शनिवार, मार्च 31, 2007

'फैज' : राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के स्वर -बोल ...,कुत्ते, हम देखेंगे, फकत चंद रोज मेरी जान !

फैज की इक खासियत थी कि जब भी वो अपना शेर पढ़ते उनकी आवाज कभी ऊँची नहीं होती थी । दोस्तों की झड़प और आपसी तकरार उनके शायरी के मूड को बिगाड़ने के लिए पर्याप्त हुआ करती थी। पर उनके स्वभाव की ये नर्मी कभी भी तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर अपनी लेखनी के माध्यम से चोट करने में आड़े नहीं आई ।१९४७ में विभाजन से मिली आजादी के स्वरूप से वो ज्यादा खुश नहीं थे । उनकी ये मायूसी इन पंक्तियों से साफ जाहिर है

ये दाग दाग उजाला , ये शब-गजीदा* सहर
वो इंतजार था जिसका वो सहर तो नहीं


ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं
फलक** के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल

*कष्टभरी ** आसमान

फैज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे । पाकिस्तान में सर्वहारा वर्ग के शासन के लिए वो हमेशा अपनी नज्मों से आवाज उठाते रहे। बोल की लब आजाद हैं तेरे....उनकी एक ऐसी नज्म है जो आज भी जुल्म से लड़ने के लिए आम जनमानस को प्रेरित करने की ताकत रखती है । इसीलिए पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ये उतनी ही लोकप्रिय है जितनी की पाक में । टीना सानी की आवाज में इस नज्म को सुनें, मेरा यकीन है कि इसमें कही गई बात आपके दिल तक पहुँचेगी


बोल कि लब आजाद हैं तेरे
बोल, जबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां* जिस्म हे तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
* तना हुआ


देख कि आहनगर* की दुकां में
तुन्द** हैं शोले, सुर्ख है आहन^
खुलने लगे कुफलों के दहाने^^
फैला हर जंजीर का दामन

*लोहार, ** तेज, ^लोहा, ^^तालों के मुंह

बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्मों जबां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल कि जो कहना है कह ले


लियाकत अली खाँ की सरकार का तख्ता पलट करने की कम्युनिस्ट साजिश रचने के जुर्म में १९५१ में फैज पहली बार जेल गए । जेल की बंद चारदीवारी के पीछे से मन में आशा का दीपक उन्होंने जलाए रखा ये कहते हुए कि जुल्मो-सितम हमेशा नहीं रह सकता ।

चन्द रोज और मेरी जान ! फकत* चन्द ही रोज !
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास** है माजूर*** हैं हम

*सिर्फ **पुरखों की बपौती *** विवश

जिस्म पर कैद है, जज्बात पे जंजीरे हैं
फिक्र महबूस है* , गुफ्तार पे ताजीरें** हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
जिंदगी क्या है किसी मुफलिस की कबा*** है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
* विचारों पर कैद ** बोलने पर प्रतिबंध *** गरीब का कुर्ता

लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं


जेल से ही वो शासन के खिलाफ आवाज उठाते रहे । वो चाहते थे पाकिस्तान में एक ऐसी सरकार बने जो आम लोगों की आंकाक्षांओं का प्रतिनिधित्व करती हो । बगावत करने को उकसाती उनकी ये नज्म पाक में काफी मशहूर हुई । कहते हैं जब भी किसी मंच पर इकबाल बानो उनकी इस नज्म को गाते हुए जब ये कहतीं सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे, दर्शक दीर्घा से समवेत स्वर में आवाजें आतीं...."हम देखेंगे"
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हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां*
रुई की तरह उड़ जाएँगे
दम महकूमों** के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम*** के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम अहल-ए-सफा^, मरदूद-ए-हरम^^
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
.........और राज करेगी खुल्क-ए-खुदा^^^
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
* भारी पहाड़ **शोषितों *** सत्तारुढ़ ^पवित्र लोग ^^जिनकी चरमपंथियों ने निंदा की ^^^आम जनता

अपने समाज के दबे कुचले ,बेघर,बेरोजगार, आवारा फिरती आवाम में जागृति जलाने के उद्देश्य से फैज ने प्रतीतात्मक लहजे में उनकी तुलना गलियों में विचरते आवारा कुत्तों से की। किस तरह आम जनता राजIनतिज्ञों, नौकरशाहों के खुद के फायदे के लिए उनकी चालों में मुहरा बन कर भी अपना दर्द चुपचाप सहती रहती है, ये नज्म उसी ओर इशारा करती है।

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको जौके गदाई*
जमाने की फटकार सरमाया** इनका
जहां भर की दुतकार इनकी कमाई
ना आराम शब को ना राहत सवेरे
गलाजत*** में घर , नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मजलूम मखलूक^ गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशीं^^ भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसासे जिल्लत^^^ दिला ले
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे
*भीख मांगने की रुचि **संचित धन ***गंदगी ^ आम जनता ^^घमंड ^^^ अपमान की अनुभुति
फैज को विश्वास था कि गर आम जनता को अपनी ताकत का गुमान हो जाए तो वो बहुत कुछ कर सकती है । पर उनका ये स्वप्न, स्वप्न ही रह गया । कम्युनिस्ट विचारधारा को वो अपने ही मुल्क में प्रतिपादित नहीं कर पाए । अपने जीवन के अंतिम दशक में वो बहुत कुछ इस असफलता को स्वीकार कर चुके थे । १९७६ की उनकी ये रचना बहुत कुछ उसी का संकेत करती है।

वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मशरूफ* रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
व्यस्त*

फैज ने अपनी शायरी में रूमानी कल्पनाओं का जाल बिछाया पर अपने इर्द गिर्द के राजनीतिक और सामाजिक माहौल को भी उतना ही महत्त्व दिया । एक ओर बगावत का बिगुल बजाया तो दूसरी ओर प्रेयसी की याद के घेरे में उपमाओं का हसीन जाल भी बुना ।इसलिए समीक्षकों की राय में रूप और रस. प्रेम और राजनीति, कला और विचार का जैसा सराहनीय समन्वय आधुनिक उर्दू शायरी में फैज का है उसकी मिसाल खोज पाना संभव नहीं है ।
समाप्त ।

