पिछली शाम से आपके विचारों की इस यात्रा को और आगे बढ़ाते हैं । तो आज की शुरुआत अवधिया जी से
श्री जी.के.अवधिया ने बात चलाई कि
क्या आज के इस युग में मेलोडी मर गई है । मैंने आज के संगीत के सशक्त पहलुऔं को रखा।
जीतू भाई ने प्रतिध्वनि कि और....कहा
"मेलोडी नही मरती, कभी नही मरती। हाँ उपलब्धता कम ज्यादा हो सकती है। लगभग, कभी रोजे तो कभी ईद वाला हाल होता है। शोर मे से भी कभी ना कभी सुरीला संगीत निकल कर आ ही जाता है।"
अवधिया साहब का जवाब था..
"मैं मानता हूँ कि आज भी बहुत सारे प्रतिभावान संगीतकार और गीतकार हैं और मैं उनके साथ अन्याय भी नहीं करना चाहता पर उनसे केवल यह उम्मीद करना चाहता हूँ कि वे ऐसा संगीत दें कि उनकी विशिष्ट पहचान बन जाये यह तो आपको भी मानना पड़ेगा कि आज हजारों गीतों में केवल एक-दो रचनाएँ ही कर्णप्रिय बन पा रही हैं और फिर उनकी आयु भी बहुत ही कम होती है, कुछ ही दिनों बाद ही उन्हें हम भूल जाते हैं " खैर बहस जारी रही.......
हिन्दी चिट्ठाजगत में
गुलजार प्रेमियों की कमी नहीं और मैं तो खुद ही उनसे कितना प्रभावित हूँ और जब-तब आप सब को उनके द्वारा लिखे हुए गीतों,गजलों और नज्मों से रूबरू कराता रहा हूँ । पर अब
प्रतीक पांडे क्या कहते हैं
गुलजार की लेखनी बारे में ये देखिए
"गुलज़ार साहब का काव्य ज़मीनी सुगन्ध से सुवासित और हृदय की गहराईयों से निकला होता है, इसलिए सीधे पढ़ने/सुनने वाले के दिल में उतर जाता है। वास्तव में यह गीत बहुत अच्छा बन पड़ा है और संगीत भी कर्णप्रिय है।"
"'
कोई बात चले' के बारे में उनका कहना था
वल्लाह... इन शेरों और त्रिवेणियों को पढ़ कर ही दिल के सारे तार झंकृत हो गए, सुनकर न जाने क्या होगा? लगता है यह एल्बम कोई बात चले ख़रीदनी ही पड़ेगी।"
फिर आया
पचमढ़ी का यात्रा विवरण और इस यात्रा को सबसे उत्सुकता से पढ़ा हमारे
मध्य प्रदेश के साथियों ने...आखिर उनके प्रदेश की बात थी । नागपुर से पंचमढ़ी में जो झटके हमने खाए वो दर्द बयां किया तो हमारे
राकेश खंडेलवाल जी से रहा ना गया । कह उठे :)
राह खड्डदार होठोकरों की मार हो
औ' किनारे हो रहा
चाय का व्यापार हो
टिको नहीं डिगो नहीं
बहादुरो! बढ़े चलो ...
जबलपुर के समीर जी का मन हरिया उठा -कहने लगे मन हरा कर दिये, इसे वाकई कहीं छपने भेजें.बधाई, पचमढ़ी घुमाने के लिये.
अब नीरज दीवान का पंचमढ़ी में ननिहाल है या नहीं हम भला पहले से थोड़ी ही जानते थे । सो तभी तो उन्हें वहाँ के अप्सरा विहार में अप्सराओं के मिलने का जिक्र किया और फिर आगे लिखा
"आपने जंगल का कुंवारा सौंदर्य देखा है. सतपुड़ा की इन पहाड़ियों में कई अनजानी जगहें हमें प्रकृति की गोद में ले जाती हैं. शहरो में कुदरत का ऐसा अनमोल और निर्मल वात्सल्य पाने से हम वंचित रहते हैं. खुशनसीब हैं आप जो पर्यटन करते रहते हैं."
