रविवार, दिसंबर 31, 2006

वार्षिक संगीतमाला - २००६ : साल के २५ बेहतरीन गीतों का सफर !

'एक शाम मेरे नाम' पर आने वाले दोस्तों । साल का अंत आ पहुँचा है और हमेशा की तरह मेरे लिये ये मौका होता है अपनी वार्षिक संगीतमाला :) शुरु करने का । दरअसल बचपन से रेडियो सीलोन से आने वाली बिनाका गीत माला के हम लोग जबरदस्त फैन थे । जैसे ही बुधवार का दिन आता था और घड़ी की सुइयाँ सात के पास आती थीं हम तीनों भाई-बहन शार्ट वेव के २५ मीटर बैन्ड पर रेडियो सीलोन के स्टेशन लगाने की जुगत में भिड़ जाते थे । फिर अगले एक घंटे तक अमीन सयानी की दिलकश आवाज के साथ गीतों को पायदान पर चढ़ता उतरता देखना अपने आप में हमारे लिये एक जबरदस्त मनोरंजन था ।

जब से चिट्ठाकारी शुरु की गीत -संगीत मेरे चिट्ठे का अहम हिस्सा रहे हैं इसलिए संगीतमाला का ये सिलसिला मेरे रोमन ब्लॉग पर जारी रहा । गीतों को सुनना, उन्हें दिल से महसूस करना, गुनगुनाना और फिर उन्हें अपने दोस्तों में बाँटना मेरे दिल को हमेशा से बेहद सुकून देता है ।

इसीलिए
२००४ एवं २००५ के बाद पहली बार ये सिलसिला पहली बार हिन्दी चिट्ठाजगत में शुरु कर रहा हूँ। २५ की उलटी गिनती से शुरु होगी ये श्रृंखला ... और अंत होगा सरताज गीत के साथ :) ।

पिछली बार रतिया अँधियारी रतिया और उसके पहले ये सेहरा पहना था
खुल के मुस्करा दे तू ने !
मुझे यकीन है कि इनमें से कई गीतों ने आपके दिलों भी उतनी ही गहराई से छुआ होगा ।

चूंकि साल का अंत भी है तो गीतों के साथ थोड़ी मौज मस्ती भी चलेगी साथी चिट्ठाकारों के साथ !

नए साल की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ !

शुक्रवार, दिसंबर 29, 2006

आँखों की कहानी : शायरों की जुबानी (अंतिम भाग)

आँखें जितना कुछ कहती हैं उतना ही उसे छुपाने का प्रयास भी करती हैं । आँखों का ये छल लेकिन करीबियों की पकड़ में आ ही जाता है। अब देखें कैफी आजमी साहब क्या कहते हैं इस बारे में

तुम इतना जो मुस्करा रहे हो
क्या गम है जिसको छुपा रहे हो

आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो


चुप चाप जल जाने वालों को लोग निराशावादी की श्रेणी में ला खड़ा कर देते हैं, पर इश्क की राह में चलने वालों को दुनिया की परवाह कहाँ !

तुम्हारी आँख में गर मैं कभी चुपचाप जल जाऊँ
तुम अपनी आँख में लेकिन मेरा सदमा नहीं लिखना

मेरी आँखों में बातें हैं मगर चेहरे पे गहरी चुप
मेरी आँखें तो लिख देना मेरा चेहरा नहीं लिखना


पर आँखों का दर्द छुपाना कितना कष्टप्रद है उसकी झलक मीना कुमारी की इस नज्म में दिखायी देती है

टुकड़े टुकड़े दिन बीता
धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था
उतनी ही सौगात मिली

रिमझिम बूंदों में जहर भी है
और अमृत भी
आँखें हँस दी, दिल रोया
ये अच्छी सौगात मिली


और जब ये दर्द असहनीय हो जाए तो राज की बात राज नहीं रह पाती। बकौल कासिमी

हौसला तुझ को ना था मुझसे जुदा होने का
वर्ना काजल तेरी आँखों में ना फैला होता


पर ये क्या? यहाँ तो शायर इश्क में मायूस हो कर भी अपनी आँखें नम नही करना चाहता क्योंकि वो सोचता है कि उससे मोहब्बत की तौहीन होती है

करना ही पड़ेगा जब्त-ए-गम, पीने ही पड़ेंगे ये आँसू
फरियाद-ए-फुगां से ऐ नादान, तौहीन-ए-मोहब्बत होती है
जो आ के रुके दामन पे 'साहिल' वो अश्क नहीं हैं पानी है
जो अश्क ना छलके आँखों से उस अश्क की कीमत होती है


और कुछ ऐसी ही सोच इन जनाब की भी है

पलट कर आँख नम करना हमें हरगिज नहीं आता
गये लमहों को गुम करना हमें हरगिज नहीं आता
मोहब्बत हो तो बेहद हो, जो हो नफरत तो बेपाया
कोई भी काम कम करना हमें हरगिज नहीं आता


पर आँखों से ही सब कुछ हो जाता तो क्या बात थी ! बात तब आगे बढ़ती है जब साथ ही साथ होठों को भी मशक्कत दी जाये । पर क्या हर समय ऐसा हो पाता है। अजी कहाँ जनाब..... बारहा रिश्ते आँखों के दायरे में ही सिमट कर रह जाते हैं। गुलजार साहब ने किस खूबसूरती से इस बात को लफ्जों का जामा पहनाया है, यहीं देख लीजिए

मुस्कुराहट सी खिली रहती है आँखों में कहीं
और पलकों पे उजाले से झुके रहते हैं
होठ कुछ कहते नहीं, कांपते होठों पे मगर
कितने खामोश से अफसाने रुके रहते हैं


बहुत सी बातें ऍसी होती हैं जो वक्त की नजाकत और प्रतिकूल हालातों की वजह से दिल के कोने में दफन करनी पड़ती हैं । आँखें उनकी झलक भले दिखला दें पर होठों के दरवाजे उनके लिए सदैव बंद रहते हैं। साजिद हाशमी का दिल को छूता हुआ ये शेर सुनिये

झलक जाते हैं अक्सर दर्द की मानिंद आँखों से
मगर खामोश रहते हें बयां होने से डरते हैं

कुचल देती है हर हसरत हमारी बेरहम दुनिया
दिल- ए -मासूम के अरमां जवां होने से डरते हैं


और बकौल अमजद इस्लाम अमजद

जो आँसू दिल में गिरते हें वो आँखों में नहीं रहते
बहुत से हर्फ ऐसे हैं जो लफ्जों में नहीं रहते

किताबों में लिखे जाते हैं दुनिया भर के अफसाने
मगर जिनमें हकीकत है किताबों में नहीं रहते


तो ये तो था आँखों में दर्द और उदासी का रंग ! लेकिन आप सब पर उदासी की चादर ओढ़ा कर इस सिलसिले का समापन करूँ ये अच्छा नहीं लगता । इसलिये चलते चलते पेश है मेरे प्रिय शायर गुलजार की ये नज्म जो किसी की प्यारी सी आखों को जेहन में रखकर लिखी गयी हैं

तेरी आँखों से ही खुलते हें सवेरों के उफक
तेरी आँखों से ही बंद होती है ये सीप की रात
तेरी आँखें हें या सजदे में है मासूम नमाजी
पलकें खुलती हैं तो यूँ गूंज के उठती है नजर
जैसे मंदिर से जरस की चले नमनाक हवा
और झुकी हैं तो बस जैसे अजान खत्म हुई हो
तेरी आँखें, तेरी ठहरी हुई गमगीन सी आँखें
तेरी आँखों से ही तखलीक हुई है सच्ची
तेरी आँखों से ही तखलीक हुई है ये हयात


उफक - आसमान का किनारा,क्षितिज, नमनाक - गीली, तखलीक - सृजन हयात - जीवन


श्रेणी : आइए महफिल सजायें में प्रेषित

मंगलवार, दिसंबर 19, 2006

चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है...

ये आफिस के दौरे मेरे इस चिट्ठे की गाड़ी पर बीच - बीच में ब्रेक लगा देते हैं । आज फिर से हाजिर हूँ इस गीत के साथ...
याद है ना, पिछली बार की शाम
मजाज के जीवन की उदासी ले के आई थी । आज मामला वैसा तो नहीं पर उससे खास जुदा भी नहीं ।
देखिये ना, जनाब मजरूह सुलतानपुरी अँधेरे के बीच खड़े होकर आवाजें लगा रहे हैं , उस हमसफर के लिये जो ना जाने कहाँ गुम हो गया है !
और तो और शायर के हृदय में छाई इस कालिमा को हटाने में ना सितारों की फौज काम आ रही है ना ही बहारों की खूबसूरती..
अब तो सच्चे दिल से लगाई इस पुकार का ही सहारा है.....शायद पहुँच जाए उन तक...




चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है
कहीं से लौट के आओ बहुत अँधेऽऽरा है

कहाँ से लाऊँ, वो रंगत गई बहाऽरों की
तुम्हारे साथ गई रोशनी नजाऽरों की
मुझे भी पास बुलाओ बहुत अँधेऽऽरा है
चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है

सितारों तुमसे, अँधेरे कहाँ सँभलते हैं
उन्हीं के नक्शे कदम से चराग जलते हैं
उन्हीं को ढ़ूंढ़ के लाओ बहुत अँधेरा है
चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है


अब आप सोच रहें होंगे कि इस गीत की याद मुझे अचानक कहाँ से आ गई । सो हुआ ये कि मेरे
रोमन हिन्दी ब्लॉग के एक पाठक ने भेंट स्वरूप मुझे ये गीत भेजा । यूँ तो चिराग के बाकी गीत मेरे सुने हुए थे पर ये गीत मैंने पहली बार, उस अनजान मित्र के जरिये ही सुना।
एक बार फिर शुक्रिया दोस्त इस प्यारे गीत को मुझ तक पहुँचाने के लिए । अब मुझे कोई गीत अच्छा लगे और वो आप सब के पास ना पहुँचे ये कभी हुआ है भला ? इस गीत को सुनने के लिये यहाँ
क्लिक कीजिए ।

चलचित्र चिराग (१९६९) के लिये ये गीत मोहम्मद रफी की आवाज में रिकार्ड किया गया था। धुन बनाई थी मदन मोहन साहब ने ।

शनिवार, दिसंबर 09, 2006

मजाज़ लखनवी की जिंदगी का आईना 'आवारा' (भाग 2)

जनाब असरार उल हक उर्फ 'मजाज़ ' एक शायराना खानदान से ताल्लुक रखते थे।  उनकी बहन का निकाह जावेद अख्तर के पिता जानिसार अख्तर के साथ हुआ था । अपने शायराना सफर की शुरुआत सेंट जान्स कॉलेज में पढ़ते वक्त उन्होंने फनी बदायुनी की शागिर्दी में की थी । प्रेम मजाज की शायरी का केन्द्रबिन्दु रहा जो बाद में दर्द में बदल गया। जैसा कि स्पष्ट था कि मजाज़ को चाहने वालों की कभी कमी नहीं रही थी । पर प्रेम के खुले विकल्पों को छोड़ एक अमीर शादी शुदा स्त्री के इश्क ने उनकी जिंदगी में वो तूफान ला दिया जिस में वो डूबते उतराते ही रहे.... कभी उबर ना सके ।
 
मुन्तजिर* है एक तूफां -ए -बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने दरवाजे हैं वा** मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा अहद -ए- वफा मेरे लिए
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
*इंतजार में,  ** खुला हुआ

जी में आता है कि अब अहद- ए -वफा* भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये जंजीर -ए- हवा भी तोड़ दूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
*वफा करने का वादा

क्या अजीब चीज है ये इश्क ! पास रहे तो सब खुशनुमा सा लगता है और दूर छिटक जाए तो चमकती चाँदनी देने वाला माहताब भी बनिये की किताब सा पीला दिखता है । रातें बीतती गईं। चाँद रोज रोज अपनी मनहूस शक्लें दिखलाता रहा । मजाज़ का दिल कातर और बेचैन ही रहा..और उन्होंने लिखा
 
इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा*, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस** की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* पगड़ी,  **गरीब
 
