सोमवार, जुलाई 26, 2010

लता ,ख़य्याम, नक़्श ल्यालपुरी की त्रिवेणी से निकला फिल्म दर्द का बेमिसाल संगीत... Ahl E Dil Yun Bhi Nibha Lete Hain..

बात अस्सी के दशक के शुरुआत की है जब राजेश खन्ना और हेमा जी की एक फिल्म आई थी नाम था दर्द। फिल्म के संगीतकार थे ख़य्याम साहब और इसके गीतों के बोल लिखे थे नक्श ल्यालपुरी ने। वैसे तो पूरी फिल्म का संगीत लोकप्रिय हुआ था पर आज इस पोस्ट में अपनी पसंद के दो गीतों या यूँ कहें कि एक गीत व एक ग़ज़ल का जिक्र करना चाहूँगा जिन्हें सुनना हमेशा से मन में एक अलग सा जादू जगाता रहा है।।


खासकर प्रेम के रंग से रससिक्त इस गीत की तो बात ही निराली है। मुखड़े या इंटरल्यूड्स में ख़य्याम साहब का म्यूजिकल अरेंजमेंट,लता की नर्म,सुरीली और भावों में डूबती आवाज़ या फिर नक्श ल्यालपुरी के खूबसूरत बोल हों सब मिल कर इस गीत को एक अलग ही धरातल पर ले जाते हैं। इस गीत को मैं लता जी द्वारा अस्सी के दशक में गाए नायाब गीतों में शुमार करता हूँ।

एक संगीतकार के रूप में ख़य्याम साहब ने चालिस साल से ऊपर के अपने कैरियर में मात्र पचास से कुछ ज्यादा फिल्में कीं पर संगीत की गुणवत्ता से कभी कोई समझौता नहीं किया। अपनी फिल्मों के लिए वो अक्सर ऐसे गीतकारों को लेते थे जिनमें काव्यात्मक प्रतिभा भरी हो। इसलिए उनकी फिल्मों में गीतकार के रूप में आप किसी नामी कवि या शायर को ही पाएँगे। अब इसी फिल्म दर्द को लें जिसके गीत उन्होंने नक़्श ल्यालपुरी से लिखवाए।

ये वही नक़्श ल्यालपुरी हैं जिन्होंने फिल्म घरौंदा का गीत मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है (जो मुझे बहुत बहुत पसंद है) लिखा था। वैसे उनके नाम से ये तो ज़ाहिर है कि वे ल्यालपुर से ताल्लुक रखते थे जो पाकिस्तान के पूर्वी पंजाब में पड़ता था। पर उनका असली नाम नक़्श ल्यालपुरी ना होकर जसवंत राय था। रेडिओ पर अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि उनके उर्दू शिक्षक, पुस्तिकाओं के पीछे लिखी उनकी शायरी से इतने प्रभावित थे कि पिछली कक्षा की सारी पुस्तिकाओं को अपने पास रखवा लेते थे। आज़ादी के बाद वे लखनऊ आ गए और कुछ सालों वहाँ बिताने के बाद मुंबई में डाक तार विभाग में नौकरी कर ली। पर एक शायर का मन दिन भर रजिस्ट्री करने में कहा रमता। सो मित्रों की मदद से पहले उन्होंने नाटकों में लिखना शुरु किया और फिर फिल्मों में चले आए।

तो आइए सुनें नक्श साहब वल्द 'जसवंत राय' का लिखा और लता का गाया ये प्यारा सा नग्मा


न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया
खिला गुलाब की तरह मेरा बदन
निखर निखर गई, सँवर सँवर गई
निखर निखर गई, सँवर सँवर गई
बना के आईना तुझे, ऐ जानेमन

न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया

बिखरा है काजल फिज़ा में, भीगी भीगी है शामे
बूँदो की रिमझिम से जागी आग ठंडी हवा में
आ जा सनम, यह हसीं आग हम ले दिल में बसा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया, खिला गुलाब...

न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...
आँचल कहाँ, में कहाँ हूँ, ये मुझे होश क्या है
यह बेखुदी तूने दी है, प्यार का यह नशा है
सुन ले ज़रा साज़ ऐ दिल गा रहा है नग्मा तेरा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया, खिला गुलाब...
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...

कलियों की ये सेज महके, रात जागे मिलन की
खो जाए धड़कन में तेरी, धड़कनें मेरे मॅन की
आ पास आ, तेरी हर साँस में, मैं जाऊँ समा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया.....जानेमन
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...

