गुरुवार, नवंबर 29, 2012

रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने..चोपिन से प्रेरित सलिल दा की यादगार धुन

सलिल दा संगीत निर्देशित और योगेश द्वारा लिखे दार्शनिकता लिए (यानि फिलासफिकल) गीतों की श्रृंखला का तीसरा नग्मा है फिल्म अन्नदाता का। सलिल दा के संगीत निर्देशित गीतों में इसे जटिलतम गीतों में से एक माना जाता है। अगर सलिल दा की धुनों को जलेबी की तरह घुमावदार माना जाता था तो ये गीत उस परिभाषा में सहज ही शामिल हो जाता है। पर इस गीत की बात करने के पहले सलिल दा को इस गीत की प्रेरणा देने वाले शख़्स के बारे में बताना जरूरी है।

सलिल दा ने ये धुन पोलैंड के संगीतकार फ्रेडेरिक चोपिन (Frédéric Chopin) की धुन से प्रेरित होकर बनाई थी। चोपिन एक माहिर पियानो वादक थे। बीस साल तक पोलैंड में रहने के बाद वो फ्रांस चले गए। यूरोप के विभिन्न देशों में किए उनके कॉन्सर्ट लोकप्रिय हुए। उनकी ज्यादातर धुनें सोलो पियानों पर हैं। आज भी पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के रसिया उनकी रोमांटिक धुनों को चाव से सुनते हैं।



सलिल दा ने चोपिन की धुन पर जो गीत रचा उसे गाने के लिए एक क़ाबिल गायिका की जरूरत थी। अगर इस गीत को गुनगुनाएँ तो आप तुरंत समझ जाएँगे कि इसे ढंग से गाना कितना कठिन है। मुखड़े के आखिर तक आते आते सुरों का चढ़ाव एक तरफ़ और उसके ठीक बाद बदली हुई लय में अंतरे की शुरुआत की बारीकियाँ दूसरी तरफ़। पर लता जी जब इसे गाती हैं तो सुनने पर लगता ही नहीं कि उन्हें इसे निभाने में कोई दिक्कत हुई होगी। ये बात उनकी महानता की परिचायक है। सलिल दा उनकी इस महानता से भली भांति वाक़िफ़ थे। उनकी पुत्री अंतरा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था

"बाबा के लिए लता माँ सरस्वती का दूसरा रूप थीं। उनके लिए संगीत रचते समय वो इस चिंता से दूर रहते थे कि गीत किस सुर तक या कैसी ताल में चलेगा क्यूँकि उन्हें पूरा विश्वास था कि उसे लता बखूबी निभा लेंगी। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि अन्नदाता के गीत रातों के साये.. में जो खूबसूरत संगीत संयोजन था उसके साथ लता जी ने पूरा न्याय किया है। बाबा ने लता जी की आवाज़ का अपने गीतों में जिस तरह इस्तेमाल किया वो क़ाबिलेतारीफ़ है।"

 योगेश का लिखा ये गीत हमें ज़िदगी में आने वाली मायूसियों से जूझने की प्रेरणा देता है। योगेश ने गीत के हर अंतरे में विकट परिस्थितियों में मन में आशा का दीपक जलाए रखने का जो संदेश दिया है वो किसी भी बुझे मन को जागृत करने का माद्दा रखता है। अंतरे की लय गीत की खूबसूरती में चार चाँद लगाती दिखती है। मिसाल के तौर पर एक अंतरे की लय के स्वरूप पर ज़रा गौर कीजिए
जब ज़िन्दगी.. किसी.. तरह.. बहलती नहीं..खामोशियों से भरी.. जब रात ढलती नहीं...तब मुस्कुराऊँ मैं..यह गीत गाऊँ मैं.. फिर भी ना डर..अगर.. बुझें.. दीये....सहर.. तो है.. तेरे.. लिये
है ना कमाल  ! तो चलिए सुनते हैं अन्नदाता फिल्म का ये गीत जिसे जया भादुड़ी पर फिल्माया गया था।

रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने
ना तो जले बाती, ना हो कोई साथी
फिर भी ना डर अगर बुझें दीये....सहर तो है तेरे लिये

जब भी मुझे कभी कोई जो ग़म घेरे
लगता है होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, माना हैं ग़म तुझको
फिर भी ना डर ... तेरे लिये

जब ना चमन खिले मेरा बहारों में
जब डूबने मैं लगूँ , रातों के मझधारों में
मायूस मन डोले, पर ये गगन बोले
फिर भी ना डर ... तेरे लिये

जब ज़िन्दगी किसी तरह बहलती नहीं
खामोशियों से भरी, जब रात ढलती नहीं
तब मुस्कुराऊँ मैं, यह गीत गाऊँ मैं
फिर भी ना डर ... तेरे लिये
रातों के साये घने ...



सलिल दा से जुड़ी इस श्रृंखला में यहीं विराम लेते हैं। वैसे सलिल योगेश की जोड़ी के दार्शनिकता लिए गीतों में उन गीतों की चर्चा रह ही गई जिसमें सलिल दा के पसंदीदा गायक मुकेश ने अपनी आवाज़ दी थी। पर वो सिलसिला फिर कभी ..पर चलते चलते क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि सलिल दा अपने संगीत को किस तरह आँकते थे? प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार राजू भारतन से हुई बातचीत में एक बार उन्होंने कहा था

 "फुटबॉल के खेल को ही देखिए। सारे नियम हैं वहाँ! फ्री किक, थ्रो इन, आफ साइड, पेनाल्टी... पर फिर भी एक खिलाड़ी है पेले जो इन नियमों के भीतर रहते हुए कुछ ऐसा कर दिखाता है कि लगता है वो कुछ ऐसा कर गया जो इस खेल में होना एक अनूठी बात है। मैं भी संगीत का वही पेले हूँ।"

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

रविवार, नवंबर 25, 2012

जब स्वानंद, सुनिधि ने एक टीवी विज्ञापन के लिए छेड़ी सुरीली सरगम..

रविवार की शाम है। यूँ तो एक शाम मेरे नाम पर आजकल सलिल दा और योगेश से जुड़े गीतों की श्रृंखला चल रही है पर आज आपको कुछ नया ताज़ा सुनाने के लिए वो सिलसिला तोड़ना पड़ रहा है। बात ये है कि कल मुझे अपने Idiot Box पर एक सरगम का टुकड़ा दूर से सुनाई दिया। टीवी के पास जाकर देखा तो पता चला कि ये तो एक विज्ञापन है पर इतना सुरीला कि जिसे बार बार सुनने को दिल चाहे।

वैसे भी जिस सरगम में स्वानंद, सुनिधि और विजय प्रकाश जैसे धुरंधर गायक हों वो सरगम तो सुरीली होगी ही। साथ में हैं शान्तनु मोइत्रा और दो खूबसूरत बालाएँ। पहचान सकते हैं तो पहचानिए नहीं तो इस एक मिनट की विशुद्ध मेलोडी का आनंद उठाइए।


वैसे इस धुन को रचा है चक दे इंडिया के निर्देशक शिमित अमीन ने और ये विज्ञापन है निशान की नई कार का। अब आप सोचेंगे एक कार का संगीत की स्वर लहरी से क्या ताल्लुक? यही तो बात है ! दरअसल Nissan Evalia की पंचलाइन है Evalia Moves like Music


मुझे तो ये सरगम बेहद पसंद आई और आपको...

शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

सलिल, योगेश व मन्ना डे : ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए...