भइया खुशनसीब आप भी कम नहीं आपका तो ननिहाल हैं वहाँ :)
खैर कविता करने वाले गर आपकी प्रविष्टि को पढ़ें और प्रतिक्रिया में चंद पंक्तियाँ लिख डालें तो प्रविष्टि की खूबसूरती और बढ़ जाती है । देखिए तो
पंचमढ़ी पुराण पर
रचना जी की प्रतिक्रिया
आपका यात्रा वर्णन अनोखा होता है.
"हों पहाडी वादियाँ,या फिर हो जंगलों मे विचरण,
दृष्टि देखे भिन्न सृष्टि, जब मुसाफिर हो कवि मन!"
'ढलती शाम के चित्र हैं सुन्दर,
शब्दों से वर्णन भी रूचिकर,
लेकिन ठहरी जहाँ नजर,
वो है झील किनारे का घर!'
कोई कविता से अपनी भावनाओं को जोड़ता है तो कोई पुरानी यादों को व्यक्त कर के। अब
नेपच्यून को ही लें उन्होंने पंचमढ़ी की बात से अपने स्कूल के दिनों की यादें ताजा कीं.....
"काफी साल पहले की बात है । तब मै ८वीं कक्षा में थी। मजे कि बात है कि टीचर को बताया कि घर में शादी है और चल पड़ी पंचमढ़ी। पर वहाँ जाकर पाया कि १२वीं कक्षा के विद्यार्थियों के साथ वो टीचर भी आईं हैं जिनसे मैंने अनुमति ली थी ।:)".....
पूर्वी भारत के अंग्रेजी दैनिक
दि टेलीग्राफ की
सुचि आर्या ने
झारखंड के ब्लागर्स पर स्टोरी की । हम लोगों के हिंदी ब्लॉग का भी जिक्र हुआ । सवाल उठा हिंदी के समाचार पत्र इनमें पीछे क्यूँ हैं?
संजय बेंगाणी का जवाब था....
." अधिकतर हिन्दी अखबारो में जागरूगता की कमी है, तथा उनका (अधिकतर) पाठकवर्ग भी इन सब मामलो में रूचि नहीं रखता"...
खैर अब तो स्थिति बदल रही है ना संजय भाई, तब आपने कहाँ सोचा होगा कि कल को हिन्दी पत्रकार भी ब्लागिंग में आने लगेंगे और यहाँ की बात अखबार में पहुँचाएगे।
मजाज लखनवी की गजल ऐ गमे दिल क्या करूँ... पर उनकी जिंदगी की रुप रेखा खींची तो
प्रियंकर जी ने कहा ....
"मजाज़ पर बेहतरीन प्रस्तुति के लिए साधुवाद स्वीकारें . 'अब तो गम,वहशत और तंगदश्ती बढती ही जाती है आज अगर मजाज़ होते कितने बेचैन रहते और क्या लिखते ? "
आशापूर्णा जी की बँगला किताब
लीला चिरंतन के बारे में
सुपर्णा ने अनुवादक की भूमिका पर कुछ अच्छे प्रश्न सामने रखे
अनुवाद की प्रक्रिया में विशेष रुचि है, इसलिए आपका मत जानना चाहूँगी। आपने सीधे सहज भाष्य के बारे में टिप्पणी की है पर इसमें लेखक के आलावा अनुवादक की भूमिका भी जरूर होगी । क्या मूल लेखनी की सहजता और अनुवादित लेख की भाषा में कोई खास नाता है? क्या जटिल भाषा सहज रूप से अनुवादित हो पाती है ? मैंने खुद एक मराठी आत्मचरित्र को अनुवादित करने का प्रयास किया है। किस हद तक सफलता पाई है उसका मूल्यांकन नहीं कर पाई हूँ ।
अमृता प्रीतम की दो खिड़कियों के बारे में
मान्या ने कहा सचमुच उनके लेखन में कुछ अलग है, गूढ़ भाव लयबद्धता, ज्यादा क्या कहूँ ऐसे दिग्गजों के बारे में।
बात चली
चाँद और उसकी चाँदनी की ! चाँद के बारे में आपकी अलग अलग भावनाएँ सामने आईं ।और देखिए
रचना बजाज जी ने उसमें क्या पाया
"हुई रात, अब चाँद फिर से है आया,
तभी मैने अपने मे, अपने को पाया!
उसी ने नये कल का सपना दिखाया,
उसी ने मुझे घट के बढना सिखाया!"
