गुरुवार, मार्च 27, 2008

सुनिए रूना लैला को : तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है मुझे प्यार तुम से नहीं है नहीं है..

बात सत्तर के दशक के उत्तरार्ध की है जब गर्मी की तपती दुपहरी में हमारा परिवार दो रिक्शों में सवार होकर पटना के 'वैशाली सिनेमा हाल' मे अमोल पालेकर और जरीना बहाव की फिल्म 'घरौंदा' देखने गया था। सभी को फिल्म बहुत पसंद आई थी। भला कौन सा मध्यमवर्गीय परिवार एक बड़े मकान का सपना नहीं देखता । इसलिए जब फिल्म में इन सपनों को बनते बनते टूटता दिखाया गया तो वो ठेस कलाकारों के माध्यम से सहज ही हम दर्शकों के दिल में उतर ही गई थी। उस वक्त जो गीत सिनेमा हाल के बाहर तक हमारे साथ आया वो था दो दीवाने शहर में...रात को और दोपहर में इक आबोदाना ढूंढते हैं.. गायक ने 'आबोदाना' की जगह मकान क्यों नहीं कहा, ये प्रश्न बहुत दिनों तक बालमन को मथता रहा था। अब आबोदाना यानी भोजन पानी का रहस्य तो बहुत बाद में जाकर उदघाटित हुआ।

दिन बीतते गए और जब कॉलेज के समय गीत सुनने की नई-नई लत लगी तो कैसेट्स की नियमित खरीददारी शुरु हुई। पहली बार तभी ध्यान गया कि अरे इस घरौंदा के कुछ गीत तो गुलज़ार ने लिखे हैं और ये भी पता चला कि १९७७ में दो दीवाने शहर में.... के लिए गुलज़ार फिल्मफेयर एवार्ड से सम्मानित हुए थे। सारे गीत बार बार सुने गए और इस बार जो गीत दिल में बैठ सा गया वो रूना लैला जी का गाया ये गीत था। पर इस गीत यानी 'तुम्हें हो ना हो....' को नक़्श लायलपुरी  (Naqsh Lyallpuri) ने लिखा था। क्या कमाल के लफ़्ज दिये थे नक़्श साहब ने।

दिल और दिमाग की कशमकश को बिल्कुल सीधे बोलों से मन में उतार दिया था उन्होंने.. ....अब दिमाग अपने अहम का शिकार होकर लाख मना करता रहे कि वो प्रेम से कोसों दूर है पर बेचैन दिल की हरकतें खुद बा खुद गवाही दे जाती हैं।

इस गीत को संगीतबद्ध किया था जयदेव ने। गौर करें की इस गीत में धुन के रूप में सीटी का कितना सुंदर इस्तेमाल हुआ है। इस गीत की भावनाएँ, गीत में आते ठहरावों और फिर अनायास बढती तीव्रता से और मुखर हो कर सामने आती है। जहाँ ठहराव दिल में आते प्रश्नों को रेखांकित करते हैं वहीं गति दिल में प्रेम के उमड़ते प्रवाह का प्रतीक बन जाती है। इस गीत को फिल्म में एक बार पूरे और दूसरी बार आंशिक रूप में इस्तेमाल किया गया है। तो पहले सुनिए पूरा गीत



तुम्हें हो ना हो, मुझको तो, इतना यकीं है
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है



मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है

मगर मैंने ये राज अब तक ना जाना
कि क्यूँ, प्यारी लगती हैं, बातें तुम्हारीं
मैं क्यूँ तुमसे मिलने का ढूँढू बहाना
कभी मैंने चाहा, तुम्हे् छू के देखूँ
कभी मैंने चाहा तुम्हें पास लाना
मगर फिर भी...
मगर फिर भी इस बात का तो यकीं है.
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है

फिर भी जो तुम.. दूर.. रहते हो.. मुझसे
तो रहते हैं दिल पे उदासी के साये
कोई, ख्वाब ऊँचे, मकानों से झांके
कोई ख्वाब बैठा रहे सर झुकाए
कभी दिल की राहों.. में फैले अँधेरा..
कभी दूर तक रोशनी मुस्कुराए
मगर फिर भी...
मगर फिर भी इस बात का तो यकीं है.
मुझे प्यार तुम से नहीं है, नहीं है

तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है
मुझे प्यार तुम से नहीं है, नहीं है
तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है



जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा कि रूना लैला का हिंदी फिल्मों में गाया ये मेरा सबसे प्रिय गीत है। रूना जी की आवाज गीत के उतार चढ़ाव को बड़ी खूबसूरती से प्रकट करती चलती है। जब नायक सपनों के टूटने से उपजी खीज से मोदी को सफलता (कहानी का एक पात्र) की सीढ़ी बनाने की बात करता है तो नायिका को लगने लगता है कि मैंने सच,ऍसे शख्स से प्रेम नहीं किया था और गीत के दूसरे रूप में यहीं भावना उभरती है। रूना जी की आवाज की गहराई यहाँ आँखों को नम कर देती है..

आप बताएँ ये गीत आपको कैसा लगता है?

बुधवार, मार्च 26, 2008

आइए सुनें रूना लैला को: दिल की हालत को कोई क्या जाने, या तो हम जाने या ख़ुदा जाने..


पिछले दो हफ्तों से मियादी बुखार यानि Typhoid से संघर्ष करने के बाद अब लग रहा है कि शीघ्र ही इसके चुंगल से निकल पाऊँगा। इस वज़ह से होली तो फीकी रही ही, ब्लागिंग पर भी विराम लग गया। दवाओं की जितनी मात्रा पिछले दो हफ्तों में गटकनी पड़ी उतनी पिछले दो तीन सालों में नहीं खाईं थीं। खैर अब बुखार काबू में है, पर एंटीबॉयटिक्स के हेवी डोज ने शरीर का बाजा बजा दिया है तो अभी भी डॉक्टरी सलाह अनुसार विश्राम कर रहा हूँ।


