सोमवार, अक्तूबर 22, 2012

जगजीत, हसरत और कहकशाँ : तोड़कर अहद-ए-करम ना आशना हो जाइए

हसरत मोहानी का जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे मोहान में हुआ था। स्नातक की पढ़ाई करने के लिए हसरत अलीगढ़ गए और वहीं उनकी दिलचस्पी उर्दू शायरी में हुई। कॉलेज के बाद हसरत राजनीति में सक्रिय हो गए। उनकी विचारधारा कांग्रेस के गरम पंथियों से ज्यादा करीब रही। तिलक और अरविंदो घोष जैसे नेताओं से वे बेहद प्रभावित रहे। अपने रुख को वो अपने लेखों और कविताओं में व्यक्त करते रहे। नतीजन अंग्रेजों ने उनकी प्रिटिंग प्रेस बंद करा दी। हसरत ने फिर भी हार नहीं मानी और अपनी जीविका चलाने के लिए स्वदेशी वस्तुओं की दुकान खोल ली। अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा उन्हें जेल में बिताना पड़ा। पर इन कठोर परिस्थितियों में रहते हुए भी उनकी कविता में जीवन के प्रति नैराश्य नहीं उभरा। बल्कि इसके विपरीत उनकी लिखी रूमानी शायरी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अंग्रेजों की क़ैद में ही सृजित हुआ।

के सी कांदा अपनी किताब Masterpieces of Urdu Ghazal में हसरत मोहानी की शायरी के बारे में एक रोचक टिप्पणी करते हैं। कांदा ने लिखा है..
हसरत के कथन में बेबाकी है चाहे वो राजनीति की बात करें या फिर प्रेम की। हसरत ने अपनी ग़ज़लों में एक ऐसी नायिका की तसवीर खड़ी की जिसके जज़्बात किसी आम लड़की के सपनों और भावनाओ को व्यक्त करते थे। उनकी कविताएँ आम परिस्थितियों से उभरती हुई बोलचाल की भाषा में अपना सफ़र तय करती हैं। इसलिए उनकी ग़ज़लों में फ़ारसी के शब्दों का हुजूम नहीं है।
कहकशाँ में यूँ तो हसरत मोहानी की लिखी पाँच ग़ज़लें हैं पर उनमें से तीन बेहद मशहूर हुयीं। चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है को सुना कर तो ग़ुलाम अली साहब ने कितनों को अपनी गायिकी का दीवाना बना लिया। वही रोशन जमाल ए यार से है अंजुमन तमाम की रूमानियत को जगजीत की आवाज़ में महसूस कर ग़ज़ल प्रेमियों का दिल बाग बाग होता रहा। पर हसरत मोहानी के जिस अंदाजे बयाँ का उल्लेख के सी कांदा ने अपनी किताब में किया है वो उनकी ग़ज़ल तोड़कर अहद-ए-करम नाआशना हो जाइये में सबसे ज्यादा उभरकर आया है। हसरत मोहानी ने इस ग़ज़ल में बातचीत के लहज़े में अशआरों को कहते हुए इतनी खूबसूरती से आख़िरी शेर कहा है कि बस मन खुश हो जाता है।

तो आइए समझने की कोशिश करते हैं कि क्या कहना चाह रहे हैं हसरत इस ग़ज़ल में..

तोड़कर अहद-ए-करम ना आशना हो जाइए
बंदापरवर जाइये अच्छा ख़फ़ा हो जाइए

राह में मिलिये कभी मुझ से तो अज़राह-ए-सितम
होंठ अपने काटकर फ़ौरन जुदा हो जाइए

हमारे दिल ने तो आपको अपना रखवाला माना है। पर क्या कहें अगर इतना सब कहने के बाद भी आपके दिल में मेरे लिए नाराजगी है तो फिर मोहब्बत में किए गए उस वादे को तोड़कर बंधन मुक्त हो जाइए। आपकी सुंदरता की क्या तारीफ़ करूँ, बस इतना ही कहूँगा कि आपके चलने से तो राहों पे बिजलियाँ गिरती हैं। अगर भूल से किसी रास्ते पर आमना सामना हो भी जाए तो बस गुस्से में अपने होठ काटने की अदा दिखलाती हुए बस आँखों से ओझल हो जाइएगा।

जी में आता है के उस शोख़-ए-तग़ाफ़ुल केश से
अब ना मिलिये फिर कभी और बेवफ़ा हो जाइए

क्या कहूँ उस दिलकश बाला की इस लगातार बेरुखी ने दिल इतना खट्टा कर दिया है कि सोचता हूँ मैं उससे ना मिलूँ। आख़िर जब उसने वफ़ा का दामन छोड़ ही रखा है तो अब अगर मैं भी बेवफ़ाई पर उतर जाऊँ तो उसमें हर्ज ही क्या है?

