रविवार, मार्च 28, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 पुनरावलोकन (Recap) : कौन बने हिंदी फिल्म संगीत के धुरंधर ?

वार्षिक संगीतमाला 2009 में बचा है सिर्फ शिखर पर बैठा सरताज गीत। पर इससे पहले कि उस गीत की चर्चा की जाए एक नज़र संगीतमाला के इस संस्करण की बाकी पॉयदानों और उन पर आसीन हिंदी फिल्म संगीत के धुरंधरों पर।

बतौर संगीतकार शंकर-अहसान-लॉय और प्रीतम ने इस साल की संगीतमाला में अपनी जोरदार उपस्थिति रखी। जहाँ शंकर-अहसान-लॉय के छः गीत इस संगीतमाला में बजे वहीं प्रीतम ने अजब प्रेम की गजब कहानी, लव आज कल एवम् बिल्लू में बेहद कर्णप्रिय संगीत देकर चार पॉयदानों पर अपना कब्जा जमाया। पर साल २००९ किसी एक संगीतकार का नहीं बल्कि मिश्रित सफलता का साल रहा। रहमान, विशाल भारद्वाज, शांतनु मोइत्रा जैसे संगीतकार जो साल में चुनिंदा फिल्में करते हैं, का काम भी बेहतरीन रहा। इसलिए लोकप्रियता में दिल्ली ६ , कमीने और थ्री इडियट्स भी पीछे नहीं रहे। अमित त्रिवेदी को देव डी और वेक अप सिड के लिए जहाँ शाबासी मिली वहीं सलीम सुलेमान द्वारा संगीत निर्देशित कुर्बान और रॉकेट सिंह जैसी फिल्में भी चर्चा में रहीं।

अब तक अभिनेता व गीतकार के रूप में पहचान बनाने वाले पीयूष मिश्रा, गुलाल के ज़रिए इस साल के सबसे बेहतरीन आलरांउडर के रूप में उभरे। उनके आलावा बतौर संगीतकार दीपक पंडित, अफ़सार‍ - साज़िद और पीयूष - रजत जैसी जोड़ियों ने वार्षिक संगीतमाला में अपनी पहली उपस्थिति दर्ज करायी।

वैसे जहाँ तक गीतकारों की बात आती है तो मेरी समझ से साल के गीतकार का खिताब निश्चय ही पीयूष मिश्रा की झोली में जाना चहिए। ना केवल उन्होंने फिल्म गुलाल के गीतों को अपने बेहतरीन बोलों से सँवारा पर साथ ही गीतों में कुछ अभिनव प्रयोग करते हुए फिल्म संगीत के बोलों को एक नई दिशा दी।

पुराने गीतकारों में गुलज़ार और जावेद अख्तर का दबदबा पहले की तरह ही कायम रहा। प्रसून जोशी तो अब ना नए रहे ना पुराने। इस साल उनके गीतों में हिंदी भाषा के वो शब्द समाहित हुए, जो सहज होते हुए भी सामान्य गीतकारों के शब्दकोश से गायब होते हैं। नए गीतकार इरशाद क़ामिल ने भी प्रीतम की फिल्मों के गीतों को अपने शब्द दिए जो खासा लोकप्रिय हुए। दो नए गीतकारों मनोज मुन्तसिर और शाहाब इलाहाबादी के लिखे गीतों को पहली बार इस साल सुनने का मौका मिला और ये खुशी की बात है कि इन युवा गीतकारों को पहली दस पॉयदानों में जगह बनाने का मौका मिला।

गायिकी के लिहाज़ से जहाँ पुराने धुरंधरों रेखा भारद्वाज, शंकर महादेवन, मोहित चौहान, श्रेया घोषाल, राहत फतेह अली खाँ ने हमें कुछ बेमिसाल नग्मे दिए वहीं कुछ नई आवाज़ें भी दिल को छू गईं। कविता सेठ का इकतारा हो या श्रुति पाठक का रसिया... कार्तिक का गाया बड़े से शहर में हो या मोहन का खानाबदोश ..इन गीतों को सुनने का मन बार-बार करता रहा।

हो सकता है आपने इस संगीतमाला की कुछ कड़ियाँ को पढ़ने का मौका ना मिला हो। इसलिए आपकी सहूलियत के लिए एक बार फिर से चलते हैं वार्षिक संगीतमाला 2009 के पुनरावलोकन पर..



वार्षिक संगीतमाला 2009 पुनरावलोकन:


इस श्रृंखला का समापन होगा अगली पोस्ट में सरताज गीत के साथ। पर अगली पोस्ट मैं आप तक पहुँचा पाऊँगा अपनी दिल्ली यात्रा (29-31 मार्च) के बाद। तो तब तक दीजिए मुझे इज़ाजत पर ये जरूर बताइए कि कौन रहा आपका पिछले साल का सर्वाधिक प्रिय गीत ?

बुधवार, मार्च 24, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 रनर्स अप : बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार... रेखा भारद्वाज

लगभग तीन महिनों का सफ़र तय कर वार्षिक संगीतमाला 2009 जा पहुँची है दूसरी पायदान पर। और वार्षिक संगीतमाला 2009 के रनर्स अप गीत का सेहरा बँधा है उस गीत के सर जो बड़ी ठेठ जुबान में हम सबमें पाई जाने वाली मनोवृति को अपने खूबसूरत बोलों के माध्यम से उभारता है। कौन सी मनोवृति ! अरे वही

बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
मन बोले चकमक हाए चकमक ...

