गुरुवार, जून 30, 2011

गोपाल दास 'नीरज' कुछ पसंदीदा मुक्तक

गोपाल दास नीरज की कविताओं और उनकी कुछ पसंदीदा ग़ज़लों को पहले भी पेश कर चुका हूँ। पर नीरज का काव्य संसार उनकी कविताओं और ग़ज़लों तक ही सीमित नहीं है। उर्दू रुबाइयों के अंदाज में उन्होंने जो चंद पंक्तियाँ लिखीं उन्होंने उसको 'मुक्तक' का नाम दिया। और क्या कमाल के मुक्तक लिखे हैं गोपाल दास नीरज जी ने..

प्रसिद्ध काव्य समीक्षक शेरजंग गर्ग नीरज के मुक्तकों की लोकप्रियता के बारे में लिखते हैं..

नीरज के मुक्तक बेहिसाब सराहे गए। इसका एक कारण नीरज की मिली जुली गंगा जमुनी भाषा थी। जिसे समझने के लिए शब्दकोष उलटने की जरूरत नहीं थी। इसमें हिंदी का संस्कार था तो उर्दू की ज़िंदादिली। इन दोनों खूबियों के साथ नीरज के अंदाजे बयाँ ने अपना हुनर दिखाया और उनके मुक्तक भी गीतिकाओं के समान यादगार और मर्मस्पर्शी बन गए।

आज नीरज के लिखे अपने पसंदीदा मुक्तकों से आपका परिचय कराता हूँ। आशा है ये आप को भी उतने ही पसंद आएँगे जितने मुझे आते हैं...


(1)
कफ़न बढ़ा तो किस लिए नज़र तू डबडबा गई?
सिंगार क्यों सहम गया बहार क्यों लजा गई?
न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ बस इतनी सिर्फ बात है ‌
किसी की आँख खुल गई, किसी को नींद आ गई।

(2)
खुशी जिसने खोजी वह धन ले के लौटा,
हँसी जिसने खोजी चमन ले के लौटा,
मगर प्यार को खोजने जो चला वह
न तन ले के लौटा, न मन ले के लौटा।

(3)
रात इधर ढलती तो दिन उधर निकलता है
कोई यहाँ रुकता तो कोई वहाँ चलता है
दीप औ पतंगे में फ़र्क सिर्फ इतना है
एक जलके बुझता है, एक बुझके जलता है

(4)
बन गए हुक्काम वे सब जोकि बेईमान थे,
हो गए लीडर की दुम जो कल तलक दरबान थे,
मेरे मालिक ! और भी तो सब हैं सुखी तेरे यहाँ,
सिर्फ़ वे ही हैं दुखी जो कुछ न बस इंसान थे।

(5)
छेड़ने पर मौन भी वाचाल हो जाता है, दोस्त !
टूटने पर आईना भी काल हो जाता है दोस्त
मत करो ज्यादा हवन तुम आदमी के खून का
जलके काला कोयला भी लाल हो जाता है दोस्त !

चलते चलते गोपाल दास नीरज द्वारा अपनी काव्य रचनाओं पर लिखी बात उद्धृत करना चाहूँगा
जब लिखने के लिए लिखा जाता है तब जो कुछ लिखा जाता है उसका नाम है गद्य। पर जब लिखे बिना न रहा जाए और जो खुद खुद लिख जाए तो उसका नाम है कविता। मेरे जीवन में कविता लिखी नहीं गई। खुद लिख लिख गई है, ऐसे ही जैसे पहाड़ों पर निर्झर और फूलों पर ओस की कहानी।

गुरुवार, जून 23, 2011

क्या कहता है जएब और हानीया (Zeb and Haniya) का गाया ये लोकप्रिय अफ़गानी लोकगीत ?

