मंगलवार, सितंबर 30, 2008

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल : सुनिए हुसैन बंधुओं की आवाज़ में ये दिलकश ग़ज़ल

शास्त्रीय संगीत में जुगलबंदी का अपना ही मजा होता है। वैसा ही कुछ अहसास तब होता है जब हुसैन बंधु एक साथ मिलकर ग़ज़ल के तार छेड़ते हैं। जी हाँ मैं उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की बात कर रहा हूँ। हुसैन बंधुओं को संगीत का फ़न विरासत में ही मिला था। इनके पिता उस्ताद अफज़ल हुसैन जयपुरी खुद एक चर्चित ठुमरी और ग़ज़ल गायक रह चुके हैं।

हुसैन बंधुओं की गायिकी से पहला परिचय अस्सी के दशक में म्यूजिक इंडिया नाम की कंपनी की कैसेट के तहत हुआ था। पर इनकी ज्यादातर ग़ज़लों को सुनना और पसंद करना संभव हुआ विविध भारती के कार्यक्रम रंग तरंग की वजह से। जाने क्या मोहब्बत थी विविध भारती वालों की इनसे कि हर दूसरे दिन इनकी ग़ज़लें सुनने को मिल ही जाया करती थीं। एक ग़ज़ल जो बार-बार बजा करती थी और जो मुझे उन दिनों पूरी याद हो गई थी, वो थी

दो जवाँ दिलों का गम दूरियाँ समझती हैं
कौन याद करता है हिचकियाँ समझती है...

जिसने कर लिया दिल में पहली बार घर 'दानिश'
उसको मेरी आँखों की पुतलियाँ समझती हैं


पर जिस ग़जल की बात आज मैं कर रहा हूँ उसकी तासीर ही दिल पर कुछ अलग सी होती है। ये उन ग़ज़लों मे से है जो जिंदगी के हर पड़ाव पर मेरे साथ रही है एक हौसला देती हुई सी। जब भी मन परेशान हो और अपना लक्ष्य धुँधला सा हो तो ये ग़ज़ल रास्ता दिखलाती सी महसूस हुई। 'राग यमन' पर आधारित इस ग़ज़ल को लिखा था, हुसैन बंधुओ के चहेते, मशहूर गीतकार हसरत जयपुरी साहब ने।

कुछ महिनों पहले डा. अजित कुमार ने भी इस ग़जल की चर्चा करते हुए इसे अपना पसंदीदा माना था। तो आइए सुनते हैं हुसैन बंधुओं की दिलकश आवाज़ में ये ग़ज़ल



चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल

हम वहाँ जाएँ जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल

प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल

अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई भी दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत पे ग़ज़ल, चल

पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल



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गुरुवार, सितंबर 25, 2008

रुड़की से दिल्ली की बस यात्रा : कैसे बच पाए भूत और उन आखिरी के धमाकों से..

पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह रुड़की से दिल्ली जा रही बस में एक युवती की आवाज एक दम से मर्दाना हो गयी और उसके मुँह से चीखें और फिर रुदन का भारी स्वर गूँज उठा.... अब आगे पढ़ें

तीन चार हट्टे कट्टे पुरुषों को उस युवती को सँभालने में सात-आठ मिनट का समय लगा। फिर अचानक से उसका तेवर बदला जैसे कि वो लंबी तंद्रा से जागी हो। वो उसकी बाहों को पकड़े पुरुषों को धकियाती सी बोली ...
"छोड़िए इस तरह हाथ क्यूँ पकड़ रखा है? "
लोग बाग हतप्रध से रह गए और समझ गए कि वो जो कुछ भी था उसका असर जाता रहा है। पर पूरे घटनाक्रम से जितने सहयात्री हक्के बक्के थे, उसका लेशमात्र भी वो अधेड़ शख्स नहीं था जो उसकी बगल में बैठा था।

पूछने पर पता चला कि वो गाँव के किसी स्कूल का मास्टर था और अपने युवा बेटे, जिसकी असमय मृत्यु हो गई थी, का पिंडदान करके हरिद्वार से लौट रहा था। बगल में बैठी युवती उसकी बहू थी जिसकी शादी हुए डेढ वर्ष ही बीता था। ये मृत्यु कैसे हुई ये हम जान नहीं पाए इसलिए किसी साजिश वाली बात का सत्य उद्घाटित नहीं हो पाया।

मेरा मित्र अगले एक घंटे तक उस युवती की आवाज़ पर कान लगाए रहा। बाद में उसने कहा कि उस स्त्री की वास्तविक आवाज़ भी थोड़ी भारी सी थी। अपने दो घंटों के आकलन के बाद उसका मत था कि शायद नवविवाहिता के मन में भय समा गया होगा कि अब उसकी गुजर बसर कैसे होगी? वापस अपने घरवाले तो बुलाएँगे नहीं और ऍसी हालत में कहीं ससुराल वाले उसे निकाल ना दें, इसलिए वो ये स्वांग भर कर अपने ससुर के मन में भयारोपण कर रही हो।