दिल में एक शोला भड़क उठा है आखिर क्या करूँ ?
मेरा पैमाना छलक उठा है आखिर क्या करूँ ?
जख्म सीने का महक उठा है आखिर क्या करूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
जी में आता है कि चाँद तारे नोच लूँ
इस किनारे नोच लूँ , उस किनारे नोच लूँ
एक दो का जिक्र क्या, सारे के सारे नोच लूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मजाज़ को ऊँचे तबके के लोगों की महफिलों में उठने बैठने के कई अवसर मिले थे । अक्सर ऐसी महफिलों में अपने मनोरंजन के लिए मजाज को आमंत्रित किया जाता था । अमीरों के चरित्र का खोखलापन और आम जनता की गरीबी को उन्होंने करीब से देखा था । अन्य प्रगतिशील शायरों की तरह उनमें भी तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश था , जो आगे की इन पंक्तियों में साफ जाहिर होता है
 
मुफलिसी और ये मजाहिर हैं नजर के सामने
सैकड़ों चंगेज-ओ-नादिर हैं नजर के सामने
सैकड़ों सुल्तान जाबिर* हैं नजर के सामने
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* अत्याचारी

ले के चंगेज के हाथों से खंजर तोड़ दूँ
ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या ना तोड़े मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
बढ़ के इस इन्दर सभा का साज-ओ-सामां फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ* फूँक दूँ,
तख्त-ए-सुल्तान क्या मैं सारा कस्र-ए-सुल्तान** फूँक दूँ,
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* शयनगार,  **शाही महल

१९५४ में मजाज़ को दोबारा पागलपन का दौरा पड़ा । पागलपन के इस दौरे से बच तो निकले पर शराब से नाता नहीं टूट सका । उनके मित्र प्रकाश पंडित ने लिखा है कि अक्सर रईसों की महफिलों में उनके बुलावे आते। औरतें उनकी गजलियात और नज्में सुनतीं और साथ- साथ उन्हें खूब शराब पिलाई जाती । जब मजाज की साँसें उखड़ने लगतीं और मेजबान को लगता कि अब वो कुछ ना सुना सकेगा तो उन्हें ड्राइवर के हवाले कर किसी मैदान या रेलवे स्टेशन की बेंच पर छोड़ आया जाता था ।
 
मजाज़ की जिंदगी की आखिरी रात भी कुछ ऐसी ही थी । फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस बार महफिल से शेरो शायरी का दौर तो खत्म हुआ पर मजाज को लखनऊ में दिसंबर की उस सर्द रात में लोगों ने छत पर ही छोड़ दिया । और अगली सुबह १५ दिसंबर १९५५ को दिमाग की नस फटने से वो इस दुनिया से कूच कर गए आज इस बात को गुजरे ५१ साल बीत चुके हैं पर आज भी कहकशाँ में जगजीत सिंह की आवाज में गर कोई इस नज्म को सुने तो मजाज के उस दर्द को महसूस कर सकता है ।

मजाज़ की जिंदगी उनकी दीवानगी, महकदे के चक्करों और बेपरवाही में गुजर गई । शायद उनके खुद कहे ये शेर उनके जीवन की सच्ची कहानी कहते हैं ।
कुछ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं
हम महकदे की राह से होकर गुजर गए
वर्ना सफर हयात का बेहद तवील* था
*लम्बा
मेरी बर्बादियों के हमनशीनों
तुम्हें क्या मुझे भी गम नहीं है
*************************************
पुनःश्च :
इस लेख में जिक्र किए गए तथ्य प्रकाश पंडित और मराठी लेखक माधव मोहोलकर के संस्मरणों पर आधारित हैं ।१९५३ में आई फिल्म ठोकर में तलत महमूद साहब ने भी इस नज्म को अपनी आवाज दी है ।


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इस नज़्म का पिछला भाग आप इस पोस्ट में यहाँ पढ़ सकते हैं।

बुधवार, दिसंबर 06, 2006

मजाज़ 'लखनवी' की जिंदगी का आईना : 'आवारा '


मजाज़ लखनवी की ये नज्म आवारा उर्दू की बेहतरीन नज्मों में से एक मानी जाती है । यूँ तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले मजाज, प्रगतिशील शायरों में एक माने जाते थे, पर दिल्ली में अपना दिल खोने के बाद अपनी जिंदगी से वे इस कदर हताश हो गए कि शराब और शायरी के आलावा कहीं और अपना गम गलत नहीं कर सके ।
देखा जाए तो मजाज़ लखनवी की पूरी जिंदगी का दर्द इस नज्म के आईने में समा गया है । दिल्ली से वापस लखनऊ और फिर मुम्बई में किस्मत आजमाने आए मजाज का जख्म इतना हरा था कि उन्हें मुम्बई की चकाचौंध कहाँ से पसंद आती । सो उन्होंने लिखा

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मुंबई की मेरीन ड्राइव का रात का सौंदर्य भला किससे छुपा है?
पर जब दिल में किसी की बेवफाई की चोट हो तो ये मोतियों सरीखी टिमटिमाती रोशनी भी सीने में तेज धार वाली तलवार की तरह लगती हैं? न उस वक्त चाँद की चाँदनी दिल को शीतलता पहुँचाती हे ना खूबसूरत सितारों से पटी आकाशगंगा ही दिल को सुकूं दे पाती है

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में, जंजीर सी
रात के हाथों में दिन की, मोहनी तसवीर सी
मेरे सीने पर मगर ,दहकी हुई शमशीर सी
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफी का तस्सवुर, जैसे आशिक का हाल
आह ! लेकिन कौन समझे कौन जाने दिल का हाल ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

दिल की हालत तो तकदीर की गिरफ्त में कैद है ! किसी के भाग्य में फुलझड़ियों की चमक है तो कहीं टूटे तारों की टीस भरी यादें..

फिर वो टूटा इक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आये ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर लगी
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मजाज का मन भटकता रहा कभी मयखाने में तो कभी हुस्न की मलिका की महफिल में . पर हर वक्त वो महफिलें भी कहाँ से मयस्सर होतीं ! अगर कोई चीज हमेशा मजाज के साथ रही तो सिर्फ अकेलापन, उदासी और रुसवाई ।

रात हँस-हँस कर ये कहती है कि मैखाने में चल
फिर किसी शहनाज-ए-लालारुख के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

हर तरफ बिखरी हुई रंगीनियाँ रअनाईयाँ
हर कदम पर इशरतें लेतीं हुईं अंगड़ाईयाँ
बढ़ रहीं हैं गोद फैलाए हुए रुसवाईयाँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मजाज पहले प्यार को ना पाने के गम में ऐसा टूटे कि अपना संतुलन खो बैठे । पर वो फिर से उपचार के बाद उबर सके । माता पिता ने सोचा उनकी शादी करा दी जाए। पर अब मजाज के बिगड़े मानसिक संतुलन की खबर फैल चुकी थी और उनकर लिये आए कई रिश्ते अंत-अंत में टूट गए । ये हुआ एक ऐसे शायर के साथ जिसके बारे में इस्मत चुगताई ने कहा था कि कॉलेज के जमाने में उनकी शायरी पर लड़कियाँ जान देती थीं । पर मजाज जिंदगी के इस अकेलेपन से लड़ते रहे। अपनी जिंदगी की कशमकश को किस बखूबी से उन्होंने इन पंक्तियों में उतारा है

रास्ते में रुक के दम ले लूँ, मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवां मिल जाये, ये किस्मत नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मजाज की लाचारी और मायूसी इस नज्म की हर पंक्तियों में नुमायां हैं । अब मैं आप सब को अभी और उदास नहीं करूँगा । मजाज की कुछ और बातों के साथ अगली पोस्ट में पेश करूँगा इस नज्म का अगला हिस्सा !

जगजीत सिंह ने कहकशाँ एलबम में इस लंबी नज़्म के कुछ हिस्सों को अपनी जादुई आवाज़ से सँवारा है...


इस नज़्म का अगला भाग आप इस पोस्ट में यहाँ पढ़ सकते हैं।

मंगलवार, दिसंबर 05, 2006

किताबी कोना : आशापूर्णा देवी रचित 'लीला चिरन्तन'

आशापूर्णा देवी अहिन्दीभाषी साहित्यकारों में मेरी सर्वाधिक प्रिय कथाकार रहीं हैं । उनकी बेहद चर्चित उपन्यास-त्रयी प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और बकुल कथा ब्रिटिश साम्राज्य से लेकर स्वतंत्र भारत और आज के दौर की नारी की चेतना के उत्तरोत्तर विकास की अमर गाथा है । आशापूर्णा जी की नायिकाएँ हमेशा से स्वाभिमानी , दूरदर्शी और तत्कालीन सामाजिक तौर तरीकों से ना दबने वाली रही हैं ।

लीला चिरन्तन की नायिका कावेरी भी इनसे भिन्न नहीं है । वर्ना शादी के बीस सालों बाद अचानक एक सुबह कोई अपने जवान बेटे और बेटियों को छोड़कर भरी सभा में ये घोषणा कर दे कि वो अगली पूर्णमासी के दिन वैराग्य ग्रहण कर लेगा और कोई इस दर्द को चुपचाप पी कर, बिना ऊपरी रोष व्यक्त किये अपने काम में लग जाएगा, ऐसा कौन सोच सकता है भला।

वैसे घर के मुखिया आनंद लाहिड़ी ने ये निर्णय अकस्मात लिया हो ऐसा भी नहीं है । इच्छा तो जाहिर पहले ही कर चुके थे पर घर के लोग बस इसी आस में थे कि उनकी इच्छा, इच्छा ही रह जाए । आखिरकार पागलपन की हद तक बढ़ चुके प्रेम के बाद जिस दाम्पत्य बंधन का श्री गणेश हुआ हो , उसका पटाक्षेप इस तरह होगा ये किसने सोचा था ।

लीला चिरन्तन में आशापूर्णा जी ने ये कथा आनंद लाहिड़ी की युवा पुत्री के मुख से कहलवाई है ।घर की ऐसी परिस्थिति एक युवा मन को कैसे उद्वेलित करती है, इसका सटीक चित्रण इस उपन्यास में किया गया है । बिना खुद की कोई गलती के, अचानक ही अपने परिवार को लेकर सारे मोहल्ले में हो रही फूहड़ चर्चा का ना तो सामना करना आसान है ना उससे बच के निकलना । और इसी पशोपेश में पड़ी "मौ" मन में उमड़ते अनेक अनुत्तरित प्रश्नों की झुंझलाहट अपने मित्र नक्षत्र या प्यारे नक्खा पर उतारती है।

पर बात तो वहीं जाकर शुरु होती है कि आखिर आनन्द लाहिड़ी को वैराग्य पर जाने को सूझी क्यों ?
और गए तो फिर कुछ महिनों में ही गुरू आश्रम से उनका मोह भंग क्यों हुआ ?
क्या कावेरी वापस लौटे पति को क्षमा कर पाई ?

इन सारे प्रश्नों के उत्तर जानने के लिये आपको १४० पन्नों का ये लघु उपन्यास पढ़ना पड़ेगा।

आशापूर्णा जी की लेखन शैली का मैं हमेशा से कायल रहा हूँ । उनके कथानक में जरूरत से ज्यादा दार्शनिकता का पुट नहीं रहता। सीधा सहज भाष्य पाठकों की रुचि को बनाए रखता है। इसलिये कभी भी बीच- बीच के पन्नों को बिना पढ़े आगे बढ़ने की इच्छा नहीं होती । हाँ ,ये जरूर है कि ये लघु उपन्यास पात्रों के चरित्र-चित्रण में उनकी बाकी कालजयी कृतियों की तुलना में उतना कसा हुआ नहीं लगता ।

पुस्तक के बारे में

नाम - लीला चिरन्तन
लेखिका - स्व. आशापूर्णा देवी
अनुवादक - डॉ. रणजीत साहा
प्रकाशक - ज्ञानपीठ प्रकाशन
पुरस्कार - प्रथम प्रतिश्रुति के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित
मूल्य - ५० रुपये

श्रेणी : किताबें बोलती हैं में प्रेषित

शनिवार, नवंबर 25, 2006

कोई बात चले : फूलों की तरह लब खोल कभी...

