिर्फ खुद पढ़ देते ।

इस एलबम की सारी गजलों और त्रिवेणियों को आप
यहाँ सुन सकते हैं

श्रेणी :
आइए महफिल सजायें में प्रेषित

शुक्रवार, नवंबर 24, 2006

कोई बात चले.....भाग १


कोई बात चले में मरासिम के बाद एक बार फिर गुलजार और जगजीत एक साथ आए हैं! हाँ, ये पहली बार ही हुआ है कि त्रिवेणियों को गजल की तरह गाने की सफल कोशिश की गई है। पर जहाँ पूरे एलबम में गुलजार अपने अंदाजे बयाँ से आपका दिल जीत लेते हैं वहीं दो -तीन गजलों को छोड़ दें तो जगजीत की गायिकी में कोई खास नयापन देखने को नहीं मिलता। फिर भी गुलजार जगजीत प्रेमियों का इस एलबम से दूर रहना बेहद कठिन है। तो चलिए आप सब को रूबरू करायें इस एलबम की चंद गजलों, शेरों और त्रिवेणियों से जो मेरे दिल के बेहद करीब से गुजरीं !

तो जनाब शुरुआत नजरों से करते हैं भला इनकी मदद के बिना कभी कोई बात चली है । और गुलजार की बात मानें तो कातिल निगाहें बात क्या हर एक पल को वहीं रोक दें ।
न रातें कटें ....
ना दिन चले ....
यानि पूरी दुनिया का कारोबार ठप्प... इसीलिये तो उनकी इल्तिजा है कि

नज़र उठाओ ज़रा तुम तो क़ायनात चले,
है इन्तज़ार कि आँखों से “कोई बात चले”

तुम्हारी मर्ज़ी बिना वक़्त भी अपाहिज है
न दिन खिसकता है आगे, न आगे रात चले


पर भई नयनों को कब तक निहारते रहोगे तनिक सूरत पर भी तो ध्यान दो ! अब इस त्रिवेणी को ही ले लीजिए......वल्लाह क्या खूबसूरती से किसी की सूरत को आँखों में उतारा है गुलजार ने

तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा
अजनबी चेहरे भी पहचाने से लगते हैं मुझे


तेरे रिश्तों में तो दुनिया ही पिरो ली मैने

पर अगर ना किसी की नजर -ए- इनायत हो और ना हो कोई सूरत मेहरबान तो क्या करेंगे आप?
मन मायूस और सहमा सहमा ही रहेगा ना . यही हाल कुछ इन जनाब का है । इनके हाल- ए- दिल बताते हुए गुलजार कहते हैं

सहमा सहमा डरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है


चाहत मिली नहीं ,सब कुछ अंदर टूट सा चुका है फिर भी आस है कि जाती ही नहीं....

एक पल देख लूँ तो उठता हूँ
जल गया सब जरा सा रहता है


कभी उन पुराने पलों में झांकिए। क्या उनमें से कुछ ऐसे नहीं जिन्हें आप हरगिज जीना नहीं चाहते । शायद वो पल कुछ ऐसे सवालों की याद दिला दें जिनके बारे में सोचना ही बेहद तकलीफ देह हो । तो लीजिए पेश है इस एलबम की एक बेहद संवेदनशील गजल जिसका हर एक शेर अपने आप में अनूठा है
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क्या बतायें कि जां गई कैसे ?
फिर से दोहरायें वो घड़ी कैसे ?

किसने रस्ते में चाँद रखा था
मुझको ठोकर वहाँ लगी कैसे ?

वक्त पे पाँव कब रखा हमने
जिंदगी मुँह के बल गिरी कैसे ?

आँख तो भर गई थी पानी से
तेरी तसवीर जल गई कैसे ?

हम तो अब याद भी नहीं करते
आपको हिचकी लग गई कैसे ?


इस एलबम की सारी गजलों और त्रिवेणियों को आप
यहाँ सुन सकते हैं

कभी-कभी हमारे अजीज बातों बातों में कोई इशारा ऍसा छोड़ जाते हैं जिसके मायनों को समझने की उधेड़बुन में हमें कितनी ही रातें बर्बाद करनी पड़ती हैं , पर फिर भी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते बहुत कुछ उस पंछी की तरह....बकौल गुलजार..

उड़ कर जाते हुये पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख फिजा में

अलविदा कहती थी या पास बुलाती थी उसे ?


आज के लिये तो बस इतना ही...अगली बार जिक्र करेंगे इस एलबम की एक ऐसी गजल की जो फूलों की तरह खूबसूरत है और साथ होगीं कुछ और बेशकीमती त्रिवेणियाँ और शेर..

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आइए महफिल सजायें में प्रेषित

गुरुवार, नवंबर 16, 2006

अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो....

