शनिवार, अप्रैल 28, 2007

तुम निकम्मों के लिये मै ही भला कब तक मरूँ?

घबराइए मत ये जीतू भाई हम सब से क्रुद्ध और हताश हो कर नहीं कह रहे :), ये तो बालकवि बैरागी की रचना है। बैरागी जी ने अपनी इस अनुपम कविता में बात की है चमकते हुए सूर्य और अपनी लौ से अँधेरे को दूर भगाते दीपक की ।

एक ओर सारे दिन अपनी रोशनी बिखेरता सूर्य है तो दूसरी ओर अंधकार से लड़ता दीपक । बैरागी जी ने बड़े ही भावनात्मक तरीके से रात भर जलते इस दीपक के चरित्र में झांकने की कोशिश की है । काली अँधियारी रात के राजदरबार में उसके सेनापति पवन से लड़ता ये दीपक उसकी मार से टिमटिमा जरूर उठता है पर युद्धक्षेत्र में डँटा रहता है....अविचलित ....निडर...

पर ये निडरता किस काम की? ये जानते हुए भी कि उसका संघर्ष सवेरे तक भुला दिया जाना है ....।उसकी इस मनोदशा को कितनी खूबसूरती से शब्दों में बाँधा है बैरागी जी ने

मैं जानता हूं तुम सवेरे मांग उषा की भरोगे
जान मेरी जायेगी पर ऋण अदा उसका करोगे!!


पर अँधेरे पर विजय पाने के लिए जो मूलमंत्र बैरागी जी देते हैं वो कितना सीधा और सहज है वो इन पंक्तियों से देखें

आकाश की आराधना के चक्करों मे मत पडो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मै लडूँ, कुछ तुम लडो!!


सच कौन कह सकता है कि अपने आस पास की ये वस्तुएँ निर्जीव हैं । एक छोटा सा दीपक कितनी मूर्त और अमूर्त भावनाओं को अपने दिल में छुपा कर बैठा है , पर हमने कब खबर ली उसकी। धन्य है ये कवि जो अपनी संवेदनशीलता से हमारे आस पास की इन निर्जीव वस्तुओं में उपमाओं के माध्यम से ऐसा प्राण फूंकते हैं कि लगता है उनके कृत्यों में भी कोई संदेश है, कोई गूढ़ बात है जो अब जाकर उद्घाटित हुई है ।

और इससे पहले मध्य प्रदेश के नीमच से ताल्लुक रखने वाले 'बालकवि बैरागी' जी की पूरी कविता आपके सामने पेश करूँ, मैं बेहद आभारी हूँ रचना जी का जिन्होंने इस कविता को मुझे पढ़ने के लिए भेजा ।

कविता का नाम है "दीवट(दीप पात्र) पर दीप"

हैं करोडों सूर्य लेकिन सूर्य हैं बस नाम के,
जो न दे हमको उजाला, वे भला किस काम के?
जो रात भर जलता रहे उस दीप को दीजै दु‍आ
सूर्य से वह श्रेष्ठ है, क्षुद्र है तो क्या हुआ!
वक्त आने पर मिला लें हाथ जो अँधियार से
संबंध कुछ उनका नही है सूर्य के परिवार से!

देखता हूँ दीप को और खुद मे झाँकता हूँ मैं
फूट पडता है पसीना और बेहद काँपता हूँ मैं
एक तो जलते रहो और फिर अविचल रहो
क्या विकट संग्राम है,युद्धरत प्रतिपल रहो
हाय! मैं भी दीप होता, जूझता अँधियार से
धन्य कर देता धरा को ज्योति के उपहार से!!

यह घडी बिल्कुल नही है शान्ति और संतोष की
सूर्यनिष्ठा संपदा होगी गगन के कोष की
यह धरा का मामला है, घोर काली रात है
कौन जिम्मेवार है यह सभी को ज्ञात है
रोशनी की खोज मे किस सूर्य के घर जाओगे
दीपनिष्ठा को जगाओ, अन्यथा मर जाओगे!!