पिछली पोस्ट में मैंने इस एलबम की कुछ गजलें और त्रिवेणियाँ आप के साथ बाँटीं । आज इस सिलसिले को जारी रखते हुए बात शुरु करते हैं इस इंसानी फितरत से..
कितना खुदगर्ज है इंसान खुद गलतियाँ करता है और भूल जाता है पर दूसरे करें तो उनकी भूल उसे हजम नहीं होती । है इसका कोई उपाय..शायद गुलजार की झोली में एक तरीका है । आप भी गौर करें..!

आओ हम सब पहन ले आईने
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा

सबको सारे हसीन लगेंगे यहाँ

सही तो कहा...एक बार ऐसा आईना आँखों में समा जाए तो फिर तो मन ही बदल जाए हमारा !
चेहरे फूलों की तरह खिल उठें और हमारी वाणी से निकलने लगे बातों की मीठी खुशबू...
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फूलों की तरह लब खोल कभी
ख़ुशबू की ज़ुबां मे बोल कभी


और इस गजल का अगला शेर सुनते ही जावेद अख्तर साहब की वो जबरदस्त नज्म सामने आ जाती है

जानता हूँ मैं तुमको जौक-ए-शायरी भी है
शख्सियत सजाने में इक ये माहिरी भी है
फिर भी हर्फ चुनते हो, सिर्फ लफ्ज सुनते हो
इन के दरमियाँ क्या है तुम ना जान पाओगे


गुलजार साहब इसी बात को हल्के फुल्के अंदाज में कुछ यूँ कहते हैं .

अलफ़ाज़ परखता रहता है
आवाज़ हमारी तोल कभी


और इस बात से तो आप सब इत्तिफाक करोगे कि भूकंप के झटके सिर्फ भूगोलीय प्लेटों के टकराने से नहीं आते, इंसानी रिश्तों की उथल पुथल दिल की सरजमीं को भी हिला कर रखने के लिए काफी होती है

ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डांवांडोल कभी


और ये त्रिवेणी इस के बारे में तो कुछ कहना ही फिजूल है ।
उफ्फ..... एक पिन सा दिल में चुभोती चली जाती है..

सामने आये मेरे, देखा, मुझसे बात भी की
मुस्कुराये भी पुराने किसी रिश्ते के लिये

कल का अखबार था, बस देख लिया, रख भी दिया


पुराने रिश्तों की टीस से उपजे दर्द को एक पढ़ कर रख दिये गये अखबार के माध्यम से खोज निकालने का हुनर सिर्फ गुलजार के ही पास है ।

और चलते चलते जिंदगी के थपेड़ों से उलझते निकलते और फिर मजबूती से आगे बढ़ते इंसान की अदम्य चेतना को सलाम करते हुए गुलजार कहते हैं

आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है डूबता भी है
फिर उभरता है फिर से बहता है
ना समंदर निगल सका इसको , ना तवारीख तोड़ पाई है
वक्त की मौज पर सदा बहता
आदमी बुलबुला है पानी का...

गुलजार की आवाज का जादू तो ऐसा होता है कि घंटों उसकी गूँज मन में समाई रहती है । मुझे लगता है कि ये एलबम और भी अच्छा बन पड़ता अगर कुछ गजलों को गुलजार सिर्फ खुद पढ़ देते ।

इस एलबम की सारी गजलों और त्रिवेणियों को आप
यहाँ सुन सकते हैं

श्रेणी :
आइए महफिल सजायें में प्रेषित

शुक्रवार, नवंबर 24, 2006

कोई बात चले.....भाग १


कोई बात चले में मरासिम के बाद एक बार फिर गुलजार और जगजीत एक साथ आए हैं! हाँ, ये पहली बार ही हुआ है कि त्रिवेणियों को गजल की तरह गाने की सफल कोशिश की गई है। पर जहाँ पूरे एलबम में गुलजार अपने अंदाजे बयाँ से आपका दिल जीत लेते हैं वहीं दो -तीन गजलों को छोड़ दें तो जगजीत की गायिकी में कोई खास नयापन देखने को नहीं मिलता। फिर भी गुलजार जगजीत प्रेमियों का इस एलबम से दूर रहना बेहद कठिन है। तो चलिए आप सब को रूबरू करायें इस एलबम की चंद गजलों, शेरों और त्रिवेणियों से जो मेरे दिल के बेहद करीब से गुजरीं !

तो जनाब शुरुआत नजरों से करते हैं भला इनकी मदद के बिना कभी कोई बात चली है । और गुलजार की बात मानें तो कातिल निगाहें बात क्या हर एक पल को वहीं रोक दें ।
न रातें कटें ....
ना दिन चले ....
यानि पूरी दुनिया का कारोबार ठप्प... इसीलिये तो उनकी इल्तिजा है कि

नज़र उठाओ ज़रा तुम तो क़ायनात चले,
है इन्तज़ार कि आँखों से “कोई बात चले”

तुम्हारी मर्ज़ी बिना वक़्त भी अपाहिज है
न दिन खिसकता है आगे, न आगे रात चले


पर भई नयनों को कब तक निहारते रहोगे तनिक सूरत पर भी तो ध्यान दो ! अब इस त्रिवेणी को ही ले लीजिए......वल्लाह क्या खूबसूरती से किसी की सूरत को आँखों में उतारा है गुलजार ने

तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा
अजनबी चेहरे भी पहचाने से लगते हैं मुझे


तेरे रिश्तों में तो दुनिया ही पिरो ली मैने

पर अगर ना किसी की नजर -ए- इनायत हो और ना हो कोई सूरत मेहरबान तो क्या करेंगे आप?
मन मायूस और सहमा सहमा ही रहेगा ना . यही हाल कुछ इन जनाब का है । इनके हाल- ए- दिल बताते हुए गुलजार कहते हैं

सहमा सहमा डरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है


चाहत मिली नहीं ,सब कुछ अंदर टूट सा चुका है फिर भी आस है कि जाती ही नहीं....

एक पल देख लूँ तो उठता हूँ
जल गया सब जरा सा रहता है


कभी उन पुराने पलों में झांकिए। क्या उनमें से कुछ ऐसे नहीं जिन्हें आप हरगिज जीना नहीं चाहते । शायद वो पल कुछ ऐसे सवालों की याद दिला दें जिनके बारे में सोचना ही बेहद तकलीफ देह हो । तो लीजिए पेश है इस एलबम की एक बेहद संवेदनशील गजल जिसका हर एक शेर अपने आप में अनूठा है
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क्या बतायें कि जां गई कैसे ?
फिर से दोहरायें वो घड़ी कैसे ?

किसने रस्ते में चाँद रखा था
मुझको ठोकर वहाँ लगी कैसे ?

वक्त पे पाँव कब रखा हमने
जिंदगी मुँह के बल गिरी कैसे ?

आँख तो भर गई थी पानी से
तेरी तसवीर जल गई कैसे ?

हम तो अब याद भी नहीं करते
आपको हिचकी लग गई कैसे ?


इस एलबम की सारी गजलों और त्रिवेणियों को आप
यहाँ सुन सकते हैं

कभी-कभी हमारे अजीज बातों बातों में कोई इशारा ऍसा छोड़ जाते हैं जिसके मायनों को समझने की उधेड़बुन में हमें कितनी ही रातें बर्बाद करनी पड़ती हैं , पर फिर भी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते बहुत कुछ उस पंछी की तरह....बकौल गुलजार..

उड़ कर जाते हुये पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख फिजा में

अलविदा कहती थी या पास बुलाती थी उसे ?


आज के लिये तो बस इतना ही...अगली बार जिक्र करेंगे इस एलबम की एक ऐसी गजल की जो फूलों की तरह खूबसूरत है और साथ होगीं कुछ और बेशकीमती त्रिवेणियाँ और शेर..

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आइए महफिल सजायें में प्रेषित

गुरुवार, नवंबर 16, 2006

अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो....

कुछ गीत ऐसे होते हैं जो मन में धीरे-धीरे रास्ता बनाते हैं और कुछ ऐसे जो दिल में नश्तर सा चुभोते एक ही बार में दिल के आर पार हो जाते हैं । जावेद साहब ने इस गीत में एक बिटिया के दर्द को अपनी लेखनी के जादू से इस कदर उभारा है कि इसे सुनने के बाद आँखें नम हुये बिना नहीं रह पातीं ।

ऋचा जी की गहरी आवाज , अवधी जुबान पर उनकी मजबूत पकड़ और पार्श्व में अनु मलिक का शांत बहता संगीत आपको अवध की उन गलियों में खींचता ले जाता है जहाँ कभी अमीरन ने इस दर्द को महसूस किया होगा ।
गीत,संगीत और गायिकी के इस बेहतरीन संगम को शायद ही कोई संगीतप्रेमी सुनने से वंचित रहना चाहेगा।

अब जो किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो ऽऽऽऽ


जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो

हमरे सजनवा हमरा दिल ऐसा तोड़िन
उ घर बसाइन हमका रस्ता मा छोड़िन
जैसे कि लल्ला कोई खिलौना जो पावे
दुइ चार दिन तो खेले फिर भूल जावे
रो भी ना पावे ऐसी गुड़िया ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो
जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो...

ऐसी बिदाई बोलो देखी कहीं है
मैया ना बाबुल भैया कौनो नहीं है
होऽऽ आँसू के गहने हैं और दुख की है डोली
बन्द किवड़िया मोरे घर की ये बोली
इस ओर सपनों में भी आया ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो

जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो...

गायिका - ऋचा शर्मा, गीतकार - जावेद अख्तर
संगीतकार - अनु मलिक, चलचित्र - उमराव जान (2006)

इस मर्मस्पर्शी गीत को आप
यहाँ सुन सकते हैं ।

चलते चलते थोड़ा हटके एक और बात कहना चाहूँगा! बड़ी शर्मनाक बात है कि आज भी भारत के कमो बेश हर जगह और कुछ समृद्ध राज्यों में खासकर बिटिया को जन्म से पहले ही संसार में आने नहीं देते। आज भी दहेज लेने में हम जरा भी संकोच का अनुभव नहीं करते और ना मिलने पर प्रताड़ना की हदों से गुजर जाते हैं ।
आइए मिल कर खुद अपने और पास पड़ोस के लोगों को प्रेरित करें कि ऐसी कुरीतियों को पनपने से रोकें। कहीं ऐसा ना हो कि कभी हमारी बिटिया भी ऐसे सामाजिक हालातों में अपने जनम को कोसने पर मजबूर हो !


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मेरे सपने मेरे गीत में प्रेषित

रविवार, नवंबर 05, 2006

झारखंड में ब्लागरों के बढ़ते कदम !

झारखंड में ब्लागरों की बढ़ती क्रियाशीलता पर गत शनिवार ४ नवम्बर को अंग्रेजी दैनिक दि टेलीग्राफ में एक लेख छापा गया । लेख में हिन्दी चिट्ठाजगत से मेरे और शैलेश भारतवासी के चिट्ठों का जिक्र हुआ ।

इसके चार-पाँच दिन पहले टेलीग्राफ की एक संवाददाता ने ई-मेल के माध्यम से संपर्क साधा था तथा कुछ प्रश्न किये थे। हालांकि उनके प्रश्नों के जवाब में मैंने कहा था कि मूलतः मैं अपने चिट्ठे में अपनी पसंदीदा कविता, शायरी, गीत, किताबें और यात्रा संस्मरण के बारे में लिखता हूँ पर छापा गया थोड़ा अलग । जो थोड़ा मोड़ा छपा है वो खुद यहाँ इस
जालपृष्ठ पर देख लीजिए।

आज का अपडेट (७.११.०६) टेलीग्राफ ने आज फिर ब्लागिंग पर एक लेख छापा है जिसमें हिन्दी चिट्ठाकारों में जया झा,शैलेश और मेरे से पूछे गए प्रश्नों के कुछ जवाब सम्मिलित किये गए हैं । लिक इस
जालपृष्ठ पर है ।
शैलेश भाई मुझे नहीं पता था कि आप झारखंड से हैं । इस बारे में अपना इनपुट दीजिएगा ।

झारखंड में ब्लागिंग अभी भी शुरुआती चरण में है । इसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है। और ज्यादातर ब्लॉगरों ने प्रदेश के बाहर जाकर ही चिट्ठा लेखन शुरु किया । कम से कम एक अंग्रेजी अखबार ने हमारे राज्य के ब्लॉगरों का हौसला बढ़ाया और बाकियों को इसके लिए प्रेरित किया ये अपने आप में सराहनीय प्रयास है । काश हिन्दी मीडिया भी इतना जागरूक होता !