ख़य्याम साहब ने इस फिल्म में नक़्श ल्यालपुरी से एक नहीं बल्कि दो शीर्षक गीत लिखवाए। जहाँ गीत प्यार का दर्द है मीठा मीठा प्यारा प्यारा.. फिल्म के नौजवान किरदारों पर फिल्माया गया वहीं दूसरा गीत जिसे फिल्मी ग़ज़ल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा पुरानी पीढ़ी के किरदारों पर फिल्माया गया। और कमाल की बात ये कि दोनों ही गीत लोकप्रिय हुए। पर इन दोनों नग्मों में मुझे ये ग़ज़ल ज्यादा पसंद आती है। इस ग़ज़ल के दो टुकड़े हैं एक में लता जी का स्वर है तो दूसरे में भूपेंद्र का। जब भी इस ग़ज़ल को सुनता हूँ लता जी की आवाज़ की कशिश और नक़्श ल्यालपुरी के सहज बोल एक बार फिर समा बाँध देते हैं।

 

अहले दिल यूँ भी निभा लेते हैं
दर्द सीने में छुपा लेते हैं

दिल की महफ़िल में उजालों के लिये
याद की शम्मा जला लेते हैं

जलते मौसम में भी ये दीवाने
कुछ हसीं फूल खिला लेते हैं

अपनी आँखों को बनाकर ये ज़ुबाँ
कितने अफ़साने सुना लेते हैं

जिनको जीना है मोहब्बत के लिये
अपनी हस्ती को मिटा लेते हैं

वहीं भूपेंद्र गीत के मूड को दो और अशआरों में बरकरार रखते हैं..

जख्म जैसे भी मिले जख़्मों से
दिल के दामन को सजा लेते हैं

अपने कदमों पे मोहब्बतवाले
आसमानों को झुका लेते हैं

तो आइए सुनें भूपेंद्र की आवाज़ में इस गीत का ये टुकड़ा....




आप जरूर सोच रहे होंगे कि आजकल नक़्श ल्यालपुरी जी क्या कर रहे हैं । आज का तो पता नहीं पर उन्होंने अंतिम बार 2005 में नौशाद की आखिरी फिल्म ताजमहल के लिए कुछ गीत लिखे थे। फिल्मों में अब वे काम करना नहीं चाहते क्यूँकि वे मानते हैं कि अब उनके लायक काम आता ही नहीं। कुछ साल पहले तक वे टीवी सीरियल की पटकथाओं को लिखकर अपना काम चला रहे थे।

बुधवार, जुलाई 21, 2010

जगजीत सिंह की ग़ज़लों का सफ़र भाग 5 : आरंभिक दौर, दि अनफॉरगेटेबल और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...

जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायिकी में जिस मुकाम को छुआ वो उन्हें आसानी से मिला हो ऐसी बात नहीं है। एक बेहद बड़े परिवार से ताल्लुक रखने वाले जगजीत सिंह के पिता सरदार अमर सिंह धीमन एक सरकारी मुलाज़िम थे और वे चाहते थे कि उनका पुत्र प्रशासनिक सेवा में जाए। पर जगजीत जी को संगीत में बचपन से ही रुचि थी। पिता उनकी इस रुचि में आड़े नहीं आए। श्री गंगानगर में श्री छगनलाल शर्मा से आरंभिक शिक्षा लेने के बाद जगजीत जी ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उस्ताद ज़माल खाँ से ली।


विज्ञान से इंटर करने के बाद वो जालंधर चले आए। यहीं कॉलेज के कार्यक्रमों में वो हिस्सा लेने लगे। जगजीत जी के साक्षात्कारों में मैंने उन्हें ये कहते सुना है कि ऐसे ही एक कार्यक्रम में जब उन्होंने गाना खत्म किया तो लोग उनकी गायिकी से इतने अभिभूत हो गए कि उन्हें रोक कर पैसे देने लगे। उन छोटे छोटे नोटों को जगजीत जी शायद ही कभी भूल पाएँ क्यूँकि श्रोताओं से मिले इस प्यार ने उनके मन में एक ऍसे सपने का संचार कर दिया था जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने काफी मेहनत की।

1965 में वो मुंबई पहुँचे। शुरुआती दिन बड़े कठिनाई भरे थे। विज्ञापनों के जिंगल, शादियों और फिल्मी पार्टियों में जहाँ भी गाने के लिए उन्हें न्यौता मिला उन्होंने अस्वीकार नहीं किया। संघर्ष के इन ही दिनों में उनकी मुलाकात चित्रा जी से हुई और 1969 में उन्होंने उनसे विवाह कर लिया। सत्तर के दशक में जब भी कोई ग़ज़लों की बात करता था, सब की जुबाँ पर नूरजहाँ, बेगम अख़्तर, के एल सहगल, तलत महमूद और महदी हसन जैसे कलाकारों का नाम आता था। तब ग़ज़ल गायिकी का अपना एक अलग शास्त्रीय अंदाज़ हुआ करता था पर ये भी था कि तबकी ग़ज़ल गायिकी आम अवाम से कहीं दूर कुछ निजी महफ़िलों की शोभा बनकर ही सीमित हो गई थी।

जगजीत सिंह की दूरदर्शिता का ही ये कमाल था कि उन्होंने इस दूरी को समझा और ग़जलों के साथ एक नए तरह के संगीत, हल्के बोलों और ग़ज़लों में मेलोडी का पुट भरने की कोशिश की और उसे जनता ने हाथों हाथ लिया। 1976 में उनका रिलीज़ हुए एलबम The Unforgettable का नीले रंग का कैसेट कवर मुझे आज तक याद है। यूँ तो इस एलबम की तमाम ग़ज़लें और नज़्में चर्चित हुई थीं। पर इस एलबम को यादगार बनाने में मुख्य भूमिका रही थी अमीर मीनाई की ग़ज़ल सरकती जाए है रुख से.. और एक उतनी ही संवेदनशील नज़्म से।

पर इनकी बात करने से पहले बातें इस एलबम की कुछ अन्य ग़ज़लों की जिनके कुछ अशआरों को गुनगुनाने में अब भी वही आनंद आता है जो तब आया करता था। मिसाल के तौर पर जिग़र मुरादाबादी की इस ग़ज़ल को लें। क्या दिल का दर्द जुबाँ तक आता नहीं महसूस होता आपको?