सलिल दा और योगेश रचित फिलासफिकल गीतों की इस श्रृंखला में पिछली पोस्ट में बात हो रही थी गीत ना जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ....... की। और हाँ इस गीत को गाते वक़्त इसके पहले अंतरे के बाद भटक कर मैं जा पहुँचा था एक दूसरे गीत की इस पंक्ति कभी देखो मन नहीं जागे पीछे पीछे सपनों के भागे पर। शायद दोनों गीतों की कुछ पंक्तियाँ एक जैसे मीटर में हों। ख़ैर आनंद का ये गीत ज़िदगी की इस पहेली के सच को चंद शब्दों में इस खूबसूरती से उभारता है कि मन इस गीत को सुनकर अंदर तक भींग जाता है। सलिल दा की मेलोडी, मन्ना डे की दिल तक पहुँचती आवाज़ और योगेश के सहज पर मन को चोट करते शब्द इस गीत का जादू हृदय से कभी उतरने नहीं देते। 

पिछली पोस्ट में आपको बताया था कि किस तरह सलिल दा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित थे। आनंद के इस गीत का आरंभ ऐसे ही संगीत संयोजन से होता है। साथ ही मन्ना डे की आवाज़ के पीछे वही कोरस पार्श्व में लहराता हुआ चलता है जो सलिल दा के गीतों का एक ट्रेडमार्क था। पर उस कोरस पर सलिल दा ने जिस तरह भारतीय मेलोडी की परत चढ़ाई है वो काबिले तारीफ़ है। सलिल दा अक्सर कहा करते थे..
"Music will always be dismantling and recreating itself, and assuming new forms in reaction to the times. To fail to do so would be to become fossilized. But in my push to go forward I must never forget that my heritage is also my inspiration.
"यानि संगीत हमेशा अपने आप को बँधे बँधाए ढांचे से तोड़ता और पुनर्जीवित करता चलेगा। इस प्रक्रिया में उसका स्वरूप समय की माँग के अनुरूप बदलेगा। अगर वक़्त की ये आहट कोई नहीं समझ सकेगा तो वो अतीत की गर्द में समा जाएगा। पर वक़्त के साथ आगे चलते वक़्त हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारी विरासत भी हमारी प्रेरणास्रोत है।"
सलिल दा के गीतों में मेहनतकशों का लोक संगीत है तो दूसरी ओर मोजार्ट की सिम्फोनी भी। सलिल मोजार्ट के संगीत से इस क़दर प्रभावित थे कि वो अपने आपको रिबार्न मोजार्ट (Reborn Mozart) कहा करते। पर उनकी सफलता का राज ये रहा कि इस सिम्फोनी को उन्होंने भारतीय रंग में ढाला।  हाल ही में सलिल दा की पुत्री अंतरा चौधरी ने विविधभारती में दिये अपने साक्षात्कार में कहा था
"बाबा प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गीत के बोलों के साथ जोड़ कर अपने संगीत की रचना करते थे। जब भी कोई बाबा का गाना गाता है तो वो प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गुनगुनाए बिना मुखड़े व अंतरे तक पहुँच ही नहीं पाएगा।"
कहने का मतलब ये कि सलिल दा के लिए प्रील्यूड और इंटरल्यूड गीत के अतरंग हिस्से हुआ करते थे। अंतरा की बात को मन्ना डे के गाए इस गीत को सुनकर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। पर इस गीत में सपनों के पीछे भागते मन का चित्र अंकित करने वाले गीतकार योगेश के योगदान को भी हमें भूलना नहीं चाहिए। अच्छे कवि को अपनी बात कहने के लिए शब्दों का महाजाल रचने की आवश्यकता नहीं होती। योगेश कितनी खूबसूरती से जीवन के यथार्थ को एक पंक्ति में यूँ समेट लेते हैं ...एक दिन सपनों का राही चला जाए सपनों के आगे कहाँ. भई वाह।