मैं पूरी तरह नहीं कह सकता कि मेरे दोस्त की थ्योरी सत्य थी या नहीं पर जैसी सामाजिक स्थिति राजस्थान और हरियाणा के पिछड़े इलाकों की महिलाओं की है, उसके हिसाब से ऐसे तर्क को एकदम से ख़ारिज़ भी नही किया जा सकता। पर चाहे कुछ भी हो उस आठ मिनटों में एकबारगी मेरा भी इन प्रेतात्माओं के प्रति मेरा अविश्वास हिल सा गया। बहुत देर तक चाह कर भी मैं उस भयावह आवाज़ के दायरे से अपने मन को बाहर ना ला सका । अचानक कंडक्टर की आवाज़ सुनकर मेरा ध्यान बँटा। देखा मेरठ आ गया था।

कंडक्टर ठेठ लहजे में चिल्ला रहा था
जिसको जे करना है कल्ले अब सीधे बस ISBT (Inter State Bus Terminal) पे ही रुकोगी।

अब किसने कितना सुना ये तो पता नहीं पर मेरठ से निकलने के बीस मिनट बाद ही एक यात्री ने लघुशंका निवारण हेतु बस रुकवा दी। बस फिर आगे बढ़ी। दिल्ली अभी २० किमी दूर थी जब एक पगड़ी लगाए वृद्ध सज्जन ने कंडक्टर से फिर बस रुकवाने की विनती की। इस बार कंडक्टर अड़ गया । महाशय ने कहा मामला गंभीर है पर कंडक्टर ने एक ना सुनी। अपनी स्तिथि से हताश वो सज्जन ठीक गेट के सामने वाली सीढ़ी पर बैठ गए।

अब तक हम गाजियाबाद बाद पार कर शाहदरा के इलाके में आ गए थे। वो व्यक्ति हर पाँच मिनट पर कंडक्टर से बस रुकवाने की मिन्नत करता पर कोई असर ना चालक पर था ना परिचालक पर। पीछे से कुछ सहयात्री भी कहने लगे थे "थोड़ा सब्र करले ताउ"

हमें ISBT के ठीक पहले 'आश्रम' जाने वाली 'मुद्रिका' पकड़नी थी। हम पहले उतरने के लिए उन सज्जन के ठीक पीछे आ कर खड़े हुए। ISBT की ओर मुड़ने के ठीक फ्लाईओवर पर जैसे ही बस धीमी हुई, मेरा मित्र उन सज्जन के ठीक बगल से लंबी कूद मारता नीचे भागा। मैंने बस के और धीमे होने का इंतजार किया फिर बाहर की ओर कूदा जैसे ही पहला पैर सड़क पर पड़ा ठीक पीछे से दो धमाके सुनाई दिए। ये धमाके कैसे थे ये तो आप समझ ही गए होंगे।

वस्तुस्थिति समझते ही मैंने दूसरे पैर को जितनी आगे लाया जा सकता था, लाया और धमाकों के अवशेषों से बमुश्किल अपने आप को बचा पाया।

मेरा मित्र सड़क के किनारे खड़ा हँस रहा था। शायद उसे ऐसी घटना की प्रत्याशा थी।
और मैं भगवान को धन्यवाद दे रहा था कि एक सेकेंड की देरी से जो फज़ीहत मेरी हो सकती थी वो नहीं हुई।

आज जबकि इस घटना को बारह साल बीत चुके हैं उस यात्रा को याद कर रुह भी काँपती है और उसके समापन के घटनाक्रम पर हँसी भी आती है।

सोमवार, सितंबर 22, 2008

रुड़की से दिल्ली की वो बस यात्रा और मिलना उस 'भूत' से....

मुझे बस से यात्रा करना कभी पसंद नहीं रहा। अगर खिड़की ना मिली हो तो ये यात्राएँ और अखर जाती थीं क्योंकि पहले पहल तो ऍसा होने पर मुझे चक्कर ही आ जाया करते थे। कॉलेज में जब मेसरा में दाखिला लिया तो पटना से राँची आते जाते बस की सवारी के भी अभ्यस्त हो गए। उसके बाद बस से यात्राएँ तो खूब कीं पर एक यात्रा में हुए तरह-तरह के अनुभवों की याद आते ही मन सिहर भी उठता है और हँसी भी आती है। आखिर भावनाओं में ऍसा विरोधाभास क्यूँ ? तो जनाब जब तक आप ये किस्सा नहीं सुनेंगे तब तक आपको मेरी मनःस्थिति का भेद नहीं समझ आएगा।

बात १९९६ की है। तब मैं रुड़की विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग में स्नात्कोत्तर की पढ़ाई कर रहा था। उन दिनों प्रतियोगिता परीक्षाओं में बैठने हेतु अक्सर दिल्ली आना जाना लगा रहता था। ऍसी ही एक परीक्षा में भाग लेने के लिए जाड़े की गुनगुनाती धूप में हम रुड़की के बस अड्डे के सामने खड़े थे। हरिद्वार और देहरादून से आने वाली बसें, रुड़की से खतौली, मोदीनगर, मेरठ होते हुए दिल्ली जा पहुँचती थी। चूंकि हरियाणा, दिल्ली, यूपी, हिमाचल और राजस्थान परिवहन की बसें इस रूट में चलती हैं इसलिए हर १५-२० मिनट में कोई बस दिल्ली की ओर जाती मिल जाती है। मैं और मेरे एक मित्र ने ये फैसला किया था कि चढ़ेंगे तो किसी साफ सुथरी और खाली खाली बस में, भले ही इसके लिए कुछ ज्यादा इंतजार क्यूँ ना करना पड़े। तीन चार बसों को छोड़ देने के बाद हमें अपने मापदंडों के अनुसार ही राजस्थान परिवहन की एक बस आती दिखाई दी।