आप मुझको स्नेह देकर चैन से सो जाइए
स्वप्न के संसार मे आराम से खो जाइए
रात भर लडता रहूंगा मै घने अँधियार से
रंच भर विचलित न हूंगा मौसमो की मार से
मैं जानता हूं तुम सवेरे मांग उषा की भरोगे
जान मेरी जायेगी पर ऋण अदा उसका करोगे!!

आज मैने सूर्य से बस जरा-सा यों कहा-
आपके साम्राज्य मे इतना अँधेरा क्यों रहा?
तमतमाकर वह दहाडा--मै अकेला क्या करूँ?
तुम निकम्मों के लिये मै ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के चक्करों मे मत पडो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मै लड़ूँ, कुछ तुम लड़ो !!


कितने सही निष्कर्ष पर पहुँचे हैं बैरागी जी। जग के इस अंधकार को ना तो ये विशाल सूरज मिटा सकता है ना वो छोटा सा नन्हा सा दीपक। जरूरत मिल कर मुकाबला करने की है क्यूँकि अलग थलग होकर इस अँधेरे के साम्राज्य को भेद पाना अत्यंत कठिन है ।

भाषागत और चिट्ठाजगत के आजकल के विवादों के परिपेक्ष्य में देखें तो हम सब राष्टभाषा और अपनी अपनी क्षेत्रीय भाषाओं की खोयी हुई अस्मिता जगाने के लिए प्रयासरत हैं । और इसके लिए असंख्य दीपकों की जरूरत है और साथ ही मार्गदर्शन देने वाले कुछ सूर्यों की...इसलिए छोटे छोटे लक्ष्यों को पूरा करने में अपनी शक्ति व्यर्थ गंवाने के को उस बड़े लक्ष्य के सामने कर के देखें । अपनी इच्छा को आप आकार में बिलकुल ही बौना पाएँगे।
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14 टिप्पणियाँ:

अनूप भार्गव on अप्रैल 28, 2007 ने कहा…

मनीश:
अच्छी कविता है । बालकवि बैरागी जी हिन्दी मंच पर सुरुचीपूर्ण कविता के स्तम्भ रहे है ।
अभी १३-१४-१५ जुलाई को न्यूयौर्क में होनें वाले 'विश्व हिन्दी सम्मेलन' में उन के आनें की सम्भावना है ।
मैनें कभी उन्हें सुना नही है , इसलिये काफ़ी उत्सुकता है ।

बेनामी ने कहा…

अच्छी पोस्ट है। हमारे एक मित्र सुनाते हैं-
जो सुमन बीहड़ों में वन में खिलते हैं
वे माली के मोहताज नहीं होते,
जो दीप उम्र भर जलते हैं
वे दीवाली के मोहताज नहीं होते!

उन्मुक्त on अप्रैल 28, 2007 ने कहा…

ठीक कहा, हमारा लक्षय होना चाहिये अंतरजाल पर हिन्दी किस प्रकार फैले। हम व्यर्थ में अपनी ऊर्जा कहीं और लगा रहे हैं

Divine India on अप्रैल 28, 2007 ने कहा…

सचमुच एक इमानदार पोस्ट कविता इतनी शानदार है की उसका वर्णन नहीं हो सकता उन्मुत जी ने सही कहा है हमें अपनी उर्जा को सही दिशा देनी होगी…।धन्यवाद प्रस्तुत करने के लिए…।

Yunus Khan on अप्रैल 29, 2007 ने कहा…

प्रिय भाई बैरागी जी की इस कविता ने दिल खुश कर दिया । अगर उपलब्‍ध हों तो और कविताएं भी पढ़वाईये । हम म0प्र0 वालों को बैरागी जी को कवि सम्‍मेलनों में काफी सुनने मिला है । उन्‍हें सबसे आखिर में पढ़वाया जाता था । और सारे श्रोता इंतज़ार करते रहते थे । मुझे उनकी कुछ पंक्तियां याद आ गयीं जो गांधी जी के लिए लिखी गयीं थीं,
उजले उजले कुछ सौदागर आये मेरे हिंदुस्‍तान में कौन नहीं विश्‍वास करेगा अपने ही मेहमान में
किंतु लगा कुछ काला काला उनके ही ईमान में
पोरबंदर से चरखा लेकर चला नया भगवान रे देखो रे देखो दुनिया वालो मेरा हिंदुस्‍तान रे ।।
बैरागी जी का वो फिल्‍मी गीत भी याद आ गया । राग मांड पर आधारित । फिल्‍म रेशमा और शेरा । जयदेव की धुन । तू चंदा मैं चांदनी । ढूंढकर सुनिए । ना मिले तो मुझे बताईये ।

ghughutibasuti on अप्रैल 29, 2007 ने कहा…

धन्यवाद ! पढ़कर अच्छा लगा । ऐसे ही और कवियों से परिचय कराते रहिये ।
घुघूती बासूती

