गुरुवार, अगस्त 26, 2010

क्या आप संतुष्ट है वर्तमान शिक्षा पद्धति से? क्या सफल होगा 'Continuous Evaluation System' ?

होमवर्क शब्द अंग्रेजी का भले हो पर आज के नौनिहालों के माता पिताओं के रोज़ के शब्दकोष का अहम हिस्सा जरूर है। बच्चों को इस होमवर्क नाम के असुर से जूझते अक़्सर देखा है पर मुसीबत ये है कि अक्सर वे इस युद्ध की कमान अपने माता पिता को सौंप देते हैं। वैसे और भी शब्द हैं इस स्कूली शब्दकोष में जिनसे अभिभावक बच्चों से ज्यादा घबराते हैं मसलन 'मंडे टेस्ट', 'प्रोजेक्ट वर्क', 'मॉडल प्रिपरेशन' वैगेरह वैगेरह। कारण ये कि ऐसे तथाकथित 'एसाइनमेंट' बच्चों की नहीं बल्कि आजकल अभिभावको की क्रियाशीलता को जाँचने परखने का माध्यम हो गए हैं।

इतना सब होते हुए भी अक्सर शिक्षकों से ये सुनने को मिल जाता है कि अभिभावक घर पर बच्चों को पढ़ाने में बिल्कुल ध्यान नहीं देते। ये आरोप आज के इस भागमभागी युग में काफी हद तक सही भी है। पर ये भी सही है कि स्कूल में पचास साठ या उससे भी अधिक बच्चों को एक कक्षा में रखकर शिक्षक ही व्यक्तिगत तौर पर एक बच्चे पर कितना ध्यान दे पाते हैं। बच्चों की परेशानी का अंत यही नहीं है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा विभिन्न कक्षाओं के लिए तैयार किया गया सिलेबस भी उनके सोचने समझने की अद्भुत ग्राह्य शक्ति का इस्तेमाल करने के बजाए रट्टा मारने की प्रवृति को ही आगे बढ़ाता है।

बाकी कक्षाओं की तो बात मुझे आगे पता लगेगी पर अभी तो आपको तीसरी कक्षा की बात बताता हूँ। मुझे अच्छी तरह याद है कि जो पाठ मैं अपनी अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तक में कक्षा छः में पढ़ा करता था वो आजकल पहली या दूसरी में ही पढ़ा दिया जाता है। हालत ये है कि पिछले हफ़्ते अंग्रेजी में समूहवाचक संज्ञा के उदाहरण के तौर पर जो शब्द मेरे पुत्र को तीसरी कक्षा में याद करने को दिए थे वे इतने जटिल थे कि उनको देखने के लिए मुझे डिक्शनरी और नेट का सहारा लेना पड़ा।

बच्चों का शब्दज्ञान और वर्तनी जाँचने के लिए इतने कठिन शब्द दिए जाते हैं कि बच्चे के पास रटने के आलावा कोई और चारा नहीं रह जाता। सामाजिक विज्ञान पढ़ाते वक़्त जब बच्चों को राज्य के साथ केंद्र शासित राज्यों का उल्लेख देखता हूँ तो CBSE के शिक्षाविदों पर बहुत खीज़ होती है। क्या उन्हें ये समझ नहीं आता कि ये सारा ज्ञान ना केवल एक छोटे बच्चे को देना मुश्किल है बल्कि निहायत गैरजरूरी भी है।


इसीलिए पिछले हफ्ते जब बच्चों के स्कूल के प्राचार्य ने सारे अभिभावकों को बुला कर CBSE के कुछ साल पहले चालू किए गए Continuous Evaluation System को लागू करने की बात कही तो लगा कि चलो ये शिक्षा के क्षेत्र में देर से लिया गया सही कदम है।

अपने वक्तव्य में प्राचार्य महोदय ने जोर देकर कहा कि
बच्चों की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे वो इंजीनियर डॉक्टर या कोई और पेशेवर विधा हासिल करें ना करें एक जिम्मेदार और चरित्रवान नागरिक अवश्य बनें और अब इस पद्धति में उनके विषय ज्ञान के अतिरिक्त इस दृष्टि से भी उनके व्यक्तित्व का आकलन किया जाएगा। उन्होंने अभिभावकों में एक दूसरे के बच्चों की आपसी तुलना की प्रवृति की निंदा की और कहा कि इससे बच्चों का अपने पर से विश्वास घटता है। प्राचार्य ने स्कूल और सिलेबस की कमियों को भी स्वीकारा।
तीसरी से पाँचवी कक्षा के अभिभावकों को दिए गए भाषण के बाद उन्होंने अभिभावकों से उनके विचार आमंत्रित किए। एक अभिभावक की प्रतिक्रिया दिलचस्प थी।