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अपनी बात आपके साथ में प्रेषित

शनिवार, अक्तूबर 28, 2006

मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना

वापस तो लौट आयें हैं यात्रा के अपने खट्टे मीठे अनुभवों को लेकर पर आज कुछ मन शेर- ओ- शायरी का हो रहा था तो सोचा कि इससे पहले कि सफर का हाल सुनाना शुरु करूँ क्यूँ ना मखमूर सईदी साहब की एक गजल आप सब के साथ बाँटी जाए ।
अब ये गजल क्या है एक नाराज आशिक का फसाना है ! तो जनाब उदासी की चादर से निकलती इन तल्ख भावनाओं पर जरा गौर कीजिए ।

गर ये शर्त -ए -ताल्लुक है कि है हमको जुदा रहना
तो ख्वाबों में भी क्यूँ आओ़ खयालों में भी क्या रहना

शजर जख्मी उम्मीदों के अभी तक लहलहाते हैं
इन्हें पतझड़ के मौसम में भी आता है हरा रहना

पुराने ख्वाब पलकों से झटक दो सोचते क्या हो
मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना

अजब क्या है अगर मखमूर तुम पर यूरिश- ए -गम है
हवाओं की तो आदत है चरागों से खफा रहना


श्रेणी:
आइए महफिल सजायें में प्रेषित

शुक्रवार, अक्तूबर 13, 2006

इक जरा छींक ही दो तुम...

भगवान है या नहीं इसकी चर्चा परिचर्चा में तो छिड़ी हुई थी ही और उधर रचना जी ने भी भगवान से कुछ ऐसे सवाल पूछ रखे हैं कि प्रभु चिंतामग्न हैं कि क्या जवाब दें ? प्रभु का चित्त स्थिर हुआ ही था कि समीर भाई ने नारद और चिट्ठा चर्चा का प्रसंग छेड़ उन्हें फिर उलझन में डाल दिया ।

और अब लीजिए एक हिन्दी पत्रिका का पुराना अंक उलट रहा था तो गुलजार की ये पाजी नज्म दिखी कुछ और सवाल करते हुए। सच भक्तों ने जीना दूभर कर रखा है भगवन का !
चिपचिपे दूध से नहलाते हैं
आंगन में खड़ा कर के तुम्हें ।
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुंढाते हैं गिलसियां भर के

औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पांव पर पांव लगाये खड़े रहते हो
इक पथरायी सी मुस्कान लिये
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।

जब धुआं देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम,
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।



श्रेणी मेरी प्रिय कविताएँ में प्रेषित

इस चिट्ठे के सभी पाठकों को दीपावली की अग्रिम शुभकामनायें । अगले १० दिनों तक नागपुर और पंचमढी की यात्रा पर रहूँगा इसलिए आप सब से दीपावली के बाद ही मुलाकात होगी ।

रविवार, अक्तूबर 08, 2006

किताबी कोना : स्व. मनोहर श्याम जोशी की 'क्याप'

क्याप यानि कुछ अजीब अनगढ़, अनदेखा सा और अप्रत्याशित ! और सच कहूँ तो ये उपन्यास अपने नाम को पूरी तरह चरितार्थ करता है ।

ऐसा क्या अनोखा है इस पुस्तक में ? अनूठी बात ये है कि उत्तरांचल की भूमि से उपजा उनका कथानक जब तक पाठक की पकड़ में आता है तब तक उपन्यास का अंत हो जाता है । उपन्यास का आरंभ जोशी जी ने बेहद नाटकीय ढंग से किया है।

"जिले बनाकर वोट जीतने की राजनीति के अन्तर्गत बनाये गए नए मध्यहिमालयवर्ती जिले वाल्मीकि नगर में, जो कभी कस्तूरीकोट कहलाता था..., फस्कियाधार नामक चोटी के रास्ते में स्थित ढिणमिणाण यानि लुढ़कते भैरव के मन्दिर के पास एक‍- दूसरे की जान के प्यासे पुलिस डी. आई. जी. मेधातिथि जोशी और माफिया सरगना हरध्यानु बाटलागी की लाशें पड़ी मिलीं । दोनों के ही सीने पर उल्टियों के अवशेष थे।पहला रहस्य ये था कि वे दोनों वहाँ क्या कर रहे थे ।"......और सबसे बड़ा रहस्य ये कि ये दोनों जानी दुश्मन, जो एक अरसे से एक दूसरे को मारने की कोशिश में लगे हुए थे, इकठ्ठा केसे मर गए ।"

अगर ये पढ़ने के बाद आप इस उपन्यास को एक रोचक रहस्यमयी गाथा मान बैठें हों तो आपको थोड़ा निराश होना पड़ेगा । दरअसल जोशी जी का ये उपन्यास १९९९ में घटे इस कांड की भौगोलिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने का एक ईमानदार प्रयास है।

फ्लैशबैक में कही गई ये कथा पहले पाठक को फस्कियाधार के दुर्गम भौगोलिक स्वरूप और इतिहास से अवगत कराती है। इस इलाके की सामाजिक वर्ण व्यवस्था का मार्मिक चित्रण करते हुये जोशी जी लिखते हैं ..

"डूम, जिनकी संख्या बहुत ज्यादा थी, भोजन पानी तो दूर सवर्ण की छाया भी नहीं छू सकते थे । अगर किसी काम से डूम को बुलाया जाता था तो घर के बाहर जिस भी जगह वो बैठता था उस जगह को सोने का स्पर्श पाये पानी से धोना और फिर गोबर से लीपना जरूरी होता था ।फिर उस जगह पर और घरवालों पर गो‍मूत्र छिड़कना आवश्यक माना जाता था । "

आगे की कहानी नायक के जीवन पथ पर संघर्ष की कथा है । डूम जाति के इस लड़के का पढ़ाई में अव्वल आना उसे लखनऊ पहुँचा देता है। यहीं प्रवेश होता है उसके जीवन में एक ब्राह्मण कन्या और साथ‍ साथ साम्यवादी विचारधारा का । नायक आस ये लगाता है कि क्रान्ति लाने के बाद वो कन्या से अन्तरजातीय विवाह भी कर लेगा और अपने मार्क्सवादी काका की आखिरी इच्छा को भी पूरा करेगा। पर समय के साथ नायक के मस्तिष्क में चल रही योजना मानसिक उथल-पुथल का शिकार हो जाती है।युवावस्था में नायक के मन में चल रहे इस द्वन्द को जोशी जी ने वखूबी इन शब्दों में समेटा है

"हुआ ये कि बी. ए. के द्वितीय वर्ष में पहुँचने के बाद नायक ने ये खोज की कि यद्यपि किसी के साथ कुछ करना चाहने और किसी के साथ बस होना चाहने में जबरदस्त अंतर है और सर्वथा निरपेक्ष भाव से किसी के साथ होने में ही प्रेम की सार्थकता है तथापि साथ होते हुए भी साथ कुछ न करना पौरुष की विकट परीक्षा है। सभी समस्याओं का समाधान करने वाली क्रान्ति बस होने ही वाली है इसमें सन्देह नहीं, किन्तु इस देह में उठा विप्लव उस क्रान्ति की प्रतीक्षा कर सकता है इसमें पर्याप्त संदेह है ।"

जोशी जी का नायक प्रेम की विफलता और साम्यवादी विचारधारा में बढ़ती सुविधाभोगी संस्कृति से इस कदर विक्षुब्ष होता है कि वापस अपनी जड़ों में जाकर क्रान्ति का मार्ग ढ़ूंढ़ने की कोशिश करता है। स्थापना होती है एक गुरुकुल की जिसकी पहली पौध से मेधातिथि जोशी और हरध्यानु बाटलागी जैसे छात्र निकलते हैं । जोशी जी कैसे इन छात्रों की हत्या को पूर्व संदर्भ से जोड़ते हैं उस रहस्य को रहस्य ही बने रहने देना ही अच्छा है ।

जोशी जी का व्यंग्यात्मक लहजा हमेशा से धारदार रहा है और जगह जगह इसकी झलक हमें इस पुस्तक में देखने को मिलती है । क्रान्ति की विचारधारा के राह से भटकने का मलाल लेखक को सालता रहा है । पुस्तक के इस कथन में उनके दिल का दर्द साफ झलकता है

"क्या चीन का लाल सितारा इसीलिए चमका था कि एक दिन विराट बाजार के रूप में चीन की बात सोच -सोच कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गालों के सेहत की लाली चमकने लगे? क्या तेलंगाना आन्दोलन को लेकर क्रान्तिकारी कविताएँ इसलिए लिखी गईं थीं कि हैदराबाद का सी.एम. एक दिन का सी.ई.ओ. कहलाने पर खुश हो ।"

जोशी जी का लेखन सीधा और सटीक है पर काँलेज के दिनों से हत्याकांड तक वापस लाते समय पाठक की रुचि को बाँधे रखने में वो पूर्णतः विफल रहे हैं । यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी कमजोरी है। खुद जोशी जी उपन्यास के अंत में पाठकों से कहते हैं

"आप कहेंगे कि यह कथा तो क्याप जैसी हुई ! धैर्य धन्य पाठकों वही तो रोना है।"

और यही रोना रोते हुए मैंने भी ये उपन्यास समाप्त किया ।

पुस्तक के बारे में
नाम - क्याप
लेखक - स्व. मनोहर श्याम जोशी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन
पुरस्कार - वर्ष २००६ के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
मूल्य - ६० रुपये

श्रेणी: किताबें बोलती हैं में प्रेषित

बुधवार, अक्तूबर 04, 2006

ओ साथी रे... दिन डूबे ना ..!

रातें कटतीं ना थीं या यूँ कहें रातों को कटने देना कोई चाहता ही नहीं था । पर भई प्रेमियों के लिये ये कोई नई बात तो रही नहीं सो अब उन्होंने दिन को अपना निशाना बनाया है । और क्या खूब बनाया है कि मुआ सूरज भी उनकी गिरफ्त में आ गया । अब चिंता किस बात की जब सूरज ही शिकंजे में हो । अब उनका हाथ अपने हाथ में ले कर धूप और छाँव के साथ जितना मर्जी कट्टी-पट्टी खेलो कौन रोकेगा भला ।

गुलजार एक ऐसे गीतकार है जिनकी कल्पनाएँ पहले तो सुनने में अजीब लगती हैं पर ऐसा इसलिए होता है कि उनकी सोच के स्तर तक उतरने में थोड़ा वक्त लगता है । पर जब गीत सुनते सुनते मन उस विचार में डूबने लगता है तो वही अनगढ़ी कल्पनाएँ अद्भुत लगने लगती हैं। इसलिये उनके गीत के लिये कुछ ऐसा संगीत होना चाहिए जो उन भावनाओं में डूबने में श्रोता की मदद कर सके । गुलजार के लिये पहले ये काम पंचम दा किया करते थे और इस चलचित्र में बखूबी ये काम विशाल कर रहे हैं।



पार्श्व गायन की बात करें तो श्रेया की मधुर आवाज में जो शोखी और चंचलता है वो इस गीत के रोमांटिक मूड को और प्रभावी बनाती है।
वहीं विशाल की ठहरी आवाज गीत के बहाव को एक स्थिरता सी देती है। कुल मिलाकर गीत, संगीत और गायन मिलकर मन में ऐसे उतरते हैं कि इस गीत के प्रभाव से उबरने का मन नहीं होता ।

ओऽऽ साथी रे दिन डूबे ना
आ चल दिन को रोकें
धूप के पीछे दौड़ें
छाँव छाँव छुए ना ऽऽ
ओऽऽ साथी रे ..दिन डूबेऽऽ ना


थका-थका सूरज जब, नदी से हो कर निकलेगा
हरी-हरी काई पे , पाँव पड़ा तो फिसलेगा
तुम रोक के रखना, मैं जाल गिराऊँ
तुम पीठ पे लेना मैं हाथ लगाऊँ
दिन डूबे ना हा ऽ ऽऽ
तेरी मेरी अट्टी पट्टी
दाँत से काटी कट्टी
रे जइयोऽ ना, ओ पीहू रे
ओ पीहू रे, ना जइयो ना

कभी कभी यूँ करना, मैं डाँटू और तुम डरना
उबल पड़े आँखों से मीठे पानी का झरना
हम्म, तेरे दोहरे बदन में, सिल जाऊँगी रे
जब करवट लेगा, छिल जाऊँगी रे
संग लेऽ जाऊँऽगाऽ

तेरी मेरी अंगनी मंगनी
अंग संग लागी सजनी
संग लेऽऽ जाऊँऽ

ओऽऽ साथी रे दिन डूबे ना
आ चल दिन को रोकें
धूप के पीछे दौड़ें
छाँव छुए नाऽऽ
ओऽऽ साथी रे ..दिन डूबेऽऽ ना


चलचित्र - ओंकारा
गीतकार - गुलजार
संगीतकार - विशाल भारद्वाज
पार्श्व गायन - श्रेया घोषाल एवं विशाल भारद्वाज


मंगलवार, अक्तूबर 03, 2006

आइए सैर करायें आपको राँची की दुर्गा पूजा की !