तो आज बात रूना लैला जी की क्योंकि आज इनकी ही एक गैर फिल्मी उदास नज़्म आपको सुनवा रहा हूँ जो मैंने नब्बे के दशक में सुनी थी। आपको तो पता ही होगा की रूना लैला बाँगलादेश से हैं। बेहद छोटी उम्र से उन्होंने उस्ताद हबीबद्दीन खाँ से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरु की। मात्र छः साल की आयु में उन्होंने बतौर गायक अपना जनता के सामने अपना पहला कार्यक्रम दिया।

१२ साल की उम्र में उनके गीत पाकिस्तानी फिल्म 'जुगनू' में शामिल हुए। पर ये मौका भी उन्हें अचानक हाथ लगा। गाने के लिए चुनाव उनकी बड़ी बहन दीना का हुआ था पर जिस दिन उन्हें गाना था उनका गला खराब हो गया और रूना को उनकी जगह गाने को कहा गया। नन्ही रूना को उस वक़्त तानपूरा भी पकड़ने नहीं आता था सो तिरछा ना रख कर सीधा रख कर रूना ने एक 'खयाल' गाया जो लोगों को बेहद पसंद आया। उसके बाद तो उनका कैरियर ग्राफ ऊपर ही चलता गया।

रूना बाँगलादेश, पाकिस्तान और भारत में समान रूप से लोकप्रिय हुईं। खासकर 'दमा दम मस्त कलंदर' की लोकप्रियता के बाद रूना लैला हिंदुस्तान के कोने कोने में जानी जाने लगीं थी। पाँच हजार से अधिक गीत गाने वालीं रूना, १७ भाषाओं का ज्ञान रखती हैं। कई हिंदी फिल्मों में अपनी आवाज़ दे चुकी हैं जिनमें घरौंदा फिल्म के लिए गाए उनके गीत तो मुझे बेहद प्रिय हैं। आज भी रूना विश्व के कोने कोने में अपने स्टेज शो करती रहती हैं।

मुझे रूना जी की आवाज़ हमेशा से पसंद है। और जब जब दिल में मायूसी और बेचैनी का पुट ज्यादा हो जाता हैं तो उनकी इस नज़्म को सुनना अच्छा लगता है।

ये कैसा ऐ निखरते बादलों तुम पर शबाब आया
कोई ईमान खो बैठा, कोई ईमान ले आया
फरिश्तों की इबादत से बताओ दुश्मनी क्यों है
किसी के वास्ते कोई तड़प कर जान दे आया

दिल की हालत को कोई क्या जाने
दिल की हालत को कोई क्या जाने
या तो हम जाने या ख़ुदा जाने

सुबह के साथ हैं हसीं किरणें
रात सज जाए चाँद तारों से
सुबह के साथ हैं हसीं किरणें
रात सज जाए चाँद तारों से
एक हम हैं कि क्या मुकद्दर है
कोई रिश्ता नहीं बहारों से
काश दे दें हाए ~ ~ ~
काश दे दें सुकून वीराने
दिल की हालत को कोई क्या जाने
या तो हम जाने या ख़ुदा जाने

क्या सितम है कि मोतिया बूँदें
कच्चे जख्मों को गुदगुदाती हैं
इन घटाओं का क्या करे कोई
जो सदा खून ही रुलाती हैं
अब कहाँ जाएँ हाए ~ ~ ~
अब कहाँ जाएँ दिल को बहलाने


दिल की हालत को कोई क्या जाने
या तो हम जाने या ख़ुदा जाने


इस नज्म को संगीतबद्ध किया था मशहूर संगीतकार स्वर्गीय ओ. पी. नैयर ने और इसे लिखा था नूर देवासी साहब ने। ये नज्म एलबम 'लव्स आफ रूना लैला' में है जिसे आप यहाँ से खरीद सकते हैं.







अगली पोस्ट मे रूना जी का गाया मेरा मनपसंद गीत आपके सामने होगा।

मंगलवार, मार्च 18, 2008

आइए झांके हृदय गवाक्ष के अंदर और मिलें कंचन सिंह चौहान से..

आज आपको मिलवाते हैं हमारी साथी महिला चिट्ठाकार कंचन सिंह चौहान से जिनसे २९ फरवरी को मेरी मुलाकात लखनऊ में हुई थी। कंचन चौहान से पहला संपर्क आरकुट के गोपाल दास नीरज समूह पर हुआ था।वहाँ से मैं उनकी प्रोफाइल पर गया था तो ये पंक्तियाँ पढ़कर मंत्रमुग्ध हो गया था


नित्य समय की आग में जलना,
नित्य सिद्ध सच्चा होना है,
माँ ने दिया नाम जब कंचन,
मुझको और खरा होना है 

मुझे जीवन में अक्सर ऍसे लोग अच्छे लगे हैं जिनमें अपने हुनर के प्रति आत्मविश्वास हो और अपने इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए धैर्य और परिश्रम से परहेज ना हो। ऍसा इसलिए भी है कि ऍसे लोगों की संगत आपको भी उत्प्रेरित करती है अपनी कर्मठता बनाए रखने की। और इन पंक्तियों के पीछे मुझे ऍसे ही इंसान की हल्की छाया जरूर दिखी।

उनकी चिट्ठे की प्रोफाइल पर आज जो तसवीर है ,वही उस वक्त आरकुट पर थी पर ये बात मैंने कभी गौर नहीं की कि चित्र में वो व्हील चेयर पर बैठीं हैं। जब मुझे ये बात कंचन से पता चली कि वो बचपन से पोलियो की समस्या से पीड़ित हैं तो मैं स्तब्ध रह गया। ये कंचन की जीवटता का ही कमाल है कि बिना व्हील चेयर के ये लड़की स्कूल और कॉलेज की सीढ़ियां घिसट घिसट कर चढ़ती रही, गिरती रही, दबती रही फिर भी अपनी हताशा पर काबू पाकर इन विषम परिस्थितियों को कभी पढ़ाई के बीच नहीं आने दिया।