वैसे आनंद के पहले योगेश बतौर गीतकार बहुत जानामाना नाम नहीं थे। उनकी माली हालत ऐसी थी कि अपने खुद के लिखे गीतों को सुनने के लिए उन्हें सविता चौधरी के पास जाना पड़ता था। योगेश सविता जी को तब से जानते थे जब उनकी शादी सलिल दा से नहीं हुई थी। सविता ने ही गीतकार के लिए योगेश का नाम सलिल दा को सुझाया था। सलिल दा तब तक अपना ज्यादातर काम शैलेंद्र के साथ किया करते थे। शैलेंद्र की मृत्यु के बाद उन्हें एक नए गीतकार की तलाश थी। जब पहली बार सलिल दा ने योगेश को आधे घंटे में एक गीत लिखने को दिया तो योगेश से कुछ लिखा ही नहीं गया। निराश मन से योगेश घर के बाहर निकल आए। मजे की बात ये रही कि बस स्टॉप तक पहुँचते ही उनके मन में एक गीत शक्ल लेने लगा। जब वापस आ कर उन्होंने सलिल दा का वो गीत सुनाया तो सलिल दा ने तुरंत अपनी पत्नी को बुलाकर कहा कि इसने तो बहुत अच्छा लिखा है।

गीत सुनते वक़्त आपने ध्यान दिया होगा कि किस तरह मन्ना डे ऊँचे सुरों में  एक दिन सपनों का राही तक पहुँचते हैं और उस के बाद  नीचे के सुरों में  चला जाए.... सपनों के.... आगे कहाँ गाते हुए हमारे दिल को वास्तविकता के बिल्कुल करीब ले आते हैं। ये प्रतिभा होती है एक अच्छे संगीतकार की जो शब्दों की लय को इस तरह रचता है कि सुनने वाले पर उसका अधिकतम असर हो। तो आइए सुनते हैं इस गीत को सलिल दा के अनूठे संगीत संयोजन के साथ


ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए
कभी तो हँसाए
कभी ये रुलाए
ज़िंदगी ...

कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाए सपनों के आगे कहाँ
ज़िंदगी ...

जिन्होने सजाए यहाँ मेले
सुख-दुख संग-संग झेले
वही चुनकर ख़ामोशी
यूँ चले जाए अकेले कहाँ
ज़िंदगी ...

चलते चलते इस गीत से जुड़ा एक और किस्सा आपसे बाँटता चलूँ । आनंद के गीतों को लिखने के लिए लिए हृषिकेश दा ने गुलज़ार और सलिल दा ने योगेश को कह रखा था। पर दोनों ने ये बात एक दूसरे को नहीं बताई थी। लिहाजा एक ही परिस्थिति के लिए गुलज़ार ने ना जिया लागे ना लिखा और योगेश ने ना ना रो अखियाँ  लिखा। गीत तो गुलज़ार का ही रखा गया पर हृषिकेश दा ने योगेश की मेहनत को ध्यान में रखकर पारिश्रमिक के रूप में एक चेक दिया। योगेश ने कहा जब उनका गीत फिल्म में है ही नहीं तो फिर काहे के पैसे। इस समस्या के सुलझाव के लिए ज़िंदगी कैसी है पहेली को ..मूल स्क्रिप्ट में जोड़ा गया। वैसे आनंद के लिए योगेश ने मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने बुने भी लिखा।

सलिल दा से जुड़ी श्रृंखला का अगला गीत जीवन में आए दुखों से लड़ने की प्रेरणा देता है। इस बेहद कठिन गीत को एक बार फिर आवाज़ दी थी लता जी ने। बताइए तो कौन से गीत की बात मैं कर रहा हूँ?

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

सोमवार, नवंबर 19, 2012

सलिल चौधरी,योगेश व लता : न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

आज सलिल चौधरी यानि सलिल दा का जन्मदिन है। पर यकीन मानिए ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि उनके जन्मदिन पर उनसे जुड़ी ये श्रृंखला शुरु कर रहा हूँ। दरअसल हुआ यूँ कि बहुत दिनों से मैं सलिल दा द्वारा संगीत निर्देशित इस गीत के बारे में लिखना चाह रहा था। कल जब ये गीत गुनगुना रहा था तो अंतरे तक पहुँचने के बाद उसी लय में एक दूसरे गीत की पंक्तियाँ जुबाँ पर आ गयीं। मुझे लगा हो ना हो वो भी सलिल दा का गीत रहा होगा और वास्तव में वो उनका ही गीत निकला। इसी खोजबीन में ये भी नज़र में आ गया कि आज से करीब अस्सी साल पहले यह विलक्षण प्रतिभा वाला संगीत निर्देशक जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी था, इस धरती पर आया था।

