की चर्चा की इस आखिरी कड़ी में कुछ बातें पंजाब पुलिस और सीआरपीएफ से जुड़े लेखक के अनुभवों की। पर इससे पहले गंभीर मसलों पर लेखक के उठाए बिंदुओं का उल्लेख किया जाए, एक ऍसे चरित्र की बात करना चाहूँगा जिससे हर नौकरीपेशा व्यक्ति आक्रान्त रहता है। जी बिल्कुल सही समझा आपने वो शख़्स है हमारी कार्यालयी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बनने वाले हमारे बॉस।
ज़ाहिर है लेखक ने अपनी सर्विस लाइफ में तरह तरह के वरीय सहकर्मियों को झेला। इनमें से कई उनके प्रेरणा स्रोत बने तो कई ऐसे, जिनकी उपहासजनक वृतियों को लेखक कभी भुला नहीं पाए। ऍसे कई किस्से आपको पूरी पुस्तक में मिलेंगे, पर सबसे मज़ेदार संस्मरण मुझे एक ऍसे कमिश्नर साहब का लगा जिनकी सख़्त ताक़ीद रहती थी कि जब भी वो किसी जिले के मुआयने में जाएँ तो कलक्टर, एस पी और ज़िला जज के आवास पर उनकी दावत निश्चित करने से पहले उनसे पूछने की जरूरत ना समझी जाए। कमिश्नर साहब के साथ दिक्कत ये थी कि वो ज़िले के साथ अपने मेज़बान के घर का मुआयना भी बड़ी तबियत से किया करते थे। तो इस मुआयने की एक झांकी पांडे जी की कलम से
'अच्छा तो ये आपका लॉन है?' 'ये आपका बेडरूम है?'
ज़ाहिर है कि इन प्रश्नों का उत्तर जी हाँ जी के आलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन उनकी इस तरह की भूमिका का शिखर बिंदु तब आया जब उन्होंने अपने पर गृह भ्रमण के दौरान कलेक्टर की पत्नी को भीतर आँगन में बैठे देखा (उनका वहाँ जाना कलक्टर अपनी तमाम कोशिशों के बावज़ूद रोक नहीं पाए थे) और अपना सर्वाधिक मार्मिक प्रश्न पूछा 'अच्छा तो ये आपकी वाइफ हैं?'कलक्टर ने किसी तरह अपने को जी नहीं, ये आपकी अम्मा हैं कहने से रोक कर 'जी हाँ, ये मेरी वाइफ़ हैं। आप इनसे मिल चुके हैं।'कहकर टालने की कोशिश की। लेकिन हमारे बॉस की ज्ञान पिपासा तो अदम्य थी और उनका अगला प्रश्न था 'अच्छा वे अपने बाल सुखा रही हैं?' बात सही थी। कलेक्टर की पत्नी नहाने के बाद धूप में बैठी अपने बाल सुखा रही थीं और अपने आँगन में उस स्थिति में कमिश्नर साहब का स्वागत करने में उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली।
पांडे जी को अपने दीर्घसेवा काल में यूपी पुलिस के आलावा
बीएसएफ, विशेष सेवा, पंजाब पुलिस और सीआरपीएफ के साथ काम करने का अवसर मिला। पंजाब में लेखक का दायित्व आतंकवाद के साये में विधानसभा चुनाव को शांतिपूर्ण ढंग से संपादित कराने का था। पंजाब पुलिस के बारे में लेखक को वहाँ जाकर जो सुनने को मिला,उससे उन्हें अपने कार्य की दुरुहता का आभास हुआ। फिर भी उन्होंने दुत्कारने और सुधारने की बजाए अपनी फोर्स पर
आस्था और प्रशिक्षण को अपनी कार्यशैली का मुख्य बिंदु बनाया और अपने प्रयास में सफल भी हुए।
डीजी, सीआरपीएफ के पद पर आसीन होते ही उन्होंने
सीआरपीएफ (CERPF) यानि सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स की दुखती रग को समझ लिया। दरअसल फोर्स के अंदर सीआरपी का मतलब
'चलते रहो प्यारे' है। चरैवेति चरैवेति के सिद्धांत से पांडे जी को उज्र नहीं है। पर उनका मानना है कि
बिना किसी स्पष्ट प्रयोजन के एक सीमा से ज्यादा इस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण स्वास्थ और ताज़गी के बजाए थकावट और क्लांति देने लगता है और सीआरपी के चलते रहने में ऍसा ही कुछ हुआ है। सीआरपी आज देश के आतंकियों, दंगाइयों और नक्सलियों से विषम परिस्थितियों में लड़ने भिड़ने में जुटी है। ऐसे हालातों में पांडे जी की ये सोच हमारे गृह मंत्रालय के नीति निर्माताओं के लिए बेहद माएने रखती है