कंचन के पिता की ख्वाहिश थी की बिटिया कॉलेज में अंग्रेजी विषय जरूर चुने। पिता तो नहीं रहे पर उनकी इच्छा को पूर्ण करने के लिए कंचन ने पहले अंग्रेजी में परास्नातक किया और फिर अपनी इच्छा के विषय हिंदी में भी। कंचन, फिलहाल एक सरकारी महकमे में हिंदी अनुवादक के पद पर कार्यरत हैं। पर कृतिदेव में अनेकों पांडुलिपियों को लिखने के बाद भी ये इस बात से अनिभिज्ञ थीं कि यूनीकोड भी कोई चीज होती है। इन्हें मैंने परिचर्चा में जाने की सलाह दी कि वहाँ बहुत सारे लोग आपको यूनीकोड में टाइप करने के औजार और गुर सिखा देंगे। पर उनकी यूनीकोड सीखने की लगन और उनकी कविताओं की गुणवत्ता को देखने के बाद मैंने मन ही मन निश्चय किया कि कंचन की प्रतिभा को सही रूप में ज्यादा लोगों तक एक चिट्ठे के माध्यम से पहुँचाया जा सकता है। कंचन परिचर्चा में तो नियमित रूप से कविता लिखती रहीं पर अपना चिट्ठा बनाने की जब भी बात होती उनकी स्वास्थ समस्याएँ आड़े आ जातीं। खैर , वो अस्वस्थता के दौर से बाहर निकलीं और फिर हृदय गवाक्ष अस्तित्व में आया। इतने कम समय में भी चिट्ठाकारों और पाठकों का जो प्रेम उन्हें मिला है वो उनकी लेखन प्रतिभा का प्रमाण है।

ऍसे में लखनऊ एक शादी में जाने का कार्यक्रम बना तो मैंने कंचन को अपने कार्यक्रम की सूचना दी। जब मैंने ये पाया कि इनके घर से मेरे रहने के स्थान की दूरी २० किमी है तो मैंने कहा कि आपको वहाँ तक पहुँचने या मुझे लिवा लाने में समस्या आएगी। अब बोलने में कंचन कम उस्ताद नहीं है, तुरंत कह बैठीं

"..आप चिंता क्यों करते हैं? आपको बस निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचना है, वहाँ से आपको उठवा लिया जाएगा।..."

खैर, मुझे स्टेशन तक पहुँचने को कहा गया। निर्धारित समय पर पहुँच गए। अगला आदेश आया कि अब रानी कलर की कमीज पहने युवक आपको स्टेशन पर रिसीव करेगा। जब बीस पचीस मिनट गुजर गए तो मैंने चहलकदमी करनी शुरु कर दी। इसी बीच दो तीन रानी कलर कमीज वाले नजर भी आए जिनके आमने सामने से मैं दो तीन बार आशा भरी निगाहों से गुजरा पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। जब प्रतीक्षा करते करते ४० - ४५ मिनट गुजर गए तो ख़बर आई कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से आपको लाने वाले दूत को बदल दिया गया है।

थोड़ी ही देर बाद अवधेश मेरे सामने थे। वे मुझे लखनऊ का दर्शन कराते हुए गंतव्य स्थान पर ले गए। हमलोग पहले पहुँच गए थे इसलिए अवधेश से उनके कैरियर संबधित बातचीत हुई। फिर कंचन आईं अपने भांजे विजू के साथ। अगले दो घंटे खालिस गपशप में बीते। कंचन व्यक्तिगत रूप से मुझे मिलनसार और हँसमुख (इसका प्रमाण आप इनके चित्रों को देख कर कर सकते हैं)इंसान लगीं। परिवार के सारे बड़े छोटों की वो चहेती रही हैं। बड़े छोटों में नेह बाँटना इन्हें बखूबी आता है। इस बात से इनकी लिखी ये कविता याद आती है..

तुम अपनी परिभाषा दे लो, वो अपनी परिभाषा दें लें,
मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है।

वही नेह जो गंगा जल सा सारे कलुष मिटा जाता है,
वही नेह जो आता है तो सारे द्वेष मिटा जाता है।

वही नेह जो देना जाने लेना कहाँ उसे भाता है,
वही नेह जो बिना सिखाए खुद ही त्याग सिखा जाता है।

वही नेह जो बिन दस्तक के चुपके से मन में आता है,
वही नेह जो साधारण नर में देवत्व जगा जाता है।


पर बालकों ने ये भी बताया कि घर में इनकी निरंकुश सत्ता चलती है:)। जिद पर आ जाएँ तो बात वात करना बंद कर दें तब इन्हें मनाने के कई पुराने नुस्खे अपनाने पड़ते हैं, जिसमें अक्सर कामयाबी मिल ही जाती है।
कंचन संयुक्त परिवार में पली बढ़ी हैं और समाज में नारी के किरदार की उनकी एक सोच है जिनके कुछ बिंदुओं पर मेरी उनसे कई बार बहस हो चुकी है। वही चर्चा यहाँ भी खिंच गई कि क्या लड़के और लड़कियों के लालन-पालन में हम आज भी क्या एक मापदंड को अपनाते हैं? सबने अपने अपने अनुभव बाँटे। फिर विजू ने बताया कि उसे जोधा अकबर में क्या अच्छा लगा। साहित्य और संगीत में कंचन की खासी अभिरुचि रही है और मैंने सोचा था कुछ उनकी पसंदीदा किताबों के बारे में भी उनकी राय लूँगा पर घड़ी की सुईयाँ तेजी से आगे बढ़ रहीं थीं। १.३० बज रहे थे और मुझे वापसी की ट्रेन पकड़नी थी इसलिए कंचन और विजू से विदा लेकर मैं अवधेश के साथ वापस स्टेशन की ओर चल पड़ा।

अब देखिए इस मौके पर ली गई कुछ तसवीरें और हाँ कंचन जी की शिकायत है कि मेरे कैमरे ने उन्हें 20% extra dark दिखाया है। मैंने उनकी शिकायत सोनी कंपनी तक पहुँचा दी है पर फिलहाल तो मैं यहीं कह सकता हूँ कि आप लोग चित्र देखते समय इस हिसाब से आवश्यक फिल्टरेशन कर ही उनकी कोई छवि मन में बनाइएगा  :)।





ये हम तीनों के व्यक्तित्व का कमाल था कि कंचन चित्र लेते समय अंदर से बाहर तक हिल गईं

वैसे इस मुलाकात की कुछ और तसवीरें आप यहाँ भी देख सकते हैं

शुक्रवार, मार्च 14, 2008

एक मुलाकात सुर प्रेमी 'मीत' से....