अब पड़ोसी की कार हो या अर्धांगिनी, कितनी बार उनको देखकर आपने अपने मन को चकमकाते पाया है? खैर छोड़िए आप भी कहेंगे सब जान बूझ कर क्यूँ खुले आम ये सवाल किया जा रहा है ? मुख्य बात ये है कि आजकल के गीत सिर्फ प्रेम, विरह त्याग, दोस्ती, सौंदर्य जैसे विषयों पर नहीं लिखे जा रहे हैं पर हमारे समाज की उस पक्ष पर चुटकी ले रहे हैं जो स्याह है, धुँधला है जिसे जानते बूझते हुए भी हम उन पर बात करने में असहज हैं।

पर इस गीत की खासियत बस इतनी नहीं हैं। पीयूष मिश्रा के इस गीत के संगीत संयोजन और बोलों में लोकगीत वाली मिठास है वहीं रेखा भारद्वाज ने इस अंदाज़ में इस गीत को गाया है कि लगता है सचमुच किसी मुज़रेवाली के सामने बैठ कर ये गीत सुन रहे हों। आंचलिकता के हिसाब से भिन्न भिन्न शब्दों को उनके द्वारा दिया लोच, मूड को गीत के रंग में रँग डालता है। यूँ तो साइडबार की वोटिंग में आप लोगों में से ज्यादातर ने शंकर महादेवन और श्रेया घोषाल को साल का श्रेष्ठ गवैया चुना है पर मेरी नज़र में एक गवैये के तौर पर ये साल रेखा भारद्वाज का रहेगा। गुलाल, फिराक़ और दिल्ली 6 में उनके गाए गीत काफी दिनों तक याद किए जाएँगे।

मेरी एक संगीत मित्र हैं सुपर्णा। अक्सर वो मुझे अपने पसंदीदा गीतों के बारे में बताती रहती हैं। साल के शुरु में जब ये फिल्म रिलीज़ भी नहीं हुई थी, मुझे उनके द्वारा इस गीत की दो पंक्तियों से रूबरू होने का मौका मिला था और मै उन्हें पढ़कर ठगा सा रह गया था। वो पंक्तियाँ थीं

संकट ऐसा सिलवट से कोई हाल भाँप ले जी
करवट ऐसी दूरी से कोई हाथ ताप ले जी

पीयूष मिश्रा के इन शब्दों का जादू कुछ ऐसा था जो मुझे फिल्म के आते ही थियेटर तक ले गया। कितने सहज बिंबों का प्रयोग किया है पीयूष ने। ऐसे बिंब जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से लिए गए हैं। पर इनसे जो बात उन्होंने कहनी चाही है वो लोग तरह तरह के शब्दजाल जोड़ कर भी नहीं कह पाते। तो सुनें और ठुमके लगाएँ गुलाल के इस चकमकाते गीत के साथ..


बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार

मन बोले चकमक हाए चकमक ...
हाए चकमक चकमक चकमक
बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

खाए..खाए तो मचल गई रे हो कजरारी नार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक
बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

हमको दुनिया की लाज सरम का डर लगे है हो जी
हमको दुनिया के लोक धरम का डर लगे है हो जी
पर इस जलते करेजवा पे कोई फूँक मार दो जी
पर इस मनवा की अगिया पे कोई छींट मार दो जी
हो हो हो ओ ...हो हो हो ओ
मीठी.. मीठी सी कसक छोड़ कर चला गया भर्तार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक
बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

जुगनी जान गयो रे मान गयो रे बीड़ो की तासीर
अरे कुर्बान गयो हलकान के मसला सब्र पट गंभीर
कैसे देवे रे इलजाम कि तू भी संकट में आखिर
मैं तो पूरा राजस्थान गयो ना तेरे जैसी बीड़

संकट ऐसा सिलवट से कोई हाल भाँप ले जी
करवट ऐसी दूरी से कोई हाथ ताप ले जी
निकले सिसकी जैसे बोतल का काग जो उड़ा हो
धड़कन ऍसी जैसे चंबल में घोड़ा भाग जो पड़ा हो


हो हो हो ओ ...हो हो हो ओ
अंगिया.... अंगिया भी लगे है जैसे सौ सौ मन का भार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

रविवार, मार्च 21, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : एक नज़र उन गीतों पर जो गीतमाला में आते आते रह गए...

वार्षिक संगीतमाला के लिए गीतों का चयन करते समय बहुत सारे गीत ऐसे थे जो कुछ हद तक पसंद आते हुए भी अंतिम पच्चीस में अपना स्थान नहीं बना पाए। इसलिए इससे पहले कि इस साल के रनर्स अप और सरताज गीत से आपकी मुलाकात कराई जाए एक नज़र उन गीतों पर जो आखिरी वक़्त में मेरी अंतिम सूची से बाहर चले गए। और हाँ ये बता दूँ कि इस पोस्ट में मैंने इन गीतों के सिर्फ वही टुकड़े लगाए हैं जो मुझे खास पसंद आए।

सबसे पहले जिक्र करना चाहूँगा मैं फिल्म सुनो ना के इस गीत का। एक अविवाहित माँ की कहानी कहती इस फिल्म का एक गीत अंतरा चौधरी ने गाया है और मुखड़ा सुनते ही दिल गीत की मायूसी में डूब सा जाया करता है। वैसे ये जानना मेरे लिए सुखद रहा कि अंतरा मशहूर संगीतकार सलिल चौधरी की पुत्री हैं।




जिंदगी उलझनों से भरी है
अजनबी हैं सफ़र की राहें
हमसफ़र थे जो कल तक हमारे
फेर ली हैं उन्हीं ने निगाहें...