हाये रे बेइख़्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर,
उस सरापा नाज़ से क्यूंकर ख़फ़ा हो जाइए


हसरत ग़ज़ल के आखिरी शेर में नायक का विचारक्रम तोड़ते हैं और मन ही मन उसे क्षोभ होता है कि हे भगवन अपनी प्रियतमा के बारे में मैं ये क्या ऊलजुलूल सोच रहा था? इस बेइख़्तियारी ने  मेरे दिमाग को ही अवश कर दिया है। आख़िर सर से पाँव तक खूबसूरत उस नाजुक परी से मैं  क्यूँ ख़फ़ा होने लगा?

बिना संगीत की इस ग़ज़ल में जगजीत जी की मधुर स्वर लहरी विशुद्ध रूप में आपके कानों तक पहुँचती है। तो देर किस बात की आइए सुनते हैं इस ग़ज़ल को..

एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

शनिवार, अक्तूबर 13, 2012

जगजीत,जोश और कहकशाँ : तुझसे रुख़सत की वो शाम-ए-अश्क़-अफ़शाँ हाए हाए

कहकशाँ पर आधारित इस श्रृंखला में आज जिक्र जोश मलीहाबादी का। इक ज़माना था जब कहकशाँ में शामिल इस ग़ज़ल की उदासी दिल में समाती हुई आँखों तक तैर जाती थी। सोचता था किसी नाजुक हृदय वाले शख़्स ने ही ये अशआर कहे होंगे। कितना गलत था मैं! जोश साहब के जमींदारी डील डौल को देख कर भला कौन कहता कि ये शायर ऐसी कविताएँ लिख सकता होगा। 

1894 में उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद में जन्मे जोश मलीहाबादी ने कहने को तो इंकलाबी और रूमानी दोनों तरह की शायरी की पर अधिकांश समीक्षक उनकी रूमानी शायरी को ज्यादा तवज़्जह देते हैं। ख़ैर मैं बात कर रहा था जोश के व्यक्तित्व की। जोश का जन्म एक ऐसे रईस जमींदारों के खानदान में हुआ जहाँ एक ओर तो बाप दादाओं की शायरी की विरासत थी तो दूसरी ओर सामंती वातावरण में पनपता दमन का माहौल भी था। जोश ने नौ साल की उम्र से शेर कहने शुरु कर दिए पर साथ ही साथ उनमें बड़े घर का होने का अहम भी सवार हो गया। अपनी आत्मकथा यादों की बारात में जोश अपने बचपन का जिक्र करते हुए कहते हैं
"..मैं लड़कपन में बेहद बदमिज़ाज था। गुस्से की हालत ये थी कि मन के खिलाफ़ कोई बात हुई नहीं कि मेरे रोएँ रोएँ से चिंगारियाँ निकलने लगती थीं। मेरा सबसे प्यारा शगल ये था कि एक ऊँची सी मेज़ पर बैठकर अपने हमउम्र बच्चों को जो भी जी में आता अनाप शनाप पाठ दिया करता था। पाठ देते वक़्त मेरी मेज़ पर एक पतली सी छड़ी रखी रहती थी और जो बच्चा ध्यान से मेरा पाठ नहीं सुनता था उसे मैं छड़ी से इस बुरी तरह पीटता था कि वो बच्चा चीखें मार मार कर रोने लगता था। .."
पर इस उद्दंडता के साथ जोश के  स्वभाव में भावुकता भी घर करने लगी थी। शायद इसी भावुकता और हठी स्वभाव की वज़ह से युवावस्था में वे अपने पिता की छत्रछाया से निकलकर अपना एक अलग ही निशाँ ढूँढने लगे। जोश उर्दू व्याकरण के अच्छे जानकार थे। अपने बच्चों को इस भाषा से जुदा ना होना पड़े इसलिए आज़ादी के दस साल अपना वतन छोड़ कर वो सरहद पार चले गए। जोश अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उनके पिता बशीर अहमद खाँ बशीर ज़बान के बारे में मशहूर शायर दाग़ की इस बात के क़ायल थे