'मीत' यानि अमिताभ से मेरा कोई पुराना परिचय नहीं रहा। मुझे इनके बारे में सबसे पहले पारुल जी ने बताया था कि एक सज्जन है जो अच्छी ग़ज़ल कह लेते हैं, मेरी तरह सेल (SAIL) में हैं.... फिलहाल 'कोलकाता' में पाए जाते हैं और वो उन्हें चिट्ठा बनाने में मदद भी कर रही हैं। दो तीन दिनों बाद जब अपने कार्यालय के गलियारे में टहल रहा था कि कार्मिक विभाग के मेरे सहकर्मी का इशारा हुआ कि उनके मोबाईल पर मुझे याद किया जा रहा है। उधर लाइन पर अमिताभ थे..कुशल प्रेम के बाद उन्होंने समस्या बताई "बॉस ब्लॉगवाणी वाले रजिस्टर नहीं कर रहे हैं "। मैंने कहा मैथिली जी से बात कर देखता हूँ। मैथिली जी ने तत्काल उत्तर दिया की व्यस्तता की वज़ह से पंजीयन नहीं हो रहा था। खैर अमिताभ जी का काम हो गया। पर इस बातचीत के बाद नई जानकारी ये मिली कि अमिताभ एक ज़माने में राँची में काम कर चुके हैं।

मैंने सोचा कि तब तो हमारे मित्र गणों में कई इन्हें बखूबी जानते होंगे। तुरंत हमने जाँच पड़ताल शुरु की। तहकीकात के बाद पता चला कि जनाब हमारे कार्यालय के सामने वाले G Block के बाशिंदे रह चुके हैं। उनके मित्र अभी भी चाव से उन दिनों की कहानियाँ सुनाते हैं। कहानियों का सार ये ही रहा कि संगीत और सुरापान पर उनकी अनन्य भक्ति थी और शायद ही उनकी कोई रात इसके बिना गुजरती थी। पर ये बातें बारह साल पुरानी हो चुकीं थीं । मन ही मन सोचा कि जब उनसे मुलाकात होगी तो देखूँगा उनके स्वरूप में कितना बदलाव आया है।

फरवरी के अंतिम सप्ताह की बात है। शाम के साढ़े छः बजने वाले थे। मैं अभी ओफिस में ही था कि मोबाइल की घंटी बज उठी। आवाज़ सुनते ही समझ आ गया कि उधर कौन सी बला :) है। पता चला हुजूर हमारे कार्यालय के बगल में स्थित ट्रेंनिंग सेंटर में पधारे हैं। मैं अपने काम निबटा कर सवा सात के करीब उनके कक्ष में पहुँच गया।

कमरे में मद्धम प्रकाश जल रहा था। दूर किनारे वाली कुर्सी पर अमिताभ बैठे मिले..दाँयी तरफ क़ाग़ज में लिपटी बोतल और हाथ में जाम। कुशल प्रेम पूछने के बाद तुरंत ही पूछा

...लोगे?

मैंने नकारा तो कह उठे कि कहीं औपचारिकतावश तो ऍसा नहीं कह रहे। मैंने कहा नहीं अमिताभ साहब मैं नहीं पीता। छूटते ही जवाब आया

तो फिर जीते कैसे हो? :)

खैर, हमारी बातें शुरु हुईं रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविताओं से। दिनकर से अमिताभ जी के परिवार का अर्से से जुड़ाव रहा है। दिनकर की जिंदगी के सुखद और दुखद पहलुओं से जुड़ी बातें हुईं। मीत बताने लगे कि किस तरह उन्होंने दिनकर को खुद करीब से काव्य पाठ करते सुना है और तकरीबन उनकी सारी पुस्तकें पढ़ी हैं। हाल ही में उन्होंने अपने चिट्ठे पर दिनकर की कविताओं का सस्वर पाठ कर एक नायाब श्रृंखला शुरु की है। अभी तक चिट्ठाजगत में पॉडकॉस्ट पर जितनी कविताओं को सुना है उनमें मीत का अंदाजे बयाँ मुझे सबसे अनूठा लगता है। मीत एक बुलंद आवाज़ के मालिक तो हैं ही, साथ ही अपनी आवाज़ में वो कविता की भावनाओं को हूबहू उतारने में सबसे सक्षम नज़र आते हैं।

सूफ़ी या भक्ति संगीत की बात चली । हम दोनों ने इस बात से सहमत थे कि जब आबिदा परवीन, नुसरत, पंडित जसराज और कैलाश खेर जैसे कलाकार गाते हैं तो लगता है कहीं ना कहीं ऊपरवाले तक बात पहुँच रही है। मीत के भाई कैलाश खेर के काफी नजदीकी रहे हैं। कैलाश अपनी निजी जिंदगी में सादगी और संगीत के प्रति पूर्ण समर्पण रखते हैं, इससे जुड़ी बातें मीत ने बताईं।

फिल्म संगीत के मामले में हमलोगों की पसंद और विचार एक जैसे नहीं हैं। मीत को पचास और साठ के बीच ही का संगीत ही भाता है जबकि मेरी पसंद के गीतों की फेरहिस्त में पुराने से लेकर नया संगीत भी शामिल है। मेरा मानना है कि अच्छे गीतों की संख्या में कमी भले आई हो पर वे विलुप्त किसी काल में नहीं हुए। वैसे संगीत के बारे में चर्चा गुलज़ार से शुरु हुई। मीत कहने लगे कि गुलज़ार से उन्हें खासी नाराजगी है। गुलज़ार मेरे पसंदीदा गीतकार हैं इसलिए उत्सुकता हुई कि मीत का अभिप्राय क्या है? मीत ने पहला गोला दागा

"क्या जरूरत थी गालिब की ज़मीन से उस शख्स को दिल ढूंढ़ता है फुरसत के रात दिन लिखने की... जबकि वो इतना talented है कि ऍसे कितनी रचनाएँ स्वयम् कर सकता है?"

