मंगलवार, सितंबर 28, 2010

जगजीत की ग़जलों की धुन पहेली : देखें क्या थे जवाब?

तो वक़्त आ गया जब जगजीत जी की धुनों पर आधारित पहेली पर आप सबकी मेहनत का परिणाम साझा करूँ तो सबसे पहले जवाबों की तरफ..



1. पहली और आठवी धुन दो अर्थों में एक जैसी हैं। दोनों जगजीत सिंह के अलग अलग एलबमों की पहली ग़ज़लें हैं और दोनों मे ही पीने पिलाने की बात है।


पहली ग़ज़ल का जिक्र जगजीत श्रृंखला की पिछली पोस्ट में आया था। ये ग़ज़ल थी जगजीत के एलबम Ecstasies के साइड A की पहली ग़ज़ल यानि जवाँ है रात साकिया पिलाए जा पिलाए जा
...



2. भारतीयों का प्रिय शगल है मानते ही नहीं तुरंत चले आते हैं.... जिसे जगजीत व चित्रा ने बड़ी खूबसूरती से उभारा है इस ग़ज़ल में

हाँ जी हम भारतीयों की आदत है ना हर किसी को माँगे बिना माँगे सलाह देने यानि समझाने बुझाने की। पहेली की दूसरी ग़ज़ल थी जगजीत चित्रा के युगल स्वरों में "आए हैं समझाने लोग हैं कितने दीवाने लोग..Unforgettables से ली इस ग़ज़ल के बारे में आपको यहाँ बताया था।



3. पाकिस्तान के मशहूर शायर की ग़ज़ल है ये... शायर तो रूमानी तबियत के पर थे असल में पहलवान। पर क्या मतला और क्या ग़ज़ल थी बस सिर्फ सुन कर सुभानाल्लाह कहने को जी चाहता था।



पाकिस्तान के ये शायर थे क़तील शिफ़ाई जिनके बारे में इस ब्लॉग पर मैंने कभी एक लंबी श्रृंखला की थी और ग़ज़ल वही बेमिसाल अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ..आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ। इस ग़ज़ल को आप यहाँ सुन सकते हैं।


4. उफ्फ ! इस ग़ज़ल से रूमानी भला क्या हो सकता है खासकर तब जब आप इसे अँधेरे में सुनें...


सुदर्शन फ़ाक़िर की लिखी ये ग़ज़ल है दि लेटेस्ट एलबम से। मतला तो आ
प में से कइयों ने पहचान ही लिया है, हाँ भई वही 'चराग आफताब गुम बड़ी हसीन रात थी...'




5. जगजीत चित्रा की 'तबाही' मचाने वाली एक मशहूर ग़ज़ल...


जी हाँ तबाही मचाने वाली इस ग़ज़ल का जिक्र जगजीत की श्रृंखला की पिछली पोस्ट में था यानि 'जब से हम तबाह हो गए तुम जहाँपनाह हो गए...'



6. और ये तो उनकी एक ऐसी ट्रेड मार्क धुन है जिसके बारे में कुछ भी कहना मुनासिब नहीं होगा...


इस पर कोई क्लू नहीं दिया गया क्योंकि जगजीत चित्रा के प्रशंसकों ने 'ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो...' एक नहीं सैकड़ों बार सुनी होगी। इस धुन का प्रयोग जगजीत तब तक करते रहे जब तक वो चित्रा जी के साथ इसे युगल स्वरों में गाते रहे। उनके एकल स्वर में ये धुन नदारद है।



7. जगजीत की एक ऐसी ग़ज़ल जिसके शायर का नाम शायद ही किसी को पता हो ! हाँ ये जरूर है कि मोहब्बत में नाकाम लोग अक्सर इस ग़ज़ल का सहारा लेते रहे हैं..


ये ग़ज़ल है 'ये कैसी मोहब्बत ये कैसे फ़साने...'। इसे किसने लिखा मुझे तो पता नहीं। अलबत्ता ग़ज़ल के मकते में जहाँ शायर का नाम आना चाहिए वहाँ 'गुमनाम' शब्द आता है।



8. पहली और आठवी धुन दो अर्थों में एक जैसी हैं। दोनों जगजीत सिंह के अलग अलग एलबमों की पहली ग़ज़लें हैं और दोनों मे ही पीने पिलाने की बात है।


और आखिर में विज़न एलबम की शुरुआती ग़ज़ल थी झूम के जब रिंदों ने पिला दी..