स्कूल - कॉलेज के जमाने में पटना के दशहरा महोत्सव को देखने का खूब आनन्द उठाया है । एक समय था जब पटना में शास्त्रीय संगीत, नृत्य, गजल और कव्वाली की महफिलें दशहरा महोत्सव के दिनों आम हुआ करती थीं । यही वक्त हुआ करता था जब हम अपने चहेते कलाकारों को करीब से देख-सुन सकते थे। पर जैसे-जैसे कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने लगी इस तरह का आयोजन करवा पाना किसी के बूते की बात नहीं रही । इस साल नयी सरकार ने अपनी ओर से जो इस सांस्कृतिक उत्सव को शुरु करने की पहल की है वो निश्चय ही कलाप्रेमियों के लिए खुशी की बात है । बचपन के कुछ दशहरे कानपुर में भी बीते हैं पर वहाँ का रंग कुछ अलग था यानि राम- सीता की झांकियाँ, राम लीला और फिर रावण दहन ।

तो क्या कुछ अलग होता है राँची में ?
दुर्गा पूजा पंडालों की संख्या के मामले में पटना ,राँची से कहीं आगे है पर पंडालों के आकार और भव्यता की बात करें तो राँची की दुर्गा पूजा पर कलकत्ता से आये कारीगरों की छाप स्पष्ट दिखती है।
भीड़ की धक्का मुक्की से बचने के लिये आजकल सब यही सोचते हैं कि जितनी देर से घूमने का कार्यक्रम शुरु किया जाए उतना ही अच्छा । पर चूंकि ज्यादातर लोगों की सोच यही हो गई है भीड़ २-२.३० बजे से पहले छटने का नाम नहीं लेती । पूरा शहर उमड़ पड़ता है सड़कों पर । खैर चलिये इस चिट्ठे पर ही सही आप सब को भी ले चलूँ कुछ खींचे गए चित्रों के माध्यम से राँची की दुर्गा पुजा की इस सैर पर !

३० सितंबर की मध्य रात्रि थी । बारिश ९ बजे आकर दुर्गा पूजा के रंग में भंग डाल चुकी थी, पर शायद माता के क्रुद्ध होने से इन्द्र को अपनी बादलों की सेना को तितर बितर होने का आदेश देना पड़ा था। और बारह बजने के साथ ही हम चल पड़े थे माँ दुर्गा के दर्शन हेतु। पिछले १० सालों में इतनी रात में दशहरा घूमने का राँची में ये मेरा पहला अवसर था ।

पंडालों में कही अक्षरधाम दिखायी पड़ा तो कहीं अलीबाबा की गुफा में से खुल जा सिम-सिम की आवाज के साथ खुलता द्वार । कहीं सीप से बने पंडाल थे तो कहीं धान के तिनकों से की गई थी आतंरिक साज सज्जा । पर सबसे भव्य पंडाल जिसे राजस्थान के राज पैलेस की शक्ल का बनाया गया था मन को मोह गया ! खुद ही देखें।













और यहाँ देखें इसी पंडाल के अंदर की कारीगरी












ध्वनि और प्रकाश के समायोजन के बीच होता हुआ महिसासुर वध !














२.३० बजे रात्रि में भी मस्ती का आलम














सड़कों पर रोशनी की बहार

शनिवार, सितंबर 30, 2006

शादी का इंटरव्यू - भाग : २

शादी के लिये मेरे माता-पिता ने वही पुराना चिरपरिचित नुस्खा अपनाया यानि इश्तिहार देने का। वैसे भी तब तक अंतरजाल पर शादी कराने वालों की फौज पैदा नहीं हुई थी । नतीजन जब भी हर महिने जब मैं घर जाता बॉयोडाटा और तस्वीरों के साथ लिफाफे का एक पुलिंदा तैयार मिलता । इसके आलावा हमारे व्यक्तित्व की टोह लेने के लिये हमारे संभावित ससुर ओर साले भी आते जाते रहते थे ।

एक दिन ऐसी ही एक बुलाहट हुई और मैं आलस में स्लीपिंग सूट पहन कर नीचे आ गया । आगुंतक मुंबई से तशरीफ लाये थे और अपने आप को लड़की का भाई बता रहे थे । कुछ तसवीरों को बढ़ा कर कहने लगे मेरी बहन का फेस कट बहुत कुछ जूही चावला से मिलता है हाँ पर संस्कार विशुद्ध घरेलू लड़कियों वाले हैं। मन हुआ पूछूँ कि आपको जूही चावला के संस्कारों की कमियों की जानकारी कहाँ से मिल गई । जानता था कि ऐसा कह कर वो लड़कों की सुंदर,सुशील,घरेलू वाली मानसिकता पर निशाना साध रहा है। खैर अभी उसकी बातों का मूल्यांकन कर ही रहा था कि अचानक जेब से कैमरा निकाल कर वो बोल पड़ा If you don't mind.....और हमारी धड़ाधड़ दो तसवीरें खिंच गईं । खीसें निपोरते मैं इतना ही कह पाया कि यार पहले बताते तो कम से कम ये कपड़े तो बदल कर ही आता ।

जैसा कि आम तौर पर नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय परिवार में होता है मेरे घर में पढ़ाई लिखाई पर हमेशा से जोर रहा, सो सबकी राय यही थी कि सिर्फ उन्हीं रिश्तों को प्रश्रय दिया जाए जिन लड़कियों का शैक्षणिक लेखा-जोखा बेहतर हो । खैर माता-पिता जुट गए अपने काम में और सारे प्रस्तावों में तीन लड़कियों को चुना। अब आगे की जिम्मेवारी मेरी थी । मुझे निर्णय लेने में कोई जल्दी नहीं थी, सो मैं साक्षात्कार के समय को आगे बढ़ाता गया। पर ऐसे ही एक दशहरे पर घर गया तो खबर मिली कि उन तीन में से एक ने अल्टीमेटम दे रखा है कि जो भी फैसला लेना है दशहरे तक ले लें अन्यथा....। अब परिस्थतियाँ कुछ ऐसी बनीं कि मुझे एक ही दिन में ये तीनों इंटरव्यू लेने या देने थे।

पहली कन्या को उसके घर जाकर ही देखना था । अभिभावकों के शुरू के सामान्य प्रश्नों के बाद हम दोनों से कहा गया कि अब आप आपस में बात कर लें । मैंने उसकी पढ़ाई से बात शुरु की । फिर पूछा कि इंटर में विज्ञान लेने और अच्छे अंक प्राप्त करने के बाद आपने स्नातक में इतिहास क्यूँ लिया । पहले तो उसने खास कुछ कहा नहीं पर फिर दुबारा घुमा कर वही सवाल करने पर मासूमियत से बोली कि इंटर में तो उस साल परीक्षा में चोरी चली थी इसलिये अच्छे अंक आ गए, पर आगे मुझसे विज्ञान नहीं चलने वाला था सो इतिहास ले लिया ।मैं आज तक इस बात को भूल नहीं पाया कि ये जानते हुए भी कि ऐसा कहकर वो अपनी छवि को खराब कर रही है , उसने झूठ का सहारा नहीं लिया । इसके बाद मैंने कहा कि मेरे बारे में कुछ जानना चाहें तो पूछें । वो चुप रही । मैंने फिर कुदेरा अरे आप मेरे बारे में नहीं जानेंगी तो फिर कैसे निर्णय लेंगी कि मैं आपके लायक हूँ या नहीं । सर झुकाए वो हल्के से मुस्कुराते हुए बोली कि अगर इस तरह सोच कर हम लड़कों को सेलेक्ट-रिजेक्ट करते रहे तो हमारी शादी तो होने से रही ।इससे पहले कि आप सब इस कन्या से हुये सवाल जवाब पर अपनी राय बनाएँ ये बता दूँ कि वो लड़की बिहार के छोटे से जिले में रही और पढ़ी थी।

सुबह के इस अनुभव के बाद दिन का साक्षात्कार था Neutral teritory में यानि मेरे शहर के बोटानिकल गार्डन में ।लड़की पटना के एक अच्छे कॉलेज की छात्रा थी और वहीं हॉस्टल में रहती थी । वहाँ उनके किसी रिश्तेदार का घर ना होने की वजह से ये जगह चुनी गई थी । अभिभावकों के पहले कुछ प्रश्नों का जवाब उसने अतिविश्वनीयता से दिया । और पापा ने रुचियों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि गजलें सुनती हूँ । ये सुन कर हमें अपना दिल हिलोलें मारता सुनाई पड़ा क्योंकि दिल में बड़ी तमन्ना थी कि हमारा भावी हमसफर इस शौक में हमारा जोड़ीदार रहे । अब पिताजी को क्या सूझी पूछ दिया कोई गजल सुना दो । हमने देखा कि उधर से कोई जवाब नहीं आया तो पहली बार मैदान में कूदते हुए बोले कि इन्होंने कहा कि सुनती हैं, गाती नहीं और वैसे भी पापा आप खुद ही कहाँ गजल सुनते हैं जो पूछ रहे हैं । सब हँस पड़े और फिर पिताजी ने कमान तुरंत मेरी तरफ थमा दी कि भई तुम्हीं पूछो । छूटते ही हमने अपना हमेशा का प्रश्न दागा कि आपने अपने भावी पति के कौन से गुण सबसे ज्यादा मायने रखते हैं यानि जिसके बारे में आपकी पहले से कोई कल्पना हो ।

जवाब लंबा था पर सार यही कि मैं जिस तरह के सामान्य रहन सहन वाले घर से हूँ वहाँ पर हम ज्यादा स्वप्न नहीं देखा करते, मैं एक शिक्षक बनना चाहती हूँ और बस इतना चाहूँगी कि मुझे ये करने के लिये supportमिलता रहे।

पहले दोनों साक्षात्कार एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत थे अलग तरह के व्यक्तित्व, अलग तरह की सोच....पर वक्त ज्यादा नहीं था । दिमाग पर अधिक जोर डाले बिना चल पड़े अपने अंतिम गन्तव्य की ओर ।

तीसरा इंटरव्यू बहुत कुछ पहले की तरह शुरु हुआ । लड़्की शांत प्रकृति की लग रही थी पर कुछ सहमी हुई भी ।१० मिनट लगे हमारी बातों में सहजता आने में । कन्या ने बातो. के संक्षिप्त उत्तर सुनाये ।
जैसे लड़के......मायने , उत्तर मिला
co-operative होना चाहिए
नौकरी करना चाहेंगी
कोशिश करूँगी । वैगेरह वैगेरह
इधर उधर की बातों के बाद हम यहाँ पर से भी कूच कर चले दिन भर की बातों को मन ही मन सोचते हुए ।

तो ये कहानी थी शादी के लिये दिये गए मेरे साक्षात्कारो की । अब इस आधार पर हमें आगे का निर्णय लेना था । खैर बात को अगर व्यक्तिगत स्तर से हटाकर सामाजिक स्तर पर लाया जाए तो एक प्रश्न सहज ही मस्तिष्क में उत्पन्न होता है ।
मेरा सवाल आप सब से बस इतना है कि साक्षात्कार के ये ३० - ४० मिनट क्या किसी को समझने आंकने के लिये पर्याप्त हैं खासकर तब जब एक पक्ष ने इसे पूरी तरह परिवार वालों के निर्णय पर छोड़ दिया है ?