कुछ गीत ऐसे होते हैं जो मन में धीरे-धीरे रास्ता बनाते हैं और कुछ ऐसे जो दिल में नश्तर सा चुभोते एक ही बार में दिल के आर पार हो जाते हैं । जावेद साहब ने इस गीत में एक बिटिया के दर्द को अपनी लेखनी के जादू से इस कदर उभारा है कि इसे सुनने के बाद आँखें नम हुये बिना नहीं रह पातीं ।

ऋचा जी की गहरी आवाज , अवधी जुबान पर उनकी मजबूत पकड़ और पार्श्व में अनु मलिक का शांत बहता संगीत आपको अवध की उन गलियों में खींचता ले जाता है जहाँ कभी अमीरन ने इस दर्द को महसूस किया होगा ।
गीत,संगीत और गायिकी के इस बेहतरीन संगम को शायद ही कोई संगीतप्रेमी सुनने से वंचित रहना चाहेगा।

अब जो किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो ऽऽऽऽ


जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो

हमरे सजनवा हमरा दिल ऐसा तोड़िन
उ घर बसाइन हमका रस्ता मा छोड़िन
जैसे कि लल्ला कोई खिलौना जो पावे
दुइ चार दिन तो खेले फिर भूल जावे
रो भी ना पावे ऐसी गुड़िया ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो
जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो...

ऐसी बिदाई बोलो देखी कहीं है
मैया ना बाबुल भैया कौनो नहीं है
होऽऽ आँसू के गहने हैं और दुख की है डोली
बन्द किवड़िया मोरे घर की ये बोली
इस ओर सपनों में भी आया ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो

जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो...

गायिका - ऋचा शर्मा, गीतकार - जावेद अख्तर
संगीतकार - अनु मलिक, चलचित्र - उमराव जान (2006)

इस मर्मस्पर्शी गीत को आप
यहाँ सुन सकते हैं ।

चलते चलते थोड़ा हटके एक और बात कहना चाहूँगा! बड़ी शर्मनाक बात है कि आज भी भारत के कमो बेश हर जगह और कुछ समृद्ध राज्यों में खासकर बिटिया को जन्म से पहले ही संसार में आने नहीं देते। आज भी दहेज लेने में हम जरा भी संकोच का अनुभव नहीं करते और ना मिलने पर प्रताड़ना की हदों से गुजर जाते हैं ।
आइए मिल कर खुद अपने और पास पड़ोस के लोगों को प्रेरित करें कि ऐसी कुरीतियों को पनपने से रोकें। कहीं ऐसा ना हो कि कभी हमारी बिटिया भी ऐसे सामाजिक हालातों में अपने जनम को कोसने पर मजबूर हो !


श्रेणी :
मेरे सपने मेरे गीत में प्रेषित

रविवार, नवंबर 05, 2006

झारखंड में ब्लागरों के बढ़ते कदम !

झारखंड में ब्लागरों की बढ़ती क्रियाशीलता पर गत शनिवार ४ नवम्बर को अंग्रेजी दैनिक दि टेलीग्राफ में एक लेख छापा गया । लेख में हिन्दी चिट्ठाजगत से मेरे और शैलेश भारतवासी के चिट्ठों का जिक्र हुआ ।

इसके चार-पाँच दिन पहले टेलीग्राफ की एक संवाददाता ने ई-मेल के माध्यम से संपर्क साधा था तथा कुछ प्रश्न किये थे। हालांकि उनके प्रश्नों के जवाब में मैंने कहा था कि मूलतः मैं अपने चिट्ठे में अपनी पसंदीदा कविता, शायरी, गीत, किताबें और यात्रा संस्मरण के बारे में लिखता हूँ पर छापा गया थोड़ा अलग । जो थोड़ा मोड़ा छपा है वो खुद यहाँ इस
जालपृष्ठ पर देख लीजिए।

आज का अपडेट (७.११.०६) टेलीग्राफ ने आज फिर ब्लागिंग पर एक लेख छापा है जिसमें हिन्दी चिट्ठाकारों में जया झा,शैलेश और मेरे से पूछे गए प्रश्नों के कुछ जवाब सम्मिलित किये गए हैं । लिक इस
जालपृष्ठ पर है ।
शैलेश भाई मुझे नहीं पता था कि आप झारखंड से हैं । इस बारे में अपना इनपुट दीजिएगा ।

झारखंड में ब्लागिंग अभी भी शुरुआती चरण में है । इसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है। और ज्यादातर ब्लॉगरों ने प्रदेश के बाहर जाकर ही चिट्ठा लेखन शुरु किया । कम से कम एक अंग्रेजी अखबार ने हमारे राज्य के ब्लॉगरों का हौसला बढ़ाया और बाकियों को इसके लिए प्रेरित किया ये अपने आप में सराहनीय प्रयास है । काश हिन्दी मीडिया भी इतना जागरूक होता !


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अपनी बात आपके साथ में प्रेषित
 

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