  • फैज़ अहमद फ़ैज भाग:१, भाग: २, भाग: ३



  • मंगलवार, मार्च 27, 2007

    'फैज' : रूमानी कल्पनाओं के तिलिस्म से दूर यथार्थ की खोज -भाग:2

    पिछली पोस्ट में मैंने जिक्र किया था फैज के जीवन और लेखन से जुड़ी कुछ बातों का । तो आज आगे बढ़ें इस सफर पर...
    फैज की शायरी के बारे में नामी समीक्षक प्रकाश पंडित
    कहते हैं कि उनकी अद्वितीयता आधारित है उनकी शैली के लोच और मंदगति पर , कोमल. मृदुल और सौ -सौ जादू जगाने वाले शब्दों के चयन पर, तरसी हुई नाकाम निगाहें और आवाज में सोई हुई शीरीनियां ऐसी अलंकृत परिभाषाओं और रूपकों पर, और इन समस्त विशेषताओं के साथ गूढ़ से गूढ़ बात कहने के सलीके पर ।

    अगर फैज की उपमाओं की खूबसूरती का आपको रसास्वादन करना हो तो उनकी नज्म 'गर मुझे इसका यकीं हो , मेरे हमदम मेरे दोस्त' की इन पंक्तियों पर गौर फरमाएँ...आपका मन उनकी कल्पनाशीलता को दाद दिए बिना नहीं रह पाएगा

    कैसे मगरूर* हसीनाओं के बर्फाब से जिस्म
    गर्म हाथों की हरारत से पिघल जाते हैं
    कैसे इक चेहरे के ठहरे हुए मानूस नुकूश**
    देखते देखते यकलख्त*** बदल जाते हैं
    *दंभी **परिचित नैन नक्श ***एकाएक

    किस तरह आरिजे-महबूब का शफ्फाक बिलूर*
    यक-ब-यक बादा-ए-अहमर** सा दहक जाता है
    कैसे गुलचीं^ के लिए झुकती है खुद शाख-ए - गुलाब
    किस तरह रात का ऐवान ^^महक जाता है
    *स्वच्छ कांच सदृश प्रेयसी के कपोल **शराब की लाली ^ फूल चुनने वाले ^^महल

    टीना सानी की आवाज में इस दिलकश नज्म को आप यहाँ सुन सकते हैं ।



    १९७८ में फैज मास्को में थे। उन्हीं दिनों उन्होंने तेलंगाना आंदोलन में शिरकत करने वाले प्रगतिशील शायर मोइनुद्दीन मखलूम की गजल से प्रेरित होकर एक गजल लिखी थी आपकी याद आती रही रात भर...। उसके चंद शेर जो मुझे पसंद हैं

    आपकी याद आती रही रात भर
    चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर

    गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
    शम-ए-गम झिलमिलाती रही रात भर

    एक उम्मीद पर दिल बहलता रहा
    एक तमन्ना सताती रही भर



    शायद वो यादे ही थीं जिसने फैज के जेल में बिताये हुए चार सालों में हमेशा से साथ दिया था । इसी प्रवास के दौरान उन्होंने एक नज्म लिखी थी 'याद' जो कि बेहद चर्चित हुई थी ।

    दश्ते- तनहाई* में ऐ जाने- जहाँ लर्जां **हैं
    तेरी आवाज के साये, तेरे होठों के सराब***
    दश्ते- तनहाई में , दूरी के खसो - खाक^ तले
    खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन ^^ और गुलाब

    *एकांत का जंगल ** कांपती हुई *** मरीचिका ^घास मिट्टी ^ ^ चमेली

    इस कदर प्यार से ऐ जाने-जहां रक्खा है
    दिल के रुखसार* पे इस वक्त तेरी याद ने हाथ
    यूं गुमां होता है, गरचे है अभी सुब्हे-फिराक**
    ढ़ल गया हिज्र^ का दिन, आ भी गई वस्ल की रात^^
    *कपोल **विरह की सुबह ^वियोग ^^मिलन

    इकबाल बानो की आवाज में इस नज्म को सुनने का लुत्फ ही कुछ और है ।


    पर पुरानी यादों ने हमेशा फैज की शायरी में मधुर स्मृतियाँ ही जगाईं ऐसा भी नहीं है । वसंत आया तो बहार भी आई। पर अपनी खुशबू के साथ उन बिखरे रिश्तों, अधूरे ख्वाबों और उन अनसुलझे सवालों के पुलिंदे भी ले आई जिनका जवाब अतीत से लेकर वर्तमान के पन्नों में कहीं भी नजर नहीं आता ।

    बहार आई तो जैसे इक बार
    लौट आए हैं फिर अदम* से
    वो ख्वाब सारे, शबाब सारे
    जो तेरे होठों पर मर मिटे थे
    जो मिट के हर बार फिर जिए थे
    निखर गए हैं गुलाब सारे
    जो तेरी यादों से मुश्क- बू** हैं
    जो तेरे उश्शाक*** का लहू हैं

    *जमे हुए, मृत ** कस्तूरी की तरह सुगंधित *** आशिकों

    उबल पड़े हैं अजाब* सारे
    मलाल ए अहवाल ए दोस्तां** भी
    खुमार ए आगोश ए माहवशां*** भी
    गुबार ए खातिर के बाब सारे
    तेरे हमारे
    सवाल सारे, जवाब सारे
    बहार आई है तो खुल गए हैं
    नए सिरे से हिसाब सारे
    * दुख, पीड़ा ** दोस्तों के बुरे हालात के दृश्य *** चद्रमा सा सुंदर

    टीना सानी की आवाज़ में इस नज़्म को सुनना एक बेहद प्यारा सा अनुभव है..

    पर फैज ने अपनी शायरी को सिर्फ रूमानियत भरे अहसासों में कैद नहीं किया ।वक्त बीतने के साथ उन्होंने ये महसूस किया कि शायरी को प्यार मोहब्बत की भावनाओं तक सीमित रखना उसके उद्देश्य को संकुचित करना था । उनकी नज्म मेरे महबूब मुझसे पहली सी मोहब्बत ना माँग ... उनके इसी विचार को पुख्ता करती है ।

    मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग

    मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा* है हयात**
    तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर*** का झ़गडा क्या है
    तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात^
    तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
    *प्रकाशमान, ** जिंदगी ***सांसारिक चिंता ^ स्थायित्व

    तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं *हो जाए (*सिर झुका ले)
    यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
    और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
    राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

    अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म*
    रेशमों- अतलसो- कमख्वाब में बुनवाये हुए
    जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
    खाक में लिथडे** हुए, ख़ून में नहलाए हुए
    *सदियों से चला आ रहा अंधकारमय तिलिस्म **धूल से सना हुआ

    जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
    पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
    लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
    अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
    और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
    राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
    मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग !


    जब फैज साहब ने नूरजहाँ की आवाज में इस नज्म को सुना तो इतने प्रभावित हुए कि उसके बाद सबसे यही कहा कि आज से ये नज्म नूरजहाँ की हुई ।



    फैज कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक थे । अपनी शायरी में सामाजिक हालातों के साथ साथ फैज की ये कोशिश भी रही कि कि अपनी लेखनी से आम जनमानस व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित कर सकें । सामाजिक और राजनैतिक हलचल पैदा करने वाली इन नज्मों की चर्चा करूँगा इस कड़ी के अगले और अंतिम भाग में ।


  • फैज़ अहमद फ़ैज भाग:१, भाग: २, भाग: ३
  • शुक्रवार, मार्च 23, 2007

    फैज अहमद 'फैज' की गजलों और नज्मों का सफर : भाग १


    फैज अहमद 'फैज' आधुनिक उर्दू शायरी के वो आधारस्तम्भ है, जिन्होंने अपने लेखन से इसे एक नई ऊँचाई दी । १९११ में सियालकोट में जन्मे फैज ने अपनी शायरी में सिर्फ इश्क और सौंदर्य की ही चर्चा नहीं की, बल्कि देश और आवाम की दशा और दिशा पर भी लिखते रहे । शायरी की जुबान तो उनकी उर्दू रही पर गौर करने की बात है कि अंग्रेजी और अरबी में भी उन्होंने ३० के दशक में प्रथम श्रेणी से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। शायद यही वजह रही कि उनकी गजलें और नज्में अरबी फारसी के शब्दों का बहुतायत इस्तेमाल हुआ है।

    पढ़ाई लिखाई खत्म हुई तो पहले अमृतसर और बाद में लाहौर में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए । १९४१ में इन्होंने एक अंग्रेज लड़की एलिस जार्ज से निकाह किया । और मजेदार बात ये रही कि ये निकाह और किसी ने नहीं बल्कि अपने शेख अबदुल्ला ने पढ़वाया था । १९४१ में फैज का पहला कविता संग्रह नक्शे फरियादी प्रकाशित हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फैज सेना में शामिल हो गए । आजादी के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा का अपने देश में प्रचार प्रसार करते रहे । लियाकत अली खाँ की सरकार के तख्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में १९५१‍ - १९५५ तक कैद में रहे । जिंदगी के इस मोड़ में जो कष्ट, अकेलापन और उदासी उन्होंने झेली वो इस वक्त लिखी गई उनकी नज्मों में साफ झलकती है । ये नज्में बाद में बेहद लोकप्रिय हुईं और "दस्ते सबा ' और ' जिंदानामा' नाम से प्रकाशित हुईं ।

    फैज की शायरी से मेरा परिचय पहली बार तब हुआ जब अंतरजाल पर करीब तीन वर्ष पूर्व उर्दू शायरी की एक महफिल में जाना शुरु किया । तब इनकी एक नज्म गर मुझे इसका यकीं हो...सामने से गुजरी थी और कठिन लफ्जों की वजह से उसकी हर पंक्ति के मायने समझने में मुझे अच्छा खासा वक्त लगा था । पिछले तीन सालों में उनका लिखा जो मुझे खास तौर से पसंद आया वो मेरी कोशिश रहेगी की आपके साथ बांटूँ ।

    जैसा की अमूमन होता है, अन्य शायरों की तरह शुरुआती दौर में हुस्न और इश्क ही फैज की शायरी का सबसे बड़ा प्रेरक रहा ।नक्शे फरियादी की शुरुआती नज्म में वो कहते हैं ।

    रात यूँ दिल में खोई हुई याद आई
    जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए
    जैसे सहराओं में हौले से चले बाद ए नसीम *
    जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए

    *हल्की हवा


    नैयरा नूर की आवाज़ में इसे सुनने का लुत्फ़ ही अलग है।


    अपने हमराज के बदलते अंदाज के बारे में फैज का ये शेर देखें
    यूँ सजा चाँद कि झलका तेरे अंदाज का रंग
    यूँ फजा महकी कि बदला मेरे हमराज का रंग


    और इस रूमानी गजल के इन शेरों की तो बात ही क्या !


    शाम ए फिराक अब ना पूछ आई और आ के टल गई
    दिल था कि फिर बहल गया , जां थी कि फिर संभल गई

    जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक महक उठी
    जब तेरा गम जगा लिया, रात मचल मचल गई

    दिल से तो हर मुआमलात करके चले थे साफ हम
    कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई

    पर फैज की एक गजल जो मुझे बेहद पसंद है वो है हम कि ठहरे अजनबी.....। इसे सुन कर मन बोझल तो जरूर हो जाता है पर जाने क्या असर है फैज के लफ्जों और नैयरा नूर की दिलकश आवाज का कि इसे बार बार सुनने की इच्छा यथावत बनी रहती है ।



    हम कि ठहरे अजनबी इतनी मदारातों* के बाद
    फिर बनेंगे आशनां कितनी मुलाकातों के बाद
    *आवाभगत


    कब नजर में आएगी बेदाग सब्जे* की बहार
    खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
    *खेत

    दिल तो चाहा पर शिकस्त ए दिल ने मोहलत ना दी
    कुछ गिले शिकवे भी कर लेते मुनाजातों * के बाद
    *प्रार्थना

    थे बहुत बेदर्द लमहे खत्म ए दर्द ए इश्क के
    थीं बहुत बेमहर* सुबहें मेहरबां रातों के बाद
    *मुश्किल

    उनसे जो कहने गए थे फैज जां सदका किये
    अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद


    फैज ने अपनी कविता का विषय यानि मौजूं-ए-सुखन पर यहाँ तक कह दिया था


    लेकिन उस शोख के आहिस्ता से खुलते हुए होठ
    हाए उस जिस्म के कमबख्त दिलावेज खुतूत
    आप ही कहिए कहीं ऐसे भी अफसूं (जादू) होंगे
    अपना मौजूए सुखन इनके सिवा और नहीं
    तब ए शायर* का वतन इनके सिवा और नहीं
    *शायरी की प्रवृति
    पर बाद में फैज देश और अपने आस पास के हालातों से इस कदर प्रभावित हुए कि कह बैठे

    इन दमकते हुए शहरों की फरावां मखलूक (विशाल जनता)
    क्यों फकत मरने की हसरत में जिया करती है
    ये हसीं खेत, फटा पड़ता है जोबन जिनका
    किसलिए इन में फकत (सिर्फ) भूख उगा करती है


    इस प्रविष्टि के अगले भाग में चर्चा करेंगे उनकी अन्य नज्मों के साथ उस नज्म की जिसे रचने के बाद उन्होंने अपने आप को रूमानियत भरी शायरी से थोड़ा दूर कर लिया था ।


  • फैज़ अहमद फ़ैज भाग:१, भाग: २, भाग: ३
  • मंगलवार, मार्च 20, 2007

    जो तुम आ जाते एक बार !