इस पहेली को पूरी तरह हल किया, अरविंद के नाम से ब्लॉग लिखने और पुणे से ताल्लुक रखने वाले अरविंद मिश्र ने।
अरविंद आपको हार्दिक बधाई। दूसरे नंबर पर रहे राहुल जिन्होंने आठ में सात धुनों को सही पहचाना। उपेंद्र जी ने छः, कंचन और रंजना जी ने पाँच और सुपर्णा ने दो सही हल बताए। अरविंद और राहुल आप लोग तो जगजीत के फैन हैं ही। बाकी लोगों ने भी बड़े परिश्रम से ज्यादातर धुनों को पहचान लिया। आप सब का इस आयोजन में भाग लेने के लिए हार्दिक धन्यवाद !

बुधवार, सितंबर 22, 2010

धुन पहेली : पहचानिए जगजीत की गाई मशहूर ग़ज़लों के पहले की इन आठ आरंभिक धुनों को !

जगजीत के इन एलबमों के लोकप्रिय होने में ग़ज़लों में दिए गए संगीत का भी अहम योगदान था। उस वक्त के लिए ये अलग तरह का संगीत था। कुछ ग़ज़लों को तो उनकी आरंभिक धुनों से ही पहचान कर श्रोता ताली बजाने लगते थे। जगजीत ने अपनी संगीतबद्ध ग़ज़लों में संतूर, गिटॉर, सिंथेसाइज़र, वॉयलिन और बाँसुरी का बारहा प्रयोग किया। ग़ज़ल के पंडितों ने ग़ज़ल के विशुद्ध रूप में इसे प्रदूषण की संज्ञा दी पर आम जन ने ग़ज़ल के इस रुप को हाथों हाथ लिया।

हालांकि नब्बे के बाद आए एलबमों में जगजीत का दिए संगीत में बहुत ज्यादा दोहराव होने से उसका प्रभाव वो नहीं रहा। पर उनकी गाई ग़ज़लों की कुछ धुनें आज भी वही जादू जगाती हैं। तो आज आपके सामने मैं ऐसी ही सात धुनों को लेकर आया हूँ। आपको बताना ये है कि ये धुनें किन ग़ज़लों के आरंभ होने के पहले बजाई गई हैं।




1. पहली और आठवी धुन दो अर्थों में एक जैसी हैं। दोनों जगजीत सिंह के अलग अलग एलबमों की पहली ग़ज़लें हैं और दोनों मे ही पीने पिलाने की बात है।





2. भारतीयों का प्रिय शगल है मानते ही नहीं तुरंत चले आते हैं.... जिसे जगजीत व चित्रा ने बड़ी खूबसूरती से उभारा है इस ग़ज़ल में






3. पाकिस्तान के मशहूर शायर की ग़ज़ल है ये... शायर तो रूमानी तबियत के पर थे असल में पहलवान। पर क्या मतला और क्या ग़ज़ल थी बस सिर्फ सुन कर सुभानाल्लाह कहने को जी चाहता था।






4. उफ्फ ! इस ग़ज़ल से रूमानी भला क्या हो सकता है खासकर तब जब आप इसे अँधेरे में सुनें...





5. जगजीत चित्रा की 'तबाही' मचाने वाली एक मशहूर ग़ज़ल...






6. और ये तो उनकी एक ऐसी ट्रेड मार्क धुन है जिसके बारे में कुछ भी कहना मुनासिब नहीं होगा...





7. जगजीत की एक ऐसी ग़ज़ल जिसके शायर का नाम शायद ही किसी को पता हो ! हाँ ये जरूर है कि मोहब्बत में नाकाम लोग अक्सर इस ग़ज़ल का सहारा लेते रहे हैं..






8. पहली और आठवी धुन दो अर्थों में एक जैसी हैं। दोनों जगजीत सिंह के अलग अलग एलबमों की पहली ग़ज़लें हैं और दोनों मे ही पीने पिलाने की बात है।



तो देखें आप जगजीत की ग़ज़लों के कितने बड़े प्रशंसक हैं?


रविवार, सितंबर 19, 2010

जगजीत सिंह की गाई ग़ज़लों का सफ़र भाग 8 : बातें Ecstasies और अस्सी के शुरुवाती दशक के कुछ अन्य एलबम्स की...