उसको कहते हैं ज़बाने उर्दू
जिसमें ना पुट हो फ़ारसी का 


पर मज़े की बात ये है कि इतना सब होते हुए भी उनकी ख़ुद की शायरी में अरबी और फ़ारसी के शब्दों की भरमार है।  तो लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर। जोश साहब का हर शेर क़माल का है और आख़िरी शेर का तो कहना ही क्या ! बस पढ़ कर वाह वाह ही निकलती है।तो आइए देखें अपने प्रियतम से जुदा होने की बेला को उन्होंने अपनी इस ग़ज़ल में कैसे ढाला है?

तुझसे रुख़सत की वो शाम-ए-अश्क़-अफ़शाँ हाए हाए,
वो उदासी वो फ़िज़ा-ए-गिरिया सामा हाए हाए,


मुझे याद है विदाई की वो शाम जब तुम्हारी आँखों से आँसू की बूँदे छलकी जा रही थीं। पूरे वातावरण में फैली उदासी और सबका रोना धोना सुन कर मेरा दिल ज़ार ज़ार हुआ जा रहा था।

याँ कफ़-ए-पा चूम लेने की भिंची सी आरज़ू,
वाँ बगलगीरी का शरमाया सा अरमान हाए हाए,


वो मैं ही जानता हूँ कि किस तरह हम दोनों ने अपने दिल जुदाई की उन मुश्किल घड़ियों में काबू किए थे। उफ्फ तुम्हारी उन नाज़ुक हथेलियों को चूमने की मेरी हसरत, और वो तुम्हारी मुझसे गले मिलने की चाहत ...शर्म और लिहाज़ के आवरण में बस एक ख़्वाहिश बन कर ही रह गयी।

वो मेरे होंठों पे कुछ कहने की हसरत वाए शौक़,
वो तेरी आँखों में कुछ सुनने का अरमान हाए हाए,


धिक्कार है ऐसे प्रेम को जो इतनी भी हिम्मत ना जुटा सका कि दिल की बातें होठों पे ले आता। तुम्हारी आँखें कुछ ना कहते हुए भी सब कह गयीं। तुम्हारी उस कातर दृष्टि में मेरे होठों से वो सब ना सुन पाने की जो शिकायत थी उसे मैं किस तरह भुला पाऊँगा।

सच कहूँ तो जब मैं इस ग़जल में प्रयुक्त अरबी फ़ारसी शब्दों का अर्थ नहीं जानता था तब भी ये ग़ज़ल मुझे उतना ही संजीदा करती थी जितना की आज करती है। ये जादू जगजीत की आवाज़ का था जो ग़ज़ल में समाए दर्द को बिना किसी मुश्किल के आँख की कोरों तक पहुँचा दिया करता था। ये विशेषता होती है इक काबिल फ़नकार की जो जगजीत की आवाज़ में कूट कूट कर भरी थी। तो आइए सुनते हैं जगजीत जी की आवाज़ में जोश मलीहाबादी की ये ग़ज़ल


एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

मंगलवार, अक्तूबर 09, 2012

जगजीत सिंह और कहकशाँ : देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात..

जगजीत जी को गुजरे एक साल होने को आया है। दस अक्टूबर को उनकी पहली बरसी है। जगजीत ऐसे तो यूँ दिल में बसे हैं कि उनकी गायी ग़ज़लें या नज़्में कभी होठों से दूर नहीं गयीं और इसीलिए एक शाम मेरे नाम पर उनके एलबमों का जिक्र होता रहा है। पर जगजीत जी के कुछ एलबम बार बार चर्चा करने के योग्य रहे हैं और कहकशाँ उनमें से एक है।

यूँ तो दूरदर्शन के इस धारावाहिक में प्रस्तुत अपनी कई पसंदीदा ग़ज़लों और नज्मों मसलन मजाज़ की आवारा, हसरत मोहानी की रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम और फिराक़ गोरखपुरी की अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं की चर्चा पहले ही इस ब्लॉग पर हो चुकी है। पर कहकशाँ ग़ज़लों और नज़्मों का वो गुलिस्तां है जिसकी झोली में ऐसे कितने ही फूल हैं जिसकी खुशबू को इस महफिल में फैलाना बेहद जरूरी है। जगजीत जी की पहली बरसी के अवसर पर इस चिट्ठे पर अगले कुछ हफ्तों में आप सुनेंगे इस महान ग़ज़ल गायक के धारावाहिक कहकशाँ से चुनी कुछ पसंदीदा ग़ज़लें और नज़्में