    छायावादी कवियों से स्कूल के दिन में हम सब बहुत दूर भागते थे । एक तो उनकी रचनाएँ सर के ऊपर से गुजरती थीं और दूसरे इन कविताओं के भावार्थ रटने में सबके हाथ पैर फूल जाते थे । जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा सरीखे कवि हमारे मन में प्रेम रस की बजाए आतंक ज्यादा उत्पन्न करते थे । पर कितना फर्क आ गया है तब और अब में। आज उम्र की इस दलहीज पर इन्हीं कवियों की रचनाएँ मन को पुलकित करती हैं ।

    महादेवी जी की इस रचना को ही लें --- उस प्यारे से आगुंतक के लिए प्रतीक्षारत व्याकुल मन से निकलती ये भावनाएँ हृदय को सहजता से छू लेती हैं।
    आज इनका भावार्थ बताने के लिए मास्टर साहब के नोट्स देखने की जरूरत नहीं, बस दिल का दर्पण ही काफी है।

    जो तुम आ जाते एक बार !


    कितनी करुणा, कितने संदेश
    पथ में बिछ जाते बन पराग
    गाता प्राणों का तार तार
    आँसू लेते वे पद
    खार !

    हँस उठते पल में आर्द्र नयन
    धुल जाता ओठों का विषाद,
    छा जाता जीवन में वसन्त
    लुट जाता चिर संचित विराग

    आँखें देतीं सर्वस्व वार
    जो तुम आ जाते एक बार !

    बुधवार, मार्च 14, 2007

    अमृता प्रीतम का कहानी संग्रह "दो खिड़कियाँ" - भाग :2

    इस कहानी संग्रह की शुरु की कहानियों और एक लघु उपन्यास की चर्चा मैंने पिछली पोस्ट में की थी । आज इस पोस्ट में अगली कुछ कहानियों की बात करते हैं ।

    अमृता जी का लिखा पढ़ते वक्त एक काव्यात्मक प्रवाह की अनुभूति होती है । यहीं देखिए अपनी एक नायिका की चढ़ती उम्र के साथ बढ़ते एकाकीपन का क्या खाका खींचा है उन्होंने

    वह और उसकी उम्र मिलकर नहीं चल रही थी । उम्र लगातार और पूरे हिसाब से पैर रख-रख कर चल रही थी, पर वह आप जैसे बेहिसाब हो गई थी। उम्र तप रही थी, पर वह खुद शांत और ठंडी...
    उसकी उम्र जलती आग सरीखी थी, पर लकड़ी की आग की तरह नहीं, जिसे हवा का झोंका ऊँचा कर जाए, या कोई फूँक और दहका दे। वह ठंडे शीशे में लिपटी हुई आग की तरह थी, जिससे उसके इर्द-गिर्द उजाला हो जाता था पर जिसके साथ पल्लू छुआने से पल्लू जलता नहीं था ।

    जिंदगी में मशहूर होने, सब के द्वारा सराहे जाने की इच्छा तो हर किसी व्यक्ति के मन में होती ही है। फर्क सिर्फ इस बात में आता है कि सपनों मे देखे गए उस आकर्षक व्यक्तित्व को पाने के लिए हम किस तरह का यत्न करते हैं । अमृता जी की पाँचवी कथा एक ऍसे दिग्भ्रमित लड़की की सच्ची केस स्टडी है जो अपने बगल में रहने वाली मिस डी को मिलने वाले स्नेह को खुद पाने की चाहत रखती थी । मिस डी की लोकप्रियता उसके दिल में उसके लिए नफरत जगाती थी । इस नफरत को मिटाने के लिए वो किन हदों से गुजरती है इसका चित्रण अमृता जी ने बखूबी किया है.

    मैं तृप्त थी - कि वह, जो उसके तन को चाहते थे, मेरे तन से तृप्त हुए, और यही सबसे बड़ा सुबूत था कि मैं, वह थी ।
    ऐसा करते वक्त खुदा जानता है, मुझे किसी गुनाह का अहसास नहीं होता था । सिर्फ एक विश्वास आता था कि मैं, वह हूँ ।
    वह नहीं समझती, कभी नहीं समझेगी कि इन घटनाओं से उसके लिए मेरे मन में नफरत खत्म हो रही थी ।
    मैं जानती हूँ कि जब तक मैं, मैं थी, उतनी देर तक एक बहुत बड़ा फासला था, और वही फासला नफरत था । अब वह फासला मिट रहा था, इसलिए नफरत मिट रही थी .. मेरे लिए वह, जैसे एक जिस्म में नहीं, दो जिस्मों में जी रही थी...

    कहानी संग्रह के अंत में अमृता जी ने एक नया प्रयोग किया है कुछ मशहूर विश्व उपन्यासों के पात्रों की मनोदशा समझने का । इस प्रयोग के बारे में वो कहती हैं

    दुनिया के कुछ उपन्यासों के वह पात्र जिनके अस्तित्व को लगा - मैंने किसी घड़ी बहुत पास से छूकर देखा है । सिर्फ छू कर नहीं उसके वजूद से गुजरकर भी । उनकी कुछ साँस अपनी छाती में डालकर और उनके होठों की बात अपने होठों पर रखकर कुछ कहना चाहा है ।
    इन पात्रों में चार्ल्स डिकेन्स की पत्नी कैथरीन और ऐन रेंड की लोकप्रिय पुस्तक फाउन्टेन हेड की मेलरी भी शामिल हैं।

    राजकमल प्रकाशन के इस उपन्यास का मूल्य मात्र तीस रुपये है । इतने कम मूल्य में इतना अच्छा साहित्य मिलना मेरे लिए अचरज की बात थी । मेरी राय यही है कि इस कहानी संग्रह को आप सब जरूर पढ़ें ।

    मंगलवार, मार्च 13, 2007

    अमृता प्रीतम की 'दो खिड़कियाँ ' औरतों के आपसी रिश्तों को कुरेदती एक अनुपम कृति !