मेरी इस श्रृंखला का उद्देश्य सलिल दा के उन गीतों को आपके समक्ष रखना है जिसमें उन्होंने गीतकार योगेश गौड़ के साथ मिलकर जीवन की फिलॉसफी को इस तरह उतारा कि उनके बोल और धुनें समय के थपेड़ों के बीच रह रह कर ज़ेहन में आती रहीं और शायद जीवन पर्यन्त आती रहेंगी। यही तो खूबी है इन नग्मों कि ये वक़्त के साथ आपके दिल में अपना एक अलग वज़ूद बना लेते हैं। गीत का ख्याल आते वक़्त उस फिल्म से कहीं ज्यादा वो भावनाएँ आपके इर्द गिर्द घूम रही होती हैं जो गीत के बोलों में अंतरनिहित हैं।

अब फिल्म छोटी सी बात के इस गीत को ही देखिए। इस गीत के मुखड़े के सच को ना जाने कितने लोगों ने जीवन में महसूस किया होगा...

न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ
अचानक ये मन
किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद
छोटी छोटी सी बात, न जाने क्यूँ

कितनी सहजता से लिख गए ये सब योगेश ! पर मुंबई में आने से पहले तो योगेश को ये भी नहीं पता था कि उन्हें एक गीतकार बनना है पर जो काम उन्होंने सलिल दा के साथ किया वो उन्हें आज भी देश के अव्वल गीतकारों में स्थान दिलाने के लिए काफी है। पिता की मृत्यु के बाद योगेश नौकरी की तलाश में लखनऊ से मुंबई आए। पर वो ये सोचकर नहीं आए थे कि काम फिल्म जगत में करना है। उनके चचेरे भाई व्रजेंद्र गौड़ (जो एक पटकथा लेखक थे) ने उन्हें फिल्मों में काम करने की सलाह तो दी पर काम दिलवाने में कोई मदद नहीं की। नाराज़ योगेश ने अपने नाम के आगे से गौड़ टाइटल हटा लिया ताकि लोग ये ना समझें कि उन्हें फिल्म उद्योग में अपने भाई की वज़ह से काम मिला है। बचपन से ही उन्हें कोई भी पढ़ी गई कविता जल्द ही याद हो जाया करती थी इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यूँ ना अब कविता लिखने का भी प्रयास किया जाए और इस तरह वो गीतकार बन गए।