दर्द बढ कर फुगाँ1 ना हो जाये
ये ज़मीं आसमाँ ना हो जाये
1. आर्तनाद

दिल में डूबा हुआ जो नश्तर2
है
मेरे दिल की ज़ुबाँ ना हो जाये
2. खंजर

फिर तारिक़ बदायुँनी के कलाम को चित्रा ने इस करीने से गाया है कि कानों में संगीत की शमा खुद ब खुद जल उठती है

इक ना इक शम्मा अँधेरे में जलाए रखिए
सुबह होने को है माहौल बनाए रखिए


जिन के हाथों से हमें ज़ख्म-ए-निहाँ 3पहुँचे हैं

वो भी कहते हैं के ज़ख्मों को छुपाये रखिये

3. छुपे हुए जख़्म

चित्रा जी की गाई सुदर्शन फाक़िर की ग़ज़ल के ये अशआर भी मुझे हमेशा याद रहते हैं

किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझको अहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी


मेरे रुकने से मेरी साँस भी रुक जाएँगी

फ़ासले और बढ़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी


पर जब बात सरकती जाए.... की आती है तो मूड पहले चाहे जैसा भी रहे एकदम से बदल जाता है। जगजीत जी की ये ग़ज़ल उनके एलबम में तो थी ही, अपनी कान्सर्ट्स में भी वो इसे बड़ी तबियत से गाते थे। मेरे पास उनका रॉयल अलबर्ट हॉल में गाया हुआ वर्सन भी है जिसमें वो अमीर मीनाई की ग़ज़ल की शुरुआत के पहले ये प्यारा सिलसिला शुरु करते थे...

मज़ारे कैस पर जब रुह-ए-लैला एक दिन आई
तो अरमानों के मुरझाए हुए कुछ फूल भी लाई

लगी जब फूल रखने तो कब्र से आवाज़ ये आई

चढ़ाना फूल जानेमन मगर आहिस्ता आहिस्ता


और उसके बाद शुरु होती थी अमीर मीनाई साहब की ग़ज़ल जिसके चार अशआरों को गाकर ही जगजीत मन में ऐसा जादू जगाते थे कि दिल सचमुच में बाग बाग हो जाता था। जगजीत खुद मानते हैं कि ये पहली ग़ज़ल थी जिसकी वज़ह से लोग उन्हें पहचानने लगे।



सरकती जाये है रुख़4 से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता

निकलता आ रहा है आफ़ताब5 आहिस्ता आहिस्ता

4. चेहरे, 5. सूरज

जवाँ होने लगे जब वो तो हमसे कर लिया परदा
हया यकलख़्त6 आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता

6. तुरंत

शब-ए-फ़ुर्क़त7 का जागा हूँ फ़रिश्तों अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब, आहिस्ता आहिस्ता

7. वियोग की रात

लाइव कानसर्ट में जगजीत ने इस मक़ते के एक अलग ही मिज़ाज का जिक्र किया था। जगजीत का कहना था कि दूसरे मिसरे में 'हुज़ूर' और 'जनाब' के प्रयोग में वही अंतर है जो कि लखनऊ और पंजाब के अदब में। जगजीत ने जिस अंदाज़ में ये अंतर गाकर समझाया है उसे सुनकर आप मुस्कुराया बिना नहीं रह पाएँगे..

वो बेदर्दी से सर काटें ‘अमीर’ और मैं कहूँ उनसे
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता



इस ग़ज़ल में अमीर मीनाई के चंद शेर और हैं जिन्हें जगजीत जी ने गाया नहीं है।

सवाल-ए-वस्ल8 पे उनको उदू9 का खौफ़ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता

8.मिलने की बात पर, 9. प्रतिद्वंदी


हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क है इतना
इधर तो जल्दी-जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता


वैसे इस ग़ज़ल से तो आप वाकिफ़ होंगे ही पर ये बताएँ कि इसके शायर अमीर मीनाई के बारे में आप कितना जानते हैं? अक्सर हम इन लाज़वाब ग़जलों को लिखने वालों को अपनी याददाश्त से निकाल देते हैं। पर अगर ऐसी ग़ज़लें लिखी ही नहीं जातीं तो जगजीत जैसे महान फ़नकार हम तक इन्हें पहुँचाते कैसे? तो चलिए जानें अमीर साहब के बारे में।

अमीर मीनाई की पैदाइश 1826 में लखनऊ में हुई थी । जनाब मुजफ्फर अली असीर की शागिर्दी में उनकी काव्यात्मक प्रतिभा का विकास हुआ। 1857 के विद्रोह के बाद वे रामपुर चले गए जहाँ पहले वे नवाब यूसुफ अली खाँ और फिर कलब अली खाँ के दरबार में रहे। उनकी अधिकांश कृतियाँ इसी कालखंड की हैं।