    अमृता प्रीतम के गद्य लेखन का आनंद शायद ही किसी साहित्य प्रेमी पाठक ने ना उठाया हो । अमृता प्रीतम की लेखन शेली में एक सतत प्रवाह है । वे अपने विचारों को बड़ी बेबाकी से रखती हैं और चरित्रों पर इनकी पकड़ हमेशा मजबूत रहती है । दो खिड़कियाँ उनका एक अनूठा कहानी संग्रह है जिसमें कुल सात कहानियाँ और एक लघु उपन्यास है ।

    इस संग्रह की पहली कहानी दो खिड़कियाँ उन हालातों का जिक्र करती है जिनसे देश की हुकूमत सँभालने वाले परिवार को हिंसक तख्तापलट के बाद गुजरना पड़ता है । पति की मृत्यु के बाद विक्षिप्त पड़ी माँ के साथ घर में नजरबन्द जिंदगी बसर कर रही पुत्री डांगा के मनोभावो का सूक्ष्म विश्लेषण करती हुई अमृता जी कहती हैं


    "डाँका के बड़े कमरे में दो खिड़कियाँ थीं। आगेवाली खिड़की की तरफ बड़ी सड़क थी..पीछेवाली खिड़की की तरफ जंगल था......आगे की खिड़की से बड़ा शोर आता था लोगों के पाँव, ट्रामों के पहिए जैसे शब्दों का खड़ाक होता है ..पर पीछे की खिड़की में से कोई खड़ाक नहीं होता था जैसे अर्थों का कोई खड़ाक नहीं होता, और वे सिर्फ पेड़ के पत्तों की तरह चुपचाप उग जाते हैं, और चुपचाप झड़ जाते हैं ।"

    पक्की हवेली इस संग्रह का एकमात्र लघु उपन्यास है जो एक बच्ची द्वारा अपने इर्द गिर्द बुने जटिल इंसानी रिश्तों को समझने की कोशिश है । फिर आता है इस संग्रह का सबसे रोचक हिस्सा जिसमें छः कहानियाँ हैं और सभी का शीर्षक एक ही है- दो औरतें । स्त्री-पुरुष संबंधों पर तो कितनी रचनाएँ लिखी गईं हैं पर अलग अलग किरदारों के रूप में स्त्रियों के आपसी रिश्तों की बारीकियों को बड़ी ही सुंदरता से उभारा है अमृता जी ने इन कथाओं में । औरतों के आपसी रिश्तो और पुरुष से उसके रिश्तों में भेद करती हुई वो कहती हैं ।


    "औरत और मर्द का रिश्ता जितना भी उलझा हुआ हो, फिर भी सीधा होता है। स्वाभाविक, एक प्राप्ति का अहसास उसकी रगों में है सिर्फ मिलन में नहीं, विरह में भी, ओर तसव्वुर में भी । उसकी बुनियाद में जिस्मानी जरूरतें होती हैं। इसलिए वो अपने अलगाव में भी कहीं ना कहीं जुड़ा रहता है, और उसका टूटकर भी अटूट रहना, उसे बड़ी से बड़ी कुर्बानी का बल देता है। .....


    .....पर औरत और औरत का रिश्ता, माँ और बेटी के रिश्ते को छोड़कर, सीधा नहीं होता किसी मर्द के माध्यम से होता है। इसीलिए उसमें एक की प्राप्ति ,अक्सर दूसरे की अप्राप्ति बन जाती है और इसलिए वो उलझ जाता है तो उसका तार फिर हाथ में नहीं आता । टूट जाता है तो उसमें दर्द का गौरव नहीं आता ।..."


    अमृता जी इंसानी रिश्तों को हमेशा उनके सामाजिक परिपेक्ष्य में रखते हुए ही कुरेदती हैं । सामाजिक विषमता और उससे जुड़ी इंसानी फितरत पर किए गए उनके तीखे कटाक्ष लाजवाब होते हैं । अपने किरदारों के चरित्र चित्रण के लिए वो ऐसे रूपकों का इस्तेमाल करती हैं जो हम सब की आस पास की जिंदगी से जुड़े होते हैं। अब यही बानगी देखिए
    "रोटी का एक बड़ा सीधा हिसाब होता है अमीर को जिस वक्त भूख लगे, गरीब को जिस वक्त जुड़ जाए। सो धनराज ने जब उसकी तनख्वाह १८ रुपये महीना थी, गरीब की रोटी की तरह जब जुड़ी, खा ली थी। उसकी मरती हुई माँ ने इस डर से कि कहीं मेरा बेटा रह ना जाए, किसी गरीब घर की लड़की उसे ब्याह दी थी जो उम्र में धनराज से सात बरस बड़ी थी ।
    .....पर अब वह १८ रुपये महिने नहीं बलकि १८०० रुपये कमाता था। और रोटी के सीधे-साधे उसूल की तरह उसकी भूख जाग उठी थी . वह अपनी औरत के साथ जब भी सोता, उसे लगता जैसे वह एक गरीब-गुरबे की तरह हथेली से प्याज तोड़कर रोटी खा रहा था। और उसे एक अमीर आदमी का रोष चढ़ जाता कि इस वक्त जो उसे भूख लगी हुई थी तो उसके सामने कबाब की प्लेट क्यूँ नहीं थी ...
    सो एक दिन उसने प्याज जैसी औरत को एक कोने में रखकर, भुने हुए कबाब सरीखी औरत कर ली । कबाब की खुशबू सारे बँगले में फैल गई, और प्याज ने मन की तहों को लपेटकर अपने पर खामोशी का छिलका चढ़ा लिया था ।...."
    अमृता प्रीतम के इस कथा संग्रह की अन्य कहानियों के बारे में अपने विचार ले के प्रस्तुत हूँगा इस समीक्षा की अगली समापन किश्त में ..

    शनिवार, मार्च 10, 2007

    वार्षिक संगीतमाला 2006 सरताज गीत: बिटिया होने का सच !

    दुख फसाना नहीं की तुझसे कहूँ
    दिल भी माना नहीं की तुझसे कहूँ

    आज तक अपनी बेकली का सबब
    खुद भी जाना नहीं की तुझसे कहूँ

    अहमद फराज

    ये दुख भी अजीब सी चीज है । एक बार अंदर पलने लगे तो जी घुटता सा रहता है। इच्छा भी नहीं होती कि किसी को कहें। पर दिल की चारदीवारी के अंदर कोई भी बाँध कितना भी ऊँचा क्यूँ ना बनाएँ,...एक दिन तो वो बाँध भरेगा ही और उससे बह कर निकलने वाली पीड़ा दूसरों को भी दर्द में डुबायेगी ही । मेरी इस संगीत श्रृंखला के शिखर पर विराजमान इस गीत में कुछ ऐसी ही पीड़ा अन्तरनिहित है जो गीत के प्रवाह के साथ मन में रिसती हुई नक्श सी हो जाती है ।

    आखिर उमराव जान 'अदा' की अमीरन ने उस बाँध के टूट जाने के बाद ही तो ऐसा कहा होगा ।
    अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो....