कोक स्टूडिओ ये नाम सुना है आपने। अगर आप फिल्म संगीत के इतर लोक संगीत व फ्यूजन में रुचि रखते हैं और अंतरजाल पर सक्रिय हैं तो जरूर सुना होगा। वैसे भी संगीत का ये कार्यक्रम ब्राजील और पाकिस्तान का विचरण करते हुए पिछले शुक्रवार से MTV India का भी हिस्सा हो गया है। हालांकि इसके भारतीय संस्करण की पहली कड़ी उतनी असरदार नहीं रही जितनी की सामान्यतः कोक स्टूडिओ पाकिस्तान की प्रस्तुति रहा करती है। पर भारत में इस तरह के कार्यक्रम को किसी संगीत चैनल और वो भी MTV की ये पहल निश्चय ही सही दिशा में उठाया एक कदम है।

ख़ैर आज मैं आपको एक ऐसे लोकगीत से रूबरू करा रहा हूँ जिसे सत्तर के दशक में अफगानिस्तान में रचा गया। पश्तू भाषा में रचे इस गीत को गाया है जएब (Zeb) ने और उनके साथ में हैं हानीया। जएब और हानीया (Zeb and Haniya) 


पाकिस्तान की पैदाइश पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम पश्तून इलाके से है। पाकिस्तान में इन दो चचेरी बहनों ने पहला लड़कियों का बैंड बनाया। जएब गाती हैं और हानीया गिटार वादक हैं। पाकिस्तान में इस बैंड का एक गीत 'चुप' बेहद चर्चित रहा था।

इस अफ़गानी लोकगीत की भाषा अफगानिस्तान में बोली जाने वाली फ़ारसी है जिसे 'दरी' भी कहा जाता है। गीत की शुरुआत में जो वाद्य यंत्र बजता है वो किसी भी संगीतप्रेमी श्रोता के मन के तार झंकृत कर सकता है। इस वाद्य यंत्र का नाम है रूबाब। रुबाब अफ़गानिस्तान के दो राष्ट्रीय वाद्य यंत्रों में से एक है और अफ़गानी शास्त्रीय संगीत में इसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। गीत का शुरुआती एक मिनट इसकी तान में खो सा जाता है और फिर पीछे से उभरता है जएब का मधुर स्वर।  

पिछले साल मेरी एक मित्र ने मुझे जब कोक स्टूडिओ पाकिस्तान के कार्यक्रम में प्रसारित इस गीत के बारे में बताया तो मुझे उत्सुकता हुई कि आख़िर रुबाब की मधुर धुन के आलावा गायिका ने इस गीत में क्या कहना चाहा है? तो आइए गीत का आनंद लें इसमें व्यक्त भावनाओं के साथ


पैमोना बेदेह के खुमार असतम
मन आशिक ए चश्मे मस्ते यार असतम
बेदेह बेदेह के खुमार असतम
पैमोना बेदेह के खुमार असतम

साकी शराब का प्याला ले आओ । आज मैं इस जाम की खुमारी में अपने आप को डुबो लेना चाहता हूँ। तुम्हारी नशीली आँखें मुझे तुम्हारा दीवाना बना रही हैं। लाओ लाओ कि इसकी ख़ुमारी मैं मैं अपने आप को खो देना चाहता हूँ।

चश्मत के बाहू ए खुतन मेमोनाए
रूयात बा गुलाब हाय चमन मेमोनाए
गुल रोब ए कुनैद वरक़ वरक़ बू ए कुनैद
बा लाला ए ज़ार ए बे वतन मींयारात
पैमोना बेदेह के खुमार.... असतम

क्या तुम्हे पता है कि तुम्हारी आँखें मेरे दिल के बगीचे में रोशनी भर देती हैं। तुम्हारा चेहरा मेरे दिल के बाग के सभी गुलाबों को खिला देता है। सच पूछो तो तुम्हारा ये चेहरा मेरे दिल की बगिया में रंग भरता है, उनकी पंखुड़ियों में सुगंध का संचार करता है।

अज ओमादान ए तगार खबर में दास्तान
पेश ए कदमात कोचा रा गुल में कोश्ताम
गुल में कोश्तम गुल ए गुलाब में कोश्ताम
खाक़ ए कदमात पद ए दम ए वादाश्ताम
पैमोना बेदेह के खुमार.... असतम
सोचता हूँ जब तुम्हारे पवित्र कदमों की आहट इस हृदय को सुनाई देगी, तब मैं तुम्हारे रास्ते में दिल के इन फूलों को कालीन की तरह बिछा दूँगा। चारों ओर फूल बिछे होंगे..गुलाब के फूल और उन फूलों के बीच पड़ती तुम्हारे चरणों की धूल में मैं खुद को न्योछावर कर दूँगा।

तो प्रेम में रससिक्ता इस गीत को सुना आपने। आपको क्या लगा कि ये किसी प्रेमिका के लिए एक प्रेमी के हृदय का क्रंदन है। ज़ाहिर सी बात है शाब्दिक तौर पर ये गीत तो हमसे यही कहता है और यही सही भी है ।

