कनु दा से जुड़ी इस श्रृंखला की आख़िरी कड़ी में पेश है वो गीत जिसने उनके संगीत से मेरी पहली पहचान करवाई। अनुभव में यूँ तो गीता दत्त जी के तीनों नग्मे लाजवाब थे पर मुझे जाँ ना कहो मेरी जान.... की बात ही कुछ और है। रेडिओ से भी पहले मैंने ये गीत अपनी बड़ी दी से सुना था। गीता दत्त के दो नग्मे वो हमें हमेशा सुनाया करती थीं एक तो बाबूजी धीरे चलना... और दूसरा अनुभव फिल्म का ये गीत। तब गुलज़ार के बोलों को समझ सकने की उम्र नहीं थी पर कुछ तो था गीता जी की आवाज़ में जो मन को उदास कर जाता था।
आज जब इस गीत को सुनता हूँ तो विश्वास नहीं होता की गीता जी इस गीत को गाने के एक साल बाद ही चल बसी थीं। सच तो ये है कि जिस दर्द को वो अपनी आवाज़ में उड़ेल पायी थीं उसे सारा जीवन उन्होंने ख़ुद जिया था। इससे पहले कि मैं इस गीत की बात करूँ, उन परिस्थितियों का जिक्र करना जरूरी है जिनसे गुजरते हुए गीता दत्त ने इन गीतों को अपनी आवाज़ दी थी। महान कलाकार अक़्सर अपनी निजी ज़िंदगी में उतने संवेदनशील और सुलझे हुए नहीं होते जितने कि वो पर्दे की दुनिया में दिखते हैं। गीता रॉय और गुरुदत्त भी ऐसे ही पेचीदे व्यक्तित्व के मालिक थे। एक जानी मानी गायिका से इस नए नवेले निर्देशक के प्रेम और फिर 1953 में विवाह की कथा तो आप सबको मालूम होगी। गुरुदत्त ने अपनी फिल्मों में जिस खूबसूरती से गीता दत्त की आवाज़ का इस्तेमाल किया उससे भी हम सभी वाकिफ़ हैं।
पर वो भी यही गुरुदत्त थे जिन्होंने शादी के बाद गीता पर अपनी बैनर की फिल्मों को छोड़ कर अन्य किसी फिल्म में गाने पर पाबंदी लगा दी। वो भी सिर्फ इस आरोप से बचने के लिए कि वो अपनी कमाई पर जीते हैं। हालात ये थे कि चोरी छुपे गीता अपने गीतों की रिकार्डिंग के लिए जाती और भागते दौड़ते शाम से पहले घर पर मौज़ूद होतीं ताकि गुरुदत्त को पता ना चल सके। गुरुदत्त को एकांतप्रियता पसंद थी। वो अपनी फिल्मों के निर्माण में इतने डूब जाते कि उन्हें अपने परिवार को समय देने में भी दिक्कत होती। वहीं गीता को सबके साथ मिलने जुलने में ज्यादा आनंद आता। एक दूसरे से विपरीत स्वाभाव वाले कलाकारों का साथ रहना तब और मुश्किल हो गया जब गुरुदत्त की ज़िंदगी में वहीदा जी का आगमन हुआ। नतीजन पाँच सालों में ही उनका विवाह अंदर से बिखर गया। आगे के साल दोनों के लिए तकलीफ़देह रहे। काग़ज के फूल की असफलता ने जहाँ गुरुदत्त को अंदर से हिला दिया वहीं घरेलू तनाव से उत्पन्न मानसिक परेशानी का असर गीता दत्त की गायिकी पर पड़ने लगा। 1964 में गुरुदत्त ने आत्महत्या की तो गीता दत्त कुछ समय के लिए अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं। जब सेहत सुधरी तो तीन बच्चों की परवरिश और कर्ज का पहाड़ उनके लिए गंभीर चुनौती बन गया। शराब में अपनी परेशानियों का हल ढूँढती गीता की गायिकी का सफ़र लड़खड़ाता सा साठ के दशक को पार कर गया।
इन्ही हालातों में कनु राय, गीता जी के पास फिल्म अनुभव के गीतों को गाने का प्रस्ताव ले के आए। बहुत से संगीतप्रेमियों को ये गलतफ़हमी है कि कनु दा गीता दत्त के भाई थे। (गीता जी के भाई का नाम मुकुल रॉय था) दरअसल कनु दा और गीता जी में कोई रिश्तेदारी नहीं थी पर कनु उनकी शोख आवाज़ के मुरीद जरूर थे क्यूँकि अपने छोटे से फिल्मी कैरियर में उन्होंने लता जी की जगह गीता जी के साथ काम करना ज्यादा पसंद किया। गीता जी के जाने के बाद भी लता जी की जगह उन्होंने आशा जी से गाने गवाए। कनु दा के इस गीत में भी उनके अन्य गीतों की तरह न्यूनतम संगीत संयोजन है। जाइलोफोन (Xylophone) की तरंगों के साथ गुलज़ार के अर्थपूर्ण शब्दों को आत्मसात करती गीता जी की आवाज़ श्रोताओं को गीत के मूड से बाँध सा देती हैं।