मायूसी की बात करें तो फिल्म रेडिओ में हीमेश रेशमिया और श्रेया घोषाल का गाया ये गीत भी हीमेश के नए अंदाज़ और संगीत में चुटकियों के प्रयोग के लिए बार बार सुनने योग्य है



कोई ना कोई चाहे, कोई ना कोई चाहे
हमसफ़र जिंदगी ऐ
बहुत अकेले जी चुके हैं
थक के तनहा अब रुके हैं
कह रही आवारगी ये, कोई ना कोई चाहे

इसी फिल्म का एक और गीत का मुखड़ा पिया जैसे लाडू मोती चूर वाले मनवा में फूटे हूक..... जिसे हीमेश के साथ रेखा भारद्वाज ने गाया है भी खासा आकर्षित करता है।

वैसे तो फिल्म न्यूयार्क का गीत है जुनून.... पिछले साल काफी बजा पर इसी फिल्म का एक और गीत मेरी लिस्ट में लगभग आते आते रह गया था। इसे मोहित चौहान ने गाया था अपनी उसी खास शैली में



हूँ ऊ ऊँ.................हूँ ऊ ऊँ
तूने जो ना कहा मैं वो सुनता रहा
खामख्वाह, बेवज़ह ख़्वाब बुनता रहा
हूँ ऊ ऊँ.................हूँ ऊ ऊँ
जाने किस की हमें लग गई है नज़र
इस शहर में ना अपना ठिकाना रहा....

शिल्पा राव का फिल्म पा में गाया मुड़ी मुड़ी इत्तिफाक से ....में स्वानंद किरकिरे का छोटे छोटे शब्दों द्वारा किया गया गीत संयोजन कमाल लगता है।



इसी फिल्म में अमिताभ बच्चन का गाया मेरी माँ तेरी है मेरे पा .....भी आँखे नम करने की काबिलियत रखता है पर अगर साल के बेहतरीन बाल गीत को चुनना हो तो मैं फिल्म सुनो ना में अपूर्वा के गाए गीत को ही चुनूँगा...



मेरी अम्मा सुनो मेरा कहना, लगे अप्पा बिना सब सूना
मुझे बातों से ना बहलाओ,जाओ अप्पा कहीं से लाओ
मान भी जाओ ये ज़िद मेरी,और करो ना अब तुम देरी
तुमसे रूठूँगा मैं वर्ना..........

सूफी गीतों में दिल्ली 6 का अर्जियाँ सारी.... जहाँ सबसे प्रभावशाली रहा वहीं कुर्बान का अली मौला.... भी कर्णप्रिय रहा। रोमांटिक गीतों में कुर्बान फिल्म में सोनू निगम 'शुक्र अल्लाह...' और फिल्म तेरे बिन में शान और श्रेया का गाया 'तेरे बिन कहाँ हमसे जिया जाएगा....' भी उल्लेखनीय रहे। एक झलक सुनिए



और आखिर में वो गीत जिसकी शुरुआती धुन मुझे बेहद पसंद है और इसे बनाने वाले हैं विशाल भारद्वाज। फिल्म और गीत तो आप पहचान ही गए होंगे..



थोड़े भीगे भीगे से थोड़े नम हैं हम,
कल से सोए वोए भी तो कम हैं हम

है ना ये पंक्तियाँ आपके दिल से जुड़ी हुईं..क्यूँ ना हो आखिर आप भी तो एक ब्लॉगर ठहरे...:)

शुक्रवार, मार्च 19, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 - प्रथम पाँच- तेरा होने लगा हूँ खोने लगा हूँ..

तो चलिए वार्षिक संगीतमाला 2009 की तीसरी पॉयदान पर आज विशुद्ध बॉलीवुड रोमांटिक मेलोडी का स्वाद चखने। ये गाना पिछले साल के अंत में आया और हर जगह छा गया और आज भी इसे सुनने पर एक मीठा मीठा सा अहसास मन में तारी रहता है और आप इसे गुनगुनाने का लोभ संवरण नहीं कर सकते। तारीफ करनी होगी संगीतकार प्रीतम की जिन्होंने एक बेहतरीन धुन के साथ आलिशा चिनॉय और आतिफ असलम को इस गीत को गाने को चुना।

गीत शुरु होता है अंग्रेजी जुबान में। प्रीतम अपने गीतों में अंग्रेजी की पंक्तियाँ, हिंदी अंतरों के बीच में पहले भी डालते आए हैं। वर्ष 2006 में उन्होंने फिल्म 'प्यार के साइड एफेक्टस' के लिए एक गीत रचा था जाने क्या चाहे मन बावरा.. जिसे मैं उनकी बेहतरीन कम्पोशीसन में से एक मानता हूँ। वहाँ भी अंग्रेजी का एक अंतरा ठीक इसी तरह लगाया था उन्होंने!

मन सोचता है कि क्या इसकी जरूरत थी? शायद आज के अंग्रेजीदाँ युवा वर्ग को गीत से जोड़ना उनका मकसद रहा हो। कई जगह संगीतप्रेमियों द्वारा इसकी आलोचना भी पढ़ी। पर मेरा मत तो यही है कि ये अगर ना भी करते तो भी चलता और अगर किया भी है तो वो अंतरा इस गीत के साथ भावनात्मक तौर पर जुड़ा ही दिखता है।