जगजीत सिंह की गाई ग़ज़लों के सफ़र में आज आपको लिए चलते हैं अस्सी के दशक की शुरुआत में जब जगजीत चित्रा की जोड़ी दि अनफॉरगेटेबल्स की सफ़लता के बाद लोकप्रियता के नए आयाम स्थापित कर रही थी। अस्सी की शुरुआत में इस जोड़ी ने चार प्रमुख एलबम्स रिलीज़ किए.. A Milestone (1980) ,The Latest (1982), Ecstasies (1984), A Sound Affair (1985)

ए माइलस्टोन (A Milestone) जहाँ जनाब क़तील शिफ़ाई की लिखी ग़ज़लों पर केंद्रित था वहीं दि लेटेस्ट (The Latest) जगजीत चित्रा की जोड़ी ने सुदर्शन फ़ाकिर की गज़लों को अपनी आवाज़ दी थी। वहीं बाकी के दो एलबम में जगजीत जी ने अलग अलग शायरों की ग़ज़लों को लिया था।

बाकी एलबमों को तो मैंने उनके रिलीज़ होने के बहुत बाद में सुना पर Ecstasies की कैसेट 84-85 के दौरान घर पर आ चुकी थी। इस एलबम की ज्यादातर ग़जलें हल्के फुल्के मिजाज़ की थीं। एलबम की शुरुआत मदनपाल की लिखी ग़ज़ल

जवाँ है रात साकिया, शराब ला शराब ला
जरा सी प्यास तो बुझा शराब ला शराब ला

..से होती थी। हाई स्कूल के उन दिनों में इस ग़ज़ल की धुन और गायिकी से में इस क़दर प्रभावित था कि इसे तरन्नुम में गुनगुनाना बेहद भला लगता था। तो चलिए सुनते हैं ना एक बार फिर इस ग़ज़ल को

इस एलबम से जुड़ी एक याद चित्रा जी की गाई ग़ज़ल...
पसीने पसीने हुए जा रहे हो
ये बोलो कहाँ से चले आ रहे हो ?

...से जुड़ी है।

मेरी बड़ी दी ने ये ग़ज़ल पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में कॉलेज के एक कार्यक्रम में गाई थी। दी ने बताया था कि जब वो स्टेज पर गा रही थीं तो पिछली पंक्तियों में खड़े श्रोता पंखा हाँक रहे थे। दरअसल इस एलबम की ज्यादातर ग़ज़लें ऐसी थीं जो सामान्य जनों को अपनी ओर बड़ी आसानी से जोड़ लेती थीं।

इस लिहाज़ से एलबम की दो और ग़ज़लें याद आ रही हैं। पहली ग़ज़ल बड़े प्यारे लहज़े में आपको ये पता करने में मदद करती है कि आप लवेरिया जैसी बीमारी से ग्रसित हैं या नहीं..



मेरे जैसे बन जाओगे तो इश्क़ तुम्हें हो जाएगा
दीवारों से टकराओगे जब इश्क़ तुम्हें हो जायेगा


हर बात गवारा कर लोगे मन्नत भी उतारा कर लोगे

ताबीजें भी बँधवाओगे जब इश्क़ तुम्हें हो जायेगा


अगर सईद राही की लिखी ये ग़ज़ल दिल को गुदगुदाती थी तो बेकल उत्साही का ये कलाम भी ये सोचने पर मज़बूर कर देता था कि कमबख़्त हम कब तबाह होंगे?
जब से हम तबाह हो गये
तुम जहाँपनाह हो गये


हुस्न पर निखार आ गया

आईने सयाह हो गये


पर इतने दशकों बाद अगर आज मुझे इस एलबम की सबसे बेहतरीन पेशकश बताने को कहा जाए तो मैं साइड बी की अंत में सलाम मछलीशेहरी को दिल को छू जाने वाली नज़्म बहुत दिनों की बात है का ही जिक्र करना चाहूँगा। वो समय हो या आज का वक़्त ये नज़्म हमेशा दिल के करीब ही रही है। इस नज़्म और उसके शायर के बारे में विस्तार से आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

The Latest की अपनी पसंदीदा ग़ज़लों 'चराग़ ओ आफ़ताम गुम बड़ी हसीन रात थी', 'शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया' का जिक्र मैं सुदर्शन फ़ाकिर को दी हुई श्रृद्धांजलि में मैं पहले ही कर चुका हूँ। सुदर्शन फाक़िर की तरह ही क़तील शिफ़ाई की ग़ज़लों को जगजीत ने काफी गाया है। सिर्फ क़तील को ले के बनाया उनका एलबम A Milestone तो सचमुच ही मील का पत्थर साबित हुआ था। आखिर