तो शुरुआत मजाज़ लखनवी की एक रूमानी ग़ज़ल से। मजाज़ व्यक्तिगत जीवन के एकाकीपन के बावज़ूद अपनी ग़ज़लों में रूमानियत का रंग भरते रहे। अब उनकी इस ग़ज़ल को ही देखें जो आज की रात नाम से उन्होंने 1933  में लिखी थी। मजाज़ ने अपनी ग़ज़ल में 17 शेर कहे थे। जगजीत ने उनमें से चार अशआर चुने। ये उनकी अदाएगी का असर है कि जब भी उनकी ये ग़ज़ल सुनता हूँ हर शेर के साथ उनका मुलायमियत से कहा गया आज की रा...त बेसाख्ता होठों से निकल पड़ता है। अब जब जगजीत जी की इस ग़ज़ल का जिक्र आया है तो क्यूँ ना मजाज़ की लिखी इस ग़ज़ल के 17 तो नहीं पर चंद खूबसूरत अशआर से आपकी मुलाकात कराता चलूँ।


ग़ज़ल का मतला सुन कर ही दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। आपके कंधे पर उनका सर हो तो इतना तो मान कर चलिए कि वो आपसे बेतक्कलुफ़ हो चुके हैं। कितना प्यारा अहसास जगाती  हैं ये पंक्तियाँ 

देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात
मेरे शाने पे है उस शोख़ का सर आज की रात

अब इस घायल दिल को और क्या चाहिए देख तो लिया उन्होंने  आज एक अलग ही अंदाज़ में.. अब तो समझ ही नहीं आता देखूँ तो कहाँ देखूँ हर तरफ तो उनके हुस्न का जलवा है।

और क्या चाहिए अब ये दिले मजरूह तुझे
उसने देखा तो ब अंदाज़े दिगर आज की रात

नूर ही नूर है किस सिम्त उठाऊँ आँखें
हुस्न ही हुस्न है ता‍‌-हद्दे- नज़र आज की रात

अरे ये तो मेरी इन चंचल निगाहों का कमाल है जिसने उनके गालों को सुबह की लाली के समान सुर्ख कर दिया है।  गीत का माधुर्य और शराब का नशा मुझे मदहोश कर रहा है। मेरी मधुर रागिनी  का ही असर है जिसने उनकी आँखों में एक ख़ुमारी भर दी है।

आरिज़े गर्म पे वो रंग ए शफक़ की लहरें
वो मिरी शोख़‍‍-निगाही का असर आज की रात

नगमा-ओ-मै का ये तूफ़ान-ए-तरब क्या कहना
मेरा घर बन गया ख़ैयाम का घर आज की रात

नरगिस-ए-नाज़ में वो नींद का हलका सा ख़ुमार
वो मेरे नग़्म-ए-शीरीं का असर आज की रात

मेरी हर धड़कन पर उनकी नज़र है और मेरी हर बात पर उनका स्वीकारोक्ति में सर हिलाना इस रात को मेरे लिए ख़ास बना रहा है। ये उनकी मेहरबानी का ही जादू है कि आज मैं अपने दिल को पहले से ज्यादा प्रफुल्लित और हलका महसूस कर रहा हूँ

मेरी हर साँस पे वह उनकी तवज़्जह क्या खूब
मेरी हर बात पे वो जुंबिशे सर आज की रात

उनके अल्ताफ़ का इतना ही फ़ुसूँ काफी है
कम है पहले से बहुत दर्दे जिगर आज की रात

और चलते चलते इसी माहौल को कायम रखते हुए असग़र गोंडवी की ग़ज़ल के अशआर। गोंडा से ताल्लुक रखने वाले असग़र और मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी की पत्नियाँ आपस में बहनें थीं और कहते हैं कि जिगर असग़र को अपना उस्ताद मानते थे।  जगजीत जी ने इस ग़ज़ल को भी उसी संज़ीदगी से गाया है जिनकी वो हक़दार हैं


नज़र वो है कि कौन ओ मकाँ के पार हो जाए
मगर जब रूह ए ताबाँ पर पड़े बेकार हो जाए
(यानि आँखों का तेज़ ऐसा हो कि वो आसमाँ और जमीं की हदों को पार कर जाए पर जब किसी पवित्र आत्मा पर पड़े तो ख़ुद ब ख़ुद अपनी तीव्रता, अपनी चुभन खो दे।)

