शनिवार, अप्रैल 21, 2007

रेत पे बिखरे हुए आँसू उठा सकते नहीं !

बशीर बद्र की शायरी का कमाल ही इस बात में है कि उनका हर एक शेर सादगी का लिबास पहन कर आता है ...जुमलों में कोई क्लिष्टता नहीं, भाषा में कोई अहंकार नहीं पर भावों की गहराई ऐसी कि बिना दिल को छू कर निकल जाए ये नामुमकिन है ।

ऍसी ही एक गजल से आज आपको रूबरू करा रहा हूँ जिसे वर्षों पहले कहीं से पढ़्कर अपनी डॉयरी में लिखा था। इसका हर एक शेर मन में इस तरह नक्श हो गया है कि जब भी बद्र साहब का जिक्र होता है ये गजल खुद-ब-खुद जेहन में आ जाती है।

साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं
इक नदी के दो किनारों को मिला सकते नहीं

देने वाले ने दिया सब कुछ अजब अंदाज से
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं

इस की भी मजबूरियाँ हैं, मेरी भी मजबूरियाँ हैं
रोज मिलते हैं मगर घर में बता सकते नहीं

आदमी क्या है गुजरते वक्त की तसवीर है
जाने वाले को सदा देकर बुला सकते नहीं

किस ने किस का नाम ईंट पे लिखा है खून से
इश्तिहारों से ये दीवारें छुपा सकते नहीं

उस की यादों से महकने लगता है सारा बदन
प्यार की खुशबू को सीने में छुपा सकते नहीं

राज जब सीने से बाहर हो गया अपना कहाँ
रेत पे बिखरे हुए आँसू उठा सकते नहीं

शहर में रहते हुए हमको जमाना हो गया
कौन रहता है कहाँ कुछ भी बता सकते नहीं

पत्थरों के बर्तनों में आँसू को क्या रखें
फूल को लफ्जों के गमलों में खिला सकते नहीं
सुनिए इस ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में
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11 टिप्पणियाँ:

Vikash on अप्रैल 21, 2007 ने कहा…

पहली बार इस ब्लौग से साक्षात्कार हुआ है और इस बात के लिये खुद पर तनिक क्रोध भी आ रहा है. आपका यह ब्लोग हिन्दी प्रेमियों के बहुत काम आएगा ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है. ऐसे आदर्श ब्लोग के लिये साधुवाद.

Yunus Khan on अप्रैल 21, 2007 ने कहा…

प्रिय भाई
बशीर साहब की याद दिलाकर आपने कई पुरानी बातें याद दिला दीं । जब स्‍कूल कॉलेज में था तो दूरदर्शन पर मुशायरे आते थे और अपन इन मुशायरों को फिलिप्‍स के एक स्‍पीकर वाले टू इन वन पर रिकॉर्ड कर लेते थे । बाद में इनके शेर अपनी डायरी में उतार लिये जाते थे । बशीर बद्र साहब को तभी पहचाना । उन दिनों अलीगढ़ में सांप्रदायिक दंगों का शिकार होकर वो भोपाल चले आये । एक बार भोपाल किसी काम से गया तो वहां बशीर साहब सड़क के उस पार थे, मैं इस पार । बीच में था गाडियों का हुजूम । ट्रैफिक की ज्‍यादती देखिये कि जब तक मैं सड़क पार करता बशीर साहब ने ऑटो पकड़ा और चल दिये । अपन उनसे हाथ भी नहीं मिला पाये ।
बशीर साहब कहते हैं
कह दो समंदर से कि हम ओस की बूंदें हैं दरिया की तरह चलके तेरे पास नहीं आयेंगे रोने का हुनर हम अपनी आंखों से सिखायेंगे रोयेंगे बहुत मगर आंसू नहीं आयेंगे
या फिर उजाले उनकी यादों के हमारे साथ रहने दो ना जाने किस मोड़ पर जिंदगी की शाम हो जाये बशीर साहब के नाजुकतरीन शेर आज भी उस डायरी में लिखे हैं, कभी पलटकर देखें तो मन में धुंआं धुंआ हो जाता है । आपने इस चिट्ठे से कई पुरानी यादें ताज़ा कर दीं । यूनुस

Divine India on अप्रैल 21, 2007 ने कहा…

बशीर साहब के क्या कहने वह मेरों जैसे के मोहताज नहीं है…सुंदर प्रस्तुती किया अच्छा लगा…।

बेनामी ने कहा…

इस की भी मजबूरियाँ हैं, मेरी भी मजबूरियाँ हैं
रोज मिलते हैं मगर घर में बता सकते नहीं

अहा... बहुत बढ़िया. यह संग्रहणीय- स्मरणीय रचना है.

बेनामी ने कहा…

ग़ालिब के बाद अगर मुझे किसी के शेर सबसे ज्यादा याद हैं तो वो हैं बशीर बद्र साहब।
बशीर साहब हमारे जमाने के शायर हैं मगर अफसोस बहुत खोजने पर भी नेट पर उनके जीवन के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
उनका जन्मदिन भी बहुत खोजने पर भी नेट पर नहीं मिला।

Udan Tashtari on अप्रैल 22, 2007 ने कहा…

मेरे पसंदीदा शायर की गज़ल पेश करने के लिये बहुत धन्यवाद स्विकारें.

Manish Kumar on अप्रैल 22, 2007 ने कहा…

शुक्रिया विकास आशा है अब चिट्ठे पर आपसे नियमित मुलाकात होती रहेगी ।

नीरज आपको ये गजल पसंद आई जानकर खुशी हुई ।
समीर जी हाँ वो तो हम सब के पसंदीदा हैं ।
डिवाइन इंडिया सही कहा आपने ! बद्र साहब की शायरी अपने आप में एक मिसाल है

जगदीश जी अभी एक साइट बनती दिख तो रही है उन पर..पर अभी कुछ समय लगेगा उसे पूरा होने में ।

Manish Kumar on अप्रैल 22, 2007 ने कहा…

यूनुस भाई बहुत अच्छा लगा कि बशीर साहब से जुड़ी ये बातें आपने विस्तार से बताईं। वाणी प्रकाशन ने उजाले अपनी यादों के नाम से हिन्दी में एक किताब छापी थी । उसमें इनकी गजलों का अच्छा संकलन है । मैं इन्हें काफी दिनों से पढ़ता आ रहा हूँ । फिर कुछ गजलों को जगजीत ने भी बड़ी खूबसूरती से गाया है । मसलन
कौन आया रास्ते आईनाखाने हो गए....
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा...
और फिर कभी यूँ भी आ मेरी आँख में.......खबर ना हो कि तो बात ही क्या.!

Alpana Verma on अप्रैल 28, 2008 ने कहा…

बशीर बद्र की शायरी आम आदमी की शायरी है..जो हर किसी को आसानी से समझ आती है ओर बहुत अपनी सी लगती है.
सुंदर प्रस्तुती .

Manish Kumar on अप्रैल 28, 2008 ने कहा…

बिलकुल सही कहा आपने अल्पना जी !

बेनामी ने कहा…

सही कहा भाई ने

बशीर बद्र जी की एक गजल पेश ए नजर है

किसने मुझको सदा दी बता कौन है
ऐ हवा तेरे घर में छिपा कौन है

बारिशो में किसी पेड़ को देखना
शाल ओर्हे खड़ा कौन है

आसमानों को हमने बताया नहीं
डूबती शामो में डूबता कौन है

 

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