सोमवार, नवंबर 05, 2007

हमने हसरतों के दाग आँसुओं से धो लिए:सुनिए गुलाम अली की गाई ये ग़ज़ल

जिंदगी में कितनी बार ऍसा होता है कि आप अपने मित्र से रूठ जाते हैं। बात चीत बंद हो जाती है। आप सोचते हैं कि इस बार मैं नहीं बोलने वाला। उसे ही मुझे मनाना होगा। पर फिर एक दिन अनायास ही सब पहले जैसा हो जाता है, झुकता कोई एक है पर खुशी दोनों को होती है।

मेरे एक मित्र हैं जो बताते हैं कि कुछ ऍसा ही मसला उनके साथ कॉलेज के ज़माने में पेश आया था। अब बात कॉलेज की है तो आप समझ ही रहे होंगे कि ये दोस्ती किस तरह की थी। सब कुछ सही चल रहा था कि इन्होंने कुछ कह दिया और उधर मुँह ऍसा फूला कि लोगों ने होठ ना हिलाने की कसम खा ली। अब ये संवादहीनता की स्थिति कब तक बर्दाश्त हो पाती?

पर क्या करें जनाब ....बहुत उपाय सोचे गए और अंत में एक दिन आनन फानन में ये गुलाम अली की कैसेट खरीदी और दे आए साथ में इस ग़जल का मतला लिख कर...

हमने हसरतों के दाग आँसुओं से धो लिए
आपकी खुशी हुजूर बोलिए ना बोलिए

अब गुलाम अली की आवाज़ कहिए या मतले की गहराई मामला फिर ऍसा चल निकला कि आज तक दौड़ रहा है। :) तो आप के साथ कभी ऍसा हो तो आप भी ये तरकीब अपना सकते हैं।

अब लौटें इस ग़ज़ल पर..वास्तव में ये पूरी ग़ज़ल बड़ी प्यारी है। खासकर पहले दो शेर तो वाकई कमाल के हैं। यक़ीन नहीं आता तो खुद ही सुन लें..

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हमने हसरतों के दाग आँसुओं से धो लिए
आपकी खुशी हुजूर बोलिए ना बोलिए


क्या हसीन ख़ार* थे, जो मेरी निगाह ने
सादगी से बारहा, रूह में चुभो लिए

*काँटे
मौसम-ए-बहार है, अम्बरीन* खुमार है
किसका इंतज़ार है, गेसुओं को खोलिए

*इत्र

जिंदगी का रास्ता काटना तो था अदम*
जाग उठे तो चल दिये, थक गए तो सो लिए

*कठिन
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25 टिप्पणियाँ:

कथाकार on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

शुक्रियाण्‍ दिन भर के काम की ािाकन के बीच ग़ज़ल के साथ कुछ पल. अच्‍दा लगा मेहनत देख

mamta on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

गुलाम अली जी की आवाज की मिठास का कोई मुक़ाबला है।

Yunus Khan on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

भई मज़ा आ गया । गुलाम अली की दादी के गांव वाले शहद जैसी आवाज़ सुनी ।
सिफत ये कि गजल पहले नहीं सुनी थी कभी ।
छूट गयी होगी ।
ये अरेन्‍जमेन्‍ट । ये बोल ।
मनीष हमारी शाम सुरमई करने का शुक्रिया । एक दिन हम आपको गुलज़ार का लिखा वो गीत सुनायेंगे--
सुरमई शाम इस तरह आये
सांस लेते हैं जिस तरह साये
दिन का कोई पल गुज़रता है
एक अहसान सा उतरता है ।।
कुछ याद आया क्‍या ।

Manas Path on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

सुन रहा हूं . अरे यह बीच में क्यों बंद हो गया

अतुल

Udan Tashtari on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

हमने हसरतों के दाग आँसुओं से धो लिए
आपकी खुशी हुजूर बोलिए ना बोलिए

-आनन्द आ गया. बहुत शुक्रिया इस प्रस्तुति का.

Manish Kumar on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

यूनुस भाई गुलज़ार तो हमारे अराध्य देव हैं। एक बार मैंने अंतरजाल पर उनके गीतों का संकलन लगातार दो तीन महिनों तक चलाया था और हम तीन चार लोगों ने मिलकर उनके सौ से ऊपर गीतों को इकठ्ठा किया था। उसी सिलसिले में शाम पर जब गुलज़ार के लिखे गीतों की चर्चा हुई तो सुरमयी शाम इस.. कैसे छूट सकती थी। वैसे भी 'लेकिन' फिल्म में सुरेश वाडेकर का ये गीत आज भी मेरी डॉयरी के पन्नों में दर्ज है। वैसे आप सुनाएँगे तो फिर सुन लेंगे।

परमजीत सिहँ बाली on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

बहुत बढिया! आनंद आ गया सुन कर।

पारुल "पुखराज" on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

manish jii bahut bahut shukriyaa...aaj kaafi din baad blogs per aayii huunn ...mazaa aa gaya...meri pasandidaa gazal hai ...shukriya

shapers on नवंबर 06, 2007 ने कहा…

bahut hi badhiya hai. gulam ali ji ki ye gazal kabhi suni nahin thi such men bahut pasand aapi. dhanyavad.

men bhi podcast karna chahtee hoon par mujhe iska method nahi pata hai. kya aap mujhe guide karenge....?