योगेश सलिल के सानिध्य में कैसे आए ये किस्सा तो आगे की कड़ियों में आप से बाँटूगा पर योगेश सलिल चौधरी के बारे में क्या राय रखते हैं ये यहाँ बताना आवश्यक है। कुछ वर्षों पहले दिए गए अपने साक्षात्कर में उन्होंने कहा था
"सलिल दा मेरे प्रिय संगीतकार थे। पहली मुलाकात में वे मुझे अंतरमुखी से लगे, पर धीरे धीरे जब वे खुलने लगे तब उनके साथ काम करने का आनंद बढ़ गया। वो शायद एकमात्र ऐसे बंगाली संगीतकार थे जिन्हें हिंदी के बोलों की अच्छी समझ थी। ऐसा संभवतः इसलिए था कि सलिल दा खुद एक लेखक और कवि थे। पढ़ने लिखने का उनका शौक़ इस क़दर था कि उन्हें लगभग हर विषय के बारे में अच्छी जानकारी थी। सब लोग कहते थे कि उनकी धुनें जलेबी की तरह घुमावदार और जटिल हुआ करती थीं पर मुझे उनके साथ गीत लिखने में कभी ऐसी दिक्कत नहीं हुई।"
वहीं स्वर साम्राज्ञी लता जी ने अपनी एक CD में सलिल दा के बारे में कहा था कि
" मैंने ऐसे तो करीब सौ संगीत निर्देशकों से ज्यादा के साथ काम किया है। पर उनमें से दस ही ऐसे रहें होंगे जिन्हें संगीत और सिनेमा दोनों की समझ थी और उन दसों में सलिल दा सबसे अग्रणी थे। उनकी मेलोडी कुछ अलग तरह की होती थी जिसे गाना कठिन होता था। कई बार वो अपनी धुन को सही ढंग से विकसित करने के लिए कई दिनों तक ना खाते थे और ना सोते थे। "
सलिल के संगीत निर्देशित गीतों की एक खास बात ये थी कि वो गीत के इंटरल्यूड्स में कोरस का इस्तेमाल काफी करते थे। इंटरल्यूड्स में संगीत संयोजन पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का असर लिए होता था। इसकी भी एक वज़ह थी। सलिल दा का बचपन आसाम के चाय बागानों में बीता था। उनके पिता डॉक्टर थे और उन्हें अपने पूर्ववर्ती आयरिश मूल के डॉक्टर से पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के तमाम ग्रामोफोन रिकार्ड मिले थे। सलिल ने तभी से मोजार्ट, बीथोवन और चोपिन जैसे संगीतज्ञों को सुनना शुरु कर दिया था और उनसे बेहद प्रभावित हुए थे। बाद में अपनी धुनों में भी वे पश्चिमी सिम्फोनी का प्रयोग करते रहे।

इस गीत में भी ये बातें देखने को मिलती हैं। सलिल दा ने जिस अनूठे तरीके से इस गीत की लय को बुना था उसके साथ न्याय करने के लिए लता से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था। 

योगेश गीत के दोनों अंतरों में एक बार फिर किसी अज़ीज के साथ बिताए पलों को बेकली से याद करते हैं। वैसे भी पुरानी बातें, किसी के साथ बिताए वो हसीं लमहे किसी की यादों से दूर जा सकते हैं क्या..तो आइए आनंद उठाते हैं इस गीत का जिसे फिल्माया गया था विद्या सिन्हा व अमोल पालेकर पर 

 
वो अनजान पल
ढल गये कल, आज वो
रंग बदल बदल, मन को मचल मचल
रहें हैं छल न जाने क्यूँ, वो अनजान पल
तेरे बिना मेरे नैनों मे
टूटे रे हाय रे सपनों के महल
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

वही है डगर
वही है सफ़र, है नहीं
साथ मेरे मगर,अब मेरा हमसफ़र
ढूँढे नज़र न जाने क्यूँ, वही है डगर
कहाँ गईं शामें मदभरी
वो मेरे, मेरे वो दिन गये किधर
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था कि इस गीत का अंतरा गुनगुनाते एक दूसरे गीत के अंतरे में भटक गया। जिंदगी की ऊँच नीच को परिभाषित करता वो गीत सलिल दा और योगेश की जोड़ी द्वारा बनाया एक बेहद संजीदा गीत है। तो आप भी सोचिए मैं किस गीत की बातें कर रहा हूँ। अगली पोस्ट में सलिल दा और योगेश से जुड़ी कुछ और दिलचस्प बातों के साथ चर्चा होगी उस गीत की..