मैंने कहा कि गालिब की शायरी से प्रेरित होकर किसी गीत की रचना करना कोई गलती नहीं है, हाँ इस बात का जिक्र गीत की credits में अवश्य होना चाहिए था और अगर ऍसा नहीं किया गया तो वो ग़लत था। रही talented होने की बात तो हुनरमंद होने का मतलब ये नहीं कि आप किसी से प्रेरित होकर कुछ रचने का अधिकार भी खो दें। शायरी जगत में ऍसे बहुतेरे उदहारण मौजूद हैं। इस पोस्ट को लिखते वक्त मुझे फ़ैज की वो ग़ज़ल याद आ रही है जो मोइनुद्दीन मखलूम की गजल से प्रेरित होकर उन्होंने लिखी थी

आपकी याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर

पर क्या आपकी सारी नाराज़गी सिर्फ इसी वज़ह से है? मीत कुछ और खुले
गुलज़ार ने बाज़ार के सामने अपने आप को बेच दिया है।
सही कहूँ तो मुझे उनकी बात समझ नहीं आई। सत्तर के दशक की हमारी पीढ़ी को लेकर चालिस साल बाद आज की पीढ़ी को भी अपने गीतों से प्रभावित करने वाले गुलज़ार एक ऍसे गीतकार हैं जिन्होंने बाजार की प्रतिबद्धताऔं के बाद भी अपनी पहचान क़ायम रखी है.

मीत ने दूसरा सवाल संख्या का उठाया कि गुलज़ार ने अब तक कितने गीतों की रचना की है सत्तर से लेकर आज तक। उनके कहने का अभिप्राय था कि इस हिसाब से शौकत जयपुरी भी गुलज़ार से कहीं आगे ठहरेंगे। यही तर्क उन्होंने रफी और मुकेश की तुलना में लगाया। मैंने कहा कि इस हिसाब से तो आप मन्ना डे को भी घटिया गायक साबित कर देंगे।

मुझे तो एक कलाकार की दूसरे कलाकार से तुलना और कौन ज्यादा महान की बहस व्यर्थ की क़वायद लगती है। इसीलिए मैंने कहा कि ये हिसाब किताब मुझे नहीं रुचता। क्या बेहतर ये नहीं कि इन्होंने जो भी अच्छा रचा है उसी में हम अपना सुकून खोंजें। मीत भी सहमत दिखे। इस पूरी बात चीत में दो घंटे निकल चुके थे और मीत की रात की महफिल जहाँ जमने वाली थी वहां से फोन आने लगे थे। सो हमारी बहस वहीं खत्म हो गई।

अगले दिन भी उनसे मुलाकात की मंशा थी पर कार्यालय की व्यस्तता और लखनऊ जाने के कार्यक्रम की वजह से ये पूरी ना हो पाई। खैर, मीत चिट्ठाजगत में संगीत और कविता की स्वरलहरियाँ छेड़ते रहेंगे ऍसी आशा है...

(अगली कड़ी में बात होगी कंचन चौहान की जिनसे लखनऊ से लौटते वक्त मुलाकात हुई।)

मंगलवार, मार्च 11, 2008

असंतोष के दिन : मुंबई दंगों की पृष्ठभूमि में लिखा स्व. डां राही मासूम रज़ा का धारदार उपन्यास

'राही मासूम रज़ा' की लिखी ग़ज़लों , फिल्मी पटकथाओं से तो मेरा पूर्व परिचय था, पर एक उपन्यासकार के रूप में मैंने उन्हें पहले नहीं पढ़ा था। उनके निधन पर चिट्ठाजगत में उनके साहित्यिक जीवन की झांकी जरूर पढ़ने को मिली थी और ये भी पता चला था कि 'आधा गाँव' उनकी एक प्रसिद्ध रचना है। इसलिए अपने पुस्तकालय में मोटे-मोटे ग्रंथों के बीच दबी सहमी जब यह पुस्तक अपना असंतोष ज़ाहिर करती दिखी तो इसे पढ़ने की उत्सुकता हुई।

राही का ये उपन्यास अस्सी के दशक में मुंबई में हुए भीषण दंगो की पृष्ठभूमि में लिखा गया है। दंगों की भयावहता और उसके पीछे की छिछली राजनीति से व्यथित 'राही' बिना किसी लाग लपेट के धारदार भाषा में अपनी बात कहते हैं जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। महाराष्ट्र में आज जिस तरह की राजनीति हो रही है उसके बीज अस्सी के दशक में विभिन्न क्षेत्रीय दल पहले ही बो चुके थे। जिन प्रश्नों को राही मासूम रज़ा साहब ने अपनी इस किताब में उठाया था, उसका उत्तर पाने के लिए हम सभी आज भी जूझ रहे हैं। मिसाल के तौर पर राही के इन सवालों पर गौर करें..

"...श्री बाल ठाकरे "आमची मुंबई कहते हैं। परंतु 'आमची' की परिभाषा क्या है? उसकी सीमाएँ क्या हैं! और यदि बम्बई आमची' है तो हिंदुस्तान किसका है?

बम्बई श्री बाल ठाकरे की है। तमिलनाडु DMK या AIDMK का है । आन्ध्र NTR का है।....पंजाब भिण्डरवाले का है। बनारस भगवान शंकर का है। अजमेर ख्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती का है! UP एटा के डाकुओं का है और राजस्थान चंबल के डाकुओं का.....पर मुझे कोई सारे ज़हाँ से अच्छा जो हिंदुस्तान है उसकी पोस्टल एड्रेस नहीं बताता। यह नहीं बताता की हिदुस्तान का दाख़िल खारिज किसके नाम है?
ऐ लावारिस मुल्क तू मेरा है। ......."

दंगों के इतिहास में पुलिस की कार्यप्रणाली पर हमेशा प्रश्नचिन्ह उठते आए हैं। दंगों में पुलिस के व्यवहार, उसकी मानसिकता को खुले शब्दों में व्यक्त करते हुए वो कहते हैं

"...तुम मराठे इतना टची क्यूँ होते हो?" अब्बास ने पूछा। "अरे भैया UP में भी पुलिस मुसलमानों को मारती है। यहाँ पुलिस में मराठे ज्यादा है। जो कर्नाटक महाराष्ट्र की सीमा पर कर्नाटक के ब्राह्मणों और मराठों के बीच लड़ाई होगी तो वह कर्नाटक के ब्राह्मणों को भी मारेगी। उत्तर प्रदेश की PAC में कान्यकुब्ज ब्राह्मण ज्यादा हैं तो वह ठाकुरों, हरिजनों और मुसलमानों को मारती है। पुलिस में हमीं तुम होते हैं ना। हम अपने मुहल्लों, अपने गावों,अपने कस्बों के सारे डर, वहाँ की सारी नफ़रतें, सारे तनाव लेकर पुलिस क्वाटर्स में जाते हैं। पुलिस में मुसलमान ज्यादा होंगे तो पुलिस हिंदुओं को मारेगी।......."