खैर, आशीष पंडित के लिखे इस गीत में अपनी शहद सी आवाज़ का जादू बिखेरा है अलीशा चिनॉय ने। अलीशा की बात करने पर उन पुराने दिनों की याद करना लाज़िमी हो जाता है जब हम स्कूल की दहलीज़ पार कर कॉलेज में जाने को तैयार हो रहे थे। वो वक़्त 'मेड इन इंडिया' की लोकप्रियता के पहले का था। हिंदी पॉप जगत में उन दिनों बेबी डॉल के नाम से मशहूर अलीशा इंडियन मेडोना की छवि को बनाने में व्यस्त थीं। अपनी जेबखर्च से मैंने पहला कैसेट उन्हीं का खरीदा था पर उसके बाद उनका पॉप संगीत मुझे विशेष रास नहीं आया। पर फिल्मी गीतों में अलीशा बीच बीच में सुनाई देती रहीं। 'मेरा दिल गाए जा जूबी जूबी जूबी...' से लेकर 'कजरारे कजरारे...' तक संगीत जगत तीन दशकों का सफ़र पूरा करने वाली अलीशा की इस बात पर दाद देनी होगी कि इतने लंबे समय में भी उनकी आवाज़ में वही खनक बरकरार है जो तीस साल पहले थी।

वैसे उनके बारे में एक रोचक तथ्य ये है जिसे आप अलीशा के नाम से जानते हैं, उनका वास्तविक नाम 'सुजाता' था जिसे बाद में उन्होंने अपनी भतीजी के नाम पर बदल कर अलीशा कर लिया। इस गीत के रोमांटिक मूड को पुख्ता करने में भी अलीशा की आवाज़ का महती योगदान है। रहे आतिफ साहब तो उनकी आवाज़ और लोकप्रियता के बारे में मैं पहले ही यहाँ चर्चा कर चुका हूँ।

तो आइए एक बार फिर सराबोर हो लें इस गीत की रूमानियत में..


shining in the sand n sun like a pearl upon the ocean
come and feel me, girl feel me
shining in the sand n sun like a pearl upon the ocean
come and heal me, girl heal me
thinking abt the love we making n the life we sharing
come and feel me, girl feel me
shining in the sand n sun like a pearl upon the ocean
come and feel me, comon heal me

हुआ जो तुम्हें मेरा मेरा
तेरा जो इकरार हुआ
तो क्यूँ ना मैं भी कह दूँ कह दूँ
हुआ मुझे भी प्यार हुआ

तेरा होने लगा हूँ खोने लगा हूँ
जब से मिला हूँ
shining in the sand n sun like a pearl upon the ocean
come and feel me, girl feel me
shining in the sand n sun like a pearl upon the ocean
come and heal me, girl heal me


वैसे तो मन मेरा,
पहले भी रातों में
अक्सर ही चाहत के हाँ
सपने सँजोता था
पहले भी धड़कन ये
धुन कोई गाती थी
पर अब जो होता है वो
पहले ना होता था

हुआ है तुझे जो भी जो भी
मुझे भी इस बार हुआ
तो क्यूँ ना मैं भी कह दूँ कह दूँ
हुआ मुझे भी प्यार हुआ

तेरा होने लगा हूँ खोने लगा हूँ...
आँखों से छू लूँ
कि बाहें तरसती हैं
दिल ने पुकारा है हाँ
अब तो चले आओ

आओ कि शबनम की बूँदे बरसती हैं
मौसम इशारा है हाँ
अब तो चले आओ

बाँहों में डाले बाँहें बाँहें
बाँहों का जैसे हार हुआ
हाँ माना मैंने माना माना
हुआ मुझे भी प्यार हुआ

तेरा होने लगा हूँ खोने लगा हूँ...
shining in the sand n sun like a pearl upon the ocean...

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मंगलवार, मार्च 16, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 - प्रथम पाँच- गूँजा सा है कोई इकतारा इकतारा..कविता सेठ

वार्षिक संगीतमाला की चौथी पॉयदान पर विराजमान हैं अमित त्रिवेदी। अमित त्रिवेदी एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला के लिए कोई नए संगीतकार नहीं हैं। पिछले साल की संगीतमाला में आमिर में उनके संगीतबद्ध इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरी मौला को साल के सरताज गीत के खिताब से नवाज़ चुका हूँ।

इस साल भी अमित Dev D और वेक अप सिड के इस गीत के लिए चर्चा में बने रहे। पर Dev D की अपेक्षा इस गीत का सम्मिलित प्रभाव मुझ पर ज्यादा हुआ। दरअसल वेक अप सिड का ये गीत, उन गीतों में शुमार होता है जिसे एक बार सुन कर ही आप उसके सम्मोहन में आ जाते हैं।


इस गीत की इस सम्मोहनी शक्ति का श्रेय अमित त्रिवेदी के साथ गायिका कविता सेठ ,अमिताभ भट्टाचार्य और गीतकार जावेद अख्तर को भी जाता है। अब इन खूबसूरत लफ़्जों में बहती कविता को महसूस करें , जावेद अख्तर सपनों की बारिश को अपने नज़रिए से देखते हुए लिखते हैं ...

जो बरसें सपने बूँद बूँद
नैनों को मूँद मूँद
कैसे मैं चलूँ
देख न सकूँ
अनजाने रास्ते


और फिर कविता सेठ की गहरी आवाज़ गीत के दर्द को यूँ उड़ेलती हुई चलती है कि श्रोताओं को लगता है कि उनका ख़ुद का दर्द बयाँ किया जा रहा है। अमित त्रिवेदी के बारे में मैं पहले भी लिख चुका हूँ। आज जानते हैं इस गीत की गायिका कविता सेठ के बारे में।

शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने के बाद कविता ने सूफ़ी गायिकी को अपने गायन का माध्यम चुना। कविता जगह जगह अपने समूह कारवाँ के लिए कार्यक्रम करने के आलावा चुनिंदा हिंदी फिल्मों में गाती भी रहीं। फिल्म गैंगस्टर का गीत मुझे मत रोको, फिल्म वादा का मौला और पिछले साल आई ये मेरा इंडिया के तीन गीत उन्होंने गाए। पर उनका ये गीत सबके मन को बावरा कर गया और शायद इसीलिए इस गीत के लिए उन्हें साल की श्रेष्ठ गायिका का फिल्मफेयर एवार्ड भी मिला।