सदमा तो है मुझे भी कि तुझ से जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्यूँ हूँ मैं
और
परेशाँ रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूत ए मर्ग तारी है सितारों तुम तो सो जाओ


..जैसी बेमिसाल ग़ज़लों और जगजीत जी की उम्दा अदाएगी को भला कौन भूल सकता है ? क़तील की शायरी पर आधारित श्रृंखला में इन ग़ज़लों को सुनवा ही चुका हूँ। जहाँ तक ए साउंड एफेयर की बात याद करूँ तो सिर्फ दो ग़ज़लें ज़ेहन में उभरती हैं । एक तो फिराक़ गोरखपुरी की ग़ज़ल ये तो नहीं कि गम नहीं और दूसरी जनाब शाहिद मीर की लिखी ये ग़ज़ल।



ऐ ख़ुदा रेत के सेहरा को समन्दर कर दे
या छलकती हुई आँखों को भी पत्थर कर दे


तुझको देखा नहीं महसूस किया है मैंने

आ किसी दिन मेरे एहसास को पैकर1 कर दे

1 आकृति प्रदान करना

और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है
लेकिन
मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे

ग़ज़ल के हर शेर से निकला दर्द जगजीत की आवाज़ में अंदर तक घुलता हुआ महसूस होता है। वैसे ये बता दूँ कि इसे लिखने वाले शाहिद मीर एक शिक्षक हैं जिन्होंने औषधीय वनस्पति जैसे विज्ञान से जुड़े में पी एच डी की हुई है।

जगजीत की गाई ग़ज़लों की इस श्रृंखला की अगली कड़ी में होगी एक पहेली जो तय करेगी कि आपने जगजीत सिंह की ग़ज़लों को कितनी ध्यान से और कितना ज्यादा सुना है....

इस श्रृंखला में अब तक

  1. जगजीत सिंह : वो याद आए जनाब बरसों में...
  2. Visions (विज़न्स) भाग I : एक कमी थी ताज महल में, हमने तेरी तस्वीर लगा दी !
  3. Visions (विज़न्स) भाग II :कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?
  4. Forget Me Not (फॉरगेट मी नॉट) : जगजीत और जनाब कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी
  5. जगजीत का आरंभिक दौर, The Unforgettables (दि अनफॉरगेटेबल्स) और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...
  6. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 1
  7. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 2
  8. अस्सी के दशक के आरंभिक एलबम्स..बातें Ecstasies , A Sound Affair, A Milestone और The Latest की

मंगलवार, सितंबर 14, 2010

May it be...Only Time - इन्या की गायिकी की धूप में दिल के अँधेरों को मिटाते दो गीत...

ज़िदगी का पहिया हौले हौले बढ़ रहा है। त्योहारों का वक़्त आ गया है। पर इसमें नया क्या है? पिछले साल भी तो आया था। पता नहीं क्यूँ जैसे -जैसे उम्र बीतती है अगला साल बड़ा जल्दी आ गया लगता है। वक़्त की दौड़ के साथ जीवन में भी कुछ बदलाव आता रहे तो साल का यूँ गुजर जाना उतना अनायास नहीं लगता। पर समय के सापेक्ष क्या बदल रहा है ......शहर, राज्य , देश या अपनी रोज़मर्रा की ज़िदगी..कुछ भी तो नही..

ऐसी भावनाएँ मन में अवसाद ही भरती हैं। और ये अवसाद कुछ नया करने के हमारे जज़्बे की आग पर पानी डालता रहता है। पर हमारे भीतर की ये आग बुझ जाए तो जीवन पहले से और बोझिल हो जाएगा और हम अवसाद के इस कुचक्र में फँसते चले जाएँगे। इसलिए आप जब भी इन भावनाओं की गिरफ़्त में पड़ें, कोशिश करें जल्द ही उनसे बाहर निकलने की। आप पूछेंगे कैसे? तो मेरा फलसफ़ा तो बस इतना है _धनात्मक सोच वाले व्यक्तियों के बीच रहकर, .अच्छी किताबें पढ़कर, या फिर प्रेरणादायक संगीत सुनकर। तो चलिए कुछ ऐसा जादू जगाता संगीत ही सुन लिया जाए