नज़र उस हुस्न पर ठहरे तो आखिर किस तरह ठहरे
कभी जो फूल बन जाए कभी रुखसार* हो जाए

चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज़-ए-हवादिस** से
अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुशवार हो जाए

*चेहरा  ** खतरों की लहरों

कहकशाँ में गाई ग़ज़लों की ख़ासियत ये है कि वे चुने हुए शायरों की प्रतिनिधि रचनाएँ तो हैं ही साथ ही साथ ज्यादातर ग़ज़लों में जगजीत की आवाज़ ना के बराबर संगीत संयोजन के बीच कानों तक पहुँचती है। इसीलिए उन्हें बार बार सुनने को जी चाहता है। कहकशाँ में गाई जगजीत की ग़ज़लों का सिलसिला आगे भी चलता रहेगा...
एक शाम मेरे नाम पर जब जब गूँजी जगजीत की आवाज़
  1. धुन पहेली : पहचानिए जगजीत की गाई मशहूर ग़ज़लों के पहले की इन  धुनों को !
  2. क्या रहा जगजीत की गाई ग़ज़लों में 'ज़िंदगी' का फलसफ़ा ?
  3. जगजीत सिंह : वो याद आए जनाब बरसों में...
  4. Visions (विज़न्स) भाग I : एक कमी थी ताज महल में, हमने तेरी तस्वीर लगा दी !
  5. Visions (विज़न्स) भाग II :कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?
  6. Forget Me Not (फॉरगेट मी नॉट) : जगजीत और जनाब कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी
  7. जगजीत का आरंभिक दौर, The Unforgettable (दि अनफॉरगेटेबल्स) और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...
  8. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 1
  9. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 2
  10. अस्सी के दशक के आरंभिक एलबम्स..बातें Ecstasies , A Sound Affair, A Milestone और The Latest की
  11. अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ...क़तील शिफ़ाई,
  12. आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है...सुदर्शन फ़ाकिर
  13. ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ? ... मज़ाज लखनवी
  14. क्या बतायें कि जां गई कैसे ? ...गुलज़ार
  15. ख़ुमार-ए-गम है महकती फिज़ा में जीते हैं...गुलज़ार
  16. 'चराग़-ओ-आफ़ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी...सुदर्शन फ़ाकिर,
  17. परेशाँ रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ...क़तील शिफ़ाई,
  18. फूलों की तरह लब खोल कभी..गुलज़ार 
  19. बहुत दिनों की बात है शबाब पर बहार थी..., सलाम 'मछलीशेहरी',
  20. रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम... हसरत मोहानी
  21. शायद मैं ज़िन्दगी की सहर ले के आ गया...सुदर्शन फ़ाकिर
  22. सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं...क़तील शिफ़ाई, 
  23. हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...राही मासूम रज़ा 
  24. फूल खिला दे शाखों पर पेड़ों को फल दे मौला
  25. जाग के काटी सारी रैना, गुलज़ार
  26. समझते थे मगर फिर भी ना रखी दूरियाँ हमने...वाली असी

सोमवार, अक्तूबर 01, 2012

राही मासूम रज़ा और टोपी शुक्ला : क्या इस देश में हिंदुस्तानी होना गुनाह है?

राही मासूम रज़ा एक ऐसे उपन्यासकार थे जिनकी किताबों से गुज़रकर हिंदुस्तानियत को और करीब से पढ़ा, समझा और महसूस किया जा सकता है। असंतोष के दिन और आधा गाँव तो कुछ वर्षों पहले पढ़ चुका था। कुछ महिने पहले मैंने उनकी किताब टोपी शुक्ला पढ़कर खत्म की। दरअसल रज़ा साहब ने किताब का नाम ही कुछ ऐसा रखा था कि पिछले साल के पुस्तक मेले में इसे खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाया था। मन में पहला सवाल यही आया था कि आख़िर क्या बला है ये टोपी शुक्ला?

किताब के पहले कुछ पन्ने उलटने के बाद ही लेखक से मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था। पुस्तक के नायक बलभद्र नारायण शु्क्ला के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में टोपी शुक्ला कहलाए जाने का किस्सा रज़ा साहब कुछ यूँ बयाँ करते हैं..