वैसे कविता खुद क्याँ सोचती हैं इस गीत के बारे में? अपने ब्लॉग पर कविता इस गीत के बारे में लिखती हैं

ये एक सुरीला नग्मा है जो कि व्यक्ति के मन की उस प्रवृति की पड़ताल करता है जो उसे मीलों लंबे सफ़र पर भटकाती रहती है। गीत का मुखड़ा 'ओ रे मनवा तू तो बावरा है,तू ही जाने तू क्या सोचता है' बड़ी खूबसूरती से लिखा गया है (और मुझे लगता है कि मेंने शायद उसे ठीक से निभाया भी है)... दरअसल ये पंक्तियाँ हम सभी की मनःस्थिति को दर्शाती है। ये गीत मन में उतरता इसीलिए है कि हम सब इसे अपनी जिंदगी के किसी ना किसी हिस्से से आसानी से जोड़ पाते हैं।

तो आइए सुनें वेक अप सिड का ये नग्मा


ओ रे मनवा तू तो बावरा है
तू ही जाने तू क्या सोचता है
तू ही जाने तू क्या सोचता है बावरे
क्यूँ दिखाए सपने तू सोते जागते
जो बरसें सपने बूँद बूँद
नैनों को मूँद मूँद
कैसे मैं चलूँ
देख न सकूँ
अनजाने रास्ते

गूँजा सा है कोई इकतारा इकतारा
गूँजा सा है कोई इकतारा
गूँजा सा है कोई इकतारा इकतारा
गूँजा सा है कोई इकतारा इकतारा
दिल में बोले कोई इकतारा
दिल में बोले कोई इकतारा
गूँजा सा है कोई इकतारा

सुन रही हूँ सुध-बुध खो के कोई मैं कहानी
पूरी कहानी है क्या किसे है पता
मैं तो किसी की हो के ये भी न जानी
रुत है ये दो पल की या रहेगी सदा
किसे है पता
किसे है पता

जो बरसें सपने बूँद बूँद
नैनों को मूँद मूँद......
गूँजा-सा है कोई इकतारा इकतारा...


शुक्रवार, मार्च 12, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 - प्रथम पाँच- बड़े नटखट हैं मोरे कँगना..श्रेया घोषाल

भाइयों और बहनों वक्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला के शीर्ष में बैठे पिछले साल के मेरे पाँच सबसे पसंदीदा गीतों के बारे मे बातें करने का। ये पाँचों गीत अलग अलग मिज़ाज के हैं और इनकी सापेक्षिक वरीयता कोई खास मायने नहीं रखती। हाँ पाँच में चार गीतों में मुख्य स्वर किसी गायिका का है और इन चारों गीतों की गायिकाएँ भी भिन्न भिन्न हैं। तो आज किसकी बारी है? वार्षिक संगीतमाला की पाँचवी पॉयदान की शोभा बढ़ा रहा है 'दि ग्रेट इंडियन बटरफ्लाई ' फिल्म का शास्त्रीयता के रंग में डूबा एक बेहद सुरीला सा नग्मा।

(चित्र में बाँये से मनोज,श्रेया, दीपक)
अगर फिल्म के नाम को देखकर कुछ अचंभित महसूस कर रहे हों तो ये बताना वाज़िब होगा कि फिल्म का शीर्षक उस काल्पनिक भारतीय तितली से जुड़ी कहानी कहता है जिसे पाने से खुशियाँ आपकी गुलाम हो जाती हैं। ये फिल्म भारत के बाहर वर्ष 2007 में ही प्रदर्शित हो चुकी है और उसके बाद विभिन्न अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का हिस्सा भी बन चुकी है पर इसका संगीत भारत में पिछले साल सितंबर में ही आया। पर पाँचवी पॉयदान के इस गीत का आनंद उठाने के लिए फिल्म की कहानी जानने की ज्यादा आवश्यकता नहीं। 

अमेठी से ताल्लुक रखने वाले गीतकार मनोज 'मुन्तशिर' इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। टीवी के कई महत्त्वपूर्ण शो जैसे केबीसी, सच का सामना वैगेरह के लिए लेखन का काम करने के बाद उन्होंने गीतकार बनने का निश्चय किया। मनोज, संगीतकार दीपक पंडित के साथ यू बोमसी & मी का भी एक गीत लिख चुके हैं। 

प्रस्तुत गीत में यूँ तो नायिका अपने प्रीतम को याद कर रही है पर किसके बहाने करे याद उनको। मुआ कँगना किस दिन काम आएगा। इसीलिए गीत के मुखड़े में मनोज लिखते हें...

बड़े नटखट हैं मोरे कँगना
रात में खनके तो सखियाँ समझें
आए पिया मोरे अँगना...
बड़े नटखट हैं मोरे कँगना...

वैसे कंगन का नाम लेकर सिर्फ नायिकाएँ अपने दिल की बात करती हों ऐसा भी नहीं। पाकिस्तान के युवा शायर वासी शाह की वो सदाबहार नज़्म दिमाग में आ जाती है।

काश मैं तेरे हाथ का कंगन होता !
तू बड़े प्यार से बड़े चाव से बड़े अरमान के साथ
अपनी नाज़ुक सी कलाई में चढ़ाती मुझको
और बेताबी से फुरक़त के खिज़ां के लमहों में
तू किसी सोच में जो घुमाती मुझको
मैं तेरे हाथ की खुशबू से महक सा जाता
जब कभी 'mood' में आकर मुझे चूमा करती
तेरे होठों की शिद्दत से मैं दहक सा जाता..