एक सौ ग्यारह पन्ने की इस किताब में राही द्वारा रचित चरित्र उतने महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है तो इन चरित्रों का सामाजिक परिवेश और उनके इर्द गिर्द पनपती समस्याएँ। उपन्यास के पात्रों का प्रयोग राही मुंबई या एक तरह से कहें तो पूरे देश के सामाजिक ढांचे में फैली गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद, सांप्रदायिकता और ओछी राजनीति के चक्रव्यूह का पर्दाफाश करने में करते हैं। अब यहीं देखिए मुंबई की स्लम में रहते और पनपते परिवारों की दशा दिशा का कितना जीवंत चित्रण किया है रज़ा साहब ने

".....खाते पीते गरीब वह है जो वास्तव में गरीब नहीं हैं। जब बम्बई आए तो वो अवश्य गरीब थे। कोठरी भी न ले सके तो कहीं सरकारी जमीन पर इलाके के दादा की इजाजत से झोपड़ी डाल के रहने लगे।
यह झोपड़ी प्रेमचंद की कहानियों सी झोपड़ी नहीं होती। इसे झोपड़ी इसलिए कहते हैं कि इसका नामाकरण नहीं किया जा सका है। यह तीन चार फीट ऊँची एक चीज होती है जिसकी दीवारें सड़े गले पैकिंग के बक्से की होती हैं। ऊपर फटी हुई तिरपाल या प्लास्टिक का टुकड़ा, न दरवाजा, ना खिड़की। लोग उनसे रेंगकर अंदर जाते हैं और रेंगकर बाहर जाते हैं।..यह ईमानदार कामगारों की झोपड़ियाँ हैं फिर इन्हीं झोपड़ियों में हरी लाल झंडियाँ लगा कर दुल्हन ले जायी जाती है। फिर इन्हीं झोपड़ियों में बच्चे होते हैं...फिर उन बच्चों में कोई जेबकतरा हो जाता है। कोई कच्ची दारु के धंधे में लग जाता है...कोई किसी दादा के साथ लगकर किसी तस्करी या MP, MLA की छत्र छाया में चला जाता है। फिर घर में थोड़ा पैसा आने लगता है। झोपड़ी का ज़रा क़द निकल आता है। दरवाजा लग जाता है। खिड़कियाँ बन जाती हैं। टीन की छत पड़ जाती है। फिर इधर उधर की जमीन जुड़ जाती है। कभी कभी एक मंजिल ओर चढ़ जाती है और छत टाइल की हो जाती है।..."

राही का मन अखंड भारत, अनेकता में एकता, धर्मनिरपेक्षता जैसे जुमलों को ज़मीनी हक़ीकत से बहुत दूर मानता है। उनके दिल की नाराज़गी इस क़दर है कि वो बड़े बड़े राजनेताओं को भी नहीं बख्शते..

"...लोग कहते हैं पंडित मोतीलाल की मुसलमान पत्नी थी..हाँ भई तो पत्नी थी ना !और प्रियदर्शनी ने जो फ़ीरोज गाँधी से शादी की...फ़ीरोज गाँधी पारसी थे जो वह मुसलमान होते तो गाँधीजी यह शादी कभी ना होने देते।...."

किताब सिर्फ राजनेताओं पर तंज़ नहीं कसती.. साथ ही अली सरदार जाफ़री और मजरूह सुलतानपूरी जैसे प्रगतिशील और दिमागी शायर रज़ा साहब की लेखनी की चपेट में आ जाते हैं।

पर जब वो कहते हैं कि इस देश में

"....धर्मनिरपेक्षता की ज़मीन बहुत कमजोर है। कुदाल फावड़े की जरूरत नहीं है, नाखून से जरा सा खुरचें तो धर्मनिरपेक्षता काग़ज़ की तरह फट जाती है और कोई शाही इमाम,, कोई देवरस, कोई भिंडरवाले, कोई बाल ठाकरे निकल आता है। सांप्रदायिकता का प्रेत हमारे अंदर दिलों कि किसी गली में छुप कर बैठा है और जब किसी तरह से रोशनी आने लगती है तो ये प्रेत उठकर दिल के दरवाजे खिड़कियाँ बंद कर देता है। ...."

तो मेरा दिल भी उनके ज़ज़्बातों की गवाही देता है। जैसा कि किताब के आरंभ में प्रकाशक के नोट में कहा गया है कि

"इस कृति की माँग है कि इन सवालों से जूझा और टकराया जाए। इसी समय इसके उत्तर तालाश किए जाएँ अन्यथा मनुष्य के अस्तित्व की कोई गारंटी नहीं रहेगी।"

पुस्तक के बारे में
नाम : असंतोष के दिन
लेखक: स्व.डा. राही मासूम रज़ा
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
प्रथम संस्करण: १९८६

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं
गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला

शनिवार, मार्च 08, 2008

वार्षिक संगीतमाला २००७ : 'सरताज गीत'- यूँ तो मैं दिखलाता नहीं तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ..

प्रतीक्षा के पल समाप्त हुए। वक्त आ पहुँचा है वार्षिक संगीतमाला के सरताजी बिगुल के बजने का..बात पिछले नवंबर की है। मैं अपनी इस संगीतमाला के लिए पसंदीदा गीतों की फेरहिस्त तैयार करने में जुटा था। पर 15-16 गीतों की सूची तैयार करने के बाद भी अपनी प्रथम दो स्थानों के लायक मुझे कोई गीत लग ही नहीं रहा था। 



पर तब तक मैंने तारे जमीं पर के गीतों को नहीं सुना था। टीवी पर भी शुरुआत में सिर्फ शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियाँ दिखाई जा रही थीं। दिसंबर का अंतिम सप्ताह आने वाला था और पहली पॉयदान की जगह अभी तक खाली थी। और तभी एक दिन किसी एफ एम चैनल से इस गीत की पहली दो पंक्तियाँ उड़ती उड़ती सुनाई दीं....