    तनिक अमीरन को क्षण भर के किए पीछे कर अपने चारों ओर के हालातों पर नजर दौड़ायें तो पाते हैं कि अभी भी हमारे समाज का एक वर्ग लड़की के रूप में जन्म लेने को एक अभिशप्त जिंदगी की शुरुआत मानता है ।

    अगर ऐसा नहीं होता तो पंजाब जैसे समृद्ध और अपेक्षाकृत विकसित राज्य में मादा भ्रूण हत्याएँ इतनी ज्यादा क्यूँ कर होतीं ?


    दहेज के लोभी अपनी नहीं तो किसी और की बिटिया को क्यूँ जलाते ?

    शिक्षा के मंदिर / आश्रमों में भी पढ़ाई की आड़ में यौन शोषण की जुर्रत कोई कैसे करता ?

    बलात्कर जैसे घिनौने अपराध के दोषी भी सीना तान के बिना किसी शर्मिन्दगी के न्यायालय में जाते और बेदाग छूट कर कैसे आते ?

    रोज-रोज ऐसा देखते हुए भी हमारा समाज चेतनाशून्य सा क्यूँ बना रहता है ?.
    सच तो ये है कि मस्तिष्क के किसी कोने में हमारी सोच नहीं बदली है ।

    रिचा शर्मा की आवाज में जब भी ये गीत सुनता हूँ ,ये सारे प्रश्न दिलो दिमाग को सोचने पर मजबूर करते हैं ....

    ये गीत इसलिए भी मेरी पहली पायदान का गीत है क्यूँकि इस गीत को सुनने के बाद ये जज्बा मजबूत होता है कि जो हो चुका उसे तो नहीं बदल सकते पर आने वाले कल में कुछ तो करें जिससे किसी कि बेटी इस गीत की व्यथा से न गुजरे ।


     


    जावेद साहब ने इस गीत में एक बिटिया के दर्द को अपनी लेखनी के जादू से इस कदर उभारा है कि इसे सुनने के बाद आँखें नम हुये बिना नहीं रह पातीं । ऋचा जी की गहरी आवाज , अवधी जुबान पर उनकी मजबूत पकड़ और पार्श्व में अनु मलिक का शांत बहता संगीत आपको अवध की उन गलियों में खींचता ले जाता है ।गीत,संगीत और गायिकी के इस बेहतरीन संगम को शायद ही कोई संगीतप्रेमी सुनने से वंचित रहना चाहेगा।



    अब जो किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
    अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो ऽऽऽऽ

    जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
    अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो

    हमरे सजनवा हमरा दिल ऐसा तोड़िन
    उ घर बसाइन हमका रस्ता मा छोड़िन
    जैसे कि लल्ला कोई खिलौना जो पावे
    दुइ चार दिन तो खेले फिर भूल जावे
    रो भी ना पावे ऐसी गुड़िया ना कीजो
    अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो
    जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो...

    ऐसी बिदाई बोलो देखी कहीं है
    मैया ना बाबुल भैया कौनो नहीं है
    होऽऽ आँसू के गहने हैं और दुख की है डोली
    बन्द किवड़िया मोरे घर की ये बोली
    इस ओर सपनों में भी आया ना कीजो
    अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो

    जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो...

    गुरुवार, मार्च 08, 2007

    वार्षिक संगीतमाला 2006 : पुनरावलोकन (RECAP) कौन होगा सरताज गीत ?


    तो भाई इससे पहले कि इससे पहले कि इस साल के अपने सबसे प्रिय गीत का खुलासा करूँ एक नजर मारी जाए कि इस साल कौन से कलाकार छाए रहे गीत संगीत की दुनिया में । पिछले साल के हीरो सोनू निगम इस बार बहुत कम चर्चित गीतों के खेवैया रहे। यही हाल पिछले साल की जबरदस्त जोड़ी शान्तनु मोएत्रा और स्वानंद किरकिरे का रहा । मुन्ना भाई को छोड़ दें तो ये परिणिता और हजारों ख्वाहिशें ऐसी में दिये गए अपने उत्कृष्ट संगीत के पास भी नहीं फटक पाए ।
    गीतकारों में गुलजार ओंकारा, गुरु, ब्लू अम्बरैला, जानेमन जैसी फिल्मों मे अपनी फार्म में दिखे। वही प्रसून जोशी ने रंग दे बसंती और फना के लिए और जावेद अख्तर ने कभी अलविदा ना कहना के लिए कुछ अच्छे गीत लिखे ।
    संगीतकारों में विशाल भारद्वाज, शंकर अहसान लॉय और मिथुन चर्चित रहे । वैसे तो प्रीतम का गैंगस्टर का दिया संगीत हिट रहा पर संगीत की चोरी के आरोपों ने उनकी प्रतिष्ठा धूमिल कर दी।
    श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान, अभिजीत, केके,शान जैसे स्थापित गायकों के साथ शफकत अमानत अली खाँ, आतिफ असलम, अमानत अली खाँ, चिन्मयी श्रीपदा और जुबीन गर्ग जैसे नवोदित पर प्रतिभावान गायक कंधे से कंधा मिलाता दिखे ।
    संगीत संयोजन की,विविधता और बेहतरीन काव्यात्मक अभिव्यक्ति के चलते ओंकारा को इस साल का श्रेष्ठ एलबम कहने में मुझे कोई हिचक नहीं होगी । सहयोगी चिट्ठाकार जगदीश भाटिया जी का भी यही मत है ।
    तो पहले नम्बर का गीत तो अगली पोस्ट में आएगा पर देखें आप सब क्या गेस करते हैं । क्या कहा मुश्किल है तो चलिए कुछ क्लू दे देते हैं आपको
    पहला क्लू : ये गीत मेरे चहेते गीतकार गुलजार का लिखा नहीं है ।
    दूसरा क्लू : इस गीत के गायक गायिका का सरनेम हमारे हिंदी चिट्ठा जगत के एक जाने माने चिट्ठाकार से मेल खाता है
    तीसरा क्लू : इस गीत के भाव और
    बेजी जी की हाल की पोस्ट में काफी कुछ समानता है ।
    खैर अगर आपने गेस कर लिया तो बतायें और नहीँ भी किया तो इस साल का अपना सबसे पसंदीदा नग्मा जरूर बताएँ । मुझे आपकी पसंद जानकर खुशी होगी । और जब तक आप ये सब सोचें ले चलें आपको मेरी पसंदीदा नग्मों के एक पुनरावलोकन (Recap) पर !
    1. अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो (उमराव जान)
    2. मितवा... ( कभी अलविदा ना कहना )
    3. ओ साथी रे दिन डूबे ना... (ओंकारा)
    4. जागे हैं देर तक हमें कुछ देर सोने दो (गुरू)
    5. तेरे बिन मैं यूँ कैसे जिया... (बस एक पल )
    6. बीड़ी जलइ ले, जिगर से पिया.... (ओंकारा)
    7. अजनबी शहर है, अजनबी शाम है.... ( जानेमन )
    8. तेरे बिना बेसुवादी रतिया...(गुरू)
    9. मैं रहूँ ना रहूँ ....( लमहे-अभिजीत )
    10. लमहा लमहा दूरी यूँ पिघलती है...(गैंगस्टर)
    11. नैना ठग लेंगे...... (ओंकारा)
    12. तेरी दीवानी.... ( कलसा- कैलाश खेर)
    13. रूबरू रौशनी है...... (रंग दे बसंती)
    14. क्या बताएँ कि जां गई कैसे...(कोई बात चले)
    15. ये हौसला कैसे झुके.. ( डोर )
    16. ये साजिश है बूंदों की.....( फना )
    17. सुबह सुबह ये क्या हुआ....( I See You.)
    18. मोहे मोहे तू रंग दे बसन्ती....( रंग दे बसंती )
    19. चाँद सिफारिश जो करता.... ( फना )
    20. बस यही सोच कर खामोश मैं......( उन्स )