बस अपन खुशी-खुशी चढ़ लिए। अंदर पीछे की तरफ खिड़की भी मिल गई। पर बस बाहर से जितनी चमकदार थी अंदर के यात्री ठीक उससे उलट। बस में बहुतायत जोधपुर जाने वाले यात्रियों की थी। अंदर अजीब सा वातावरण था। जोधपुरी पगड़ी और चमरौधे जूतों के बीच कोई बीड़ी सुलगा रहा था तो कोई महिला रह रह कर कै कर रही थे और बच्चे खान पान की चीजें बस में ही इधर-उधर बिखरा रहे थे। ऊपर से तथाकथित ठंड के मारे बड़े बुजुर्ग खिड़कियाँ भी नहीं खोलने दे रहे थे। बड़ी मुश्किल से मैं अपनी साझे की खिड़की को थोड़ा सरका पाया था। मेरी सीट के ठीक आगे एक कम उम्र की स्त्री पूरा घूँघट काढ़े बैठी थी। उसके ठीक बगल में एक अधेड़ उम्र का शख़्स बैठा था ।

हमारी बस रुड़की से करीब तीस चालिस किमी आगे आ चुकी थी। बस के अंदर के घुटन भरे माहौल में मेरा सर भारी हो रहा था, सो मैंने अनमने भाव से अपनी आँखें बंद कर रखीं थीं। अचानक ही अगली सीट से एक मर्दाना चीत्कार सुनाई दी...


"उउउउउ उउउउउउउउउ मैं मरा नही हूँ पिताजी मुझे मारा.... गया है। ......."

मैं और मेरा मित्र एकबारगी समझ ही नहीं पाए कि ये आवाज़ आ कहाँ से रही है? क्योंकि सामने बैठा अधेड़ पुरुष तो कुछ देर पहले बीड़ी सुलगा रहा था। वस्तुस्थिति समझ आई तो भय की लहर भीतर तक दौड़ गई। दरअसल भारी पुरुष स्वर में आने वाली चीख उस कम उम्र की महिला के मुँह से आ रही थी...

"..मैं मरा नही हूँ पिताजी मुझे मारा गया है। मुझे साजिश से मारा गया है। मेरे हत्यारों से बदला लेना पिताजी। जानकी बहुत अच्छी है । इसका ख्याल रखना पिताजी।..."

चार चार लोग उस महिला को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे थे पर कुछ देर पहले घूँघट काढ़ी उस युवती में ना जाने कहाँ से इतनी ताकत आ गई थी कि वो तीन चार लोग जिसमें मेरा मित्र भी था के काबू में नहीं आ रही थी। उसका शरीर एक ओर से दूसरी ओर उछल रहा था। आँचल एक ओर गिरा पड़ता था पर इसका उसे होश कहाँ था। मर्दानी चीख अब बड़े भारी स्वर के रुदन और विलाप में बदल चुकी थी ....

शायद उसके अंदर कोई आत्मा प्रवेश कर गई थी। भूत रो रहा था पर क्या ऐसा संभव था ?
और आप सोच सकते हैं कि इस सारे दृश्य को ठीक पीछे से देखते हुए मेरी क्या हालत हो रही होगी।

सबसे पहले मेरे मन में यही विचार आया कि अगर ये सचमुच का सो कॉल्ड भूत इस महिला के शरीर में घुसा है तो कहीं ऍसा ना हो की तफरीह करते हुए वो वहाँ से पीछे आकर मेरे शरीर में घुस जाए। जैसे ही ये विचार मेरे मन में कौंधा मेरे हाथ बगल की खिड़की की ओर लपके। आनन-फानन में खिड़की खोलकर मैंने राहत की साँस ली अब अगर भूत महोदय को निकलना ही हुआ तो ये मेरे कृशकाय शरीर की बजाए बाहर की हर भरी स्चच्छ आबोहवा में विचरना अवश्य पसंद करेंगे।

मेरी सिहरन का रहस्य तो अब तक आप पर विदित हो ही गया होगा। आगे की गाथा मन को बोझिल कर गई थी पर बस में उपस्थित एक दूसरे किरदार ने गमज़दा माहौल को बदल कर रख दिया था। वो प्रकरण इस कड़ी के दूसरे हिस्से में...