लगता था जनाब बहुत अधीरता से अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। माइक लेते ही उन्होंने भाइयों और बहनों की तर्ज में भाषण शुरु करते हुए कहा कि मेरा पहला अनुरोध ये है कि बच्चों को रोज़गारोन्मुख शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें ये बताना चाहिए कि सीमेंट में कितना बालू गारा और कितना पानी मिलाना जरूरी है। (मैंने मन ही मन सोचा हाँ अगर शहरों के स्कूल में तीन से पाँच के बच्चों को ये शिक्षा दी जाए तो उसी तरह ये भी बताया जाए कि दूध में कितना दूध और पानी मिलाया जाए।) हद तो तब हो गई जब उन महाशय ने इतिहास जैसे विषय को एक सिरे से ख़ारिज़ करते हुए ये कह दिया कि ये बताना कतई जरूरी नहीं कि गौतम बुद्ध कौन थे और कहाँ पैदा हुए थे? ख़ैर उन सज्जन को चुप कराने के लिए बाकी अभिभावकों को जबरिया ताली बजानी पड़ी और तब कहीं उनका भाषण खत्म हुआ।

इस वाक़ए से ये स्पष्ट हो जाता है कि हमारी मानसिकता किस हद तक दिग्भ्रमित हो गई है। ऊपर का वक़्तव्य उन सज्जन ने नवीं दसवीं के विद्यार्थियों के लिए दिया होता तो बात समझ में आती थी। सामाजिक विज्ञान की विषय वस्तु पर बहस हो सकती है पर उनका भी एक अहम महत्त्व हमारे चरित्र निर्माण में अवश्य है और इस बात को कोई भी सिलेबस अनदेखा नहीं कर सकता।हम आज अगर अपने बच्चों को एरोगेंट पाते हैं , बड़ों के प्रति उनके व्यवहार में शिष्टता में कमी देखते हैं, समूह में घुल मिलकर रहने में उन्हें असमर्थ देखते हैं, अपनी और अपने आस पास की साफ सफाई में उन्हें उदासीन देखते हैं तो उसकी वज़ह ये भी है कि प्राथमिक शिक्षा यानि प्राइमरी एडुकेशन में कहीं ना कहीं इन तत्त्वों की उपेक्षा हुई है। वहीं आगे की कक्षाओं में प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने का इतना दबाव है कि व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक व्यवहार के कई वांछित पहलुओं से मौज़ूदा शिक्षा प्रणाली में एक छात्र अछूता रह जाता है।

आज जोर इस बात पर होना चाहिए की निचली कक्षाओं में सिर्फ वही पढ़ाया और सिखाया जाए जो बच्चा अपने आसपास की जिंदगी से जुड़ा पाए और जिसे सीखते वक़्त वो खुशी का अनुभव करे। बच्चे के चरित्र निर्माण के लिए आवश्यक रुझान प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के दौरान ही करना चाहिए और साथ ही विषयों के साथ उसके व्यवहार का मूल्यांकन करने से वो इनके महत्त्व को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। हाई स्कूल और उसके ऊपर की शिक्षा निश्चय ही रोज़गारोन्मुख होनी चाहिए। पर इस तरह कि पद्धति तभी सफल हो सकती है जब शिक्षक छात्र का अनुपात कम हो, शिक्षक का मूल्यांकन बिना किसी पूर्वाग्रह के हो और अभिभावक भी भेड़ चाल वाली प्रवृति से निकल कर अपने बच्चों को वो करने दें जिसके वो सर्वथा योग्य हैं।

चलते चलते समाजवादी कार्यकर्ता और कवि श्याम बहादुर नम्र की ये कविता आपसे साझा करना चाहूँगा जो वर्तमान शिक्षा पद्धति की कमियों को सहज शब्दों में बखूबी उजागर करती है...