पर ये बताना जरूरी है कि ये गीत वास्तव में एक सूफी गीत से प्रेरित हैं । दरअसल मूल गीत जिसमें कई छंद हैं को मशहूर सूफ़ी कवि उमर ख़्य्याम ने ग्यारहवीं शताब्दी में लिखा था। दरअसल सूफी संतों ने अपने लिखे गीतों में शराब और साक़ी को रूपकों की तरह इस्तेमाल किया है। मजे की बात ये है कि इन संतों ने कभी मदिरा को हाथ भी नहीं लगाया।

सूफी विचारधारा में भक्त और भगवान का संबंध एक आशिक का होता है जिसे ऊपरवाले की नज़र ए इनायत का बेसब्री से इंतज़ार होता है। साक़ी सौंदर्य का वो प्रतिमान है जो उसे ईश्वर के प्रेम में डूबने को उद्यत करती है। सूफी साहित्य में कहीं कहीं इस साक़ी को अलौकिक दाता की संज्ञा दी गई है जो हम सभी को ज़िदगी रूपी मदिरा का पान कराती है।

कोक स्टूडिओ के कार्यक्रम में आप जएब और हानीया को देख सकते हैं साथ में बजते रुबाब के साथ...


एक शाम मेरे नाम पर लोकगीतों की बहार

शुक्रवार, जून 10, 2011

'लता' की 'सलिल' सरिता में बहता नग्मा : ओ सजना बरखा बहार आई...

वैसे तो मानसून केरल में धूम मचा रहा है पर थोड़ी थोड़ी ही सही बारिश की कभी हल्की और कभी तेज़ फुहारें यहाँ भी मन को गुदगुदा जरूर रही हैं। शायद इसी मौसम का असर है कि इधर कुछ दिनों से में लता जी का फिल्म परख के लिए गाया ये अत्यंत मधुर गीत बारहा होठों पर आ रहा है। आज सोचा क्यूँ ना बारिश की लड़ियों से भींगे गीत की सोंधी महक से आपको भी सराबोर करूँ।



लता जी के गाए गीत को सुनने के बाद बस दिल में एक भावना रह जाती है..कुछ अद्भुत सा महसूस कर लेने की। गीतकार शैलैंद्र के शब्द बारिश की रूमानियत में विकल होती तरुणी के मन को बड़ी खूबसूरती से पढ़ते हैं। वैसे भी बारिश की फुहारें जब हमारे आस पास की प्रकृति को अपने स्वच्छ जल से धो कर हरा भरा करने लगती हैं तो उन्हें देख कर हरे भरे पेड़ों की तरह अपनी ही मस्ती में किसी का दिल भी झूमने लगे तो उसमें उसका क्या दोष। और फिर, ये हृदय तो एक विरहणी का है तो वो तो जलेगा ही... साजन के प्रेम को आतुर अँखिया तो तरसेंगी ही..

यहाँ ये बताना जरूरी होगा कि इस गीत को साधना पर फिल्माया गया था। जिस साल फिल्म 'परख' रिलीज हुई उसी साल साधना की फिल्म 'लव इन शिमला' भी रिलीज हुई। इसी फिल्म में निर्देशक आर के नैयर ने साधना की चौड़ी पेशानी छुपाने के लिए साधना कट की शुरुआत की। पर जब इसी रूप में साधना विमल राय के पास परख फिल्म के लिए रोल माँगने गयीं तो एक बड़ा मज़ेदार वाक़या हुआ। दैनिक भास्कर में नियमित रूप से रविवारीय स्तंभ लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी  इस किस्से को कुछ यूँ बयाँ करते हैं।

जब साधना इसी हेयर स्टाइल के साथ फिल्म ‘परख’ के शूट पर पहुंची तो बिमल दा काफी खफा हो गए। गांव की गोरी ऐसी ग्लेमरस लड़की कैसे हो सकती थी। मौके की नज़ाकत को भाँपकर साधना ने मेकअप रूम में जाकर बालों को फिर से सँवारा और सीधी मांग निकालकर दादा के सामने हाजि़र हो गई। दादा ने एहतियातन एक और टेस्ट लिया। टेस्ट से ख़ुश दादा ने मुस्कराकर साधना से कहा ‘ओ के’। इसके बाद जिस समर्पण भाव के साथ साधना ने बिमल दा के साथ काम किया वे उससे इतने मुत्तासिर हुए कि उन्हें साधना में महान अभिनेत्री नूतन के गुण दिखाए देने लगे।

तो ये थी साधना की इस फिल्म के लिए सादगी से भरे सौंदर्य की प्रतिमूर्ति वाली छवि की कहानी। इस फिल्म को देखनेवाले जब भी इस गीत की बात करते हैं उनके मन में साधना की ये प्यारी छवि भी जरूर उभरती है। आप भी देखिए ..