रविवार, सितंबर 21, 2008

जाने है वो कहाँ, जिसको ढूँढती है नज़र : सुनिए श्रेया घोषाल की आवाज मे ये मधुर गीत

हफ्ते का आखिरी दिन यानि रविवार। एक ऍसा दिन जब हमारे यहाँ सुबह की शुरुआत दस बजे से पहले नहीं होती। यानि घर के सारे लोग पूरे हफ्ते की थकान इसी दिन निकालते हैं। पर ब्लागिंग जो न करवाए सो अब सुबह के अनलिमिटेड घंटों का प्रयोग करने के लिए यही दिन मिलता है। और जब आज उठ ही गए हैं तो सोचा कि क्यूँ ना आप सब को एक हल्का फुल्का प्यारा सा गीत ही सुनवा दिया जाए।

ये गीत है फिल्म 'हनीमून ट्रैवल्स प्राइवेट लिमिटेड' का जिसके एक गीत हल्के हल्के रंग छलके ने पिछले साल की मेरी वार्षिक संगीतमाला में अपनी जगह बनाई थी। पर इसी फिल्म के एक और नग्मे को मैं समय रहते सुन नहीं पाया था। बाद में जब भी इसे सुना मन को हल्का फुल्का महसूस किया। और इसका मुख्य श्रेय मैं संगीतकार विशाल शेखर और गायिका श्रेया घोषाल को देना चाहता हूँ। एक खूबसूरत धुन और उस पर श्रेया की इतनी सुरीली आवाज सामान्य शब्दों में भी मोहब्बत से लबरेज एक खुशनुमा अहसास पैदा कर देती है।

तो आइए सुनें श्रेया और शान के गाए इस गीत को जिसकी शब्द रचना की है जावेद अख्तर साहब ने..

जाने है वो कहाँ, जिसको ढूँढती है नज़र
मैं ये दिल मैं ये जाँ, दे दूँ वो मिले जो अगर

हर पल वो चेहरा, रहता है इन आँखों में
जिसे मैंने नहीं देखा, पर देखा है ख्वाबों में
पाउँगी कहाँ मैं उसको, ये तो ना जानूँ
पर कहता है दिल मेरा
संग मेरे वो बोलेगा
चुपके से वो बोलेगा
देखो मुझे....


जाने है वो कहाँ........ अगर

खोया खोया सा कबसे फिरता था मैं राहों में
तुम्हें कहीं मैं छुपाऊँ तो भर लूँ इन बाहों में
मिलोगी मुझे तुम इक दिन, मुझको यकीं था
हम आज ही मिल गए
सच कर दो मेरा सपना
तुम ही तो ज़रा अपना
कह दो मुझे...


जाने है वो कहाँ........ अगर

मंगलवार, सितंबर 16, 2008

बहुत दिनों की बात है, फिज़ा को याद भी नहीं : सुनिए सलाम मछली शेहरी की ये नज़्म

क्या आपके साथ कभी ऍसा हुआ है कि किसी शायर की एक रचना ने बहुत दिनों तक आप पर प्रभाव छोड़ा हो पर फिर कभी आप उसका लिखा ना पढ़ पाए हों, ना सुन पाए हों। आज की नज़्म एक ऍसे ही शायर की है जिनका नाम था सलाम मछली 'शेहरी'। अब शायरों के नाम इस तरह के हो सकते हैं ये न तो तब समझ पाया था और ना आज ही।

आठवीं या नौवीं कक्षा में रहा हूँगा जब बड़ी दी ने एक कैसेट खरीदी थी। नाम था Ecstasies . सच पूछिए तो जिंदगी में पहली बार ग़ज़लों को सुनना इसी समय शुरु हुआ था। ग़ज़लों की कैसेट में ये नज़्म भी थी और जहाँ तक मुझे याद पड़ता है इसे सुनने के पहले तब तक की जिंदगी में सिर्फ मैंने एक और नज़्म बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी सुनी थी। और जैसी की उम्र थी इसे एक बार सुनकर ही मन ऍसा द्रवित हो उठा था, मानो शायर ने जो कहा वो मेरे साथ हुआ हो। सालों ये कैसट घिस घिस कर तब तक सुनी जाती रही जब तक वो खराब नहीं हो गई।

आज सलाम मछली शेहरी की इस नज़्म को दोबारा पढ़ता हूँ तो शायर को सलाम करने को जी चाहता है, लगता है कि शायर ने कितनी सादी जुबान में एक जज़्बाती नज़्म लिखी थी जो बड़ी सहजता से छुटपन में दिल में उतर गई थी।

आप ने भी जगजीत सिंह की दिलकश आवाज़ में इसे सुना ही होगा और नहीं सुना तो एक बार जरूर सुनिए....



बहुत दिनों की बात है
फिज़ा को याद भी नहीं
ये बात आज की नहीं
बहुत दिनों की बात है

शबाब पर बहार थी
फिज़ा भी खुशगवार थी
ना जाने क्यूँ मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
किसी ने मुझको रोककर
बड़ी अदा से टोककर
कहा के लौट आइए
मेरी कसम न जाइए

पर मुझे खबर न थी
माहौल पे नज़र न थी
ना जाने क्यूँ मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
मैं शहर से फिर आ गया
ख़याल था के पा गया
उसे जो मुझसे दूर थी
मगर मेरी ज़रूर थी

और इक हसीन शाम को
मैं चल पड़ा सलाम को

गली का रंग देखकर
नयी तरंग देखकर
मुझे बड़ी ख़ुशी हुई, ख़ुशी हुई
मैं कुछ इसी ख़ुशी में था
किसी ने झाँककर कहा
पराये घर से जाइए
मेरी कसम न आइए

वही हसीन शाम है
बहार जिसका नाम है
चला हूँ घर को छोड़कर
न जाने जाऊँगा किधर
कोई नहीं जो रोककर
कोई नहीं जो टोककर
कहे के लौट आइये
मेरी कसम न जाइये


मेरी कसम न जाइए....