    रविवार, मार्च 04, 2007

    रचना जी - सवाल आपके जवाब हमारे !

    १६ फरवरी की अपनी पोस्ट में रचना जी ने जब मुझे अपनी टैग में शामिल किया था तब मुझे नहीं पता था कि मैं कितनी जल्दी या कितनी देर में उनके प्रश्नों का जवाब दे पाऊँगा । पहले बैंगलोर फिर कानपुर और फिर राउरकेला की यात्रा ने कुछ ऐसा फँसाया कि पिछले १५ दिनों में से ११ घर के बाहर बीते ।

    खैर, रचना जी पहले तो आपका धन्यवाद कि आपने अपनी पोस्ट में सवालों को बदल कर एक ऐसे सिलसिले का आगाज किया जिससे कि सभी साथी चिट्ठाकारों को अपने लेखन एवम् अपनी पसंद के बारे में राय जाहिर करने का मौका मिला। नहीं तो पहले तो लोग-बाग बाट जोहते थे कि कब साक्षात्कार के प्रश्नों के साथ अनूप जी का भव्य रथ उनके द्वार पर आ के रुकेगा।:)

    अंग्रेजी के चिट्ठों में टैगिंग का प्रचलन बहुत दिन से है पर यहाँ एक बात अलग सी लगी! जिस ईमानदारी के साथ हिन्दी चिट्ठा जगत के सदस्यों ने अपने जवाब लिखे हैं वो मन को अभिभूत कर गया । तो लौटता हूँ उन सवालों पर

    १. आपके लिये चिट्ठाकारी के क्या मायने हैं?
    दस साल का था जब पहली बार सब से छुप छुपाकर अपनी पुरानी कॉपी में बहनों द्वारा खाना खिलाने में मेरे साथ हो रहे तथाकथित अत्याचार का ब्योरा लिखा था। वो कॉपी जब दीदी के हाथ लगी तो परिवार में परिहास का विषय बन गई। और मारे झेंप के लिखने का क्रम जो छूटा तो उसके बाद डॉयरी की शक्ल में +2 के समय ही दोबारा शुरु हो पाया । उसी वक्त से अपने कॉलेज जीवन, संगीत, कविता, शायरी, किताबों और यात्रा में बीते लमहों को डॉयरी के पन्नों में कैद करने की आदत सी हो गई । नौकरी में आने के बाद जिंदगी की प्राथमिकताएँ ऐसी बदलीं कि इस सिलसिले पर विराम सा लग गया। अपनी बात अपने जैसों में बाँट सकने की अकुलाहट दब तो गई पर मरी नहीं ।

    यही वजह रही की आज से करीब दो वर्ष पूर्व मेरी मित्र
    डॉन ने जब मुझे चिट्ठाकारी के विषय में बताया तो मुझे लगा कि अरे यही तो मैं हमेशा से करना चाहता था । चिट्ठाकारी मेरे लिए जिंदगी की इस भागदौड़ में अपनी रुचियों से जुड़ी रहने की कोशिश है। और जब अपनी इस कोशिश में दूर-दूर बैठे पर अपने जैसा सोचने और महसूस करने वाले दोस्त मिलते हैँ तो दिल को बेइंतहा खुशी मिलती है ।

    २. यदि आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है?
    ऐसे तो सारे चिट्ठाकारों से मिलने का मन करता है। हाँ, ये जरूर है कि चिट्ठाकारों के समूह में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने विचारों और रुचियों की बदौलत अंतरजालीय जिंदगी का अभिन्न अंग बन जाते हैं । अंग्रेजी चिट्ठा जगत में मेरे ऐसे ही कई मित्र हैं जिनसे मिलने की मन में इच्छा जरूर है। हिंदी चिट्ठा जगत में रचना जी और प्रतीक पांडे के आलावा ज्यादा लोगों से व्यक्तिगत रूप से जुड़ नहीं पाया हूँ। ये उम्मीद जरूर है कि अंग्रेजी की तरह भविष्य में हिंदी चिट्ठाजगत में भी वार्षिक रुप से चिट्ठाकारों की एक जगह एकत्रित होने की परम्परा शुरु होगी और सबसे मिलने की इच्छा फलीभूत हो पाएगी ।

    ३.क्या आप यह मानते हैं कि चिट्ठाकारी करने से व्यक्तित्व में किसी तरह का कोई बदलाव आता है?
    मेरे लिए तो चिट्ठाकारी खुद ही मेरे व्यक्तित्व का आईना है और उसमें कुछ खास बदलाव नहीं आया है। पर चिट्ठाजगत में आने के बाद हिंदी भाषा के प्रति अपने दायित्व का बोध जरूर हुआ है । नारद, परिचर्चा और चिट्ठा चर्चा जैसे प्रयासों की बदौलत सारा हिंदी चिट्ठाजगत एक सूत्र में बँधा सा लगता है । इसलिए अगर परिचर्चा/नारद के माध्यम से मैं किसी को हिंदी में लिखने के लिए प्रेरित कर पाता हूँ तो अच्छा लगता है । रचना जी का ही उदाहरण लूँ तो वो खुद पहली बार मेरे रोमन ब्लॉग पर आईं थीं और फिर उनकी लेखन प्रतिभा को देखकर मैंने उन्हें परिचर्चा पर जाने को कहा था और देखिये पहले परिचर्चा और फिर हिंदी चिट्ठा जगत में अपने अच्छे लेखन से सबका स्नेह पा रही हैं।