अमीर मीनाई की शायरी को जितना मैंने पढ़ा है उसमें मुझे मोहब्बत और रुसवाई का रंग ही ज्यादा नज़र आया है। उनके लिखे कुछ अशआर पे गौर करें

जब़्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
कि उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी ना सकूँ

बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझको

ये वो किस्मत का लिखा है कि मिटा भी ना सकूँ

ऐसा ही कुछ रंग यहाँ भी दिखता है

कह रही है हस्र में वो आँख शरमाई हुई
हाए कैसे इस भरी महफिल में रुसवाई हुई

मैं तो राज ए दिल छुपाऊँ पर छिपा रहने भी दे
जान की दुश्मन ये ज़ालिम आँख ललचाई हुई

गर्द उड़ी आशिक़ की तुरबत से तो झुँझला के कहा
वाह सर चढ़ने लगी पाँव की ठुकराई हुई

अमीर साहब की शायरी के दो संकलन 'मराफ़ उल गजब' और 'सनम खान ए इश्क़' बताए जाते हैं। उन्होंने एक उर्दू शब्दकोष भी बनाया जो किसी वज़ह से प्रकाशित नहीं हो पाया। रामपुर के नवाबों के इंतकाल के बाद अमीर, हैदराबाद में निज़ाम के दरबार में चले गए। पर हैदराबाद की आबोहवा उन्हें रास नहीं आई और 1900 में वे चल बसे।

जगजीत की जिस दूसरी पेशकश की वज़ह से ये एलबम कभी ना भूलने वाला बन गया है उसकी चर्चा करेंगे अगली पोस्ट में...

गुरुवार, जुलाई 15, 2010

'एक शाम मेरे नाम' पर प्रस्तुत कविताओं से जुड़ी प्रविष्टियों की लिंकित सूची

इस चिट्ठे पर प्रस्तुत लेखों को आप सुगमता से खोज सकें इसके लिए एक सिलसिला जारी है - विषय आधारित प्रविष्टियों की एक लिंकित सूची बनाने का। आज इस कड़ी में बारी है इस चिट्ठे पर प्रस्तुत कविताओं से जुड़ी प्रविष्टियों की।

मेरी पसंद की कविताओं को समर्पित इस पृष्ठ की शुरुआत के लिए मुझे गोपाल दास 'नीरज' की इन पंक्तियों से बेहतर कोई पंक्ति नहीं लगती..

कविता एक चिड़िया है
जो अपना घोंसला तो
पेड़ की ऊँची से ऊँची शाख पर बनाती है
लेकिन जो अपना भोजन
धरती के गन्दे से गन्दे कोने में खोजती है !

इसलिए,
हे संसार के महापुरुषों !
कविता मत करो
क्योंकि सृजन के लिए
उसके साथ
तुम्हें भी जमीन की
गंदगियों में उतरना पड़ेगा।