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शनिवार, सितंबर 23, 2006

शादी का इंटरव्यू - भाग :१

शादियाँ तो हर किसी की देर-सबेर होती ही रहती हैं। २५-२६ साल की उम्र पार हुई नही कि ये विपदा पास आने लगती है। अब इससे पहले अगर आप ने कुछ कर करा लिया हो तो बात अलग है नहीं तो माता पिता की शरण में जाना ही पड़ता है कि बाबूजी अब आप ही हमारी नैया पार लगाओ । शादी के इस सामाजिक पर्व के पहले एक मजेदार सा आयोजन हुआ करता है । जी हाँ, सही पहचाना आपने यानि शादी के लिए लिया गया इंटरव्यू ! अपने हिन्दी चिट्ठा जगत के खालीपीली जी इसी दौर से गुजर रहे लगते हैं ।

अब इस इंटरव्यू को सिविल सर्विस की प्रतियोगिता परीक्षा से कम तो नही पर समकक्ष जरूर आँकना चाहिए । देखिये ना कितनी समानता है वहाँ पूरी परीक्षा तीन चरणों में होती है तो यहाँ साक्षात्कार ही तीन चरणों में होता है (पहले वर के पिता और उनके करीबी, फिर अगले चरण में घर की महिलायें और और अंतिम चरण में दूल्हे राजा खुद) अब इस परीक्षा के परिणाम की जिंदगी की दशा और दिशा संवारने में कितनी अहमियत है ये तो हम सभी जानते हैं।

बात अस्सी के दशक की है। मेरी मौसी की शादी की बातें चल रही थी । अब ये बात कितनी ही हास्यास्पद क्यूँ ना लगे पर मुझे अच्छी तरह याद है कि एक ऐसे ही साक्षात्कार में बाकी प्रश्नों के आलावा ये भी पूछा गया कि Postman पर essay लिख के दिखायें ।अब उन्होंने क्या लिखा ये तो याद नहीं पर वापस आने पर उनकी आँखें नम जरूर हो गयी थीं । कुछ ही साल बाद हमारे यहाँ मेरी दीदी की शादी के लिये एक सज्जन ने अंग्रेजी ज्ञान जांचने के लिये वही पुराना घिसापिटा प्रश्न दागा यानि
Write a letter to your father asking him for money to meet your expenses.
अब ये प्रश्न ,स्नातक के छात्र के लिये किसी भी मायने में कठिन नहीं हैं, पर जब कोई व्यक्ति डरा सहमा सजा संवरा ऐसे किसी विसुअल स्क्रूटनी के लिये बैठता है तो इस तरह के प्रश्नों पर वो अपने भावों में संतुलन कैसे बना पाता होगा ये सोचने की बात है । छोटा जरूर था पर ये सब देख के उस वक्त मुझे बेहद गुस्सा आया करता था । कल्पना करता कि अगर सभी सुसज्जित परिधानों से लैस एक कोने में दीदी लोगों के बजाए मुझे बैठाया जाता तो मेरी क्या दशा होती ।

साक्षात्कार का इस पहले चरण से निबट लें तो दूसरे चरण में वर पक्ष की महिलाओं को झेलना पड़ता है । कभी कपड़े बदल कर आओ, कभी चल के दिखाओ..वैगेरह‍-वेगेरह। दो तीन साल पहले की बात है मेरे एक दोस्त के यहाँ साड़ी देने के बहाने लोगों ने खुद ही साड़ी पहनाने की जिद ठान ली । मूल उद्देश्य तो खैर लड़की में किसी शारीरिक खामी को ढ़ूंढना था ।
और रही वर मित्रों की बात तो उनकी तो चाँदी होती है, शौक जानने के नाम पर दुनिया भर के सवाल दाग लो भले ही खुद कभी ना कोई शौक पाला हो !

अरेन्जड मैरिज के लिये ये सारे प्रकरण जरूरी हैं, इस बात से मुझे इनकार नहीं । पर ये सारा काम एक सहज वातावरण में हो तो कितना अच्छा हो । पर सहजता आए तो कैसे खासकर तब जब पलड़ा हमेशा वर पक्ष का ही भारी रहता हो। कम से कम इन अनुभवों से मैंने यही निश्चय किया था कि अपनी शादी के समय इन बातों का ध्यान रखूँगा । कितना रख पाया मैं ध्यान और कैसा रहा मेरा इंटरव्यू ये जानते हैं अगली किश्त में....

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मंगलवार, सितंबर 19, 2006

झेलिये एक कविता मेरी भी...

अमूमन कविता मैं लिखता नहीं पर आप सोच रहे होंगे कि फिर आज ये कैसे लिख डाली ! तो क्या बताऊँ अपनी महफिल में कविताओं की अंत्याक्षरी में एक अक्षर 'थ' बहुत दिनों से सीना ताने खड़ा था, गर्व से इठलाता हुआ कि याद है कोई हम से शुरू होने वाली रचना। खैर हमें तो कोई रचना याद ना आई पर रचना जी ने पेश कर दी अपनी इक रचना ।पर मुसीबत ये थी कि वो भी 'थ' से शुरू हो कर 'थ' पर खत्म । इधर हम दो हफ्ते बहुत ही व्यस्त रहे पर आकर देखते हैं कि कविराज जोशी जी ने उसी कविता को और आगे बढ़ाया है पर मजाल है की 'थ' को अपनी जगह से हटा पाये हों। मुआ 'थ' ना हुआ अंगद का पाँव हो गया। हमने भी ठान ली कि आज ४ पंक्तियाँ ही सही पर कुछ लिख डालें ताकि ये 'थ' की बला टले !

अब पहली चार पंक्तियाँ लिखीं तो सोचा क्यूँ ना इस विचार को आगे बढ़ाकर एक कविता की शक्ल दें । इसका नतीजा आपके सामने है , ज्यादा बुरी लगे तो अपनी सारी गालियाँ अक्षर 'थ' पर केंद्रित कर दीजिएगा ।:)

कल्पना और यथार्थ



थाम कर के बादलों का काफिला
मन हुआ छुप जाऊँ मैं उनके तले
देख लूँगा ओट से उस चाँद को
मखमली सी चाँदनी बिखेरते

कहते हो तुम लुकाछिपी क्या खेल है ?
शोभता है क्या तुम्हें ये खेलना
मिलो जीवन के यथार्थ से
समझो कि क्या है जगत की वेदना

सुनो ! बात तुमने है कही सही
ख्वाब का आँचल पकड़ कर के हमें
जीवन को कभी नहीं है तोलना
खुद के स्वप्नों में करनी नहीं
परिजनों के सुख-दुख की अवहेलना

पर तुम ही कहो ये भी कोई बात है?
स्वप्न देखा है जिसने नहीं
कल्पना की उड़ान पर जो ना उड़ा
दूसरों का दर्द समझेगा क्या भला ?
जिसके मन-मस्तिष्क से मर गई संवेदना !

सो निर्भय हो के ऊँचे तुम उड़ो
सपनों की चाँदनी को तुम चखो
पर लौटना तो ,पाँव धरातल पर हो खड़े
है करना अब हम सबको यही जतन
जीवन में कैसे हो इनका संतुलन

मनीष कुमार

मंगलवार, अगस्त 29, 2006

कहाँ गए संगीत के सुर ! मर गई क्या मेलोडी ?

जी नहीं ये प्रश्न मैं नहीं बल्कि हमारे अग्रज श्री जी.के.अवधिया जी पूछ रहे हैं हम सबसे परिचर्चा पर !

अवधिया जी मेरे मन में ये कहते हुये जरा भी संदेह नहीं कि भारत जैसे देश में संगीत की लय ना कभी मरी थी ना कभी मरेगी। समय के साथ साथ हमारे फिल्म संगीत में बदलाव जरूर आया है। ५० के दशक के बाद से इसमें कई अच्छे-बुरे उतार-चढ़ाव आये हैं । पर आपका ये कहना कि आज का संगीतकार 'मेलॉडियस' संरचना शायद करना ही नहीं चाहता सत्य से कोसों दूर है। इससे पहले कि मैं आज के संगीतकारों के बारे में आपकी राय पर कुछ प्रतिक्रिया दूँ फिल्म संगीत के अतीत पर नजर डालना लाजिमी होगा ।

इसमें कोई शक नहीं पुरानी फिल्मों के गीत इतने सालों के बाद भी दिल पर वही तासीर छोड़ते हैं ।
नौशाद, शंकर जयकिशन, एस. डी. बर्मन जैसे कमाल के संगीतकारों,
सहगल, सुरैया, गीता दत्त, लता, रफी, मुकेश, हेमंत, आशा, किशोर जैसे सुरीले गायकों
और राज कपूर, विमल राय, महबूब खान और गुरूदत जैसे संगीत पारखी निर्माता निर्देशकों ने ५० से ७० के दशक में जो फिल्म संगीत दिया वो अपने आप में अतुलनीय है। इसीलिये इस काल को हिन्दी फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जाता है । ये वो जमाना था जब गीत पहले लिखे जाते थे और उन पर धुनें बाद में बनाई जाती थीं ।

वक्त बदला और ७० के दशक में पंचम दा ने भारतीय संगीत के साथ रॉक संगीत का सफल समावेश पहली बार 'हरे राम हरे कृष्ण' में किया । वहीं ८० के दशक में बप्पी लाहिड़ी ने डिस्को के संगीत को अपनी धुनों का केन्द्रबिन्दु रखा । मेरी समझ से ८० का उत्तरार्ध फिल्म संगीत का पराभव काल था । बिनाका गीत माला में मवाली, हिम्मतवाला सरीखी फिल्मों के गीत भी शुरु की पायदानों पर अपनी जगह बना रहे थे । और शायद यही वजह या एक कारण रहा कि उस समय के हालातों से संगीत प्रेमी विक्षुब्ध जनता पहली बार गजल और भजन गायकी की ओर उन्मुख हुई। जगजीत सिंह, पंकज उधास, अनूप जलोटा, तलत अजीज, पीनाज मसानी जैसे कलाकार इसी काल में उभरे।

९० का उत्तरार्ध हिन्दी फिल्म संगीत के पुनर्जागरण का समय था । पंचम दा तो नहीं रहे पर जाते जाते १९४२ ए लव स्टोरी (१९९३) का अमूल्य तोहफा अवश्य दे गए । कविता कृष्णामूर्ति के इस काव्यात्मक गीत का रस अवधिया जी आपने ना लिया हो तो जरूर लीजि॓एगा

क्यूँ नये लग रहे हें ये धरती गगन
मेंने पूछा तो बोली ये पगली पवन
प्यार हुआ चुपके से.. ये क्या हुआ चुपके से

मेंने बादल से कभी, ये कहानी थी सुनी
पर्वतों से इक नदी, मिलने से सागर चली
झूमती, घूमती, नाचती, दौड़ती
खो गयी अपने सागर में जा के नदी
देखने प्यार की ऍसी जादूगरी
चाँद खिला चुपके से..प्यार हुआ चुपके से..