ओ सजना बरखा बहार आई
रस की फुहार लाई
रस की फुहार लाई, अँखियों मे प्यार लाई
ओ सजना बरखा बहार आई
रस की फुहार लाई, अँखियों मे प्यार लाई
ओ सजना ...

तुमको पुकारे मेरे मन का पपिहरा
तुमको पुकारे मेरे मन का पपिहरा
मीठी मीठी अगनी में, जले मोरा जियरा
ओ सजना ...

ऐसी रिमझिम में ओ सजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन
तेरे ही, ख्वाब में, खो गए...
ऐसी रिमझिम में ओ सजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन
तेरे ही, ख्वाब में, खो गए

साँवली सलोनी घटा, जब जब छाई
साँवली सलोनी घटा, जब जब छाई
अँखियों में रैना गई, निंदिया न आई
ओ सजना ...

इस गीत के संगीतकार थे सलिल चौधरी। पुराने दौर के गीतों का भी अपना अदाज़ था। इसी गीत को लें। गीत की शुरुआत पे गौर करें बारिश की बूँदों के साथ कीटो पतंगों का शोर सिर्फ चार सेकेंड तक ही बजता है पर तब तक आपका मन वर्षामय हो चुका होता है। और फिर सितार की धुन एकदम से आ जाती है। एक बार लता जी का दिव्य स्वर कानों में पड़ता है तो मन गीत के बोलों में रमने लगता है कि तबले की थाप और अंत में आता पश्चिमी शास्त्रीय अंदाज़ लिए कोरस बिल्कुल गौण हो जाते हैं। सलिल दा ने लता जी को जिस अंदाज़ में ऐसी रिमझिम में ओ सजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन, तेरे ही, ख्वाब में, खो गए गवाया है वो गाने की खूबसूरती को और बढ़ा देता है।

सलिल दा उस ज़माने में भी आज के दौर की तरह पहले धुनें बनाते थे और बाद में उस पर गीत लिखवाते थे। उन्होंने अपनी कई धुनों का इस्तेमाल बंगाली और हिंदी दोनो भाषाओं के गीतों के लिए किया। यानि धुन एक और गीत के भाव अलग अलग। परख फिल्म के इस गीत की धुन भी उन्होंने पहले इस बंगाली गीत के लिए रची थी जिसे लता जी ने ही गाया था । तो आइए वो गीत भी सुनते चलें...



'एक शाम मेरे नाम' पर मौसम 'बारिशाना'

गुरुवार, जून 02, 2011

इब्ने इंशा और 'चाँद के तमन्नाई' !

चाँद की 'तमन्ना' करने वाले शायरों की कभी कमी नहीं रही। अब गुलज़ार की ही बात करें उनके गीत हों या नज़्में घूम फिर कर बात चाँद पर ही आ टिकती है। पर हर बार वो चाँद को एक अलग ही अंदाज़ अलग अलग रूपकों में इस खूबसूरती से हमारे समक्ष रखते हैं कि कुछ दोहराया हुआ सा नहीं लगता। बात गर पाकिस्तानी शायरों की हो तो चाँद प्रेमी शायरों में इब्ने इंशा भी आगे खड़े दिखाई देते हैं। चाँद इब्ने इंशा के प्रिय प्रतीकों में तो था ही उन्होंनें चाँद को केंद्रबिंदु में रखकर कई नज़्में  कहीं। मसलन कातिक का चाँद, उसी चाँद की खोज में, उदास रात के आँगन में, उस आँगन का चाँद। पर इब्ने इंशा की चाँद पर कही नज़्मों में मुझे चाँद के तमन्नाई पढ़ना सबसे ज़्यादा सुकून देता है।


तो चलिए आज आपको रूबरू करवाते हैं इब्ने इंशा की इस प्यारी नज़्म से पहले इसके भावों से और फिर अपनी आवाज़ से.....