तो देखा आपने कितना नटखट है ये 'कंगन' कवि की कल्पनाएँ इसके बहाने कहाँ तक छलाँग मार लेती हैं। पर मनोज तो सिर्फ कँगना के सहारे प्रेम में डूबी नायिका का मन टटोल रहे हैं। वैसे मनोज के सहज बोलों को संगीतकार दीपक पंडित ने विशु्द्ध भारतीय संगीत के चोले में इस तरह सजाया है कि एक बार सुन कर ही मन वाह वाह कर उठता है। गीत के साथ चलती तबले की थाप, इंटरल्यूड्स में विविध भारतीय वाद्यों का प्रयोग मन को सोहता है। और फिर श्रेया घोषाल का कोकिल स्वर रही सही कसर पूरी कर देता है। किस खूबसूरती से गीत को निभाया है उन्होंने! शास्त्रीय गीत हो या बॉलीवुड की विशुद्ध मेलोडी, दोनों में ही श्रेया अपनी प्रतिभा हमेशा से दर्शाते आई हैं। शायद इसीलिए पाठकों में अधिकांश ने उनको इस साल का सर्वश्रेष्ठ गवैया चुना है। तो आइए 

सुनें इस गीत को ..


बड़े नटखट हैं मोरे कँगना
रात में खनके तो सखियाँ समझें
आए पिया मोरे अँगना...
बड़े नटखट हैं मोरे कँगना...
हर पल याद पिया को करना
भूल गई मैं सँजना सँवरना
प्रीत के रंग में, रंग गई जबसे
भाए मोहे कोई रंग ना
बड़े नटखट हैं मोरे कँगना...
मोहे खबर क्या इस दुनिया की
जोगन हूँ अपने पिया की
मगन रहूँ मैं प्रेम लगन में
कोई करे मुझे तंग ना
बड़े नटखट हैं मोरे कँगना....

वैसे चलते चलते ये भी बताता चलूँ कि इस गीत को गुलाम अली साहब ने भी अपनी आवाज़ दी है पर मुझे श्रेया का वर्सन ज्यादा प्रिय है। और हाँ, ये एलबम बाजार में Eros Music (Catalog -ECD0171) पर उपलब्ध है।

मंगलवार, मार्च 09, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 6 - ऐ सुरमयी आँखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया...

वार्षिक संगीतमाला की छठी पॉयदान पर एक बार फिर है फिल्म गुलाल का एक और गीत। इस गीत के तीनो पक्षों यानि बोल, संगीत और गायिकी में जान डालने वाला एक ही शख़्स हैं और वो हैं पीयूष मिश्रा!


ग्वालियर में जन्मे और पले बढ़े पीयूष मिश्रा, बहुमुखी प्रतिभा के धनी एक कमाल के कलाकार हैं। नाटककार, चरित्र अभिनेता, संवाद लेखक, गीतकार, संगीतकार, गायक के रूप में तो सारे संगीतप्रेमी उन्हें जान ही गए हैं। पर क्या आप जानते हैं कि पीयूष को अपने अंदर के कलाकार को ढूँढने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी? पाँच साल तक सितार वादन में लगे रहे तो भी सुकून नहीं मिला। फिर ग्वालियर के शिल्प महाविद्यालय में दाखिला लिया पर वहाँ भी बात नहीं बनी। मन था कि रचनात्मकता के कुछ और आयाम तलाशने में लगा था। आखिरकार उनकी प्रतिभा को उचित मंच राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश लेने के साथ मिल गया।

पीयूष फिल्मों में पहली बार 1998 में मणि रत्नम की फिल्म 'दिल से' में दिखे। मुंबई में अपने विद्यालय के पुराने साथियों विशाल भारद्वाज, आशीष विद्यार्थी, अनुराग कश्यप, मनोज वाजपेयी की वज़ह से नाटकों में काम मिलता रहा पर उन्हें मुंबई से प्यारी दिल्ली ही लगती रही। जब पारिवारिक जिम्मेदारियाँ उन्हें सताने लगीं तो वो मुंबई आ गए। ये नहीं कि रंगमंच से उन्होंने नाता तोड़ लिया है पर समय रहते उन्होंने ये महसूस कर लिया कि आर्थिक स्थायित्व उन्हें फिल्म उद्योग ही दे सकता है।

पिछले साल वार्षिक संगीतमाला में पीयूष, सुखविंदर सिंह के गाए मस्तमौला नग्मे दिल हारा रे... की वज़ह से चर्चा में आए थे। वैसे ब्लैक फ्राइडे के चर्चित गीत ओ रुक जा रे बंदे के रचयिता भी वही थे। पर इस बार उन्होंने गुलाल के गीत लिखकर ये दिखला दिया कि एक गीतकार को अगर निर्देशक द्वारा खुली छूट दी जाए तो वो लीक से अलग हटकर भी बहुत कुछ दे सकता है। पीयूष कहते हैं कि अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी इस फिल्म के गीतों को रचने में उन्हें मात्र एक हफ्ते का समय लगा।

पॉयदान संख्या 18 पर हम उनके लिखे पॉलटिकल मुज़रे की चर्चा कर चुका हूँ। छठी पॉयदान पर विराजमान आज का ये गीत पीयूष ने मशहूर गीतकार और शायर साहिर लुधियानवी के अज़र अमर गीत ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है से प्रेरित हो कर लिखा है और उन्हीं को ये गीत समर्पित भी किया है। मोहम्मद रफ़ी जैसे महान गायक ने साह़िर के शब्दों की संवेदनाओं को पकड़ते हुए इतने बेहतरीन तरीक़े से उस गीत को अपनी आवाज़ बख्शी थी कि शायद ही कोई उस गीत को भूल पाएगा।