'शेहरी' इस नज़्म के रिकार्ड होने के ग्यारह साल पूर्व यानि १९७३ में ५१ वर्ष की अल्पायु में इस दुनिया जहान से रुखसत हो चुके थे। इस गुमनाम से शायर की मृत्यु के बीस साल बाद इनकी रचनाओं की सुध ली गई। नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी से इनकी रचनाओं का पहला संग्रह प्रकाशित हुआ था। और १९९८ में दिल्ली के एक प्रकाशक ने इनके बारे में अज़ीज इंदौरी की लिखी एक किताब भी छापी, नाम था सलाम मछली शेहरी : शख्सियत और फ़न। मैं अब तक इनकी कोई किताब नहीं पढ़ पाया हूँ, पर उम्मीद है जल्द ही पढ़ूँगा।

गुरुवार, सितंबर 11, 2008

बावरा मन देखने चला एक सपना ...स्वानंद किरकिरे

सपने देखना किसे अच्छा नहीं लगता ?
खासकर तब, जब वो सोती नहीं वरन जागती आँखों से देखें जाएँ ......
कम से कम अपनी कहूँ तो बचपन से आज तक ऍसे कई सपने मेरे मन के साक्षी रहे हैं।

बच्चे थे तो सोचते कि अगर अपनी कैडबरी चॉकलेट की पूरी दुकान होती तो कितना अच्छा होता !
थोड़े बड़े हुए तो रेडिओ पर आने वाली क्रिकेट कमेंट्री का बुखार ऍसा चढ़ा कि हर किसी से यही कहते की मुझे तो सुशील दोशी जैसा कमेंट्री करने वाला बनना है।
किशोरावस्था की दहलीज पर पहुँचे तो अपने आफिसर्स हॉस्टल वाले घर की बॉलकोनी से दिखने वाली परम सुंदरियों का सानिध्य सुख प्राप्त करने के ख्वाब देखने लगे।


उम्र बढती गई पर स्वप्न बदलते गए। कुछ सपने पूरे हुए तो कुछ अधूरे ही रह गए। पर जागती आँखों से देखे जाने वाले इन सपनों का सिलसिला चलता रहा। सपने टूटते हैं तो दर्द सहने की शक्ति देते हैं और जगते है तो जिंदगी जीने का मकसद भी।

इसलिए जब पहली बार वर्ष २००५ के बेहतरीन गानों की सूची तैयार करते समय स्वानंद किरकिरे का लिखा और गाया, सपनों से जुड़ा ये गीत सुनने को मिला तो एक बार में ही ये गीत हृदय में स्थान बना गया। स्वानंद जी ने इस गीत को रंगमंच से जुड़े रहते हुए ही लिख लिया था। 'हजारों ख्वाहिशों ऐसी' बनाते समय जब सुधीर मिश्रा ने इसे सुना तो इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरत इसे अपनी फिल्म मे प्रयोग करने का मन बना लिया। शांतनु मोएत्रा के संगीत निर्देशन में बना ये गीत स्वानंद को फिल्म जगत में एक अलग पहचान दिलाने में कामयाब रहा।

दो तीन दिन पहले एक पाठक ने मुझसे पूछा कि क्या नोकिया की एड में पार्श्व में बजने वाले गीत के बारे में आपको कुछ पता है तो मुझे अपने रोमन ब्लॉग पर लिखी इस पुरानी पोस्ट की याद आई और मैंने सोचा क्यूँ ना इसे आप से फिर से बाँटा जाए..

बावरा मन देखने चला एक सपना
बावरा मन देखने चला एक सपना

बावरे से मन की देखो बावरी हैं बातें
बावरे से मन की देखो बावरी हैं बातें
बावरी सी धड़कने हैं बावरी हैं साँसें
बावरी सी करवटों से निंदिया दूर भागे
बावरे से नैन चाहें बावरे झरोखों से
बावरे नज़ारों को तकना
बावरा मन देखने चला एक सपना.....

बावरे से इस ज़हाँ में बावरा एक साथ हो
इस सयानी भीड़ में बस हाथों में तेरा हाथ हो
बावरी सी धुन हो कोई बावरा इक राग हो
ओ बावरी सी धुन हो कोई बावरा इक राग हो
बावरे से पैर चाहें बावारे तरानों के
बावरे से बोल पे थिरकना
बावरा मन देखने चला एक सपना.......