शहर-ए-दिल की गलियों में
शाम से भटकते हैं
चाँद के तमन्नाई
बेक़रार सौदाई
दिलगुदाज़ तारीकी
जाँगुदाज़ तन्हाई
रूह-ओ-जाँ को डसती है
रूह-ओ-जाँ में बसती है


ये दिल एक चलता फिरता शहर ही तो है जिस की गलियों में दिल ओ जाँ को पिघलाने वाला अँधेरा है। और उसमें पसरी है दूर दूर तक फैली तन्हाई जो उस हँसी चाँद की खोज में बावले हुए दिलों को अंदर ही अंदर खाए जा रही है।

शहर-ए-दिल की गलियों में...
ताक़-ए-शब की बेलों पर
शबनमी सरिश्कों की
बेक़रार लोगों ने
बेशुमार लोगों ने
यादगार छोड़ी है
इतनी बात थोड़ी है ?
सदहज़ार बातें थीं
हील-ए-शकेबाई
सूरतों की ज़ेबाई
कामतों की रानाई
इन स्याह रातों में
एक भी न याद आई
जा-ब-जा भटकते हैं
किस की राह तकते हैं
चाँद के तमन्नाई


दिल की इन वादियों ने वो वसंत भी देखा था जब इन्हीं गलियों से तरह तरह के बनाव श्रृंगार के साथ वो खूबसूरत चेहरे गुजरा करते थे। रात की उगती बेलों पर इन हसी चेहरों की यादें ओस की बूँदे बन कर आज भी उभरा करती हैं। पर वो दिन तो कबके बीत गए। आज तो इस दिल में एक अजीब सी वीरानी है। पर मन है कि भटकना चाहता है इस उम्मीद में शायद वो चाँद फिर दिखे..।

ये नगर कभी पहले
इस क़दर न वीराँ था
कहने वाले कहते हैं
क़रिया-ए-निगाराँ था
ख़ैर अपने जीने का
ये भी एक सामाँ था

आज दिल में वीरानी
अब्र बन के घिर आई
आज दिल को क्या कहिए
बावफ़ा न हरजाई
फिर भी लोग दीवाने
आ गए हैं समझाने
अपनी वह्शत-ए दिल के
बुन लिये हैं अफ़साने
खुशख़याल दुनिया ने


दिल रूपी ये नगर इतना खाली खाली कभी ना था। ये तो एक प्यारा सा गाँव था जिसमें ज़िंदगी हँसी खुशी बसर हो रही थी। आज मन रूपी आकाश में एक तरह की शून्यता है जिसे उदासी के बादलों ने चारों ओर से घेर रखा है। हृदय के इस खाली घड़े में ना तो प्यार की कोई ज्योत जल रही है और ना ही बेवफाई से उपजी पीड़ा। पर लोगों का क्या है वो तो दिल के इस मिजाज़ को भांपे बिना अपनी खामखयाली से कितनी कहानियाँ गढ़ते जा रहे हैं।


गर्मियाँ तो जाती हैं
वो रुतें भी आती हैं
जब मलूल रातों में
दोस्तों की बातों में
जी न चैन पाएगा
और ऊब जाएगा
आहटों से गूँजेगी
शहर-ए-दिल की पिन्हाई
और चाँद रातों में
चाँदनी के शैदाई
हर बहाने निकलेंगे
आज़माने निकलेंगे
आरज़ू की गीराई
ढूँढने को रुसवाई
सर्द सर्द रातों को
ज़र्द चाँद बख्शेगा
बेहिसाब तन्हाई
बेहिजाब तन्हाई
शहर-ए-दिल की गलियों में...
शाम से भटकते हैं
चाँद के तमन्नाई


मौसम बीतते जाते हैं। गर्मियाँ सर्दियों में तब्दील हो गयी हैं। पर रातें तो वही हैं जिनमें अब सन्नाटों की गूँज है। दिल उन गमगीन रातों में  दोस्तों की सोहबत मे भी सुकून नहीं पाता। चाँदनी रातों में चाँद की आस रखने वाले ये एकाकी मन इसी तन्हाई में अपने आप को डुबो लेना चाहते हैं। अपने जज़्बातों को फिर से टटोलना चाहते हैं। शायद सर्दियों का ये पीला चाँद उनके मन की ये मुराद पूरी करे। वैसे भी उस चाँद से तनहा भला और कौन है?


 

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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