"यूनिवर्सिटी यूनियन में नंगे सर बोलने की परंपरा नहीं थी। टोपी की ज़िद कि मैं तो टोपी नहीं पहनूँगा। इसलिए होता यह कि यह जैसे ही बोलने खड़े होते सारा यूनियन हाल एक साथ  टोपी टोपी का नारा लगाने लगता। धीरे धीरे टोपी और बलभद्र नारायण का रिश्ता गहरा होने लगा। नतीजा यह हुआ कि बलभद्र को छोड़ दिया गया और इन्हें टोपी शुक्ला कहा जाने लगा।"

लेखक का टोपी की कथा कहने का तरीका मज़ेदार है। टोपी की कथा ना उसके शुरुआती जीवन से शुरु होती है और ना ही उसकी मृत्यु के फ्लैशबैक से। उपन्यास का आरंभ टोपी के जीवन के मध्यांतर से होता है यानि जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए टोपी बनारस से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पहुँचता है। रज़ा 115 पृष्ठों के इस उपन्यास में टोपी के जीवन को अपनी मर्जी से फॉस्ट फारवर्ड और रिवर्स करते रहे हैं। पर कमाल इस बात का है कि कथन की रोचकता बनाए हुए भी अपने मूल प्रश्न से वो भटके नहीं है जो उनके दिल को हमेशा से कचोटता रहा है। इस सवाल से हम सभी वाकिफ़ हैं। आख़िर इस देश के लोगों की पहचान उनकी जाति या धर्म से होकर ही क्यूँ है? टोपी शुक्ला जैसे लोग जिन्होंने हिंदुस्तानियत का अक़्स लेकर अपने जीवन मूल्य निश्चित किए उनको ये देश कब उनकी वाज़िब पहचान देगा?

पर टोपी अपने जीवन में सदा से गंगा जमुनी तहज़ीब को मानते रहे ऐसा भी नहीं था। ये होता भी तो कैसे ? अपने बाल जीवन में अपने आस पास इतने विरोधाभासों को देखने वाला इन मामलों में कोई पुख्ता और तार्किक राय बना भी कैसे सकता था? घर वाले मियाँ का छूआ भले ना खाते हों पर पिता वा दादी उनकी बोली धड़ल्ले  से बोलते थे। टोपी के पिता के बारे में लेखक की ये टिप्पणी इस दोहरेपन को बड़ी बखूबी सामने लाती है
"डा पंडित भृगु नारायण नीले तेल वाले धुली हुई उर्दू बोलते थे और उर्दू के कट्टर विरोधी थे। इंशा अल्लाह, माशा अल्लाह और सुभान अल्लाह के नीचे बात नहीं करते थे। मुसलमानों से नफ़रत करते थे। पर इसलिए नहीं कि उन्होंने भारत की प्राचीन सभ्यता को नष्ट किया है और पाकिस्तान बना लिया है। बल्कि इसलिए कि उनका मुकाबला डा. शेख शरफ़ुद्दीन लाल तेल वाले से था। यह डा.शरफ़ुद्दीन उनके कम्पाउण्डर हुआ करते थे। शेख शरफ़ुद्दीन की हरक़त ये रही कि उन्होंने नीले तेल का रंग बदल दिया और डाक्टर बनकर पब्लिक को दोनों हाथों से लूटने लगे।"
टोपी कुरूप थे तो इसमें उनका क्या कसूर ? माता पिता, भाइयों और दादी से जिस स्नेह की उम्मीद की वो उन्हें मिली भी तो अपने मुस्लिम दोस्त इफ़्फन व उसकी दादी से। कलक्टर का बेटा होने के बावज़ूद इफ़्फन ने टोपी के साथ कभी भेद भाव नहीं किया। यहाँ तक की अपनी नई चमचमाती साइकिल भी खेलने को दी। साइकिल के सपनों को सँजोए जब टोपी घर पहुँचा तो वहाँ रामदुलारी के यहाँ तीसरा बच्चा हो रहा था।
"भाई होई की बहिन ? एक नौकरानी ने पूछा
साइकिल ना हो सकती का ! टोपी ने सवाल किया