पुरानी फिल्मों से आज के संगीत में फर्क ये है कि रिदम यानि तर्ज पर जोर ज्यादा है। तरह तरह के वाद्य यंत्रों का प्रयोग होने लगा है। धुनें पहले बनती हैँ, गीत बाद में लिखे जाते हैं। नतीजन बोल पीछे हो जाते हैं और सिर्फ बीट्स पर ही गीत चल निकलते हैं।
ऐसे गीत ज्यादा दिन जेहन में नहीं रह पाते। पर ये ढर्रा सब पर लागू नहीं होता ।

१९९५-२००६ तक के हिन्दी फिल्म संगीत के सफर पर चलें तो ऐसे कितने ही संगीतकार हैं जिन पर आपका कथन आज का संगीतकार 'मेलॉडियस' संरचना .................बिलकुल सही नहीं बैठता । कुछ बानगी पेश कर रहा हूँ ताकि ये स्पष्ट हो सके कि मैं ऐसा क्यूँ कह रहा हूँ।

साल था १९९६ और संगीतकार थे यही ओंकारा वाले विशाल भारद्वाज और फिल्म थी माचिस ! आतंकवाद की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म का संगीत कमाल का था ! भला

छोड़ आये हम वो गलियाँ.....
चप्पा चप्पा चरखा चले.. और
तुम गये सब गया, मैं अपनी ही मिट्टी तले दब गया


जैसे गीतों और उनकी धुनों को कौन भूल सकता है ?

इसी साल यानि १९९६ में प्रदर्शित फिल्म इस रात की सुबह नहीं में उभरे एक और उत्कृष्ट संगीतकार एम. एम. करीम साहब ! एस. पी. बालासुब्रमण्यम के गाये इस गीत और वस्तुतः पूरी फिल्म में दिया गया उनका संगीत काबिले तारीफ है

मेरे तेरे नाम नहीं है
ये दर्द पुराना है,
जीवन क्या है
तेज हवा में दीप जलाना है

दुख की नगरी, कौन सी नगरी
आँसू की क्या जात
सारे तारे दूर के तारे, सबके छोटे हाथ
अपने-अपने गम का सबको साथ निभाना है..
मेरे तेरे नाम नहीं है.....


१९९९ में आई हम दिल दे चुके सनम और साथ ही हिन्दी फिल्म जगत के क्षितिज पर उभरे इस्माइल दरबार साहब ! शायद ही कोई संगीत प्रेमी हो जो उनकी धुन पर बने इस गीत का प्रशंसक ना हो

तड़प- तड़प के इस दिल से आह निकलती रही....
ऍसा क्या गुनाह किया कि लुट गये,
हां लुट गये हम तेरी मोहब्बत में...



पर हिन्दी फिल्म संगीत को विश्व संगीत से जोड़ने में अगर किसी एक संगीतकार का नाम लिया जाए तो वो ए. आर रहमान का होगा । रहमान एक ऐसे गुणी संगीतकार हैं जिन्हें पश्चिमी संगीत की सारी विधाओं की उतनी ही पकड़ है जितनी हिन्दुस्तानी संगीत की । जहाँ अपनी शुरुआत की फिल्मों में वो फ्यूजन म्यूजिक (रोजा, रंगीला,दौड़ ) पेश करते दिखे तो , जुबैदा और लगान में विशुद्ध भारतीय संगीत से सारे देश को अपने साथ झुमाया। खैर शांत कलेवर लिये हुये मीनाक्षी - ए टेल आफ थ्री सिटीज (२००४) का ये गीत सुनें

कोई सच्चे ख्वाब दिखाकर, आँखों में समा जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
जब सूरज थकने लगता है
और धूप सिमटने लगती है
कोई अनजानी सी चीज मेरी सांसों से लिपटने लगती है
में दिल के करीब आ जाती हूँ , दिल मेरे करीब आ जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है


२००४ में एक एड्स पर एक फिल्म बनी थी "फिर मिलेंगे" प्रसून जोशी के लिखे गीत और शंकर-एहसान-लॉय का संगीत किसी भी मायने में फिल्म संगीत के स्वर्णिम काल में रचित गीतों से कम नहीं हैं। इन पंक्तियों पर गौर करें

खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे
बूंदों को धरती पर साज एक बजाने दे
हवायें कह रहीं हैं, आ जा झूमें जरा
गगन के गाल को चल जा के छू लें जरा

झील एक आदत है, तुझमें ही तो रहती है
और नदी शरारत है तेरे संग बहती है
उतार गम के मोजे जमीं को गुनगुनाने दे
कंकरों को तलवों में गुदगुदी मचाने दे


और फिर २००५ की सुपरिचित फिल्म परिणिता में आयी एक और जुगल जोड़ी संगीतकार शान्तनु मोइत्रा और गीतकार स्वान्द किरकिरे की !
अंधेरी रात में परिणिता का दर्द क्या इन लफ्जो में उभर कर आता है

रतिया अंधियारी रतिया
रात हमारी तो, चाँद की सहेली है
कितने दिनों के बाद, आई वो अकेली है
चुप्पी की बिरहा है, झींगुर का बाजे साथ


गीतों की ये फेरहिस्त तो चलती जाएगी। मेंने तो अपनी पसंद के कुछ गीतों को चुना ये दिखाने के लिये कि ना मेलोडी मरी है ना कुछ हट कर संगीत देने वाले संगीतकार।

हमारे इतने प्रतिभावान संगीतकारों और गीतकारों के रहते हुये आज के संगीत से आपकी नाउम्मीदी उनके साथ न्याय नहीं है । मैं मानता हूँ कि हीमेश रेशमिया जैसे जीव अपनी गायकी से आपका सिर दर्द करा देंते होंगे पर वहीं सोनू निगम और श्रेया घोषाल की सुरीली आवाज भी आपके पास हैं। अगर एक ओर अलताफ रजा हें तो दूसरी ओर जगजीत सिंह भी हैं । अगर आपको MTV का पॉप कल्चर ही आज के युवाओं का कल्चर लगता है तो एक नजर Zee के शो सा-रे-गा-मा पर नजर दौड़ाइये जहाँ युवा प्रतिभाएँ हिन्दी फिल्म संगीत को ऊपर ले जाने को कटिबद्ध दिखती हैं ।

सच कहूँ तो आज जैसी विविधता संगीत के क्षेत्र में उपलब्ध है वैसी पहले कभी नहीँ थी । संगीत की सीमा देश तक सीमित नहीं, और जो नये प्रयोग हमारे संगीतकार कर रहे हैँ उन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें खुले दिल से सुनना चाहिए। जब तक संगीत को चाहने वाले रहेंगे, सुर और ताल कभी नहीं मरेंगे । जरूरत है तो संगीत के सही चुनाव की।

श्रेणी : अपनी बात आपके साथ में प्रेषित

बुधवार, अगस्त 23, 2006

धर्मवीर भारती की मर्मस्पर्शी रचना : 'गुनाहों का देवता '

कौन सा गुनाह ? कैसा गुनाह ?
किसी से जिंदगी भर स्नेह रखने का...
और वो स्नेह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने लगे तो उसका त्याग करने का...
है ना अजीब बात !
पर यही तो किया चंदर ने अपनी सुधा के साथ ।
इस भुलावे में कि दुनिया प्यार की ऐसी पवित्रता के गीत गाएगी...
प्यार भी कैसा...

"सुधा घर भर में अल्हड़ पुरवाई की तरह तोड़-फोड़ मचाने वाली सुधा, चंदर की आँख के एक इशारे से सुबह की नसीम की तरह शांत हो जाती थी। कब और क्यूँ उसने चंदर के इशारों का यह मौन अनुशासन स्वीकार कर लिया था, ये उसे खुद भी मालूम नहीं था और ये सब इतने स्वाभाविक ढंग से इतना अपने आप होता गया कि कोई इस प्रक्रिया से वाकिफ नहीं था.......... दोनों का एक दूसरे के प्रति अधिकार इतना स्वाभाविक था जैसे शरद की पवित्रता या सुबह की रोशनी.... "
और अपनी इस सुधा को ना चाहते हुये भी उसने उस राह में झोंक दिया जिस पर वो कभी नहीं चलना चाहती थी । सुधा तो चुपचाप दुखी मन से ही सही उस राह पर चल पड़ी और चंदर...

क्या चंदर का बलिदान उसे देवता बना पाया?

जो समाज के सामने अपने प्यार को एक आदर्श, एक मिसाल साबित करना चाहता था वो अपने खुद के अन्तर्मन से ना जीत सका । और जब अपने आपको खुद से हारता पाया तो अपना सारा गुस्सा, सारी कुंठा उन पे निकाली जिनके स्नेह और प्रेम के बल पर वो अपने व्यक्तित्व की ऊँचाईयों तक पहुँच पाया था।

तो क्या चंदर को अपनी भूल का अहसास हुआ ?
क्या वो समझ पाया कि कहाँ उसका जीवन दर्शन उसे धोखा दे गया?

पर ये भी तो सच है ना कि जिंदगी में बहुत सी बातें वक्त रहते समझ नहीं आतीं । और जब समझ आती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
चंदर हम सब से अलग तो नहीं !


चंदर ने यही गलती की कि अपने प्यार को यथार्थ के धरातल या जमीनी हकीकत से ऊपर कर के देखा, एक आदर्श प्रेम की अवधारणा को लेकर जो भीतर से खोखली साबित हुई। अपने दुख को पी कर वो जीवन में कुछ कर पाता तो भी कुछ बात थी। पर वो तो बुरी तरह कुंठित हो गया अपने आप से अपने दोस्तों से....सुधा उसे इस कुंठा से निकाल तो सकी पर किस कीमत पर ?


बहुत आश्चर्य होता है कि क्यूँ हम नहीं समझ पाते कि कभी कभी मामूली शख्स बन के जीने में ही सबसे बड़ी उपलब्धि है ! क्या हम वही बन के नहीं रह सकते जो हम सच्ची में हैं। अपने को दूसरों की नजर में ऊँचा साबित करने के लिये अपने आप को छलाबा देना कहाँ तक सही है?

किताब के बारे में
धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता सबसे पहले १९५९ में प्रकाशित हुई । हिन्दी साहित्य के दिग्गज इस उपन्यास को पात्रों के चरित्र -चित्रण के लिहाज से हिन्दी में लिखे हुये सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक मानते हैं । अब तक इस उपन्यास के तीस से भी ज्यादा संस्करण छापे जा चुके हें और ये सिलसिला बदस्तूर जारी है ।

पिछले साल जून में इस उपन्यास को पढ़ा था और तभी ये पोस्ट अपने रोमन हिंदी चिट्ठे पर प्रकाशित की थी । जैसी की उम्मीद थी इसके कथानक ने मुझे हिला कर रख दिया था । सुधा की मौत को पचा पाना कितना दुष्कर था ये इस कथानक को पढ़ने वाला भली - भांति जानता है । और ऐसा अनुभव अकेला मेरा हो ऐसी बात नहीं , इस
पोस्ट पर मिली प्रतिक्रियाएँ इस बात की गवाह हैं कि पढ़ने वाला सुधा, चंदर, पम्मी, विनती के चरित्र से इस कदर जुड़ जाता है कि उनके कष्ट को अपने अंदर ही होता महसूस करता है।

खुद धर्मवीर भारती जी कहते है कि इस उपन्यास को लिखते समय उन्होंने वैसी भावनाएँ महसूस कीं जैसी कोई घोर विपदा में पूरी श्रृद्धा के साथ प्रार्थना करने में महसूस करता है .. उन्हें ऍसा लगा की वो प्रार्थना उनके हृदय में समाहित है और खुद बा खुद उसे वो दोहरा रहे हों ।

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किताबें बोलती हैं में प्रेषित

शनिवार, अगस्त 19, 2006

मन्नू भंडारी की अनुपम कृति 'महाभोज'

मन्नू भंडारी के इस उपन्यास को पहली बार 1986 में पढ़ा था । पिछले हफ्ते राँची के ठंडे माहौल को छोड़ कर पटना जाना पड़ा । वहाँ की चिपचिपाती गर्मी से निजात पाने के लिये इधर उधर निरुद्देश्य भटक रहा था तो सहसा अलमारी से ये पुस्तक झांकती मिली ।


कहानी तो अब बिलकुल याद नहीं थी पर ये जरूर याद था कि पहली बार पढ़ते वक्त ये किताब मन को बहुत भायी थी। डॉयरी के पन्नों में इस किताब के नाम के आगे मैंने तीन स्टार जड़े थे । और बाद में जब भंडारी जी का लिखा हुआ उपन्यास 'आप का बंटी' पढ़ा था तब से मन्नू जी मेरी चहेती लेखिका बन गईं थीं।

200 पृष्ठों से भी कम की इस पुस्तक को दुबारा पढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा और इस बात की खुशी भी हुई कि इस किताब को फिर से पढ़ने का मौका मिल पाया । तो आइए ले चलें आपको इस उपन्यास के कथानक की ओर ! ये कहानी है विकास के हाशिये से बाहर खड़े एक गाँव सरोहा की ! एक ऐसा गाँव जहाँ बाहुल्य तो है हरिजनों का, पर तूती बोलती है जाटों की । यहीं मौत होती है एक पढ़े लिखे हरिजन नवयुवक बिसू की । वैसे तो बिसू एक सामान्य नागरिक की तरह गुमनामी की मौत मरा होता, पर परम गौरवशाली भारतीय लोकतंत्र की एक परम्परा ने ऐसा होने नहीं दिया। बिसू की मौत के कुछ दिनों पहले ही सरोहा में उपचुनाव की घोषणा हो चुकी थी । और जैसा की होता है विरोधी दल हाथ में आए इस सुनहरे मौके को कैसे जाने देते ।
कहानी आगे बढ़ती है...शुरु होती है बिसू की मौत की तहकीकात...

