पारुल जी से मेरी आभासी जान पहचान सोशल नेटवर्किंग साइट आरकुट (Orkut) के माध्यम से हुई थी। दरअसल वहाँ गुलज़ार प्रेमियों के फोरम में बारहा जाना होता था और वहीं पारुल की बेहतरीन गुलजारिश कविताएँ पहली बार पढ़ने को मिलती रहतीं थीं। कुछ महिनों बाद मन हुआ कि देखें कि आरकुट पर मेरी प्रिय लेखिका आशापूर्णा देवी के प्रशंसकों की क्या फेरहिस्त है। संयोग था कि इस बार पहले पृष्ठ पर पारुल की प्रोफाइल आई और एक नई बात ये पता चली कि फिलहाल वो झारखंड में रहती हैं। उनके बारे में उत्सुकता बढ़ी, फिर कुछ स्क्रैपों का आदान प्रदान हुआ और इन्होंने मुझे अपनी मित्र सूची में शामिल कर लिया। तब 'परिचर्चा' के काव्य मंच का भार मेरे कंधों पर था और हमारी कोशिश थी कि अधिक से अधिक हिंदी में लिखने वाले स्तरीय कवियों को उस मंच से जोड़ें। पारुल को भी वहाँ आने का आमंत्रण दिया पर शायद समयाभाव के कारण वो वहाँ भाग नहीं ले सकीं। ये बात २००६ के उतरार्ध की थी उसके बाद उनसे कुछ खास संपर्क नहीं रहा। पर अगस्त २००७ में जब उन्होंने अपना चिट्ठा शुरु किया तब जाकर उनसे पहली बार नेट पर बात हुई ।
जैसे ही उन्होंने अपने शहर का नाम बोकारो बताया तो मुझे लगा कि कहीं इनके पतिदेव मेरी तरह सेल (SAIL) के कार्मिक तो नहीं। मेरा अनुमान सही निकला और खुशी हुई कि तब तो जरूर कभी ना कभी उनसे मिलना हो पाएगा क्योंकि कार्यालय के दौरों पर अक्सर मुझे अपने इस्पात संयंत्रों का दौरा करना पड़ता है। पर पिछले साल बोकारो के दौरे कम ही लगे और जब लगे भी तो एक ही दिन में वापस भी आ जाना था। इसलिए भेंट करने का मौका हाथ नहीं आया।. पर इस साल फरवरी के प्रारंभ में तीन दिनों के लिए बोकारो जाने का कार्यक्रम बना तो लगा कि इस बार उनसे मुलाकात की जा सकती है। पारुल जी को पहले ही दिन जाकर सूचना दे दी कि मैं बोकारो में आ गया हूँ। अब दिक्कत ये थी कि मेरा काम हर दिन छः बजे शाम को खत्म होता था और उसी वक़्त से उनकी आर्ट आफ लीविंग (Art of Living) की कक्षाएँ शुरु होती थीं।
रात के नौ बजे पारुल जी के पतिदेव कार लेकर बोकारो निवास के पास हाज़िर थे। साथ में पारुल जी का मासूम सा छोटा बेटा भी था। पारुल जी का घर कार से बस मिनटों के रास्ते पर था। घर के सामने की छोटी सी खूबसूरत बगिया पार कर हम घर में घुसे और बातों का सिलसिला शुरु हो गया। वैसे भी मंदी के इस ज़माने में जब भी किसी प्लांट वाले से मिलते हैं तो पहला सवाल उत्पादन और विक्रय आदेशों के आज के हालात के बारे में जरूर होता है। मैंने कुमार साहब से कहा कि एक ब्लॉगर ने ये खबर पेश की है सेल वाले अपनी गोल्डन जुबली के दौरान अपने कर्मचारियों को एक टन सोना दे रहे हैं और देखिए तुरंत वहाँ टिप्पणी भी आ गई कि देखो ये लोग मंदी के ज़माने में क्या चाँदी काट रहे हैं। अब उन्हें क्या पता सेल के इस विशाल परिवार में ये प्रति कर्मचारी ८ ग्राम के बराबर होती है। वैसे अभी तक हमने उस का भी मुँह नहीं देखा।
बातचीत अभी दस मिनट हुई थी कि पारुल ने कहा कि पहले भोजन कर लेते हैं हम सब ने तुरंत चाउमिन और पनीर चिली पर हाथ साफ किया। अब ब्लॉगरी मन का क्या कहें, इधर नए नए पिता बने यूनुस ने कुछ दिनों पहले आभा जी की तहरी का भोग लगाने के पहले विभिन्न कोणों से तसवीर छपवा कर हम सब का जी जलाया था। खाने से पहले खयाल आया लगे हाथ हम भी पारुल की चाउमिन का बोर्ड लगाकर तसवीर छाप देते हैं फिर वो समझेंगे कि ऍसा करने से दूसरों पर क्या बीतती है। पर पारुल जी ठहरी संकोची प्राणी। पहले से ही चेता रखा था कि कैमरे का प्रयोग मत करना तो हम यूनुस से बदला लेने की आस मन में ही दबा के रह गए।
पुनःश्च इस पोस्ट में चाउमिन वाली बात पर पारुल जी ने प्रतिक्रिया स्वरूप ये चित्र भेजा है । देखें और आनंद लें