    ४.आपकी अपने चिट्ठे की सबसे पसंदीदा पोस्ट और किसी साथी की लिखी हुई पसंदीदा पोस्ट कौन सी है?
    ये प्रश्न हम सभी जानते हैं कि कितना कठिन है खासकर तब जब रोज कुछ ना कुछ उल्लेखनीय लिखा जा रहा है ।पसंदीदा पोस्ट का जिक्र करने से पहले कहना चाहूँगा कि मैं अक्सर अपनी रुचियों से जुड़े विषय ही नियमित रूप से पढ़ पाता हूँ । पर कई बार अच्छी पोस्ट देख कर आराम से पढ़ेंगे ऐसा सोचता हूँ और वो सोच बस सोच ही रह जाती है ।

    अनूप शुक्ल की फिराक गोरखपुरी को समर्पित शानदार पोस्ट पर की गई उनकी मेहनत आज भी याद है । समीर जी के प्यारे तोते की कहानी सुन कर मेरी भी आखें नम हो गईं थीं। रत्ना शुक्ला की नारीमन की संवेदनाओं को जागृत करने वाली कविताएँ मुझे हमेशा से मन को छूती रही हैं। नीरज दीवान और मोहल्ले पर मीडिया के दायित्व पर लिखे लेखों ने आज भी मन में आशा की ज्योत जलाए रखी है कि वहाँ भी आज के हालात को लेकर वैसी ही बेचैनी है । ई-छाया के प्रवासियों पर लिखे लेख उनके चिट्ठाजगत छोड़ने के बाद उसी तरह दिल में नक्श हैं। इसके आलावा नये लोगों में रचना जी और अनुराग श्रीवास्तव का लिखा भी मुझे बेहद पसंद आता है।

    अब अपनी प्रविष्टियों की बात करूँ तो धर्मवीर भारती की किताब गुनाहों का देवता पर लिखी अपनी प्रविष्टि मेरे दिल के बेहद करीब है।
    सिक्किम पर लिखा यात्रा विवरण जो बाद में अभिव्यक्ति में छपा, लंबे लेखों में मेरी पहली पसंद है । मजाज लखनवी के व्यक्तित्व को उनकी नज्म आवारा के जरिए देखना भी मेरे लिए एक अलग तरह का अनुभव था ।

    ५.आपकी पसंद की कोई दो पुस्तकें जो आप बार बार पढते हैं।
    पुस्तकों को बार-बार पढ़ना मेरी आदत नहीं । हाँ, उनके कुछ अंश जो मुझे बेहद पसंद हों उन्हें उतार जरूर लेता हूँ । वैसे तो बहुत सी पुस्तकें रह रह कर अपनी ओर ध्यान खीँचती हैं पर यहाँ इन तीन का नाम लेना चाहूँगा ।

    स्वतंत्र भारत में मध्यमवर्गीय नारी की अभ्युदय गाथा कहती आशापूर्णा देवी की सुवर्णलता, भारत की आजादी से जुड़े पहलुओं और खासकर उसमें महात्मा की भूमिका को ईमानदारी से उजागर करती डोमेनिक लैपियर और फिल कांलिंस की फ्रीडम ऐट मिडनाइट तथा उत्तर भारतीय ग्रामीण परिदृश्य के हर पहलू को अपने निराले अंदाज में छूती श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी मेरी पसंदीदा कृतियों में से हैं।


    मुझे नहीं लगता कि अब कोई सवालों का उत्तर देने के लिए बचा रह गया है । और सवालों को बदलते बदलते काफी सारे सवाल भी पूछे जा चुके हैं । कुछ सवाल मेरे मन में भी हैं जिन्हें मैं सभी से पूछना चाहता हूँ । शायद उसके लिए परिचर्चा का फोरम ज्यादा उपयुक्त जगह होगी ।

    चलते-चलते होली के इस पावन दिन पर आप सब को मेरी तरफ से रंगारंग शुभकामनाएँ ।:)

    शुक्रवार, मार्च 02, 2007

    वार्षिक संगीतमाला गीत # 2 : मेरे मन ये बता दे तू किस ओर चला है तू...

    इस संगीतमाला के रनर्स अप का सेहरा बाँधा है जावेद अख्तर के लिखे और शंकर अहसान लॉय के संगीतबद्ध इस गीत ने ।
    फिल्म कभी अलविदा ना कहना के इस गीत को गाया है शफकत अमानत अली खाँ ने जिनके बारे में इस गीतमाला में
    पहले भी चर्चा हो चुकी है ।

    जावेद अख्तर अपनी बात हमेशा सीधे सरल अंदाज में करते हैं। पर अक्सर अपने गीतों में वो जीवन के उन पहलुओं को अनायास ही छू देते हैं जिन्हें कभी ना कभी किसी ना किसी रूप में हम सबने महसूस किया होता है। इस गीतमाला में वो देर से ही तशरीफ लाए हैं पर आए हैं अपने इस बेहतरीन गीत के साथ । क्या प्रथम दस गीतों में उनकी ये इकलौती पेशकश होगी , ये राज तो अभी राज ही रहने दें । ये गीत मुझे क्यूँ प्रिय है ये मैं पहले ही आपको विस्तार से
    यहाँ बता चुका हूँ । इस गीत के बोल भी आप वहीं पढ़ सकते हैं ।
     

    मेरी पसंदीदा किताबें...

    सुवर्णलता
    Freedom at Midnight
    Aapka Bunti
    Madhushala
    कसप Kasap
    Great Expectations
    उर्दू की आख़िरी किताब
    Shatranj Ke Khiladi
    Bakul Katha
    Raag Darbari
    English, August: An Indian Story
    Five Point Someone: What Not to Do at IIT
    Mitro Marjani
    Jharokhe
    Mailaa Aanchal
    Mrs Craddock
    Mahabhoj
    मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
    Lolita
    The Pakistani Bride: A Novel


    Manish Kumar's favorite books »

    स्पष्टीकरण

    इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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