मैं कभी बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ
यूँ तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ..
.

हृदय जैसे थम सा गया। तुरंत इंटरनेट पर जाकर ये गीत सुना और गीत की भावनाएँ इस कदर दिल को छू गईं कि आँखें नम हुए बिना नहीं रह सकीं।

कुछ गीत झूमने पर विवश करते हैं...
कुछ की मेलोडी मन को बहा ले जाती है...
वहीं कुछ के शब्द हृदय को मथ डालते हैं, सोचने पर विवश करते हैं।


'एक शाम मेरे नाम' की वार्षिक संगीतमालाओं में मैंने ऍसे ही तीसरी कोटि के गीतों को हमेशा से साल के 'सरताज गीत' का तमगा पहनाया है और शायद इसलिए आप में से बहुतों ने मेरी पसंद के सरताज गीत की सही पहचान की है।

जिंदगी में अपने नाते रिश्तेदारों के स्नेह को बारहा हम 'Taken for Granted' ले लेते हैं। हम भी उनसे उतना ही प्रेम करते हैं पर व्यक्त करने में पीछे रह जाते हैं। ऍसे रिश्तों में ही सबसे प्रमुख होता है माँ का रिश्ता ...
ये गीत मुझे याद दिलाता है ...

माँ के हाथ से खाए उन कौरों के स्वाद का.....
बुखार में तपते शरीर में सब काम छोड़ चिंतित चेहरे के उस ममतामयी स्पर्श का... अपनी परवाह ना करते हुए भी अपने बच्चों की खुशियों को तरज़ीह देने वाली उस निस्वार्थ भावना का....

तारे जमीं पर मैंने अंततः फरवरी में जाकर देखी और  प्रसून का गीत तो माँ के बिना अपने आप को मानसिक रूप से असुरक्षित महसूस करते बच्चे की कहानी कहता है, पर सुनने वाला बच्चे का दर्द महसूस करते करते अपने बचपन में लौट जाता है और इसी वज़ह से गीत से अपने आप को इतना ज्यादा जुड़ा महसूस करता है।

वार्षिक संगीतमाला 2006  के सरताज गीत अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजे को लिखने वाले जावेद अख्तर साहब इस गीत के बारे में कहते हैं

"........यूँ तो तारे जमीं के सारे गीत स्तरीय हैं पर वो गीत जो मुझे हृदय की तह को छूता है वो माँ...ही है। आलमआरा के बाद सैकड़ों गीत माँ को याद करते हुए लिखे गए हैं पर फिर भी ये गीत अपनी सादी सहज भावनाओं से हृदय के तारों को झंकृत सा करता चला जाता है। गीत के शब्द, इसकी धुन और बेहतरीन गायिकी इस गीत को इतना प्रभावशाली बनाने में मदद करती है। बस इतना ही कह सकता हू् कि गीत की अंतिम पंक्तियों को सुनते सुनते मेरी आँखें सूखी नहीं रह गईं थीं।...."
शंकर एहसान लॉए की सबसे बड़ी काबिलयित इस बात में है कि वो बखूबी समझते हैं कि गीत के साथ संगीत का पुट उतना ही होना चाहिए जिस से उसकी प्रभावोत्पादकता कम ना हो। बातें बहुत हो गईं अब स्वयं महसूस कीजिए इस गीत को



मैं कभी बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ
यूँ तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ
तुझे सब है पता, है ना माँ......मेरी माँ

भीड़ में यूँ ना छोड़ो मुझे, घर लौट के भी आ ना पाऊँ माँ
भेज ना इतना दूर मुझको तू, याद भी तुझको आ ना पाऊँ माँ
क्‍या इतना बुरा हूँ मैं माँ, क्‍या इतना बुरा.............मेरी माँ

जब भी कभी पापा मुझे जोर ज़ोर से झूला झुलाते हैं माँ
मेरी नज़र ढूँढे तुझे, सोचूँ यही तू आके थामेगी माँ
तुमसे मैं ये कहता नहीं, पर मैं सहम जाता हूँ माँ

चेहरे पे आने देता नहीं, दिल ही दिल में घबराता हूँ माँ
तुझे सब है पता, है ना माँ......मेरी माँ

मैं कभी बतलाता नहीं, पर अंधेरे से डरता हूँ मैं माँ
यूं तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ
तुझे सब है पता, है ना माँ......मेरी माँ


इसी गीत का एक टुकड़ा गीत के थोड़ी देर बाद आता है, (जो सामान्यतः इंटरनेट या चिट्ठों पर नहीं दिखाई देता) बच्चे की संवेदनहीन त्रासद स्थिति तक पहुँचने की कथा कहता है

आँखें भी अब तो गुमसुम हुईं
खामोश हो गई है ये जुबां
दर्द भी अब तो होता नहीं
एहसास कोई बाकी हैं कहाँ
तुझे सब है पता, है ना माँ

मेरे लिए ये अपार हर्ष की बात है कि ये गीत इस साल के फिल्मफेयर और अपने RMIM पुरस्कारों के लिए भी सर्वश्रेष्ठ गीत के रूप में चुना गया है।

दोस्तों दो महिने से चलती आ रही इस वार्षिक संगीतमाला के सफ़र पर आप सब मेरे साथ रहे इसका मैं शुक्रगुजार हूँ। ये समय कार्यालय के लगातार आते कामों की वज़ह से मेरे लिए अतिव्यस्तता वाला रहा इसलिए ये श्रृंखला फरवरी में खत्म होने के बजाए मार्च तक खिंच गई। आशा है गीतमाला में पेश किए गए गीतों में से ज्यादातर आपके भी पसंदीदा रहे होंगे। तो ये सफ़र समाप्त करने के पहले एक पुनरावलोकन हो जाए इस संगीतमाला के प्रथम बीस गीतों का


इस संगीतमाला के सारे गीत

रविवार, मार्च 02, 2008

वार्षिक संगीतमाला 2007 :रनर्स अप - खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..