काव्य चर्चा



मेरी प्रिय कविताएँ

  1. आँख का आँसू.....अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिओध (Aankh ka Aansoo by Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariodh')'
  2. अमौसा का मेला .. कैलाश गौतम (Amousa Ka Mela... by Kailash Goutam)
  3. आराम करो...गोपाल प्रसाद व्यास (Aaraam Karo... by Gopal Prasad Vyas)
  4. इक जरा छींक ही दो तुम...गुलज़ार (Ek Jara Cheenk Hi Do Tum... by Gulzar)
  5. इंतजार, इंतजार, बोलो कब तक करूँ मैं इंतजार ?...प्रसून जोशी (Intezar..Intezar... by Prasoon Joshi)
  6. इस बार नहीं ..प्रसून जोशी (Is Baar Nahin by Prasoon Joshi)
  7. एक दीपक किरण-कण हूँ...डा. राम कुमार वर्मा (Ek Deepak Kiran Kan Hoon by Dr. Ram Kumar Verma)
  8. क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?...हरिवंशराय बच्चन (Kya Karoon Samvedna Le Kar Tumhari by 'Bachchan'
  9. कौन सा मौसम लगा है ..दर्द भी लगता सगा है....अज्ञात (Koun sa Mousam Laga Hai... by Unknown)***
  10. कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो कवि भरत व्यास उनके ख़ुद के स्वर में (Kavita ke Ab Mat Kaan Marodo... by Bharat Vyas)
  11. खोलो प्रियतम खोलो द्वार... डा. राम कुमार वर्मा (Kholo Priytam Kholo Dwar... by Dr. Ram Kumar Verma)
  12. चार विचार...गोपालदास 'नीरज ' (Char Vichaar by Gopaldas 'Neeraj')
  13. छिप छिप अश्रु बहाने वाले...गोपालदास 'नीरज' (Chip Chip Ashru Bahane Wale.. by Gopaldas 'Neeraj')
  14. जले तो जलाओ गोरी..इब्ने इंशा (Jale To Jalao Gori by Ibne Insha)
  15. जो तुम आ जाते एक बार ! ...महादेवी वर्मा (Jo Tum Aaa Jate Ek Baar... by Mahadevi Verma )
  16. तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन.....जयशंकर प्रसाद, स्वर आशा भोंसले (Tumul Kolahal.. ....by Jayshankar Prasad)
  17. दीवट(दीप पात्र) पर दीप....बालकवि बैरागी (Deevat par Deep.... by Balkavi Bairagi)
  18. नर हो ना निराश करो मन को... मैथलीशरण गुप्त (Nar Ho Na Nirash Karo Man Ko by Maithilisharan Gupt
  19. फिर क्या होगा उसके बाद ? ....बालकृष्ण राव (Phir Kya Hoga Uske Baad... by Balkrishna Rao
  20. बीती विभावरी जाग री! ...जयशंकर प्रसाद (Beeti Vibhavri Jaag Ree.... by Jayshankar Prasad
  21. ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में...रामधारी सिंह 'दिनकर'(Brahma Se Kuch Likha Bhagya Mein... by 'Dinkar')
  22. मधुशाला की चंद रुबाइयाँ ..हरिवंशराय बच्चन, स्वर - मन्ना डे भाग १ , भाग २ (Madhushala by 'Bachchan')
  23. मैं एक अघोषित पागल हूँ..रामदत्त जोशी (Main Ek Aghoshit Pagal Hoon by Ramdutt Joshi)
  24. मैं हूँ उनके साथ,खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़...हरिवंशराय बच्चन, स्वर - अमिताभ बच्चन (Main Hoon Unke Sath Khadi... by 'Bachchan')
  25. मोड़ पर देखा है वो बूढ़ा सा पेड़ कभी.. गुलज़ार (Humdum by Gulzar)
  26. ये गजरे तारों वाले?...डा. राम कुमार वर्मा (Ye Ghazre Taron Wale.... by Dr. Ram Kumar Verma)
  27. रेलयात्रा..प्रदीप चौबे (Railyatra by Pradeep Choubey)
  28. सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी...कैलाश गौतम (Ganhi Jee.... by Kailash Goutam)
  29. हिमालय मेरे नगपति ! मेरे विशाल !..... रामधारी सिंह दिनकर (Himalaya by 'Dinkar')

कभी कभी जब कलम चलाता हूँ मैं


  1. कल्पना और यथार्थ
  2. शाम...

सोमवार, जुलाई 12, 2010

जगजीत सिंह की गाई ग़ज़लों का सफर भाग 4 :आइए मिलवायें आपको कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी से

जगजीत जी की ग़ज़लों की इस श्रृंखला का अगला मुकाम यूँ तो उनका पहला एलबम दि अनफॉरगेटेबल (The Unforgettable) था पर कल जब उस एलबम की एक चहेती ग़ज़ल को दोबारा सुन रहा था तो उसके शायर का नाम मुझे अनजाना सा लगा। सहज उत्सुकता जगी कि उनकी लिखी कुछ और ग़ज़लें सुनी और पढ़ी जाएँ। अंतरजाल पर उनके क़लाम सुने तो उर्दू जुबाँ पर उनकी पकड़ और मंच पे शेर पढ़ने के सलीके ने इस क़दर प्रभावित किया कि लगा कि मेरी अगली पोस्ट तो सिर्फ उन पर लिखी जा सकती है खासकर तब जबकि अंतरजाल पर उनकी शायरी के बारे में ज्यादा कुछ लिखा नहीं गया है। ये शायर थे जनाब कुँवर मोहिंदर सिंह बेदी 'सहर'

बेदी साहब दिल्ली की प्रशासनिक सेवा में एक आला अफ़सर थे। सत्तर और अस्सी के दशक और उसके बाद भी मुशायरों के संचालन में वो सिद्धस्थ माने जाते थे। जगजीत सिंह ने अपने एलबमों में उनकी हल्की फुल्की पर असरदार ग़ज़लों का ही इस्तेमाल किया है। इन ग़ज़लों की भाषा बिल्कुल सहज है और आसानी से बिना किसी उर्दू ज्ञान के समझ आती है। यही कारण है अस्सी के दशक जब तेरह चौदह साल का रहा हूँगा तो पहली बार उनकी ये ग़ज़ल जगजीत चित्रा की प्यारी आवाज़ में सुनी थी । क्या संगीत क्या गायिकी सब कुछ मन में रच बस गया था।



आए हैं समझाने लोग
हैं कितने दीवाने लोग

दैर-ओ-हरम1 में चैन जो मिलता
क्यूं जाते मैखाने2 लोग

1. मंदिर मस्जिद, 2. शराबखाना

जान के सब कुछ कुछ भी ना जाने
हैं कितने अनजाने लोग

वक़्त पे काम नहीं आते हैं
ये जाने पहचाने लोग

अब जब मुझको होश नहीं है
आए हैं समझाने लोग

बेदी साहब की लिखी ग़ज़लों से दूसरी मुलाकात सन 2002 में तब हुई जब जगजीत जी ने उनकी लिखी ग़ज़लों को एलबम के तौर पर पेश कर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने अपने इस एलबम का नाम 'Forget Me Not' रखा था। ये नाम बेदी जी की यादों से जुड़ा तो था ही पर साथ ही जगजीत जी ने इसे इसलिए भी चुना कि पहाड़ों पर इसी नाम का एक खूबसूरत फूल भी पाया जाता है। एलबम का मूड रोमांटिक था। एलबम की आठ ग़ज़लों में दो मुझे खास पसंद आई थीं। जगजीत की आवाज़ में जरूर सुना होगा इसे आपने