अमिताभ मीत on नवंबर 06, 2007 ने कहा…

झुकता कोई एक है पर खुशी दोनों को होती है।

बहुत अच्छा है.

आप की posts हमेशा ही बहुत आनन्द देती हैं. ऐसी ही बेहतरीन चीज़ें सुनाते रहिये. शुक्रिया.

Anita kumar on नवंबर 06, 2007 ने कहा…

मनीष जी इतनी खूबसूरत गजल सुनवाने का शुक्रिया। दो बार सुन चुकी हूँ और तीसरी बार सुनने जा रही हूँ, क्या अदायगी बोलों की , क्या बोल, इतना मधुर सगींत्…शुक्रिया। अब सिखा ही दीजिए इसे यहां से ले जाकर अपने पास कैसे सहेज लूँ।
और गानो का इंतजार है

How do we know on नवंबर 10, 2007 ने कहा…

pehli baar hai is blog par.. bahut hi pyaara chitthaa hai!

Manish Kumar on नवंबर 13, 2007 ने कहा…

कथाकार जी सही कहा आपने गीत संगीत दिन भर की भाग दौड़ के बाद एक सुकून तो देते ही हैं।

ममता जी हाँ वो तो है ही...


अतुल भाई धीमे इंटरनेट कनेक्शन की वज़ह से ऍसा हुआ होगा।

समीर जी, अनीता जी परमजीत जी, पारुल जी, मीत, how do we know , अनु आप सब को ये ग़जल पसंद आई इसके लिए शुक्रिया।

अनु आप को जो भी पूछना हो पूछें।

Dawn on नवंबर 14, 2007 ने कहा…

Wah! Ghazal khub lagi aur aapke dost ki baat bhi!
aisa hee kuch apna haal hai
lekin umeed hai ke baat iss bar hum karein aur roothe huye dost ko mana bhi lein
Thanks for sharing
Cheers

बेनामी ने कहा…

Manish Sir..
U r jus picking all my favorite poetries..
Gulam Ali ki aawaz mein maine yeh nazm pehli baar suni hai..
Isse pehle maine yeh nazm bachpan mein Munni Beghum ki aawaz mein sun rakhi thi(she was my father's favorite Ghazal singer)... ;)

Manish Kumar on नवंबर 16, 2007 ने कहा…

डॉन और आलोक आपको ये ग़ज़ल पसंद आई जान कर खुशी हुई...

बेनामी ने कहा…

SACHMUCH BAHUT SUNDAR LAGA.AISE HI CHUNINDA GEET SUNVAATE RAHIYE.DHANYAVAAD

Manish Kumar on मार्च 14, 2008 ने कहा…

shukriya manish bhai aate rahein :)

सागर नाहर on अप्रैल 05, 2008 ने कहा…

जब शब्द ही ना मिले कुछ कहने के लिये उस परिस्थिती को क्या कहेंगे.. बस यह गज़ल सुनने के बाद अपना भी यही हाल है।

Manish Kumar on अप्रैल 05, 2008 ने कहा…

सागर भाई इस ग़ज़ल ने आपको आनंदित किया ये जानकर खुशी हुई।

बेनामी ने कहा…

I am very pleased to see a large community of people addicted to poetry / urdu-hindi poetry / ghazals etc. I hope to look up this blog space regularly from now onwards.

BTW, can any one explain the meaning of "Bazeecha E Atfal hai Dunia Mere Aage" ? The ghazal sung by Jagjit Singh of poetry by the great Ghalib has really touched my heart.

Chander

बेनामी ने कहा…

Kaifi Azmi Sahab ne 1959 mein likha tha "Waqt ne kiya, kya haseen sitam...(Kaagaz Ke Phool)" jo mera manpasant gana hai.

How I wish the shairs and poets of today write such masterpieces. I am really pained to hear songs like "pappu.....can't......."

Chander

Manish Kumar on मई 19, 2009 ने कहा…

बाज़ीचा** ए अत्फाल*** है दुनिया मेरे आगे...

यानि दुनिया मानों बालकों**** द्वारा खेला जाने वाला एक खिलवाड़** है जहाँ हर दिन कोई ना कोई तमाशा हर दिन सामने आता रहता है।

Chander is blog par aane ka shukriya. asha hai aapse yahan mulaqat hoti rahegi.

बेनामी ने कहा…

Dear Zanab Manish Kumar, the peasure is entirely mine.

I find the other blog re. ghazal हमने हसरतों के दाग आँसुओं से धो लिए आपकी खुशी हुजूर बोलिए ना बोलिए somewhat identical to an oldie sung by Lata Mangeshkar (Yun hasraton ke daag aansoowon mein dhow liye, khud dil hi dil se baat kahi aur ro liye...)"

Looks as if imitation, indeed is the best form of flattery !

बेनामी ने कहा…

In one of the renditions of "sarakti jaaye hai rukh se naqaab, aahista aahistaa...", Jagjit Singh explains the differences in the way "Huzoor / Zanaab" is pronounced by Lucknow and Panjab.

He associates the milder, softer way of pronouncing "Huzoor" to Panjab and the harsh, stern tone of pronouncing "Zanaab" with Lucknow.

What surprises me is, the association seems to be reversed.

Can't mentally imagine the tough Panjab people using the milder tone of Huzooor.... !

Any views on this ?

 

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