वार्षिक संगीतमाला 2007 के रनर्स अप यानि उपविजेता का खिताब गीतकार प्रसून जोशी संगीतकार शंकर-एहसान-लॉए और गायक शंकर महादेवन के सम्मिलित प्रयासों से फलीभूत 'तारे जमीं पर' के शीर्षक गीत को जाता है।

बच्चों की दुनिया कितनी उनमुक्त, कितनी सरल कितनी मोहक होती है ये हम सभी जानते हैं। फिर भी हमारा सारा प्यार अपने करीबियों तक ही सीमित रह जाता है। अपनी-अपनी जिंदगियों में फँसे हम उससे ज्यादा दूर तक देख ही नहीं पाते। पर बिना किसी पूर्वाग्रह के जब आप किसी भी बच्चे की हँसते खेलती जिंदगी में झांकते हैं तो मन पुलकित हुए बिना नहीं रह पाता।

पर सारे बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं होते। जीवन की परिस्थितियाँ वक़्त के पहले उनसे उनका बचपन छीन लेती हैं। क्या हम बेवक़्त अपनी जिंदगियों से जूझते इन बच्चों से अपना कोई सरोकार ढूँढ पाते हैं। नहीं...क्यूँकि बहुत कुछ देखते हुए भी हमने अपने आप को भावशून्य बना लिया है। वो इस लिए भी कि इस भागती दौड़ती जिंदगी के तनावों के साथ साथ अगर जब ये सब सोचने लगें तो हमारी खीझ बढ़ जाती है। खुद से और इस समाज से भी। पर मन ही मन हम भी जानते हैं कि हमारा ये तौर तरीका सही नहीं। ये गीत हमें एक सामाजिक संवेदनशील प्राणी की हैसियत से अपनी जिम्मेदारी का अहसास दिलाता है।

प्रसून जोशी ने इस गीत में जो कमाल किया है उसके बारे में जावेद अख्तर साहब ने अपनी हाल ही में अंग्रेजी वेब साइट पर की गई संगीत समीक्षा में लिखा है...

".....खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर.. एक बेहद भावनात्मक और प्रभावशाली गीत है। इस गीत की ईमानदारी और सहजता को जिस तरीके से शंकर महादेवन ने अपनी गायिकी में उतारा है वो आपको इसके हर शब्द पर विश्वास करने पर मजबूर करता है। प्रसून ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का परिचय देते हुए बेमिसाल रूपकों का प्रयोग किया है। गीत के बोल आपको हर रूपक की अलग-अलग विवेचना करने को नहीं कहते पर वे आपके इर्द-गिर्द एक ऍसा माहौल तैयार करते हैं जिससे आप प्यार, कोमलता और दया की इंद्रधनुषी भावनाओं में बहे चले जाते हैं। ये गीत एक धमाके की तरह खत्म नहीं होता ..बस पार्श्व में धीरे धीरे डूबता हुआ विलीन हो जाता है..कुछ इस तरह कि आप इसे सुन तो नहीं रहे होते पर इसकी गूंज दिलो दिमाग में कंपन करती रहती है।...."

प्रसून जोशी के गीत को अपने संगीत से दिल तक पहुँचाया है शंकर-एहसान-लॉए की तिकड़ी ने। ये कहने में मुझे कोई संदेह नहीं कि मेरे लिए इस साल का सर्वश्रेष्ठ संगीतकार, यही तिकड़ी रही है। गीत के मूड को समझते हुए उसी तरीके का संगीत देना उनकी खासियत है। तो चलिए सुनते हैं ये प्यारा सा नग्मा...





देखो इन्हें ये हैं
ओस की बूँदें
पत्तों की गोद में ये
आस्मां से कूदें
अंगड़ाई लें फिर
करवट बदल कर
नाज़ुक से मोती
हँस दे फिसल कर
खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..

यह तो हैं सर्दी में
धूप की किरणें
उतरें जो आँगन को
सुनहरा सा करने
मॅन के अँधेरों को
रौशन सा कर दें
ठिठुरती हथेली की
रंगत बदल दें
खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..

जैसे आँखों की डिबिया में निंदिया
और निंदिया में मीठा सा सपना
और सपने में मिल जाये फरिश्ता सा कोई
जैसे रंगों भरी पिचकारी
जैसे तितलियाँ फूलों की क्यारी
जैसे बिना मतलब का प्यारा रिश्ता हो कोई
यह तो आशा की लहर है
यह तो उम्मीद की सहर है
खुशियों की नहर है

खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..

देखो रातों के सीने पे ये तो
झिलमिल किसी लौ से उगे हैं
यह तो अम्बिया की खुशबू हैं बागों से बह चले
जैसे काँच में चूड़ी के टुकड़े
जैसे खिले खिले फूलों के मुखड़े
जैसे बंसी कोई बजाए पेड़ों के तले
यह तो झोंके हैं पवन के
हैं ये घुँघरू जीवन के
यह तो सुर हैं चमन के

खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..


मोहल्ले की रौनक
गलियाँ हैं जैसे
खिलने की जिद पर
कलियाँ हैं जैसे
मुट्ठी में मौसम की
जैसे हवाएँ
यह हैं बुजुर्गों के दिल की दुआएँ..

खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..

कभी बातें जैसे दादी नानी
कभी छलके जैसे मम्मम पानी
कभी बन जाएं भोले सवालों की झड़ी
सन्नाटे में हँसी के जैसे
सूने होठों पे ख़ुशी के जैसे
यह तो नूर हैं बरसे गर तेरी किस्मत हो बड़ी
जैसे झील में लहराए चन्दा
जैसे भीड़ में अपने का कन्धा
जैसे मन मौजी नदिया झाग उडाये कुछ कहीं
जैसे बैठे बैठे मीठी से झपकी
जैसे प्यार की धीमी सी थपकी
जैसे कानों में सरगम हरदम बजती ही रहे..

खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..


इस श्रृंखला की समापन किश्त में सुनना ना भूलिएगा वार्षिक संगीतमाला 2007 का सरताज गीत...
 

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इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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