बुधवार, सितंबर 09, 2009

दौरान ए तफ़तीश भाग 2 : रिश्वतखोरी, कुछ ना करने की कला, क़ायदे कानून व कागज़ी आदेशों पर पुलसिया सोच !

दौरान-ए-तफ़तीश पर छिड़ी चर्चा में पिछली पोस्ट में हमने बातें कीं 'काम के समय सख्ती', 'झूठी गवाही', 'थर्ड डिग्री' और कुछ मज़ेदार किस्सों की। आज की चर्चा शुरु करते हैं रिश्वतखोरी की समस्या से जो पुलिस ही क्या सारे भारतीय समाज में संक्रामक रूप से फैल चुकी है। पर इससे पहले कि इस गंभीर समस्या के कारणों और सुधार के उपायों की पड़ताल की जाए शुरुआत एक किस्से से।

नौकरी की आरंभिक दिनों में पांडे जी के पास एक चार्ज आया कि उनके थाने के हैड कांसटेबिल ने किसी मुलज़िम की जामा तालाशी में निकले उसके सौ रुपये मार दिए और जब बाद में उसने चिल्ल पौं मचाई तो उसे वो धन वापस कर दिया। छुट्टी के दिन वो हेड कांसटेबिल, पांडे जी के घर पहुँचा और अपनी सफ़ाई पेश करते हुए बोला

हुज़ूर मुझ पर इल्ज़ाम लगाया गया है कि मैंने मुलज़िम का सौ रुपये का नोट ले लिया और फिर उसे वापस कर दिया। मैं तो हुज़ूर आज़ादी के पहले पंजाब पुलिस में सब इंस्पेक्टर रह चुका हूँ। ऍसी बेअक़्ली का काम मैं भला कैसे कर सकता था? यानि कहने का मतलब ये कि पंजाब पुलिस में एक बार पैसा लेकर वापस करने का रिवाज़ ही नहीं था।:)

ये तो थी किस्से की बात पर लेखक इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं कि आज के सिस्टम में सिर्फ बेईमान ही लोग पनप सकते हैं या कि ईमानदार होने का मतलब है बेवकूफ होना। पांडे जी की इस राय से मैं शत प्रतिशत इत्तिफाक रहता हूँ इसलिए उनके इस कथन ने मुझे खासा प्रभावित किया...

मैं दोनों हाथ उठाकर पुरज़ोर आवाज़ में कहना चाहता हूँ कि कार्यकुशलता और व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा में कोई बुनियादी विरोध नहीं है। उल्टे एक बुनियादी सामांजस्य है। और उससे भी पुरज़ोर आवाज़ में यह कहना चाहता हूँ कि जो भी 'धीर' पुरुष मेहनत और कौशल से अपना काम करते हुए अपनी नीयत को पाक साफ़ रखने के लिए दृढप्रतिज्ञ होता है, उसे किसी ना किसी रूप में सूक्ष्म या स्थूल, प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष पर्याप्त बाहरी या 'ऊपरी' सहायता मिलती है।

रिश्वतखोरी की समस्या को लेखक सिर्फ पुलिस विभाग के नज़रिए से नहीं देखते वरन पूरे भारतीय समाज के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं। उन्हें भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के पीछे दो मुख्य कारण नज़र आते हैं। पहला तो हमारा अपना आंतरिक विष, अपनी निजी मुक्ति की चाह जिसने हमारे समाज को स्वार्थपरक बना दिया है। दूसरा बाहर से आया संक्रमण भोगवाद जिसने धन लोलुपता को हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बना दिया है। पांडे जी इस समस्या से लड़ने के लिए प्रशिक्षण संस्था की विशेष भूमिका देखते हैं। उनका कहना है कि प्रशिक्षार्थियों को हर कदम पर इस बारे में सजग और सचेत किया जाना आवश्यक है। पर सही मार्ग को पहचानना और उस पर चलना तो आखिर प्रशिक्षार्थी का काम है।

पांडे जी ने अपनी इस किताब में एक पुलिस अफसर की सर्विस लाइफ में आने वाले तकरीबन हर मसले को छुआ है। सीनियर अफसरों में व्यावसायिक प्रवीणता के आभाव, स्टाफ वर्क में कोताही, आई ए एस और आई पी एस कैडर के बीच का मन मुटाव, स्थानीय दादाओं के राजनैतिक संरक्षण, वी आई पी सुरक्षा, पुलिसिया इनकांउटर ऐसे कई मुद्दों को उन्होंने अपनी पुस्तक में विस्तार दिया है। वे ये बताना भी नहीं भूले हैं कि किन परिस्थितियों में कुछ ना करने का कमाल दिखलाना चाहिए।

मिसाल के तौर पर उन्होंने रेलवे एम्बैंकमेंट से एक गाँव के किसानों की फ़सल के डूबने का उदाहरण दिया है। रेलवे से सरकार तक सभी एम्बैंकमेंट तोड़ कर वहाँ पानी के सही बहाव के लिए पुलिया बनाने के पक्ष में थे पर फाइलों में काम सालों साल रुका था। बाद में क्षेत्र के नौजवान नेता की अगुआई में लोगों द्वारा एम्बैंकमेंट काट डाला गया ‌और साथ ही कलेक्टर और स्टेशन पर सूचना भिजवाई गई। ऊपर ऊपर कलक्टर और एस पी ने इस घटना पर वहाँ के थानेदार को खूब हड़काया पर अंदर अंदर ये भी बता दिया गया कि इस मसले पर ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है आखिर इस तथ्य को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि जो पुलिया वहाँ वर्षों पहले बन जानी चाहिए वो इस कृत्य की वज़ह से आनन फानन में बन गई ।