बावरा सा हो अंधेरा बावरी ख़ामोशियाँ
बावरा सा हो अंधेरा बावरी ख़ामोशियाँ
थरथराती लौ हो मद्धम बावरी मदहोशियाँ
बावरा एक घूँघटा चाहे हौले हौले बिन बताये
बावरे से मुखड़े से सरकना
बावरा मन देखने चला एक सपना.........
बावरा मन देखने चला एक सपना.........




तो अगर आप भी खुली पलकों से स्वप्न लोक में विचरण करने की ख्वाहिश रखते हों तो सुनना ना भूलिएगा इस बावरे से नग्मे को...



'एक शाम मेरे नाम' पर गीतकार स्वानंद किरकिरे से जुड़ी अन्य प्रविष्टियाँ

  1. रात हमारी तो चाँद की सहेली है.., संगीत -शान्तनु मोइत्रा, चलचित्र - परिणिता, गायक - चित्रा और स्वानंद

  2. हम तो ऐसे हैं भैया.. ..., संगीत- शान्तनु मोइत्रा चलचित्र - लागा चुनरी में दाग गायिका - सुनिधि चौहान और श्रेया घोषाल

  3. चंदा रे चंदा रे धीरे से मुसका.., संगीत- शान्तनु मोइत्रा चलचित्र - एकलव्य दि रॉयल गार्ड, गायिका - हमसिका अय्यर

  4. क्यूँ खोये खोये चाँद की फिराक़ में, तलाश में, उदास है दिल.... संगीत- शान्तनु मोइत्रा, चलचित्र - खोया खोया चाँद, गायक- स्वानंद किरकिरे

सोमवार, सितंबर 08, 2008

आशा ताई की सालगिरह पर सुनिए गैर फिल्मी गीत, नज़्म और ग़ज़ल का ये गुलदस्ता...!

आज आशा ताई की सालगिरह है। कुछ दिनों पहले उन्हें 'सा रे गा मा' के मंच पर गाते सुना था। अभी भी वो खनक, वो माधुर्य जस का तस बना लगता है। आज इस खुशी के अवसर पर गीत और ग़ज़लों का ये गुलदस्ता आपके लिए पेश-ए-खिदमत है। जीवन के हर रंग को अपनी गायिकी में समाहित करने वाली इस महान गायिका की आवाज़ में आज सुनिए पिया को संबोधित करता एक प्यारा सा गीत, एक उदासी भरी नज़्म और फ़ैज की लिखी एक दिलकश ग़ज़ल ।

सबसे पहले बात इस नज़्म की जो मैंने सबसे पहले 1985 के आस पास सुनी थी। अभी जो थोड़ी बहुत उर्दू समझ में आती है, उस वक़्त वो भी समझ नहीं आती थी। पर जाने क्या था इस नज़्म में, कि मुखड़ा सुनते ही इसकी उदासी दिल में तैर जाती थी। मेरे ख्याल से ये सारा करिश्मा था आशा ताई की भावपूर्ण आवाज का, जिसकी वज़ह से भाषा की समझ ना होते हुए भी इसकी भावनाओं का संप्रेषण हृदय तक सहजता से हो जाता था।


तो आइए पहले सुनें मेराज-ए-ग़ज़ल से ली गई सलीम गिलानी साहब की लिखी ये नज़्म



रात जो तूने दीप बुझाए
मेरे थे... मेरे थे....
अश्क जो सारे दिल में छुपाए
मेरे थे... मेरे थे....

कैफे बहाराँ, महरे निगाराँ, लुत्फ ए जुनूँ
मौसम ए गुल के महके साए
मेरे थे... मेरे थे....

मेरे थे वो, खाब जो तूने छीन लिए
गीत जो होठों पर मुरझाए
मेरे थे... मेरे थे....

आँचल आँचल, गेसू गेसू, चमन चमन
सारी खुशबू मेरे साए
मेरे थे... मेरे थे....

साहिल साहिल लहरें जिनको ढूँढती हैं
माज़ी के वो महके साए
मेरे थे... मेरे थे....


गुलाम अली के साथ आशा जी का ये एलबम मुझे दो अन्य प्रस्तुतियों के लिए भी प्रिय था। एक तो शबीह अब्बास का लिखा, बड़ा प्यारा सा मुस्कुराता गुदगुदाता ये नग्मा । देखिए आशा जी अपनी इठलाती आवाज़ में किस तरह अपने साजन के लिए प्रेम के कसीदे पढ़ रही हैं




सलोना सा सजन है और मैं हूँ
जिया में इक अगन है और मैं हूँ

तुम्हारे रूप की छाया में साजन
बड़ी ठंडी जलन है ओर मैं हूँ

चुराये चैन रातों को जगाए
पिया का ये चलन है और मैं हूँ

पिया के सामने घूँघट उठा दे
बड़ी चंचल पवन है और मैं हूँ

रचेगी जब मेरे हाथों में मेंहदी
उसी दिन की लगन है और मैं हूँ


और आज की इस महफिल का समापन करते हैं इसी एलबम की इस बेहद मशहूर ग़ज़ल से, जिसे लिखा था फ़ैज अहमद फ़ैज ने

यूँ सजा चाँद कि छलका तेरे अंदाज का रंग
यूं फ़जा महकी कि बदला मेरे हमराज का रंग





जिस एलबम में आशा जी के गाए इतने खूबसूरत नगीने हों उसे अगर आप नेट से खरीदना चाहें तो यहाँ क्लिक करें।