बेनामी ने कहा…

आप फिर चिन्तन करने लगे। जाइए हमारी पार्टी में थोड़ा फ्रेश हों लें।

Udan Tashtari on मई 01, 2007 ने कहा…

बैरागी जी तो हमारे मध्य प्रदेशी हैं और कई मौके पर उन्हें सुनने का सौभाग्य प्राप्त है. बढ़िया प्रस्तुति, बधाई. देर हुई आने में, वजह- शादी में बाहर जाना पड़ा, क्षमा चाहूँगा. :)

Manish Kumar on मई 01, 2007 ने कहा…

अनूप भार्गव जी अच्छा मौका हाथ लगा है आपको इन महारथियों को सुनने का !

अनूप जी वाह! सुंदर पंक्तियाँ सुनाई आपने !

उन्मुक्त जी यही कहना चाहा था मैंने ! सहमति का शुक्रिया ।

दिव्याभ , घुघुती जी और समीर जी शुक्रिया !

रत्ना जी भोजन के पहले थोड़ा चिंतन जरूरी है :)

Manish Kumar on मई 01, 2007 ने कहा…

यूनुस भाई वाह ! आपकी टिप्पणी भी जानकारी से भरी होती है । मजा आता है पढ़कर ।

बेनामी ने कहा…

देर से ही सही, कविता सही जगह पर आ गई...आपके पाठको‍ को भी ये कविता पस‍द आई ये जानकार मुझे बहुत खुशी हुई.अभी- अभी अपनी नन्ही भतीजी से मैने एक और अच्छी सी कविता सुनी है..भेजती हूं..

Manish Kumar on मई 06, 2007 ने कहा…

रचना जी जरूर भेंजे ! अच्छी कविता पढ़ कर सबका मन खुश ही होता है ।

बेनामी ने कहा…

दिल बाग़ बाग़ हो गया आपके आशियाने में आकर | आपकी कविता ही नहीं आपके पूरे ब्लॉग के बारे में केहना चाहूंगी बहुत कुछ | ऐसे लगा मानो ख़ज़ाना सा मिल गया हो | पेहले मैं भी कविता लिखती थी पर धीरे धीरे जोश काम होता गया | आप के ब्लॉग को देख कर वोह इच्छा फिर से जाग उठी है | आप इन सब के लिए वक़्त कैसे निकाल पाते हैं ? साथ में इतनी सारी भाषाओं में .. इतनी प्रकार की रचनाएँ | मैने अब तक quillpad.in हिंदी में लिखने के लिए काम में लिया है | इसमें भी कई भाषाओं में लिक्खा जा सकता है | पर मुझे अभी यह सही प्रकार से काम में लेना नहीं आया | सीख रही हूँ | शायद एक दिन मैं भी एक कविता लिखूं अपनी ब्लॉग पर |

- सीमा

Manish Kumar on जून 06, 2007 ने कहा…

सीमा जी आपने तफसील से मेरा चिट्ठा पढ़ा और पसंद किया ये जान कर खुशी हुई । अलग अलग लिपियों में लिखने के लिए खुद लिखना नहीं पड़ता है। आप bhomio.com पर जाएँ वहाँ xliterate section में आप हिन्दी में लिखा कोई भी ब्लॉग अपनी मनचाही लिपि में पढ़ सकती हैं।
मैं उन्हीं विषयों पर लिखता हूँ जो मेरे शौक के अन्तर्गत आते हैं इसलिए उसके लिए समय निकल ही जाता है । आप जरूर लिखना शुरु करें और चिट्ठा शुरु करने में किसी सहायता की आवश्यकता हो तो बताएँ ।

 

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