एक बच्ची स्कूल नहीं जाती, बकरी चराती है
वह लकड़ियाँ बटोर कर घर लाती है,
फिर माँ के साथ भात पकाती है।

एक बच्ची किताब का बोझ लादे स्कूल जाती है,
शाम को थकी माँदी घर आती है।
वह स्कूल से मिला होमवर्क, माँ बाप से करवाती है।

बोझ किताब का हो या लकड़ियों का दोनों बच्चियाँ ढोती हैं,
लेकिन लकड़ी से चूल्हा जलेगा, तब पेट भरेगा,
लकड़ी लाने वाली बच्ची यह जानती है।
वह लकड़ी की उपयोगिता पहचानती है।
किताब की बातें कब किस काम आती हैं?
स्कूल जाने वाली बच्ची बिना समझे रट जाती है।


लकड़ी बटोरना, बकरी चराना और माँ के साथ भात पकाना,
जो सचमुच गृहकार्य हैं, होमवर्क नहीं कहे जाते हैं।
लेकिन स्कूल से मिले पाठों के अभ्यास,
भले ही घरेलू काम ना हों, होमवर्क कहलाते हैं

ऐसा कब होगा
जब किताबें सचमुच के 'होमवर्क' से जुड़ेंगी
और लकड़ी बटोरने वाली बच्चियाँ भी ऐसी किताबें पढ़ेंगी।
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15 टिप्पणियाँ:

Unknown on अगस्त 26, 2010 ने कहा…

और एक हमारा समय था जब कक्षा शिक्षिका शाम को माँ को सब्जी मंडी में मिलती थी तो केवल सब्जीयों के किमतों की बाते होती थी, जब परीक्षा के नजीते घोषित होते थे तो घर पर पुछा जाता था, "क्या तुम उत्तीर्ण हो गयी?" और इस एक ही प्रश्न में अभिभावकों की बच्चों के पढ़ाई के प्रति उत्सुकता समायी रहती थी । खेल कुद, खाना, सोना, आपसी लडाई, बचपना इन बातों को प्राथमिकता थी और पढ़ाई गौण बात होती थी । किसी भी विषय की पढ़ाई केवल परीक्षा के दिन सुबह चालू हो जाती थी और परीक्षा दे आने के बाद खतम हो जाती थी । निश्चय ही बड़े सुख भरे दिन थे वे ।

डॉ .अनुराग on अगस्त 26, 2010 ने कहा…

हमारे एक मित्र कहते है अब इन एंड आउट हो गया है .आप जितना डालोगे उतना निकलेगा .....यानी अगर आपके पास पैसा है ओर आप अपने बच्चे को इंजिनियर या डॉ बनाना चाहते है तो बना सकते है .डोनेशन कोलेज खुले हुए है .......
सच तो ये है के ६३ साल बाद भी हमारी शिक्षा नीति में बहुत ज्यादा फेर बदल नहीं हुआ है ..वर्तमान शिक्षा मंत्री अलबत्ता कुछ स्वागत योग्य निर्णय जरूर लाये है जैसे नर्सरी से पहले किसी इंटरव्यू का न होना .सारे बोर्डो की शिक्षा प्रणाली का एक सा होना ....पर इस सबसे ज्यादा जरूरी है ...शिक्षको की ट्रेनिंग ...उनका ओरिएंटेशन ...मेरा अब भी मानना है के प्राइमरी स्कूल के टीचर का वेतन अधिक होना चाहिए .क्यूंकि वे आधार तैयार करने वाले व्यक्ति होते है ....ओर कच्ची उम्र में बच्चा कच्चे घड़े की माफिक होता है .....
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में परसेंटेज सिस्टम के ख़त्म करने से मै निराश हूँ...इससे बच्चो के भीतर प्रतिस्पर्धा की भावना ख़त्म होगी जो स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी होती है .मुझे याद है हमारे बीच न केवल दोस्तों में बल्कि अलग अलग सेक्शनो में ये होड़ रहती थी के उस सेक्शन के बच्चे को पछाड़ना है ....ओर उस वक़्त किसी लगनशील बच्चे को उस वक़्त के टीचर पहचान कर बेहद प्रोत्साहित करते थे .....कम से कम ५ के बाद ग्रेडिंग सिस्टम के बदले परसेंटेज प्रणाली लागू होनी चाहिए
हाँ पांचवी से पहले बच्चो के कोर्स पर एक निगाह डालने की आवश्यकता है ....जो मुझे लगता है वर्तमान बच्चो में कही ज्यादा है .....
दूसरी बात है माना हम एक गरीब देशमे रह रहे है जो आबादी के लिहाज़ से विश्व में दुसरे नंबर पर है फिर भी शिक्षा को कम से कम पांचवी तक अनिवार्य करना चाहिए ओर धीरे धीरे एक सामान शिक्षा प्रणाली की दिशा में बढ़ना चाहिए .ताकि दूर गाँव में पढने वाला बच्चा भी वाही चीज़े पढ़े जो एक शहर में रहने वाला बच्चा पढता है ....कितने ही काबिल ओर होनहार बच्चे साधन ओर अवेयर नेस कीकमी के कारण कम्पीटीशन में पिछड़ जाते है ...
आरक्षण ख़त्म कर हमें गरीब ओर होनहार बच्चो के लिए ऐसी व्यवस्था तय करनी चाहिए ताकि उन्हें एक निश्चित समय तक शिक्षा ओर उससे जुड़े तमाम साधन मुफ्त मिल सके ....पर इसके लिए राजनैतिक दृढ इच्छा शक्ति के साथ साथ बौद्धिक वर्ग की भागेदारी भी आवश्यक है .....