शुक्रवार, सितंबर 05, 2008

जयशंकर प्रसाद एक परिचय : सुनिए उनकी रचना 'तुमुल कोलाहल कलह में..' आशा भोसले के मोहक स्वर में

हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक युग छायावाद’ के नाम से जाना जाता है, जिसके चार बड़े महारथी थे - प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी। सातवीं से लेकर दसवीं तक मैं इन छायावादी कवियों की कविताओं से बिल्कुल घबरा जाया करता था। शिक्षक चाहे कितना भी समझा लें, इन कवियों की लिखी पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या करने और भावार्थ लिखने में हमारे पसीने छूट जाते थे। जयशंकर प्रसाद की पहली कविता जो ध्यान में आती है वो थी बीती विभावरी जाग री.... जो कुछ यूँ शुरु होती थी



बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी।


शिक्षक बड़े मनोयोग से रात्रि के बीत जाने और सुबह होने पर नायिका के जागने के आग्रह को तमाम रूपकों से विश्लेषित करते हुए समझाते, पर मन ये मानने को तैयार ना होता कि सामान्य सी बात रात के जाने और प्रातः काल की बेला के आने के लिए इतना कुछ घुमा फिरा कर लिखने की जरूरत है। वैसे भी घर पर सुबह ना उठ पाने के लिए पिताजी की रोज़ की उलाहना सुनने के बाद कवि के विचारों से मन का कहाँ साम्य स्थापित हो पाता ? वक़्त बीता, समझ बदली। और आज जब इस कविता को किसी के मुख से सुनता हूँ तो खुद मन गुनगुना उठता है

खग कुल-कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये, अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली, आँखों में भरे विहाग री।
बीती विभावरी जाग री!



ऍसी मोहक पंक्तियाँ लिखने वाले जयशंकर प्रसाद जी की पृष्ठभूमि क्या रही ये जानने को आपका मन भी उत्सुक होगा। जयशंकर जी के काव्य संकलन पर एक किताब साहित्य अकादमी ने छापी थी। उसके प्राक्कथन में विख्यात साहित्य समीक्षक विष्णु प्रभाकर जी ने लिखा है

"..........जयशंकर जी का जन्म मात शुल्क दशमी संवत् 1946 (सन् 1889) के दिन काशी के एक सम्पन्न और यशस्वी घराने में हुआ था। जब पिता का देहावसान हुआ, उस समय प्रसाद की अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। कुछ ही वर्षों के भीतर बड़े भाई भी परलोक सिधार गये और सोलह वर्षीय कवि पर समस्याओं का पहाड़ आ टूटा। आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह जर्जर हो चुकी एक संस्कारी कुल परिवार के लुप्त गौरव के पुनरुद्धार की चुनौती तो मुँह बाये सामने खड़ी ही थी, जिस परिवार पर अन्तहीन मुक़दमेबाज़ी, भारी क़र्ज़ का बोझ, स्वार्थी और अकारणद्रोही स्वजन, तथाकथित शुभचिन्तकों की खोखली सहानुभूति का व्यंग्य...सबकुछ विपरीत ही विपरीत था। कोई और होता तो अपनी सारी प्रतिभा को लेकर इस बोझ के नीचे चकनाचूर हो गया होता। किंतु इस प्रतिकूल परिस्थिति से जूझते हुए प्रसाद जी ने न केवल कुछ वर्षों के भीतर अपने कुटुम्ब की आर्थिक अवस्था सृदृढ़ कर ली, बल्कि अपनी बौद्धिक-मानसिक सम्पत्ति को भी इस वात्याचक्र से अक्षत उबार लिया।

स्वयम् जयशंकर जी ने लिखा है

ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन रात हैं
कुविचार कुरों के कठिन कैसे कुटिल आघात हैं
हे नाथ मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में
फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरुद्ध में।


यही हुआ भी। जिस गहरे मनोविज्ञान यथार्थवाद की नींव पर प्रसाद के जीवन कृतित्व की पूरी इमारत खड़ी है, वह उनकी व्यक्तिगत जीवनी की भी बुनियाद है। घर-परिवार व्यवस्थित कर लेने के बाद हमारे कवि ने अपने अन्तर्जीवन की व्यवस्था भी उतनी ही दृढ़ता से सम्हाली और अपनी रचनात्मक प्रतिभा के निरन्तर और अचूक विकास क्रम से उन्होंने साहित्य जगत को विस्मय में डाल दिया।

धीरे-धीरे, लगभग नामालूम ढंग से उनकी रचनाएँ साहित्य जगत में गहरे भिदती गईं और क्या कविता, क्या कहानी, क्या नाटक, क्या-चिंतन हर क्षेत्र में खमीर की तरह रूपान्तरित सिद्ध होती चली गई। किसी ने उनके बारे में लिखा है कि प्रसाद का जो आन्तरित व्यक्तित्व था, वह लीलापुरुष कृष्ण के दर्शन से प्रेरणा पाता था, और उनका जो सामाजिक व्यक्तित्व था, वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अपना आदर्श मानता था। निश्चित ही प्रसाद जी के काव्य के पीछे जो जीवन और व्यक्तित्व है, उसमें धैर्य और निस्संगता की विपुल क्षमता रही होनी चाहिए।