आज जिन दो गीतों की बात मैं करने जा रहा हूँ उसे गाया है आयरलैंड की सुप्रसिद्ध गायिका इन्या (Enya) ने। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त इन्या (Enya) ने ये गीत फिल्म लार्ड आफ दि रिंग (Lord of the Rings) के लिए रिकार्ड किया था।


अपनी क़ाबिलियत पर विश्वास जागृत कराता ये गीत मन में एक नई आशा का संचार करता है। इन्या की थरथराती आवाज़ का कंपन आपके हृदय के कोने कोने तक होता महसूस होता है। तो देखिए इन्या क्या कहती हैं अपने इस गीत के ज़रिए








May it be an evening star
Shines down upon you

May it be when darkness falls

Your heart will be true

You walk a lonely road

Oh! How far you are from home


जि़दगी के इस सफ़र में तुम कितनी दूर अकेले ही निकल आए हो। आगे की राह आसान नहीं है। लगता है अँधेरा आने वाला ही है। पर जब वो अँधेरा तुम पर मँडराए तो यही प्रार्थना है कि तुम्हारा हृदय पवित्र और सच्चा रहे। जीवन की उस स्याह शाम में चमकते तारों का प्रकाश तुम्हारा मार्गदर्शन कर सके।

Mornie utúlië (darkness comes)
Believe and you will find your way

Mornie alantië (darkness has fallen)

A promise lives within you now


अँधेरा आ गया। घबराओ मत तुम अपना रास्ता पा लोगे। अँधेरा और घनेरा हो चुका है। पर तुमने भी ठान लिया है कि इस अँधेरे से बाहर निकल कर ही रहोगे।

May it be the shadows call
Will fly away

May it be your journey on

To light the day

When the night is overcome

You may rise to find the sun


जीवन में आती ये परछाइयाँ जल्द ही छिटक जाएँगी। पथ से डिगो नहीं चलते रहो। वो क्षण दूर नहीं जब तुम रात्रि की इस कालिमा को चीरते हुए सूर्य का उज्ज्वल प्रकाश देखोगे।

Mornie utúlië (darkness comes)
Believe and you will find your way

Mornie alantië (darkness has fallen)

A promise lives within you now

A promise lives within you now...


इन्या को अपने इस गीत के लिए गोल्डन ग्लोब और एकॉडमी अवार्ड के लिए नामांकित किया गया था। वैसे इन्या के बारे में गर आप कुछ और जानना चाहें तो उनके उनके जालपृष्ठ पर जा सकते हैं। अब इन्या की बात हो ही रही है तो क्यूँ ना आपको उनके दूसरे बेहद मशहूर गीत को सुनवाता चलूँ। इस गीत में बड़े प्यारे और सहज बोलों में गायिका ने ये कहना चाहा है कि वक़्त हमारे जीवन रूपी सफ़र के विभिन्न पड़ावों पर कितने अनुत्तरित प्रश्नों के जवाब बस यूँ ही रखकर आगे बढ़ जाता है और हम अचंभित से उसकी महिमा देखते रह जाते हैं।

Who can say
where the road goes
where the day flows
only time...

And who can say
if your love grows
as your heart chose
only time.....

Who can say
why your heart sighs
as your love flies
only time...

And who can say
why your heart cries
when your love lies
only time....

Who can say
when the roads meet
that love might be
in your heart

And who can say
when the day sleeps
if the night keeps
all your heart

Night keeps all your heart

Who can say
if your love grows
as your heart chose
only time

And who can say
where the road goes
where the day flows
only time

Who knows - only time
Who knows - only time




था ना ये प्यारा सा नग्मा कितने मासूम सवाल करता हुआ और जवाब सारे समय पर छोड़ता हुआ। तो समय के इस चक्र को चलते रहने दें पर अँधेरे की चादरों के बीच अपनी क्रियाशीलता के माध्यम से उम्मीद की किरणों का अलख जगाए रखें । और हाँ अगर इन्या की आवाज़ ने आपको भी मेरी तरह प्रभावित किया हो तो उनका नया एलबम बेस्ट आफ इन्या (Best of Enya) खरीदना ना भूलें...