तुम हमारे नही तो क्या गम है
हम तुम्हारे तो हैं यह क्या कम है

मुस्कुरा दो ज़रा ख़ुदा के लिए,
शाम-ए-महफिल में रौशनी कम है,

पर रूमानियत का पूरा तड़का बेदी साहब की इस ग़ज़ल में उभर कर आया था। आप भी गौर फ़रमाइए ना लफ़्ज़ों की इस मुलायमियत पर

अभी वो कमसिन उभर रहा है, अभी है उस पर शबाब आधा
अभी जिगर में ख़लिश है आधी, अभी है मुझ पर एतमाद1 आधा

मेरे सवाल-ए-वस्ल2 पर तुम नज़र झुका कर खड़े हुए हो
तुम्हीं बताओ ये बात क्या है, सवाल पूरा, जवाब आधा

कभी सितम है कभी करम है, कभी तवज़्जह3 कभी तगाफ़ुल4
ये साफ ज़ाहिर है मुझ पे अब तक, हुआ हूँ मैं कामयाब आधा
1. विश्वास, 2. मिलने की बात पर, 3.ध्यान देना , 4. उपेक्षा

पर जगजीत की इन रूमानी ग़ज़लों से दूर मुशायरों में बेदी साहब को जो रूप उभर कर सामने आता है वो सर्वथा अलग है। उनकी मुशायरों की रिकार्डिंग सुन कर आपको ऐसा लगेगा मानो मुगले आज़म में जनाब पृथ्वीराज कपूर को सुन रहे हों। गहरी आवाज़ के साथ उर्दू और फारसी जुबाँ का उनका उच्चारण मन को मोहता तो था ही, मंच पर उनका हास्य बोध देखते ही बनता था। अब उनकी इस ग़ज़ल को देखिए। जहाँ भी मुशायरों में वो इसका मकता पढ़ते , मंच और श्रोता में हँसी की लहर दौड़ जाती..



मोहब्बत अब रुह -ए-ख़मदार* भी है

ये एक चलती हुई तलवार भी है
*झुकी हुई

मोहब्बत एक ऐवान*-ए-तमन्ना
मगर गिरती हुई दीवार भी है
* भव्य इमारत

दीवाना इश्क़ किंच-ए-गराँ है
इसी से गर्मी-ए-बाज़ार भी है

अज़ब तुरफ़ा* तमाशा है'सहर' भी
वो शायर है मगर सरदार भी है
*विलक्षण


पर इस अज़ीम शायर का ये हास्य बोध मंच तक सीमित ना था। बेदी साहब ने मज़ाहिया शायरी भी लिखी हैं। कल ही हम सबने विश्व जनसंख्या दिवस मनाया। बढ़ती आबादी की इस समस्या पर बेदी साहब की कलम हल्के मूड में ही सही पर खूब चली है। मुझे यक़ीन है कि उनकी इस नज़्म को पढ़ कर आपके चेहरे पे एक मुस्कान जरूर खिल उठेगी और साथ ही साथ जो संदेश वो देना चाहते हैं वो भी आप तक पहुँचेगा...


ऐ नौजवान बज़ा कि जवानी का दौर है
रंगीन सुबह शाम सुहानी का दौर है
ये भी बज़ा कि प्रेम कहानी का दौर है
लेकिन रहे ये याद गरानी1 का दौर है
1.मँहगाई

जाँ का उबाल बशर्ते औलाद बन ना जाए
तादे शबाब आपकी बेज़ार1 बन ना जाए
वो जो अधेड़ उम्र हैं उनसे भी है ख़िताब2
बच्चे हैं एक दो तो ठहर जाइए ज़नाब
बेबा नहीं है आप को मसनूई3 आबो‍-ताब4
जब ढल चुका शबाब तो बेकार है खिज़ाब5
करते हैं आप पेश ये उलटी मिसाल क्यूँ
बासी कढ़ी को आया अब आख़िर उबाल क्यूँ

1.दुख, 2.संबोधन,3.बनावटी, 4. शान-ओ-शौकत 5. बालो को रँगना

ह्व्वा की बेटियाँ भी सुने मेरी बात को
मुमकिन नहीं कि पाल सकें पाँच सात को
जन्म भी लिए तो रोएँगे वो दाल भात को
तरक़ीब इस लिए सुनें जब भी रात को
देखे बुरी नज़र से मियाँ आपकी तरफ़
सो जाएँ आप फेर के मुँह दूसरी तरफ़

अच्छा है जो हो बीवी और शौहर में तालमेल
लेकिन ना इस क़दर कि हो बच्चों की रेलपेल
हर साल नौनिहाल की डालो ना दाग़ बेल
आख़िर अगर हो वक़्त तो खेलो कुछ और खेल
इस बात पर किया है कभी तुमने गौर भी
मर्दानगी दिखाने के मैदाँ हैं और भी