और पूनम मिश्रा जी की ख्वाहिश पे गौर करें
"जी नहीं चाह्ता कि यह रात गुज़र जाए
चाँद छिप जाए और चाँदनी सिमट जाए
पर आपका वादा है फिर से आने का
उसी सहारे ,शायद ,यह दिन निकल जाए".
जीतू भाई ने भी डा० शैल रस्तोगी की एक उम्दा हाइकू परोसी
उगा जो चाँद
चुपके चुरा लाई
युवती झील।
फिर आया वार्षिक संगीतमाका का दौर और मेरी अमीन सयानी वाली स्टाइल पर अनुराग श्रीवास्तव जी ने चुटकी ली......."ऐसा लगता है जैसे रेडियो से चिपक कर 'बिनाका गीत माला' सुन रहे हैं. हुम्म भाइयों बहनों अगली पायदान पर है सरताज गीत . . . .लेकिन उसके पहले यह सरताज बिगुल ह्म्म . . .भई ये तो बहुउत हीई अच्छी बाआत हुईई है...हुम्म्म्म भाइयों आओर बहनोंओं कि अब पढ़ने के साआथ साआथ सुनने को भीई मिल रहा है...हुम्म्म्म. :)
मेरी गीतमाला के पहले नंबर के गीत
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो के बारे में
उनका कहना था
पुरानी वाली 'उमराव जान अदा' में भी ऐसा ही एक गीत था "भैया को दियो बाबुल महल-दुमहला, हमको दियो परदेस". दोनों ही गीतों में पीड़ा वही है.कुछ लोग जागरूक हो रहे हैं - कुरीतियों को हटाने का प्रयास भी कर रहे हैं. कुछ ने पाखण्ड की दीवार को ही परंपरा का नाम दे दिया है, दीवार के भीतर सति के मंदिर बन रहे हैं - कन्या भ्रूण दफ्न हो रहे हैं. जब कि असली परंपरा दीवार के दूसरी तरफ है. तुम्हारे लिखे हुये से तुम्हारी पीड़ा और बेबसी को मैं महसूस कर सकता हूं.
गीतमाला आगे बढ़ी और पुराने संगीत के शौकीन
सागर भाई ने कहा...."सही कहा मनीष जी आपने कैसे ना हो कोई कैलाश का दीवाना। किसी और गायक की नकल करने के बजाय कैलाश ने अपनी अलग शैली बनाई और कामयाब रहे बाकी आजकल के लगभग सारे गायकों पर रफ़ी साहब और किशोर दा का प्रभाव स्पष्ट महसूस होता है। "
अनूप शुक्ला जी कानपुर शब्द सुनते ही हरकत में आ जाते हैं
अभिजीत का जिक्र आते ही कह बैठे "ये कनपुरिया है। तभी कहें कि ये कैसे इतना अच्छा गाता है और बात-बात पर लिटिल चैम्पस में काहे बमक जाता था! "
पर
गुलजार प्रेमी जगदीश भाटिया जी की
ओंकारा के बारे में इस टिप्पणी की तो बात ही क्या !
गीत का फिल्मांकन भी बहुत अच्छा हुआ है, एक ही शॉट में करीना और अजय आहाते से छत पर जाते हैं,छत का चक्कर काटते हैं और फिर सीढ़ियों से नीचे उतर आहाते से होते बाहर चले जाते हैं, कैमरा संगीत के साथ साथ घूमता है, मगर शॉट नहीं कटता। खूबसूरत और काव्यातम्क फिल्मांकन है गीत का। गायकों की आवाज से आमतौर पर उनकी सांसों की आवाज गीत में से मिटा दी जाती है, मगर एक खास इफैक्ट देने के लिये गायकों की सांसों की आवाज को उभारा गया है, जो कि गीत में एक अलग ही असर छोड़ता है। मैं तो यही कहूंगा फिल्म संगीत इतिहास की एक अमर कृति। माचिस के संगीत में गुलजार और विशाल ने एक नयी छाप छोड़ी थी, ओंकारा में नयी बुलंदियों को छुआ है।
पोस्ट कुछ ज्यादा लंबी हो गई , पर ये संतोष है कि आप सब की जो बातें मन को खुशी दे गई वो आप तक पहुँची । आशा है आपका ये साथ बरकरार रहेगा आने वाले कल में भी ।:)