सोमवार, सितंबर 06, 2010

अविभाजित पंजाब की ग्रामीण संस्कृति का दर्पण : ज़िंदगीनामा / कृष्णा सोबती

आंचलिक भाषा में लिखे उपन्यासों की अपनी एक अलग ही मिठास होती है। ऐसे उपन्यासों को पढ़कर आप उन अंचलों की तहज़ीब, रिवायतों से अपने आप को करीब पाते हैं। आंचलिक उपन्यासों का ध्यान आते ही मन में फणीश्वरनाथ रेणू की कृतियाँ याद आती हैं जो हमें बिहार के उत्तर पूर्वी जिले पूर्णिया के ग्रामीण जीवन के पास ले जाती थी। कुछ साल पहले कुमाँउनी भाषा और संस्कृति को करीब से जानने समझने का मौका मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास 'कसप' को पढ़ने के बाद मिला था। इसलिए पिछले हफ़्ते जब कृष्णा सोबती का उपन्यास ज़िंदगीनामा हाथ लगा तो उसके कुछ पन्ने पलटकर ये लगा कि इस उपन्यास के माध्यम से पूर्व और पश्चिमी पंजाब के ग्रामीण परिवेश से रूबरू होने का मौका मिलेगा। पर क्या सचमुच ऐसा हो सका? हुआ पर कुछ हद तक ही...
(चित्र सौजन्य : विकीपीडिया)

मैंने कृष्णा सोबती जी को पहले नहीं पढ़ा था। इसलिए पुस्तक पुस्तकालय से लेने के पहले कहानी का सार जानने के लिए वहीं प्रस्तावना पढ़ डाली। उसमें सोबती जी की साहित्यिक कृतियों और हिंदी साहित्य में उनके योगदान की बाबत तो कई जानकारियाँ मिलीं पर उपन्यास की विषय वस्तु का जिक्र वहाँ ना होकर पुस्तक के पिछले आवरण पर था। उसे पढ़ कर मन थोड़ा भ्रमित भी हुआ और रोमांचित भी। वहाँ लिखा था

ज़िंदगीनामा जिसमें ना कोई नायक। न कोई खलनायक। सिर्फ लोग और लोग और लोग। जिंदादिल। जाँबाज। लोग जो हिंदुस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फसलें उगाते रहे। जी लेने की सोंधी ललक पर जिंदगियाँ लुटाते रहे।
और किताब पढ़ने के बाद पुस्तक का ये संक्षिप्त परिचय बिल्कुल सही मालूम होता है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से द्वितीय विश्व युद्ध के बीच के एकीकृत पंजाब के ग्रामीण जीवन को कृष्णा सोबती जी ने अपनी पुस्तक की कथावस्तु चुना है। पूरी पुस्तक में लेखिका ने उन किसानों के दर्द को बार बार उभारा है जो जमीन पर हर साल मेहनत मशक्कत कर फसलें तो उगाते हैं पर उसके मालिक वो नहीं है। सूद के कुचक्र में फँसकर उनकी ज़मीनें साहूकारों के हाथों में है। दरअसल पंजाब में विभाजन पूर्व तक जमीन पर हिंदू साहूकारों का कब्ज़ा रहा जबकि खेतों पर मेहनतकरने वाले अधिकांश किसान सिख या मुस्लिम थे। लेखिका ने इस सामाजिक संघर्ष के ताने बाने में उस वक़्त देश में घटती घटनाओं को भी अपने किरदारों के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखने की कोशिश की है। ऐसा उन्होंने क्यों किया है ये उनकी इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है। लेखिका का मानना है..

इतिहास वो नहीं जो हुक़ूमतों की तख्तगाहों में प्रमाणों और सबूतों के साथ ऍतिहासिक खातों में दर्ज कर सुरक्षित कर दिया जाता है, बल्कि वह है जो लोकमानस की भागीरथी के साथ साथ बहता है..पनपता और फैलता है और जनसामान्य के सांस्कृतिक पुख़्तापन में ज़िंदा रहता है।
इसीलिए उपन्यास में इस इलाके का इतिहास गाँव के साहूकार शाह जी की बैठकों से छन छन कर निकलता हुआ पाठकों तक पहुँचता रहता है। गाँव में हो रही घटनाओं की जानकारी इस मज़लिस के आलावा शाहनी की जमाई महफिलों से भी मिलती है। सोबती जी ने ग्रामीण जीवन के सभी रंगों को इस पुस्तक में जगह दी है। किसानों का असंतोष, ज़मीनी विवाद, सामाजिक जश्नों में जमकर खान पान, सास बहू के झगड़े, सौतनों के रगड़े, मदरसों की तालीम, मुज़रेवालियों के ज़लवे, चोर डकैतों की कारगुजारियाँ सब तो है इस कथाचक्र में। पर ये कथाचक्र कहीं रुकता नहीं और ना ही सामान्य तरीके से आगे बढ़ता है। दरअसल कई बार किसी घटना का विवरण देने या उल्लेख करने के बाद उपन्यास में आगे लेखिका उसका जिक्र ना कर सब कुछ पाठकों के मन पर छोड़ देती हैं। वैसे भी लेखिका का उद्देश्य किसी एक किरदार की ज़िंदगी में उतरने का ना हो के आम जन के जीवन को झाँकते हुए आगे चलते रहने का है। पर इसका नतीजा ये होता है कि कथा टूटी और बिखरी बिखरी लगती है। उपन्यास के समापन में भी सोबती कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़तीं और वो भी अनायास हो गया लगता है।