रंजना on अगस्त 26, 2010 ने कहा…

आपने ऐसा विषय छेड़ा है,जिसपर कहना शुरू किया जाय तो कई सौ पृष्ठों वाली किताब तैयार हो जायेगी...
मुझे तो लगता है आजादी के बाद से जहाँ से चलकर जहाँ तक भारतीय राजनीति पहुंची है, उससे कुछ कम शिक्षा पद्दति नहीं...उसमे भी स्कूली स्तर की शिक्षा का अधोपतन तो हद दर्जे तक हुआ है...
पूरी की पूरी सिस्टम ही दोषपूर्ण है..किसी एक को किसे जिम्मेवार ठहराया जाय...
यूँ जब आदमी की सोच ही अर्थोंमुख हो, तो फिर आशा कैसे पालें कि इससे अगल हटकर भी कोई शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य की भी सोचे....

शिक्षा का उद्देश्य जब तक व्यक्तित्व और चरित्र निर्माण नहीं होगा,सच्चे अर्थों में बच्चों को सुसंस्कृत करना नहीं होगा,पूरा का पूरा व्यक्ति समूह इसी तरह दिग्भ्रमित रहेगा,जैसा आज है..आज के निति नियंता,उसके संचालक इसलिए तो नहीं सोच पाते कि किसी भी सिस्टम को कैसे सुव्यवस्थित किया जा सकता है...और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण कि अर्थोपार्जन को ही जीवन लक्ष्य ,मंजिल मानने वाले बहुसंख्यक अभिभावक स्वयं तथा अपने बच्चों को भेड़ की भीड़ बनाये आँख मूंदे भागते चले जा रहे हैं..रुकते तब हैं,जब उनका अभीष्ट मंजिल उन्हें मिल जाता ...और फिर वहां पहुंचकर जब बच्चे उन्हें अर्थ की दृष्टि से अनुपयोगी मानने लगते हैं तो तिरस्कृत अभिभावक अपने संतान में संस्कार खोजने लगते हैं...

लेकिन समस्या यह है कि हम जैसे लोग जो सब समझ जान भी रहे हैं, लाख आक्रोश पालें,तो भी अकेले दम अपने बच्चों के लिए एक नया रास्ता नहीं बना सकते जिसपर चल बच्चे का सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकाश भी हो और बच्चा अर्थोपार्जन में भी सक्षम हो पाए...

Abhishek Ojha on अगस्त 26, 2010 ने कहा…

शिक्षा क्षेत्र में कई कमियाँ है. मुझे हमेशा लगता रहा है कि परिवर्तन कहीं ना कहीं सही दिशा में लेकर जाने के लिए हो रहा है. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा !

राज भाटिय़ा on अगस्त 26, 2010 ने कहा…

भारत का तो पता नही लेकिन हमारे यहां ऎसा बिलकुल नही, कोई होम बर्क नही, भारी बस्ते नही, कोई टुयशन नही,स्कुल के बाद मस्ती

Archana Chaoji on अगस्त 26, 2010 ने कहा…

मुझे कभी पढ़ना अच्छा नहीं लगा ......पर पता नहीं था स्कूल से जुड जाउंगी ....पर खेल से जुडी हू इसलिए बच्चो के ज्यादा करीब हूँ...........परेशानिया तो यहाँ भी है --सबसे ज्याडा ये कि ट्यूशन के कारण बच्चो का खेलना खत्म हो गया है --घरों के आसपास जगह की कमी के कारण बच्चो का खेलना बंद हो गया है .........सुरक्षा की दृष्टि से लडकियों को तो किसी भी खेल में भाग लेने के लिए अभिभावक से अनुमति लेने में मुश्किल होती है और अंत में ............मुझे हर बच्चा एक किताब लगता है .......पढ़ना जारी है .........

कविता लाजवाब है ........

Rajeysha on अगस्त 27, 2010 ने कहा…

मैकाले के जाने के बाद लाखों सुझाव आयें हैं शि‍क्षा प्रणाली के बारे में... पर क्रि‍यान्‍वि‍त तो नेताओं के स्‍वार्थ होने हैं। अपने बच्‍चों को कि‍स तरीके से पढ़ाना है यह तय करने के लि‍ये ओपन स्‍कूल का वि‍कल्‍प उपलब्‍ध है, घर पर ही अपने बच्‍चों को अपनी मर्जी से पढ़ायें होमवर्क में बकरी चरवायें या अ से अनार पढ़ायें अपनी मर्जी है।

Rahul Singh on अगस्त 27, 2010 ने कहा…

शिक्षा पद्धति पर गंभीर पोस्‍ट, कविता भी अच्‍छी लगी. एक हल्‍की-फुल्‍की पोस्‍ट 'बाल-भारती' akaltara.blogspot.com पर देख सकते हैं.

Unknown on अगस्त 28, 2010 ने कहा…

मैं तो यह देख रहा हूँ स्कूल चाहे गरीब के(सरकारी) या अमीर के , बेरोजगारों की एक सेना खड़ी कर रहे हैं .हमारे यहां मा बाप आपने बच्चे को डॉक्टर /अफसर बनते देखना चाहते हैं. उनको रत्ती भर भी अहसास नहीं की बच्चे की रूचि क्या है और सरकारी तोर पर या किसी स्तर पर भी रूचि आंकलन के अनुसार शक्षणिक माहोल नहीं है.यानि शिक्षा बालक पर थोपी जा रही है .चूँकि मुझे कम जानकारी है, यही कहना है - मुझे श्याम बहादुर जी की कविता बहुत सार्थक लगी .यह कविता वह सब कुछ कहना कह रही है जो वास्तव में हमारी शिक्षा पोलिसी होनी चाहिए.

Mohan Chandra Pargaien on सितंबर 02, 2010 ने कहा…

एक अच्छा ब्लाग ....पर समस्या तो यह है कि हम सभी यह जानने के बाद भी जाने या अन्जाने इस भेड्चाल के शिकार हो जाते हैं और परिणाम का शिकार फिर से हमारे बच्चे ही होते हैं...

siddheshwar singh on सितंबर 03, 2010 ने कहा…

राजेश जोशी की इस कविता को ही मेरी टिप्पणी मान लें-


कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।

Manish Kumar on सितंबर 04, 2010 ने कहा…

आप सब ने इस विषय पर विस्तृत चर्चा की है और अपना मत रखा है इससे ये स्पष्ट है कि हम सभी को वर्तमान शिक्षा प्रणाली की ख़ामियों का पूरा अहसास है।

अनुराग आपने प्रतिशत वाली प्रतिस्पर्धा की बात की है। मैं पाँचवी तक अंकों और उसके बाद स्कूल में ग्रेडिंग सिस्टम से पढ़ा हूँ। मेरा मत ये है कि प्रतिस्पर्धा तो आपको उच्च शिक्षा में दाखिले के लिए कहीं ना कहीं जाकर करनी ही है, पर प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा में सारा ध्यान विषयवस्तु को समझने में लगाना चाहिए। जिसने जितना समझा उतना ही अच्छा। आखिर इनमें से सारे बच्चे उच्च शिक्षा के लिए तो नहीं जाएँगे, फिर अंकों पर जरूरत से ज्यादा जोर क्यूँ।
पहली बात तो ये कि स्कूल में किसी से एक दो नंबर ज़्यादा या कम आना इस बात का कतई प्रतीक नहीं होता कि वो बच्चा कितना होनहार है। दूसरी ओर वर्त्तमान अंक प्रणाली में अक्सर औसत दर्जे के बच्चे माता पिता व साथियों से प्रतिस्पर्धा के अतिशय दबाव की वज़ह से पढ़ाई में एकाग्रता नहीं ला पाते और हीन भावना और डिप्रेशन का शिकार बन जाते हैं। ग्रेडिंग सिस्टम इस दबाव को कुछ हद तक कम जरूर करता है।