जिस तरह फोर्स की कंपनियों को साल दर साल, दिन रात इधर से उधर भेजा जा रहा है उससे जवानों की थकावट और अन्य असुविधाओं के आलावा, उनकी ट्रेनिंग बिल्कुल चौपट हो चुकी है। इससे उनकी अपने हथियारों के प्रयोग की दक्षता पर ही नहीं, उनके अनुशासन और मनोबल पर भी बहुत बुरा असर पड़ रहा है। इस फ़ोर्स का मूल 'सेंट्रल रिजर्व' वाला स्वरूप लगभग समाप्त हो चुका है और यह एक कुशल कारगर सुप्रशिक्षित फोर्स के बजाए एक अकुशल, अर्धप्रशिक्षित 'भीड़' सा बनता जा रहा है।
पांडे जी को अपने कार्यकाल में इन प्रयासों के बावज़ूद कुछ खास सफलता मिली हो ऍसा नहीं लगता। क्यूँकि लेखक की सेवानिवृति के दो दशक बाद आज भी कश्मीर से लेकर काँधमाल और छत्तिसगढ़ से झारखंड तक में, सीआरपी अपनी इन समस्याओं से जूझती लग रही है।
पुस्तक के अंत में लेखक आज की स्थिति की जिम्मेवारी भारत माता के तीन कपूतों को देते हैं। कपूतों की सूची में पहला नाम
राजनीतिज्ञों का है। पांडे जी का मानना है कि भ्रष्ट और नकारे शासन का मुख्य निर्माता यही वर्ग है। उनकी सूची में दूसरे नंबर पर आते हैं
नौकरशाह जिनमें पुलिस भी शामिल है। लेखक का तर्क है कि राजनीतिक दबाव में ना आकर सही कार्य करने के बजाए इस वर्ग के अधिकांश सदस्य राजनीतिज्ञों के साथ की बंदरबाँट में बराबर के सहभागी हैं। कपूत नंबर तीन के बारे में लेखक की टिप्पणी सबसे दिलचस्प है। लेखक के अनुसार ये कपूत नंबर तीन और कोई नहीं
'हम भारत के लोग और हमारे गिरते हुए इथोस' हैं। लेखक अपनी दमदार शैली में लिखते हैं
राजनेताओं और राजकर्मियों के भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले अपने बैंक के लॉकरों में रखे काले धन को भुलाए रहते हैं। जो दादी अपने होनहार पोते की तनख्वाह के आलावा उसकी ऊपरी आमदनी के बारे में अधिक उत्सुक होती है वह पूरे देशव्यापी भ्रष्टाचार के लिए उतनी ही दोषी है जितने पैसा लेकर संसद में पूछने वाले नेता जी, और झूठे एनकांउटर में बेगुनाह लोगों को मारने वाले पुलिसकर्मियों को पालने पोसने वाला, परिवार का वह बूढ़ा है जो अपने कप्तान भतीजे से मोहल्ले के कुछ बदमाशों को मुँह में मुतवाने को कहता है।
पांडे जी इस पूरी स्थिति में भी आशा की किरण देखते हैं। उनके अनुसार जनमानस गिरता है तो उसे उठाया भी जा सकता है। और यह तब तक नहीं होगा जब तक कि राजनीतिज्ञों और नौकरशाह इस बाबत स्वयम एक उदहारण नहीं पेश करेंगे।
पांडे जी की ये किताब हर पुलिसवाले के आलावा भारत के हर उस नागरिक को पढ़नी चाहिए जो देश को सही अर्थों में ऊपर उठता हुआ देखना चाहता है।
पांडे जी ने अपने इन संस्मरणों के माध्यम से ना केवल सटीक ढंग से पुलिस की कठिनाइयों और उनसे निकलने के उपायों को रेखांकित किया है बल्कि साथ ही समाज में आए विकारों से लड़ने के लिए हमारे जैसे आम नागरिकों को प्रेरित करने में सफल रहे हैं। लेखक की किस्सागोई भी क़ाबिले तारीफ़ है और एक विशिष्ट सेवा से जुड़ी इस किताब को नीरस नहीं होने देती। कुल मिलाकर ये पुस्तक आपको चिंतन मनन करने पर भी मज़बूर करती है और कुछ पल हँसने खिलखिलाने के भी देती है।
पुस्तक के बारे मेंदौरान ए तफ़तीश
वर्ष २००६ में पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित ISBN 0 -14-310029-7
पृष्ठ संख्या २७६, मूल्य १७५ रु