पर दिक्कत ये थी कि कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए पॉस की जरूरत थी जो हमारे पास नहीं था। थी तो बस मित्र की एक एम्बेस्डर गाड़ी। अब एम्बेस्डर चाहे कैसी भी हो, इससे उतरने के माने एक छोटे से शहर में यही हैं कि आप सरकारी महकमे वाले हैं। तो जनाब पुलिस के बंदोबस्त के बीच हम कार से उतरे और बिना इधर उधर देखे सीधे हॉल के प्रांगण में चल पड़े। अब मजाल है कि कोई हमारे पॉस के बारे में पूछता। :)
दरअसल मैं और मेरे वरीय सहयोगी पीनाज़ की गाई ग़ज़लों के प्रशंसक रह चुके थे। अंदर पहुँचे तो स्टेज को देख माज़रा समझ नहीं आया। भला एक ग़जल गायिका के शो में इतनी प्रकाश व्यवस्था और पीछे रखे विशाल म्यूजिक सिस्टम का क्या काम ! कार्यक्रम शुरु होते ही जिस तरह नर्तकों और नृत्यांगनाओं के बीच पीनाज़ ने प्रवेश किया, ये समझ आ गया कि यहाँ ग़ज़लों के आलावा सब कुछ होने वाला है। और हुआ भी वही। ग़ज़लों को अपनी सुरीली आवाज़ से सँवारने वाली पीनाज़ नए चलताउ गानों में नर्तकों के साथ थिरकती नज़र आईं। गाने भी ऐसे जिसमें गायिकी से ज्यादा नाचने का स्कोप ज्यादा हो। मन ही मन दुखी हुए कि प्रवेश के लिए इतनी बहादुरी दिखाने के बाद ये नज़ारा देखने को मिलेगा। फिर ये सोचकर संतोष किया कि शायद ये कर्नाटक है, ये सोचकर पीनाज़ ने कार्यक्रम की रूपरेखा ऍसी रखी होगी।
इसीलिए जब एक हफ्ते पहले राँची में हमारे कार्यालय के सभागार कक्ष में पीनाज मसानी के कार्यक्रम के बारे में सुना तो सोचा राँची में सेलकर्मियों के बीच तो वो अपनी ग़ज़ल जरूर सुनवाएँगी। पर जब यहाँ भी उनके कार्यक्रम का वही रूप देखा तो मन बेहद निराश हो गया। म्यूजिक सिस्टम के शोर के बीच में सधा नृत्य करते नर्तक पर पीनाज़, सिर्फ गीत के मुखड़े और एक आध अंतरे को गा रही थीं और वो भी उखड़े उखड़े सुरों के साथ। शायद वो सोचती हैं कि आज के श्रोता अच्छी गायिकी से ज्यादा ग्लैमर और चकाचौंध पर ज्यादा विश्वास रखते हैं।
खैर इन फिल्मी गीतों के बीच उन्होंने बेटियों पर लिखा एक प्यारा नग्मा गा कर सुनाया जिसे सुन कर मन को थोड़ा सुकून पहुँचा
साँसों में प्रीत भरे,
रागों में गीत भरे,
सपनों में रंग भरे बेटी।
लक्ष्मी का दीप जले,
आरती का शंख बजे,
जिस घर में वास करे बेटी।'
पीनाज़ ने बताया कि इस गीत की संगीत रचना शांतनु मोइत्रा की है और वो अपने हर कार्यक्रम में इस गीत को जरूर पेश करती हैं ताकि इस बारे में लोगों में जागरुकता बढ़े।
जब ग़ज़ल सुनने आई जनता को गीतों की ये मार भारी पड़ने लगी तो किसी ने पीछे से आवाज़ दी कि ग़ज़ल सुनने को कब मिलेंगी? पीनाज़ तुरंत माहौल को समझ गई़ और कहा कि म्यूजिशियन तो मैं अपने साथ लाई नहीं फिर भी आपकी क्या फरमाइश है। पहले अनुरोध पर उन्होंने यूँ उनकी बज्म ए खामोशियों ने काम किया..सुनाया जिसे सुन कर मन गदगद हो गया। फिर किसी ने आज जाने की जिद ना करो का अनुरोध किया। उनके गाए हुए भाग की एक हिस्से की रिकार्डिंग मैं कर पाया। लीजिए सुनिए...
और जब इसके बाद उन्होंने पूछा और कोई रिक्वेस्ट तो मुझसे ना रहा गया और मैं कह बैठा कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले सुनाइए और पीनाज़ ने उसे भी गा कर सुनाया। पिछली पोस्ट में पेश की गई ग़ज़ल की तरह जनाब दाग़ देहलवी की ये ग़ज़ल भी मुझे बेहद प्रिय रही है। जो लोग मुँह की बजाए आँखों के ज़रिए अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने में विश्वास रखते हैं उन्हें से ग़ज़ल निश्चय ही पसंद आएगी..
कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले
तलाश में हो कि झूठा कोई गवाह मिले
ये है मजे कि लड़ाई ये है मजे का मिलाप
कि तुझसे आँख लड़ी और फिर निगाह मिले
तेरा गुरूर समाया है इस क़दर दिल में
निगाह भी न मिलाऊँ जो बादशाह मिले
मसलहत* ये है कि मिलने से कोई मिलता है
मिलो तो आँख मिले, मिले तो निगाह मिले
रहस्य, परामर्श *
ये सब सुनकर कार्यक्रम के पहले हिस्से में हो रहा मलाल कुछ हद तक धुल गया। पर कार्यक्रम खत्म होने के बाद हम सब यही विचार विमर्श करते रहे कि जिस सुर में और जिस सिद्धस्थता के साथ वो ग़ज़लें गाती हैं उसे छोड़कर एक बेहद मामूली तरह के स्टेज गायक की छवि ओढ़ने की उन्हें क्या जरूरत पड़ गई है। इस सवाल का जवाब तो पीनाज मसानी ही दे सकती हैं पर आप कहें कि आप की क्या राय है इस बारे में...