या यूँ कहें कि एक आम से शख्स के करीबियों से किया गया क्रूर मजाक !
राजनीतिक रस्साकशी के इस माहौल में इस दुखद मौत पर सारे पक्ष अपनी अपनी गोटियाँ सेंकते नजर आते हैं। 
चाहे वो मुख्यमंत्री हों जो जनता का ध्यान बिसू की हत्या से हटाने के लिए, लोक लुभावन योजना का चारा डालता हो...
या विरोधी जो कत्ल के राजनीतिक लाभ के लिये जातिगत वैमनस्य को बढ़ाने से नहीं चूकते...
या आला अफसर जो केस की तह तक जाने वालों को प्रताड़ित कर अपनी पदोन्नति के रास्ते साफ करते चले जाते हैं...
या फिर मीडिया जो कागज के परमिट बढ़बाने की चाह में रातों रात सरकार की नीतियों के मुखर प्रशंसक बन जाते हैं...

लोकतंत्र के तले एक ऍसा घृणित राजनीतिक चक्र जिसमें एक हत्या , आत्महत्या बताई जाती है और फिर कुछ और .......
खैर वो बताना नहीं बताना ज्यादा मायने नहीं रखता उसे उपन्यास में ही पढ़ लीजिएगा ।

पर गौर करने वाली बात ये है कि 1979  में लिखे इस उपन्यास को पढ़कर नहीं लगता कि हम 30 वर्ष पहले की स्थितियों से गुजर रहे हैं। उपन्यास के हर एक चरित्र को आज भी हम सब अपने इर्द-गिर्द घूमता महसूस कर सकते हैं। एक बेहद सशक्त उपन्यास जो हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की खामियों और निरंतर घटते राजनीतिक मूल्यों की झलक दिखलाकर मन को कचोटता हुआ सा जाता है ।

बुधवार, अगस्त 09, 2006

आँखों की कहानी : शायरों की जुबानी (भागः2)

पिछली बार बात कर रहे थे कि किस तरह जब कोई हमारी आँखें पढ़ लेता है तो मन पुलकित हो उठता है। पर बात यहीं खत्म हो जाती तो फिर लुत्फ किस बात का था। अरे, आँखों या नजरों का इक इशारा प्यार की खुशबू बिखेरने के लिए काफी है। इसीलिये तो निदा फॉजली साहब कहते हैं

उनसे नजरें क्या मिलीं रौशन फिजाएँ हो गयीं
आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज है

खुलती जुल्फों ने सिखाई मौसमों को शायरी
झुकती आँखों ने बताया महकशीं क्या चीज है

पर क्या आँखों का मोल सिर्फ इशारों तक है? नहीं जी, किसी की खूबसूरत आँखों को एक आशिक की नजरों से देखें तो आप भी शायद ये गीत गाने पर मजबूर हो जाएँ

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है
ये उठें सुबह चले, ये झुकें शाम ढ़लें
मेरा जीना, मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले...


और अमजद इस्लाम अमजद तो महबूब की आँखों के सामने ही रात दिन एक करने पर तुले हैं

सोएँगे तेरी आँख की खिलवत में किसी रात
साये में तेरी जुल्फ के जागेंगे किसी दिन


पर शुरु शुरु में अपने महबूब की ओर आँख उठा कर देखना आसान है क्या ?
अब इन्हें ही देखिये दिल में प्यार की शमा जल चुकी है पर ये हैं कि अभी भी निगाहें मिलाने से कतरा रहे हैं
हसरत है कि उनको कभी नजदीक से देखें
नजदीक हो तो आँख उठायी नहीं जाती
चाहत पे कभी बस नहीं चलता है किसी का
लग जाती है ये आग लगाई नहीं जाती


पर हुजूर एक बार अगर किसी से आँखों ही आँखों में बात हो भी जाये तो भी क्या कम मुसीबतें हैं। कभी तो उनकी बड़ी बड़ी आँखों का काजल दिल की धड़कनों को बढ़ाता है तो कभी आँखों आँखों में हुई वो मुलाकातें दिल में घबराहट पैदा करती हैं। बरसों पहले डॉयरी के पन्नों पे लिखी अपनी एक तुकबन्दी याद आती है

उसकी आँखों का वो काजल
जैसे गगन में काले बादल
उमड़ें घुमड़ें हाय ! मन मेरा घबराए

आँखों आँखों की वो बातें
वो नन्ही छोटी मुलाकातें
बरबस याद आ जाएँ, मन मेरा घबराए


पर ये आतुरता भरी घबराहट भी ऐसा जादू बिखेरती है कि अपनी आँखें भी किसी और की हो जाती हैं! यकीन नहीं आता तो इस नज्म की इन पंक्तियों पर गौर फरमाएँ ।

कहो वो दश्त कैसा था?
जिधर सब कुछ लुटा आये
जिधर आँखें गँवा आये
कहा सैलाब जैसा था, बहुत चाहा कि बच निकलें, मगर सब कुछ बहा आए !

कहो वो चाँद कैसा था?
फलक से जो उतर आया तुम्हारी आँख में बसने
कहा वो ख्वाब जैसा था, नहीं ताबीर थी उसकी, उसे इक शब सुला आए.. !

पर क्या आँखों से सिर्फ प्रेम की धारा बहती है?
नहीं हरगिज नहीं ! आँखें जितना दिखाती हैं उतना ही छुपा भी सकती हैं। और फिर आँसुओं की जननी भी तो ये आँखें ही हैं ना !
अगली कड़ी में देखेंगे की कैसे करती हैं आखें भावों की लुकाछिपी और क्या होता है जब उन पर चढ़ता है उदासी का रंग.....

इस श्रृंखला की पिछली कड़ी पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

मंगलवार, अगस्त 08, 2006

आँखों की कहानी : शायरों की जुबानी (भागः१)

आँखें ऊपरवाले की दी हुई सबसे हसीन नियामत हैं। शायद ही जिंदगी का कोई रंग हो जो इनके दायरे से बाहर रहा हो। यही वजह है कि शायरों ने इन आँखों में बसने वाले हर रंग को, हर जज्बे को किताबों के पन्नों में उतारा है। तो आज से शुरू होने वाले इस सिलसिले में पेश है शायरों की जुबानी, इन बहुत कुछ कह जाने वाली आँखों की कहानी..

आखें देखीं तो में देखता रह गया
जाम दो और दोनों ही दो आतशां
आँखें या महकदे के ये दो बाब हैं
आँखें इनको कहूँ या कहूँ ख्वाब हैं
बाब-दरवाजा

आँखें नीचे हुईं तो हया बन गयीं
आँखें ऊँची हुईं तो दुआ बन गयीं
आँखें उठ कर झुकीं तो अदा बन गयीं
आँखें झुक कर उठीं तो कजा बन गयीं
कजा किस्मत
आँखें जिन में हैं मह्व आसमां ओ जमीं
नरगिसी, नरगिसी, सुरमयी, सुरमयी...

मह्व - तन्मय
यूं तो कहते हैं कि आँखें दिल का आइना होतीं हैं पर उसे पढ़ने के लिये एक संवेदनशील हृदय चाहिये। अगर कोई बिना बोले आपकी मन की बात जान ले तो कितना अच्छा लगता है ना ! अब खुमार बाराबंकवी साहब की आँखें - देखिये किसने पढ़ लीं ?

वो जान ही गये कि हमें उन से प्यार है
आँखों की मुखबिरी का मजा हम से पूछिये

किसी का प्यारा चेहरा हो, और सामने हो उस चेहरे को पढ़ती दो निगाहें तो जवां दिलों के बीच का संवाद क्या शक्ल इख्तियार करता है वो मशहूर शायरा परवीन शाकिर की जुबां सुनिये

चेहरा मेरा था, निगाहें उस की
खामोशी में भी वो बातें उस की
मेरे चेहरे पर गजल लिखती गईं
शेर कहती हुईं आँखें उस की


खुशी की चमक हो या उदासी के साये सब तुरंत आँखों में समा जाता है।

कभी तो ये किसी की याद से खिल उठती हैं......

तेरी आँखों में किसी याद की लौ चमकी है
चाँद निकले तो समंदर पे जमाल आता है


तो कभी किसी के पास ना होने का गम उन्हें नम कर देता है

शाम से आँख में नमी सी है
आज फिर आप की कमी सी है


पर आँखों की ये भाषा हर किसी के पल्ले नहीं पड़ती। अगर ऍसा नहीं होता तो नजीर बनारसी के मन में भला ये संदेह क्यूँ उपजता ?

मेरी बेजुबां आँखों से गिरे हैं चंद कतरे
वो समझ सके तो आँसू, ना समझ सके तो पानी


अब इन्हें भी तो अपने महबूब से यही शिकायत है

पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैँ मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा
वो मेरे मसायल को समझ ही नहीं सकता
जिस ने मेरी आँखों में समंदर नहीं देखा


पर ऐसा भी नहीँ है कि इस समंदर को महसूस करने वाले शायरों की कमी है।
एक तरफ तो जनाब अमजद इस्लाम अमजद इसकी गहराई में उतरना चाहते हैं....

जाती है किसी झील की गहराई कहाँ तक
आँखों में तेरी डूब के देखेंगे किसी दिन

.......तो फराज अपनी आखिरी हिचकी इन आँखों के समंदर में लेने की ख्वाहिश रखते हैं

डूब जा उन हसीं आँखों में फराज
बड़ा हसीन समंदर है खूदकुशी के लिये
और इन हजरात का ख्याल भी कोई अलग नहीं
अपनी आँखों के समंदर में उतर जाने दे
तेरा मुजरिम हूँ , मुझे डूब कर मर जाने दे


तो हुजूर आज के किये तो इतना ही... आँखों की ये दास्तान तो अभी चलती रहेगी क्योंकि

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं
इन आँखों के वाबस्ता अफसाने हजारों हैं
इक सिर्फ हमीं मय को आँखों से पिलाते हैँ

कहने को तो दुनिया में महखाने हजारों हैं


इस श्रृंखला की अगली कड़ियाँ

आँखों की कहानी : शायरों की जुबानी - भाग 2, भाग 3

बुधवार, अगस्त 02, 2006

'अभिव्यक्ति' पर मेरी पहली अभिव्यक्ति !

कल का दिन मेरे लिये अपार हर्ष का था । सुबह जब मेल बॉक्स खो ला तो देखा कि पूर्णिमा जी ने सूचना भेजी है कि मेरा सिक्किम का यात्रा विवरण अभिव्यक्ति के १ अगस्त के अंक में छप रहा है। मन खुशी से फूला ना समाया और तुरंत नाते रिश्तेदारों को खबर भिजवायी कि हमें भी लेखक बनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया है। मन ही मन उन दोस्तों को भी धन्यवाद दिया जिन्होंने सिक्किम चलने का सुझाव दिया था। वैसे तो सिक्किम का यात्रा विवरण सुना-सुना कर मैंने आप सबको महिनों बोर किया था पर जो मेरे इस अनर्गल प्रलाप से पतली गली से साफ बच निकले हों उनके लिये अभिव्यक्ति की ये कड़ी पुनः परोस रहा हूँ ।

सिक्किम के सफर पर....

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