राजेश उत्‍साही on सितंबर 06, 2010 ने कहा…

मनीष जी आप मेरे ब्‍लाग यायावरी पर आए तो मेरा एक बार फिर से आना हुआ। यह जानने के लिए आप हैं कौन। आकर पता चला कि अरे सुबह तो मैं आपके ब्‍लाग पर आया था। संभव है आप भी यही जानने चले गए हों कि यह हैं कौन। बहरहाल शुक्रिया। मेरे दो और ब्‍लाग हैं गुल्‍लक और गुलमोहर। कभी मौका मिले तो देखिए।
आपने यहां एक सार्थक चर्चा छेड़ी है। बात सही है और श्रीलाल शुक्‍ल के शब्‍दों मे कहें तो हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था गली की वह कुतिया है जिसे हर कोई लात मारकर चला जाता है। पर मुझे लगता है पहली बार शिक्षा में व्‍यापक पैमाने पर कुछ सकारात्‍मक परिवर्तन की दिशा दिख रही है। आप एनसीएफ यानी नेशनल केरिकुलम फ्रेमवर्क से परिचित होंगे ही। उसको ध्‍यान में रखकर जो प्रयास किए जा रहे हैं,उनसे एक आशा बंधती है। अब सवाल यही है कि कितने लोग इस फ्रेमवर्क की आत्‍मा को समझ पाते हैं। चाहे वे शिक्षक हो,अभिभावक हों या फिर उसे लागू करने वाले। संयोग से मैं एक ऐसे संस्‍थान में हूं जो शिक्षकों के लिए एक पोर्टल टीचर्स आफ इंडिया संचालित करता है। इस पर बहुत ज्‍यादा काम नहीं हुआ है,फिर भी आप कभी देखिएगा। लिंक है। कभी इसके लिए कुछ लिख सकें तो भेजें। www.teachersofindia.org

ग्रेडिंग सिस्‍टम पर मैं आपकी बात से सहमत हूं।

सुशील छौक्कर on सितंबर 16, 2010 ने कहा…

एक सही विषय पर आपने पोस्ट लिखी है। सबसे पहले मै यही कहना चाहूँगा कि सरकार को सबसे पहले हर स्कूल का सिलेब्स एक ही रहना चाहिए ना कि सरकारी स्कूल का अलग और प्राईवेट स्कूल का अलग। अर्थात जो चीजें मैंने सातवीं क्लास में पढी थी वो मेरी बेटी के.जी क्लास में पढ़ रही है। दूसरा होमवर्क नाम की चीज नही होनी चाहिए बैशक एक घंटा का समय बढाया जाए। तीसरा पाँचवी क्लास तक पढ़ाई फ्री ही होनी चाहिए। चौथा जो आज बेटी की वजह से महसूस होता है कि बस्ते का बोझ हल्का होना चाहिए। पाँचवा छोटे बच्चों की तो जितनी पढाया जाया सिखाया जाए वो एक्टिवीटी करके सिखाया पढाया जाए। ये चीजें मैंने अपनी बेटी के साथ महसूस किया है..... ना जाने क्यों ये बातें एकदम आपकी पोस्ट को पढने के बाद।

Priyank Jain on सितंबर 19, 2010 ने कहा…

shiksha kisi bhi star par ho, na wo samaj se judi hai na hi manveey mulyun se, wartman shikshan keval aupcharikta bhar hai....... hum sabhi pratispardha se kuch alag apne jeevan ko sanjeedgi se len to shayad kuch badlaw sambhav hai anyatha kisi bhi prakar ke sujhav, mashware aur sudhar dhak ke teen ki paat ki tarah hi hain , syllabus naya ban jaye, geading paddhati aa jaye daud to tab bhi lagegi hi

 

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