आज जब इस गीत को सुनता हूँ तो विश्वास नहीं होता की गीता जी इस गीत को गाने के एक साल बाद ही चल बसी थीं। सच तो ये है कि जिस दर्द को वो अपनी आवाज़ में उड़ेल पायी थीं उसे सारा जीवन उन्होंने ख़ुद जिया था। इससे पहले कि मैं इस गीत की बात करूँ, उन परिस्थितियों का जिक्र करना जरूरी है जिनसे गुजरते हुए गीता दत्त ने इन गीतों को अपनी आवाज़ दी थी। महान कलाकार अक़्सर अपनी निजी ज़िंदगी में उतने संवेदनशील और सुलझे हुए नहीं होते जितने कि वो पर्दे की दुनिया में दिखते हैं। गीता रॉय और गुरुदत्त भी ऐसे ही पेचीदे व्यक्तित्व के मालिक थे। एक जानी मानी गायिका से इस नए नवेले निर्देशक के प्रेम और फिर 1953 में विवाह की कथा तो आप सबको मालूम होगी। गुरुदत्त ने अपनी फिल्मों में जिस खूबसूरती से गीता दत्त की आवाज़ का इस्तेमाल किया उससे भी हम सभी वाकिफ़ हैं।
पर वो भी यही गुरुदत्त थे जिन्होंने शादी के बाद गीता पर अपनी बैनर की फिल्मों को छोड़ कर अन्य किसी फिल्म में गाने पर पाबंदी लगा दी। वो भी सिर्फ इस आरोप से बचने के लिए कि वो अपनी कमाई पर जीते हैं। हालात ये थे कि चोरी छुपे गीता अपने गीतों की रिकार्डिंग के लिए जाती और भागते दौड़ते शाम से पहले घर पर मौज़ूद होतीं ताकि गुरुदत्त को पता ना चल सके। गुरुदत्त को एकांतप्रियता पसंद थी। वो अपनी फिल्मों के निर्माण में इतने डूब जाते कि उन्हें अपने परिवार को समय देने में भी दिक्कत होती। वहीं गीता को सबके साथ मिलने जुलने में ज्यादा आनंद आता। एक दूसरे से विपरीत स्वाभाव वाले कलाकारों का साथ रहना तब और मुश्किल हो गया जब गुरुदत्त की ज़िंदगी में वहीदा जी का आगमन हुआ। नतीजन पाँच सालों में ही उनका विवाह अंदर से बिखर गया। आगे के साल दोनों के लिए तकलीफ़देह रहे। काग़ज के फूल की असफलता ने जहाँ गुरुदत्त को अंदर से हिला दिया वहीं घरेलू तनाव से उत्पन्न मानसिक परेशानी का असर गीता दत्त की गायिकी पर पड़ने लगा। 1964 में गुरुदत्त ने आत्महत्या की तो गीता दत्त कुछ समय के लिए अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं। जब सेहत सुधरी तो तीन बच्चों की परवरिश और कर्ज का पहाड़ उनके लिए गंभीर चुनौती बन गया। शराब में अपनी परेशानियों का हल ढूँढती गीता की गायिकी का सफ़र लड़खड़ाता सा साठ के दशक को पार कर गया।
इन्ही हालातों में कनु राय, गीता जी के पास फिल्म अनुभव के गीतों को गाने का प्रस्ताव ले के आए। बहुत से संगीतप्रेमियों को ये गलतफ़हमी है कि कनु दा गीता दत्त के भाई थे। (गीता जी के भाई का नाम मुकुल रॉय था) दरअसल कनु दा और गीता जी में कोई रिश्तेदारी नहीं थी पर कनु उनकी शोख आवाज़ के मुरीद जरूर थे क्यूँकि अपने छोटे से फिल्मी कैरियर में उन्होंने लता जी की जगह गीता जी के साथ काम करना ज्यादा पसंद किया। गीता जी के जाने के बाद भी लता जी की जगह उन्होंने आशा जी से गाने गवाए। कनु दा के इस गीत में भी उनके अन्य गीतों की तरह न्यूनतम संगीत संयोजन है। जाइलोफोन (Xylophone) की तरंगों के साथ गुलज़ार के अर्थपूर्ण शब्दों को आत्मसात करती गीता जी की आवाज़ श्रोताओं को गीत के मूड से बाँध सा देती हैं।
