पिछली पोस्ट में आपने जाना फाँसी की प्रक्रिया और उसे देने वाले जल्लाद की मानसिक वेदना के बारे में जो तथाकथित पाप की भागीदारी की वज़ह से उसके हृदय को व्यथित करती रहती थी। जैसा कि
पूनम जी ने पूछा हे कि
क्या जल्लाद ने ऍसी फाँसी के बारे में भी लिखा है जहाँ उसे पता हो कि व्यक्ति निर्दोष था?
नहीं...नहीं लिखा, अगर कोई व्यक्ति निर्दोष रहा भी हो तो उसका पता जनार्दन को कैसे चलता? जनार्दन पिल्लै के सामने जो भी क़ैदी लाए गए उनके अपराधों की फेरहिस्त जेलर द्वारा जल्लाद को बताई जाती थी और यही उसकी जानकारी का एकमात्र ज़रिया होता। पर जनार्दन जानता था कि इनमें से कई क़ैदी ये मानते थे कि जिनकी उन्होंने हत्या की वो वास्तव में उसी लायक थे।
हाँ, एक बात और थी जो जल्लाद को अपराध बोध से ग्रसित कर देती थी।
और वो थी लीवर घुमाने के बाद भी देर तक काँपती रस्सी.....।रस्सी जितनी देर काँपती रहती है उतनी देर फाँसी दिया आदमी जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहता था। कई बार इस अंतराल का ज्यादा होना जल्लाद द्वारा रस्सी की गाँठ को ठीक जगह पर नहीं लगा पाने का द्योतक होता और इस भूल के लिए जल्लाद को अपना कोई प्रायश्चित पूर्ण नहीं लगता। आखिर उसे मृत्यु को सहज बनाने के लिए ही पैसे मिलते हैं ना?
अपनी कहानी लिखते समय जनार्दन याद करते हैं कि जब जब वो फाँसी लगाने के बाद इस मनोदशा से व्यथित हुए दो लोगों ने उन्हें काफी संबल दिया। एक तो उनके स्कूल के शिक्षक 'माष' और दूसरे मंदित के हम उम्र पुजारी 'रामय्यन'। इन दोनों ने जनार्दन को बौद्धिक और धार्मिक तर्कों से जल्लाद के दर्द को कम करने की सफल कोशिश की।
माष कहा करते - तुम तो मानव पीड़ा को कम करने के बारे में सोचते हो, पर वहीं हमारे पूर्वज पीड़ा पहुँचाने में हद तक आविष्कारी थे। उस काल की सबसे वीभत्स प्रथा का जिक्र करते हुए
शशि वारियर लिखते हैं हैं।
"....लगभग एक इंच के अंतर वाली लोहे की सलाखों का बना हुआ बदनाम कषुवनतूक्कु पिंजरा था। क़ैदी को इस संकरे पिंजरे में बंद कर देते थे और उसे धूप में छोड़ देते जहाँ गिद्ध आते। गिद्ध हरकत का इंतज़ार करते पर कुछ देख ना पाते, क्योंकि पिंजरे के भीतर आदमी हरकत नहीं कर सकता था। वह चीख़ भी नहीं सकता था , क्योंकि वो उसका मुँह बाँध देते थे। जब वे उसे धूप में छोड़ देते थे, तो जल्द ही गिद्ध मँडराने लगते। वे झिरी के बीच से भारी चोंच डालकर उसे नोचते और उसके मांस के रेशे फाड़ते जाते। तब तक, जब तक वह मर नहीं जाता।...."मूल विषय के समानांतर ही लेखक और जनार्दन के बीच पुस्तक को लिखने के दौरान आपसी वार्त्तालाप का क्रम चलता रहता है जो बेहद दिलचस्प है। लेखन उनकी भूली हुई यादों को लौटाता तो है पर उन स्मृतियों के साथ ही दर्द का पुलिंदा भी हृदय पर डाल देता है। जनार्दन को ये भार बेहद परेशान करता है। पर जब वो अपने अपराध बोध को सारी बातों के परिपेक्ष्य में ध्यान में रखकर सोचते हैं तो उन्हें अंततः एक रास्ता खुलता सा दिखाई देता है, जिसे व्यक्त कर वो अपने आपको और हल्का महसूस करते हैं।
अपनी कहानी पूरी करने पर वो पाते हैं कि इस किताब ने उनके व्यक्तित्व को ही बदल कर रख दिया। अब वे दोस्तों के साथ व्यर्थ की गपशप में आनंद नहीं पाते और ना ही दारू के अड्डे में उनकी दिलचस्पी रह जाती है। कुल मिलाकर लेखक से उनका जुड़ाव उनमें धनात्मक उर्जा का संचार करता है। इसलिए पुस्तक खत्म करने के बाद अपने आखिरी पत्र में बड़ी साफगोई से लेखक के बारे में वे लिखते हैं
"...मैं नहीं जानता कि आपसे और क्या कहूँ? गुस्से और झगड़ों के बावजूद आपका पास रहना मुझे अच्छा लगता था। इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत कठिन है, यद्यपि आप मुझसे आधी उम्र के हैं और आपका दिमाग बेकार के किताबी ज्ञान से भरा है, फिर भी मैंने आपसे कुछ सीखा है। मैं आशा करता हूँ कि आप वह सब पाएँ जिसकी आपको तालाश है और जब आप उसे प्राप्त कर लें तो यह भी पाएँ कि वह उतना ही अच्छा है जितनी आपने आशा की थी। आप बुरे आदमी नहीं हैं, यद्यपि आपको बहुत कुछ सीखना है।
आपका मित्र और सहयोगी मूर्ख लेखक
जनार्दन पिल्लै, आराच्चार ....."सच कहूँ तो ये साफगोई ही इस पुस्तक को और अधिक दिल के करीब ले आती है। लेखक ने उपन्यास की भाषा को सहज और सपाट रखा है और जहाँ तो हो सके एक आम कम पढ़े लिखे व्यक्ति की कथा को उसी के शब्दों में रहने दिया है। २४८ पृष्ठों और १७५ रु मूल्य की इस किताब से एक बार गुजरना आपके लिए एक अलग से अहसास से पूर्ण रहेगा ऍसा मेरा विश्वास है।
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