बेदी साहब ने इबादत और राजनीतिक मसलों को भी अपनी शायरी का विषय बनाया। वे मुशायरों में अक्सर 'नात' भी सुनाते थे।


लोग प्रश्न करते थे कि एक सरदार होकर भी ये पैगंबर मोहम्मद की इबादत में शायरी क्यूँ कर रहा है? बेदी साहब का जवाब होता।

इश्क़ हो जाए किसी से कोई चारा तो नहीं
सिर्फ मुस्लिम का मोहम्मद से इजारा* तो नहीं
*अधिकार

ज़ाहिर है गंगा जमुनी तहज़ीब में पले बढ़े बेदी साहब को हिंदुस्तान और पाकिस्तान के आपसी संबंधों की खटास का दुख हमेशा सालता रहा। दोनों देशों के लोगों के दिलों को जोड़ने के लिए उन्होंने एक लंबी नज़्म लिखी जो बेहद मशहूर हुई थी। पूरी नज़्म तो आप वीडिओ में देख सकते हैं।



पर इसकी कुछ पंक्तियाँ जो मुझे बेहद पसंद हैं आप तक पहुँचा रहा हूँ

जंग हम कहते हैं जिसको ये ख़ुदा की मार है
जंग करना हर तरह बेसूद है बेकार है
दोस्त दुश्मन सब से बेगाना बना देती है जंग
मुल्क है क्या चीज़ तहज़ीबें मिटा देती हैं जंग

जंग करना है करें हम मिल के बेकारी से जंग
झूठ से मकरुरिया से, चोरबाज़ारी से जंग
क़ैद से, सैलाब से, तूफाँ से, बीमारी से जंग
भूख से, .... से, ग़ुरबत1 से, नादारी2 से जंग
पूछना होगा ये मुझको हिंदो पाकिस्तान से
पेट भूखों का भरेंगे जंग के सामान से
1.पराधीनता,2.गरीबी,

आओ दिल से दूर कर दें हम शरार1-ए-इंतकाम
आओ फिर दुनिया को पहुँचा दें मोहब्बत का पयाम2
रह सके अमनों सुकूँ से शाद3 हो अपने अवाम4
ऐसे वीराने करम पहुँचे तुम्हे मेरा सलाम
हाल ओ मुस्तक़्बिल5 हो अपना ताबदार6 और तामनाक
हिन्द ओ पाइन्दाबाद है सरजमीने हिंदोपाक
1.चिंगारी, 2.संदेश,3.सुखी 4.आम जन, .5.भविष्य , 6. चमकदार

जगजीत सिंह साहब का अहसानमंद हूँ जिनकी वज़ह से कुँवर महेन्द्र सिंह बेदी की शायरी के ख़जाने तक पहुँच सका। आप में से बहुत लोग ऐसे होंगे जो बेदी साहब की शायरी को और करीब से जानते होंगे। आशा है आप उन्हें हम सब के साथ यहाँ साझा करेंगे।

सोमवार, जुलाई 05, 2010

जगजीत सिंह की गाई ग़ज़लों का सफ़र भाग 3 : कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?

पिछली पोस्ट में बात हुई जगजीत जी के एलबम विजन के पहले भाग की। विज़न का दूसरा भाग मुझे पहले से भी ज्यादा प्रिय है। इस हिस्से की एक ग़ज़ल 'आप आए जनाब बरसों में' की बात मैं पहले ही कर चुका हूँ। जगजीत जी की सफलता का राज ग़ज़लों को चुनने की उनकी प्रक्रिया थी। अपने साक्षात्कारों में वो अक्सर कहा करते कि उन्होंने इस बात पर उतना ध्यान नहीं दिया कि कोई ग़ज़ल किस शायर ने लिखी है। उनका सारा ध्यान ग़ज़लों के भावों, उसमें प्रयुक्त शब्दों की सरलता पर रहता था। उन्हें इस बात पर हमेशा विश्वास रहा कि अगर ऐसी ग़ज़लों को एक अच्छी मेलोडी के साथ श्रोताओं तक पहुँचाया जाए तो वो निश्चय ही बेहद लोकप्रिय होंगी।

इसीलिए उनकी गाई ग़ज़लों में कुछ ऐसे शायरों के नाम आए जिनकी शायरी के बारे में लोगों ने पहले ज्यादा नहीं सुना था। वाज़िदा तबस्सुम, राणा सहरी, रुस्तम सहगल वफ़ा, ज़ाहिद, ख़ालिद कुवैतवी जैसे ग़ज़लकार इसी श्रेणी में थे जिनकी ग़ज़लों को जगजीत ने विज़न के इस भाग में समाहित किया और इनमें से कई काफी लोकप्रिय भी हुईं।

इन्हीं ग़ज़लकारों में एक नाम था जनाब अज़ीज़ क़ैसी साहब का। हैदराबाद के फलक़नुमा में जन्मे अज़ीज़ मोहम्मद खाँ यानि अज़ीज़ क़ैसी, मुंबईया फिल्म उद्योग में एक शायर से ज्यादा पटकथा लेखक के रूप में जाने गए। पर फिल्म उद्योग में आने के पहले साहित्यिक जगत में वे एक कहानीकार और शायर के रूप में मुकाम बना चुके थे। जगजीत सिंह ने इस एलबम में उनकी लिखी जिस रूमानी ग़ज़ल का प्रयोग किया उसका मतला जल्द जुबाँ चढ़ने वाला तो था ही