सीनियर अफ़सरों और राज्य के राजनीतिक आकाओं के गलत मौखिक आदेशों की अवहेलना किस तरह टैक्ट दिखा कर की जाए इसके बारे में भी लेखक ने कुछ रोचक उदाहरण अपनी इस किताब में बताए हैं। यानि 'बेहतर है जनाब' या 'जैसा आप कहते हैं वही होगा' जैसे ज़ुमले उछाल कर भी करिए वही जिसके लिए आपका दिल गवाही दे सके। पांडे जी आज़ादी के बाद फोर्स पर लागू पुरातन नियम व कानून में सुधार की मंथर गति से बेहद क्षुब्ध हैं और ये मानते हैं कि उसके वर्तमान स्वरूप से विकास की नई आकांक्षांओं को पर्याप्त संबल नहीं मिलता। पर आज के अफसरों को सिनिकल होने के बजाए शेक्सपीयर की भाषा में हिम्मत बँधाते हुए लेखक कहते हैं

प्यारे ब्रूटस, दोष क़ायदों का नहीं है हमारा है कि हम उनके पिट्ठू बने रहते हैं। वैसे हमारे सीनियर्स ने ठीक ही तो कहा है कि कोई क़ायदा ऍसा नहीं जिसे तोड़ा ना जा सके।

लेखक की एक और जायज़ चिंता है और वो है राजनेताओं द्वारा पुलिस को साफ और स्पष्ट आदेश देने से बचने की मानसिकता। इस सिलसिले में पांडे जी द्वारा लिखित इस प्रसंग का उल्लेख करना वाज़िब रहेगा। आज़ादी के बाद देश में पुलसिया फायरिंग को कम करने की मुहिम चली। सचिवालय में उन सारे हालातों को चिन्हित किया गया जिनमें गोली चलाना अंतिम हल माना गया। पूरा मसौदा मुख्यमंत्री के अनुमोदन के लिए भेजा गया। पांडे जी लिखते हैं
मसौदे में ऍसा कुछ लिखा था कि पुलिस 'जब ज़रूरी हो गोली चला सकती है'। मुख्यमंत्री ने बस एक शब्द बदल कर उस मसौदे की काया पलट दी। अब उसमें हिदायत थी कि पुलिस 'अगर ज़रूरी हो गोली चला सकती है'। तो ये हुआ साहब लिखा पढ़ी का, मुंशी-गिरि का कमाल। यानि ऊपर की हिदायतें ऍसीं गठी हुईं हों कि सारी जिम्मेवारी उन्हें देने वाले की नहीं, उनका पालन करने वालों की हो। इतना ही नहीं देने वाली सत्ता अपनी सुविधानुसार उनकी जैसी चाहे वैसी व्याख्या भी कर सके।

ऐसे आदेशों का ज़मीनी परिस्थितियों पर असर शून्य ही होता है। बहुत कुछ अकबर इलाहाबादी के इस मज़मूं की तरह

मेरी उम्मीद तरक्क़ी की हुईं सब पाएमाल *
बीज मगरिब** ने जो बोया वह उगा और फल गया
बूट डासन ने बनाया हमने एक मजमूं लिखा
मुल्क में मज़मूं ना फैला उल्टे जूता चल गया।

* चकनाचूर , **पश्चिमी

सतीश चंद्र पांडे की इस किताब की चर्चा के आखिरी भाग में फिर उपस्थित हूँगा पुलिस, सी.आर.पी.एफ.(CRPF) से संबंधित कुछ और मसलों और किस्सों को लेकर..


इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ


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8 टिप्पणियाँ:

Abhishek Ojha on सितंबर 09, 2009 ने कहा…

ऐसा लग रहा है आपने तो पूरी किताब ही पढ़वा दी. :)

Udan Tashtari on सितंबर 09, 2009 ने कहा…

ये पढ़ना भी दिलचस्प रहा.

Manish Kumar on सितंबर 09, 2009 ने कहा…

अभिषेक लगभग तीन सौ पन्नों की किताब को छः सात पृष्ठों में कैसे समाया जा सकता है? मैं तो बस पांडे जी की असरदार बातों की झांकी प्रस्तुत कर आपको किताब की दुकान तक ले जाने के लिए प्रेरित कर रहा हूँ। पर आप हैं कि प्रेरित हो ही नहीं रहे :)

राज भाटिय़ा on सितंबर 09, 2009 ने कहा…

बहुत सुंदर लगा इसे पढना, लेकिन थोडा थोडा कर के लिखो तो हम इसे ध्यान से पढ सकते है, क्योकि बहुत रुचिकर लगा इसे पढना, अगली कडि की इंतजार है

रंजना on सितंबर 10, 2009 ने कहा…

वाह !! आनंद आ गया पढ़कर....बहुत बहुत आनंद आया...

आपका बहुत बहुत आभार...अगली कड़ी की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी..

Vinay on सितंबर 11, 2009 ने कहा…

मन आनंदित हो गया!
---
तकनीक दृष्टा

गौतम राजऋषि on सितंबर 13, 2009 ने कहा…

एक अद्‍भुत पोस्ट मनीष जी...बड़ी देर से हूँ आज आपके ब्लौग पर...पिछली पोस्ट और इस पोस्ट के लिये दिल से शुक्रिया...और अगली कड़ी के लिये अग्रीम...

कंचन सिंह चौहान on सितंबर 14, 2009 ने कहा…

कल बाबर फिल्म देख कर आई...पुलिस और मुज़रिम अभी दिमाग से उतरे नही हैं और साथ में ये दूसरा भाग पढ़ना उन्ही विचारों में कुछ और बढ़ोत्री का वायस रहा...!

पढ़ना ज़रूर चाहूँगी..,मगर पढ़ भी पाऊँगी या नही ये नही बता सकती...!

 

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