बूढ़ी नौकरानी हँसते हँसते लोटपोट हो गई। माँ रामदुलारी मुस्कुरा दी। दादी सुभ्रदादेवी ने नफ़ीस उर्दू में टोपी की मूर्खता का रोना रो लिया। परंतु किसी ने नहीं सोचा कि टोपी को एक अदद साइकिल की जरूरत है।"
टोपी के दिल को कोई समझता था तो वो थी इफ़्फन और उसकी दादी। दादी अचानक परलोक सिधार गयीं और इफ़्फन के पिता का तबादला हो गया। टोपी फिर अकेला हो गया। कोई अचरज़ नहीं कि ऐसे हालातों में जब टोपी जनसंघियों के संपर्क में आया तो जनसंघी हो गया। अपने पिता की ही तरह उसका जनसंघ प्रेम विचारधारा से ना होकर उसके जीवन की तत्कालीन परिस्थितियों से था। लाल तेल वाले का बेटा कक्षा में अव्वल आए और नीले तेल वाले असली डाक्टर का बेटा फेल हो जाए तो टोपी की रही सही इज़्जत का दीवाला तो पिटना ही था। सो उसने इस घटना से ये निष्कर्ष निकाला कि जब तक इस देश में मुसलमान हैं तब तक हिंदू चैन की साँस नहीं ले सकता।

पर लेखक इस मानसिकता से मुसलमानों को भी अछूता नहीं पाते। अब इफ़्फन के दादा परदादाओं के बारे  में बात करते हुए कहते हैं
इफ़्फ़न के दादा और परदादा मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परंतु वसीयत करके मरे कि लाश करबला ले जाई जाए। उनकी आत्मा में इस देश में एक साँस तक ना ली।
राही मासूम रज़ा इस किताब में जिस बेबाकी से हमारी सोच और मान्यताओं पर व्यंग्यात्मक चोट करते हैं वो देखते ही बनता है। मिसाल के तौर पर कुछ बानगियाँ देखें..
"सेठ साहब की बेटी लाजवंती बड़ी अच्छी लड़की थी। बस एक आँख ज़रा खराब थी। बाएँ पैर को घसीटकर चलती थीं। रंग ज़रा ढँका हुआ था। और मुँह पर माता के निशान थे। परंतु इन बातों से क्या होता है? शरीफ़ लोगों में कहीं बहुओं की सूरत देखी जाती है। सूरत तो होती है रंडी की। बीवी की तो तबियत देखी जाती है।"

"रंग बदलने से आदमी का क्या क्या हो जाता है। टोपी एक ही है। सफ़ेद हो तो आदमी कांग्रेसी दिखाई देता है , लाल हो तो समाजवादी और केसरी हो तो जनसंघी।"

"इश्क का तअल्लुक दिलों से होता है और शादी का तनख़्वाहों से। जैसी तनख्वाह होगी वैसी ही बीवी मिलेगी। "

"अगर किसी टीचर की बीवी किसी स्टूडेंट से फँसी हुई होतो उसका पढ़ा लिखा या ज़हीन होना बेकार है। वह रीडर बन ही नहीं सकता।"
अलीगढ़ जाकर टोपी अपने पुराने दोस्त इफ़्फन और उसकी बीवी सकीना से मिल पाता है और उसकी जनसंघी विचारधारा कम्युनिस्टों की सोहबत में एक नए रंग में रँग जाती है। आगे की कहानी विश्वविद्यालय की राजनीति, सक़ीना से टोपी के संबंधों की अफ़वाहों और उससे टोपी के मन में उपजे मानसिक क्षोभ का चित्रण करती है। रज़ा इस पुस्तक में हिंदू और मुसलमानों क बीच के आपसी अविश्वास और उनके पीछे के कारणों को अपने मुख्य किरदार टोपी और उसके परम मित्र इफ़्फन और सकीना के माध्यम से बाहर लाते हैं। उपन्यास का अंत टोपी की आत्महत्या से होता है। टोपी को ये कदम क्यूँ उठाना पड़ा ये तो आप राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास में पढ़ ही लेंगे पर ख़ुद लेखक इस बारे में क्या कहते हैं चलते चलते ये बताना शायद मेरे या हम सब के लिए बेहद जरूरी होगा..
"मुझे यह उपन्यास लिख कर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई। क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है। परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था। यह टोपी मैं भी हूं और मेरे ही जैसे और बहुत से लोग भी हैं। हम लोग कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर "कम्प्रोमाइज़" कर लेते हैं। और इसीलिए हम लोग जी रहे हैं। टोपी कोई देवता या पैग़म्बर नहीं था। किंतु उसने "कम्प्रोमाइज़" नहीं किया और इसीलिए आत्महत्या कर ली।"
 

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