पीयूष ने अपने इस गीत में साहिर की भावनाओं को आज के परिपेक्ष्य में देखने की कोशिश की है। वैसे तब और अब की दुनिया की समस्याओं में फर्क़ कुछ ज्यादा नहीं आया है। साहिर ने अपनी कालजयी रचना में गरीबी, सामाजिक और आर्थिक असमानता, व्यक्ति के भावनात्मक और नैतिक अवमूल्यन की बात की थी। पीयूष भी आज के समाज की भौतिकवादी मानसिकता का जिक्र अपने गीत में करते हैं जो इंसान को सत्ता, धन के मोह जाल में क़ैद किए हुए है। फिल्म गुलाल के अंत में पार्श्व में बजने वाला ये गीत दिल को झकझोरता सा निकल जाता है और हमें कुछ सोचने पर मज़बूर कर देता है।

तो आइए पढ़ें और सुनें पीयूष मिश्रा जी को


ओ री दुनिया, ओ री दुनिया…
ऐ ओ री दुनिया….
ऐ सुरमयी आँखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया,
सुरमयी आँखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया,
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया,
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया,
अलसाई सेजों के फूलों की दुनिया ओ दुनिया रे,
अंगड़ाई तोड़े कबूतर की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ करवट ले सोई हकीक़त की दुनिया ओ दुनिया,
दीवानी होती तबियत की दुनिया ओ दुनिया,
ख्वाहिश में लिपटी ज़रुरत की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ इंसान के सपनों की नीयत की दुनिया ओ दुनिया,
ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…

ममता की बिखरी कहानी की दुनिया ओ दुनिया,
बहनों की सिसकी जवानी की दुनिया ओ दुनिया,
आदम के हव्वा से रिश्ते की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ शायर के फीके लफ्ज़ों की दुनिया ओ दुनिया ,
ओ...............ओ...............

गा़लिब के मोमिन के ख़्वाबों की दुनिया,
मज़ाज़ों के उन इन्कलाबों की दुनिया,
फैज़, फिराको, साहिर व मखदूम,
मीर की, ज़ौक की, दाग़ों की दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…

पल छिन में बातें चली जाती हैं हैं,
पल छिन में रातें चली जाती हैं हैं,
रह जाता है जो सवेरा वो ढूँढे,
जलते मकान में बसेरा वो ढूँढे,
जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो ये दुनिया,
अपना समझ के अपनों के जैसी उठा लो ये दुनिया,
छिटपुट सी बातों में जलने लगेगी सँभालो ये दुनिया,
कटकुट के रातों में पलने लगेगी सँभालो ये दुनिया,

ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
वो कहे हैं की दुनिया ये इतनी नहीं है,
सितारों से आगे ज़हाँ और भी हैं,
ये हम ही नहीं हैं वहाँ और भी हैं,
हमारी हर एक बात होती वहीं हैं,
हमें ऐतराज़ नहीं हैं कहीं भी,
वो आलिम हैं फ़ाज़िल हैं होंगे सही ही,
मगर फलसफा ये बिगड़ जाता है जो वो कहते हैं,
आलिम ये कहता वहाँ ईश्वर है,
फ़ाज़िल ये कहता वहाँ अल्लाह है,
काबिल यह कहता वहाँ ईसा है,
मंजिल ये कहती तब इंसान से कि तुम्हारी है तुम ही सँभालो ये दुनिया,
ये बुझते हुए चंद बासी चरागों, तुम्हारे ये काले इरादों की दुनिया,
हे ओ.... री दुनिया…


शुक्रवार, मार्च 05, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पायदान संख्या 7 - मन बावरा तुझे ढूँढता ..शाहाब के बोलों पर राहत का स्वर

वार्षिक संगीतमाला की सातवीं पॉयदान पर बड़ा ही खूबसूरत नग्मा है जो पिछले साल जनवरी में प्रदर्शित हुई फिल्म आसमाँ sky is the limit... का हिस्सा था। युवा कलाकारों को लेकर बनाई गई ये फिल्म ज्यादा तो नहीं चली पर इसने हिन्दी फिल्म संगीत में संगीतकार और गीतकार के रूप में दो नए नाम जरूर जोड़ दिए जिनसे आगे भी ऐसे ही प्यारे गीतों को सुनने की उम्मीद रहेगी।

वैसे राहत फतेह अली खाँ अक्सर बड़े बैनरों की फिल्मों में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरते रहे हैं। पर इस छोटे बजट की फिल्म का ये गीत उन्होंने इसके हृदय को छूने वाले बोलों और बेहतरीन धुन को देखकर ही चुना होगा। वैसे तो राहत ने इस साल कुछ ज्यादा चर्चित फिल्मों के भी नग्मे गाए हैं पर उन सबको सुनने के बाद मुझे ये उनके द्वारा संगीतप्रेमियों की दी हुई इस साल की सबसे बेहतरीन सौगात लगी। ये गीत है मन बावरा... जिसे लिखा शाहाब इलाहाबादी ने और इस गीत की धुन बनाई अफ़सार साज़िद की युगल जोड़ी ने।

गीत के मूड के अनुरूप गीत के पार्श्व में बाँसुरी और तबले का प्रयोग मन को सोहता है। राहत की आवाज़ का दर्द, शास्त्रीय गायिकी पर उनकी पकड़, शाहाब के अर्थपूर्ण बोलों को सीधे मन के भीतर ले जा कर छोड़ते हैं।

यक़ीन नहीं होता तो शाहाब के बोलों को पढ़ें और फिर आनंद लें राहत की बेमिसाल गायिकी का...