गुलज़ार शब्दों के खिलाड़ी है। कोई भी पहली बार इस गीत के मुखड़े को सुन कर बोलेगा ये जाँ जाँ क्या लगा रखी है। पर ये तो गुलज़ार साहब हैं ना ! वो बिना आपके दिमाग पर बोझ डाले सीधे सीधे थोड़ी ही कुछ कह देंगे। कितनी खूबसूरती से जाँ (प्रियतम)और जाँ यानि (जान,जीवन) को एक साथ मुखड़े में पिरोया हैं उन्होंने। यानि गुलज़ार साहब यहाँ कहना ये चाह रहे हैं कि ऐसे संबोधन से क्या फ़ायदा जो शाश्वत नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं वो तो अनजान हैं ..इस सत्य से। वैसे भी कौन स्वेच्छा से इस शरीर को छोड़ कर जाना चाहता है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को
मेरी जाँ, मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ, मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ, मेरी जाँ
जाँ न कहो अनजान मुझे
जान कहाँ रहती है सदा
अनजाने, क्या जाने
जान के जाए कौन भला
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ ...
अगले अंतरों में गुलज़ार एकाकी दिल की व्यथा और उसके प्रेम की पाराकाष्ठा को व्यक्त करते नज़र आते हैं। साथ ही अंत में सुनाई देती है गीता जी की खनकती हँसी जो उनके वास्तविक जीवन से कितनी विलग थी।
सूखे सावन बरस गए
कितनी बार इन आँखों से
दो बूँदें ना बरसे
इन भीगी पलकों से
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ ...होंठ झुके जब होंठों पर
साँस उलझी हो साँसों में
दो जुड़वाँ होंठों की
बात कहो आँखों से
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ ...
गीता दत्त और कनु रॉय ने जो प्रशंसा अनुभव के गीतों से बटोरी उसका ज्यादा फ़ायदा वे दोनों ही नहीं उठा सके। अनुभव के बाद भी गीता जी ने फिल्म रात की उलझन ,ज्वाला व मिडनाइट जैसी फिल्मों में कुछ एकल व युगल गीत गाए पर 1972 में गीता जी के लीवर ने जवाब दे दिया और उनकी आवाज़ हमेशा हमेशा के लिए फिल्मी पर्दे से खो गई।
वहीं कनु रॉय भी बासु दा की छत्रछाया से आगे ना बढ़ सके। दुबली पतली काठी और साँवली छवि वाला ये संगीतकार जीवन भर अंतरमुखी रहा। उनके साथ काम करने वाले भी उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कम ही जानते थे। इतना जरूर है कि वे अविवाहित ही रहे। आभाव की ज़िंदगी ने उनका कभी साथ ना छोड़ा। उसकी कहानी (1966) से अनुभव, आविष्कार, गृहप्रवेश, श्यामला से चलता उनका फिल्मी सफ़र स्पर्श (1984) के संगीत से खत्म हुआ। पर जो मेलोडी उन्होंने मन्ना डे और गीता दत्त की आवाज़ों के सहारे रची उसे शायद ही संगीतप्रेमी कभी भूल पाएँ।
वहीं कनु रॉय भी बासु दा की छत्रछाया से आगे ना बढ़ सके। दुबली पतली काठी और साँवली छवि वाला ये संगीतकार जीवन भर अंतरमुखी रहा। उनके साथ काम करने वाले भी उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कम ही जानते थे। इतना जरूर है कि वे अविवाहित ही रहे। आभाव की ज़िंदगी ने उनका कभी साथ ना छोड़ा। उसकी कहानी (1966) से अनुभव, आविष्कार, गृहप्रवेश, श्यामला से चलता उनका फिल्मी सफ़र स्पर्श (1984) के संगीत से खत्म हुआ। पर जो मेलोडी उन्होंने मन्ना डे और गीता दत्त की आवाज़ों के सहारे रची उसे शायद ही संगीतप्रेमी कभी भूल पाएँ।