पर उपन्यास में कुछ तत्व ऐसे हैं जो कथानक में रह रह कर जान फूँकते हैं। पंजाब का सूफ़ी व लोक संगीत पुस्तक के पन्नों में रह रह कर बहता है। कहीं बुल्लेशाह,कहीं हीर तो कहीं सोहणी महीवाल के गीत आपको पंजाब की समृद्ध सांगीतिक विरासत से परिचय कराते ही रहते हैं। मुझे इस पुस्तक सा सबसे अच्छा पहलू ये लगा कि पुस्तक लोकगीतों , कवित्त और पंजाबी लोकोक्तियों और तुकबंदियों का अद्भुत खज़ाना है। कुछ मिसाल देना चाहूँगा

नौजवानों ने पनघट पर सजीली युवतियों की अल्हड़ता देखी तो हीर के स्वर उठ गए
"तेरा हुस्न गुलज़ार बहार बनवा
अज हार सब भाँवदा दी
अज ध्यान तेरा आसमान ऊपर
तुझे आदमी नज़र न आँवदा री.."

प्रेम पर सूफ़ियत का रंग चढ़ा तो बुल्लेशाह दिल से होठों पर आ गए
"मैं सूरज अगन जलाऊँगी
मैं प्यारा यार मनाऊँगी
सात समुन्दर दिल के अंदर
मैं दिल से लहर उठाऊँगी..."

मौलवी मदरसे में पढ़ाते है तो देखिए उसकी भी एक लय बन जाती है...
पक्षियों में सैयद : कबूतर
पेड़ों में सरदार : सीरस
पहला हल जोतना : न सोमवार ना शनिवार
गाय भैंस बेचनी : न शनीचर ना इतवार
दूध की पहली पाँच धारें : धरती को
नूरपुर शहान का मेला : बैसाख की तीसरी जुम्मेरात को

और बच्चों की शैतानियाँ वो भी तुकबंदी में
लायक से बढ़िया फायक
अगड़म से बढ़िया बगड़म
हाज़ी से बड़ी हज़्जन
मूत्र से बड़ा हग्गन

या फिर
शमाल में कोह हिमाला
जुनूब में तेरा लाला
मशरिक में मुल्क ब्रह्मा
मग़रिब में तेरी अम्मा :)

कृष्णा सोबती द्वारा लोकभाषा और बोलियों का धाराप्रवाह इस्तेमाल इस उपन्यास का सशक्त और कमजोर पहलू दोनों है। कमजोर इसलिए कि जिन पंजाबी ठेठ शब्दों या पंजाबी लोकगीतों का इस्तेमाल पुस्तक में किया गया है उनका अर्थ गैर पंजाबी पाठकों तक पहुँचाने की आवश्यकता लेखिका या प्रकाशक ने नहीं समझी है। इन बोलियों का प्रयोग उपन्यास को वास्तविकता के धरातल पर तो खड़ा करता है पर साथ ही कथ्य गैर पंजाबी पाठकों को किरदारों की भावनाओं और मस्तमौला पंजाबी संस्कृति के बहते रस का पूर्ण माधुर्य लेने से वंचित रखता है।

करीब 400 पृष्ठों का ये उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत डेढ़ सौ रुपये है। इंटरनेट पर इस पुस्तक को आप यहाँ से खरीद सकते हैं

इस चिट्ठे पर अन्य पुस्तकों पर की गई चर्चा आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
 

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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