मन बावरा तुझे ढूँढता
पाने की खोने की पैमाइशें1
जीने की सारी मेरी ख़्वाहिशें
आसमाँ ये ज़हाँ, सब लगे ठहरा
मन बावरा तुझे ढूँढता

1.नाप जोख़,

बदगुमाँ था नादाँ ये दिल
धड़केगा ना कभी
होश खो बैठा है पागल
रूठी है ज़िंदगी
खुद से बातें कर करके हँसना
भीड़ में भी तनहा सा लगना
बज रही हैं जलतरंगें
साँसों के दरमियाँ
मन बावरा तुझे ढूँढता...


उन्सियत2 के ख़्वाब चुनकर
कटती रातें मेरी
इलतज़ा ए दीद3 लेकर
भटके आँखें मेरी
मीलों लंबे ये फ़ासले हैं
बस तस्सुवर4 के सिलसिले हैं
रतजगे गुमसुम पड़े हैं
पलकों पे रायगाँ5
2. प्रेम, 3.झलक, 4. ख्याल, 5.बेकार

मन बावरा तुझे ढूँढता ....

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तो हुजूर कैसा लगा आपको ये गीत ?

बुधवार, मार्च 03, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पायदान संख्या 8 - जरा बताइए ना ये ससुराल 'गेंदा फूल' सा क्यूँ है ?

होली की वज़ह से वार्षिक संगीतमाला 2009 ने लिया था एक विश्राम! तो एक बार फिर बाकी की सीढ़ियों का सफ़र शुरु करते हैं पॉयदान संख्या 8 से, जहाँ पर है एक छत्तिसगढ़ी लोकगीत जिसके बोलों को प्रसून जोशी द्वारा थोड़ा बहुत परिवर्तित करके फिल्म दिल्ली ६ में इस्तेमाल किया गया। संगीतकार ए आर रहमान और सहायक संगीत निर्देशक रजत ढोलकिया ने इस लोकगीत का पाश्चत्य संगीत के साथ इतना बेहतरीन सम्मिश्रण किया कि पिछले साल फिल्म रिलीज़ होने के साथ ही ये गीत सबकी जुबाँ पर चढ़ गया। इस गीत में लोकगीत की मिठास को कायम रखने के लिए रेखा भारद्वाज की गायिकी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। वैसे रेखा के साथ पीछे आने वाले कोरस में आवाज़ें थीं श्रृद्धा पंडित, सुजाता मजूमदार और वी न महथी की।

गीत चल गया तो साथ में ये मसला भी उठ गया कि प्रसून जोशी की जगह इस लोकगीत के लेखक को क्रेडिट देना चाहिए। क्रेडिट देने के मामले में फिल्म उद्योग का रिकार्ड जगज़ाहिर है। प्रसून का कहना है कि ये गीत उन्हें अभिनेता रघुवीर यादव ने दिया। वैसे इस संबंध में प्रसून का पक्ष जानने के लिए राजेश अग्रवाल जी की लिखी ये पोस्ट पढ़ें। पर आप ये जरूर जानना चाहेंगे कि इतन सहज और अपने से लगने वाले लोकगीत को लिखा किसने?

खोजबीन के बाद मुझे ये जानकारी मिली कि इसे स्व. गंगाराम शिवारे ने लिखा था और स्व. भुलवाराम यादव ने उसे स्वर दिया। भुलवाराम जी ने ही तीनों जोशी बहनों डा. रेखा, रमादत्त और प्रभादत्त को ये गीत सिखाया। जोशी बहनों का कहना है कि सत्तर के दशक में उन्होंने ये गीत पहली बार रायपुर में गाया।

ससुराल में सास की गालियाँ, ननद के ताने और देवर से सहानुभूति मिलना शायद ही संयुक्त परिवार में रही किसी दुल्हन के लिए नई बात होगी। हालाँकि धीरे धीरे शिक्षा के प्रसार और एकल परिवार की ओर अग्रसर होता भारतीय समाज इस मिथक को तोड़ने में प्रयासरत है। पर गीत में ससुराल को गेंदा फूल कहा जाना कुछ नया और उत्सुकता जगाने वाला है। अब गंगाराम शिवारे जी तो रहे नहीं कि ये प्रश्न उनसे पूछा जाए पर इस बारे में जब भी चर्चा चली लोगों ने कई तर्क दिये। वैसे यहाँ ससुराल को गुलाब फूल कहा जाता तो फूल के साथ काँटे की बात कह कर आसानी से ये रूपक सब की समझ में आ जाता। पर सवाल तो यहाँ ये है कि इस गेंदे में बनावट के लिहाज़ से ऐसी क्या खासियत है?

गेंदे के फूल की खासियत है इसमें बहुत सारे फूल एक ही तने से उगते और पलते बढ़ते हैं ठीक वैसे ही जैसे ससुराल रूपी तने से सास,ससुर,देवर, ननद जैसे रिश्ते पनपते हैं और साथ साथ फलते फूलते हैं। हो सकता है आप इस व्याख्या से सहमत ना हों पर इस बारे में आपका मत जानने की उत्सुकता रहेगी।

तो जब तक आप सोचे विचारें सुनते जाएँ ये प्यारा सा नग्मा..



सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का अँगना, भावे डेरा पिया का हो
सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल...


सैंया है व्यापारी, चले है परदेश
सूरतिया निहारूँ जियरा भारी होवे, ससुराल गेंदा फूल....
सास गारी देवे देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल
सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल...

छोड़ा बाबुल का अंगना भावे डेरा पिया का हो !
बुशर्ट पहिने खाईके बीड़ा पान, पूरे रायपुर से अलग है
सैंया...जी की शान ससुराल गेंदा फूल ....


सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल ...
सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का अंगना ,भावे डेरा पिया का हो ....
ओय होय ओय होय-
होय होय होय होय होय होय .....

 

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