आपको देखकर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया

उसके बाद का ये शेर तो मन को लाजवाब कर जाता था

उनकी आँखो से कैसे छलकने लगा
मेरे होठों पे जो माज़रा रह गया

वैसे यहाँ ये बताना उपयुक्त होगा कि अज़ीज़ क़ैसी साहब की प्रतिनिधि शायरी आदमी और उसके चारों ओर तेजी से बदलती दुनिया के संघर्ष को व्यक्त करने के लिए जानी जाती है।उनकी ये ग़ज़ल जो साहित्यिक हलके में बेहद मशहूर हुई थी के चंद अशआरों पर गौर फरमाएँ.. महानगरीय ज़िदगी की हक़ीकत बयाँ करते हुए अज़ीज़ साहब कहते हैं

हर शाम जलते जिस्मों का गाढा धुआँ है शहर
मरघट कहाँ है कोई बताओ कहाँ है शहर

फुटपाथ पर जो लाश पड़ी है उसी की है
जिस गाँव को यकीं था कि रोज़ी राशन है शहर

अज़ीज़ साहब की ग़ज़ल से आगे बढ़ते ही आप रूबरू होते हैं राणा सहरी की लिखी ग़ज़ल से। ग़ज़ल के लफ़्ज़ों से कहीं ज्यादा यहाँ जगजीत की गायिकी का अंदाज़ मन को छू जाता है। शब्दों में छुपा दर्द एकदम से बाहर आता दिखता है

कोई दोस्त है ना रकीब है
तेरा शहर कितना अजीब है

वो जो इश्क था वो जुनून था
ये जो हिज्र है ये नसीब है

राणा सहरी के बाद श्रोताओं को सुनने को मिलती है वाज़िदा तबस्सुम की ये ग़ज़ल
कुछ ना कुछ तो जरूर होना है,
सामना आज उनसे होना है।

तोडो फेंको रखो, करो कुछ भी,
दिल हमारा है क्या खिलौना है?

इन तीनों ग़ज़लों के कुछ टुकड़ों को जगजीत की मखमली आवाज़ में मैंने एक साथ पिरोया है इस फाइल में जिसे मैं अक़सर सुना करता हूँ। ये झलकी जरूर आपको इस एलबम के जादू में खोने पर विवश करेगी।

विज़न के इस भाग में लोकप्रिय शायर बशीर बद्र का कलाम भी है। हालांकि उनकी ये ग़ज़ल मुझे सुनने से ज्यादा पढ़ने में लुत्फ़ देती है

सर झुकाएगो तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जाएगा

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा

पर बशीर बद्र की जिस ग़ज़ल से विजन के इस भाग का आग़ाज़ होता है वो इस पूरे एलबम की मुझे सबसे बेहतरीन ग़ज़ल लगती है। जगजीत की गायिकी ने बद्र साहब की इस ग़ज़ल में चार चाँद लगा दिए हैं। तो आइए सुनिए इस एलबम की मेरी सबसे पसंदीदा ग़ज़ल




कौन आया रास्ते आईनाख़ाने हो गए
रात रौशन हो गई दिन भी सुहाने हो गए

क्यों हवेली के उजड़ने का मुझे अफ़सोस हो
सैकड़ों बेघर परिंदों के ठिकाने हो गए

ये भी मुमकिन है कि मैंने उसको पहचाना न हो
अब उसे देखे हुए कितने ज़माने हो गए

जाओ उन कमरों के आईने उठाकर फेंक दो
वो अगर ये कह रहें हैं हम पुराने हो गए

मेरी पलकों पर ये आँसू प्यार की तौहीन हैं
उसकी आँखों से गिरे मोती के दाने हो गए

और जनाब आज जब ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तो बाहर मौसम का नज़ारा देखने लायक है। मानसून ने मेरे शहर में दस्तक तो दे ही दी है, आपको भी ये भिंगो ही रहा होगा ऐसी उम्मीद है। तो क्यूँ ना ज़ाहिद की लिखी और एलबम में शामिल इस नज़्म की इन पंक्तियों से इस पोस्ट का समापन किया जाए।

फिर से मौसम बहारों का आने को है
फिर से रंगी ज़माना बदल जाएगा
अबकि बज़्मे चरागां सजा लेंगे हम
ये भी अरमां दिल का निकल जाएगा

आप करदे जो मुझपे निगाहे करम
मेरी उलफत का रह जाएगा भरम
यूँ फ़साना तो मेरा रहेगा वही
सिर्फ उन्वान उसका बदल जाएगा (उन्वान : शीर्षक)

अगर आपने ये एलबम नहीं सुना तो जरूर सुनें। इसे आप यहाँ से भी खरीद सकते हैं।
जगजीत सिंह खी ग़ज़लों का ये सफ़र आगे भी चलता रहेगा। आशा है आप साथ बने रहेंगे।
 

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