प्रसाद का वैशिष्ट्य करुणा और आनन्द के अतिरिक्त जिन दो तत्वों से प्रेरित है, वे है उनका इतिहास-बोध और आत्म-बोध। पहली दृष्टि में परस्पर विरोधी लगते हुए भी ये दोनों चीज़ें उनके कृतित्व में इतने अविच्छेद्य रूप में जुड़ी हुई हैं कि लगता है, दोनों का विकास दो लगातार पास आती हुई और अंत में एक बिन्दु पर मिल जाने वाली रेखाओं की तरह हुआ। यह बिन्दु निश्चय ही ‘कामायनी’ है।............"


उसी 'कामायनी' से लिए गए इस अंश को आशा जी ने बेहद सुरीले अंदाज़ में गाया है। संगीत जयदेव का है।  ये गीत आशा जयदेव के एलबम An Unforgettable Treat से लिया गया है जो सारेगामा पर उपलब्ध है। इसी एलबम में महादेवी जी का लिखा कैसे उनको पाऊँ आली भी है

मेरे ख्याल से किसी हिंदी कवि की कविता को इतने अद्भुत रूप में कभी स्वरबद्ध नहीं किया गया है। बस लगता यही है कि प्रसाद के शब्दों में आशा जयदेव की जोड़ी ने प्राण फूँक दिए हों। आशा है आप को भी इस मधुर गीत को सुनने में उतना ही आनंद आएगा जितना मुझे आता रहा है...

 

तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्रदय की बात रे मन

विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की बात रे मन

चिर-विषाद-विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर-वन की
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,
कुसुम-विकसित प्रात रे मन

जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन

पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व-दिन की
मैं कुसुम-ॠतु-रात रे मन

चिर निराशा नीरधर से,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन"

गुरुवार, सितंबर 04, 2008

'कहानी एक परिवार की' : गुरुचरण दास का एक नीरस उपन्यास

अच्छी किताबों के बारे में तो हम अक्सर चर्चा करते रहते हैं। पर वो किताबें जो हमें इतनी ज्यादा नहीं जँचती उन पर बात करना हम पसंद नहीं करते। आज की चर्चा एक ऍसी ही किताब के बारे में है जिसे लिखा है जाने माने बुद्धिजीवी गुरुचरण दास ने।


अखबारों को नियमित रूप से पढ़ने वालों और औद्योगिक जगत में रुचि रखने वालों के लिए गुरुचरण दास का नाम किसी परिचय का मुहताज नहीं है। कॉलेज के समय से टाइम्स आफ इंडिया में अक्सर रविवार के दिन उनके लिखे कॉलम पर निगाह गुजरती थी और वहीं ये भी लिखा मिल जाता था कि लिखने वाला प्राक्टर एंड गेम्बल (Proctor & Gamble) का CEO है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में स्नातक रह चुके गुरुचरण दास की सबसे मशहूर किताब India Unbound है जो उन्होंने सन २००० में लिखी थी।

'कहानी एक परिवार की' जो कि लेखक का पहला उपन्यास है, १९९० में प्रकाशित हुआ। ये उपन्यास पूर्वी पंजाब में रहने वाले और विभाजन के समय भारत में आने वाले परिवार की कहानी है। अंग्रेजी में A Fine Family के नाम से छपी इस किताब का हिंदी अनुवाद नरेंद्र सैनी, जो कि खुद एक पत्रकार रह चुके हैं, ने किया है।

उपन्यास शुरुआत में लॉयलपुर कस्बे के मशहूर वकील बाउजी के व्यक्तित्व का परिचय कराता हुआ उनके परिवार के इर्द गिर्द घूमता है, जबकि विभाजन के बाद की गाथा पूरी तरह उनके पोते अर्जुन की जिंदगी की जद्दोज़हद से जुड़ी है। विभाजन पर लिखे अन्य उपन्यासों की तरह ये उपन्यास भी उस के पूर्व और बाद की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन करता है। गुरुचरण दास ने उस वक़्त की हिंदू और मुस्लिम सोच को उभारने की सफल कोशिश की है।

पर कहानी कहने का लेखक का अंदाज बेहद नीरस और उबाऊ है। कई पात्र कहानी के साथ चलते-चलते अचानक से गायब हो जाते हैं। वैसे तो ये एक अनुवाद है पर लेखक की भाषा बिना किसी लोच-लचक के सीधी सपाट ही चलती रहती है। मुझे यकीं है कि ३९५ पृष्ठों वाली इस किताब को ख़त्म करना आपके लिए चुनौती जरूर होगा। इसलिए मेरी राय यही है कि २२५ रुपये की पेंगुइन इंडिया द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक पर हाथ ना ही डालें तो बेहतर है।

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

असंतोष के दिन, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला,
मुझे चाँद चाहिए

 

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कसप Kasap
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Five Point Someone: What Not to Do at IIT
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