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

बुधवार, नवंबर 07, 2012

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो : जगजीत, मजाज़ और कहकशाँ

पहले दक्षिणी महाराष्ट्र और फिर कानाताल की दस बारह दिनों की यात्रा की वज़ह से दूरदर्शन के पुराने धारावाहिक कहकशाँ में अलग अलग शायरों के साथ जगजीत की सुरीली आवाज़ के सफ़र में विराम लग गया था। आज कहकशाँ से जुड़ी इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में बात करते हैं मजाज़ लखनवी की लिखी नज़्म एतराफ़ की। मजाज़ की इस नज़्म को आम जनों तक पहुँचाने में जगजीत की दर्द में डूबी आवाज़ का बहुत बड़ा हाथ रहा है। कहकशाँ में शामिल ग़ज़लों और नज़्मों में अरबी फ़ारसी शब्दों की बहुतायत होने की वज़ह से उन्हें पूरी तरह समझना हर ग़ज़ल प्रेमी के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। पर  इस नज़्म में तो मजाज़ ने ऐसे ऐसे रूपकों का इस्तेमाल किया है कि सामान्य उर्दू जानने वाले भी चकरा जाएँ।

जगजीत जी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने इतनी कठिन भाषा के बावज़ूद भी अपनी गायिकी से इस नज़्म के मर्म को श्रोताओं तक भली भांति पहुँचा दिया।  एक शाम मेरे नाम के पाठकों के लिए दीपावली की सौगात के रूप में पेश है मजाज़ की पूरी नज़्म उसके अनुवाद की एक कोशिश के साथ ताकि अगली बार जब भी आप ये नज़्म पढ़ें, सुनें या गुनगुनाएँ उसकी भावनाएँ आपके दिलो दिमाग पर और गहरी उतर सकें।

हिंदी में एतराफ़ का अर्थ होता है स्वीकारोक्ति। पर मजाज़ इस नज़्म के माध्यम से आख़िर क्या स्वीकार करना चाहते थे? मजाज़ किस तरह एक शादी शुदा रईसजादी के इश्क़ में गिरफ्तार हुए और किस तरह उनकी मोहब्बत उन्हें पागलपन की कगार पर ले गई, ये किस्सा मैं आपको उनकी मशहूर नज़्म आवारा के बारे में लिखते हुए सुना चुका हूँ।  बस इतना कहना चाहूँगा कि मजाज़ के इस दर्द में आप अगर पूर्णतः शरीक होना चाहते हैं तो आवारा से जुड़ी उन प्रविष्टियों को जरूर पढ़ें।

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

मैने माना कि तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तिलअत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो

मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है


एतराफ़ की शुरुआत मजाज़ अपनी नायिका की सुंदरता के बखान से करते हैं।  मजाज़ कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि तुम सौन्दर्य की एक प्रतिमा हो। अगर ये संसार एक खूबसूरत वाटिका है तो तुम उस फुलवारी की सुंदरता का केंद्रबिंदु हो। तुम्हारे यौवन में दहकते सूर्य की छवि है। तुम्हारा रूप स्वर्ग की अप्सरा का सा है। कभी कभी तो लगता है कि तुम उस हसीं चाँद की बेटी हो जो आकाश से उतर कर इस धरा पर आ गई है । पर आज तुम्हारे इस सौन्दर्य का मैं क्या करूँ? सच तो ये है कि आज के हालातों में बदनामी के डर से शायद ही तुम मुझसे मिलने की कोशिश करो। मैंने अपनी ज़िदगी को अब तक जिस तरह जिया है उसी की सज़ा मैं भोग रहा हूँ।


अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गँवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गँवाई है जवानी मैने

हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है


क्या कहूँ अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैंने अपनी जवानी व्यर्थ ही बर्बाद कर ली। सुंदरियों के नगर में, ख़्वाबों को जन्म देने वाले उन शयनागारों में , हुस्न के उन शोलों के बीच आखिर मुझे क्या मिला ? जब जब किसी शोख़ नज़र ने अपनी चाहत का दामन मेरी तरफ़ फैलाया अपने पहले प्रेम के संकल्प की ढाल से मैंने उसे दूर ढकेल दिया।

उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूँ तारी था
सर पे सरशारि-ए-इशरत का जुनूँ तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूँ तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूँ तारी था

बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

जन्नते शौक़ थी बेगान ए आफ़ाते समूम
दर्द जब दर्द ना हो काविशे दरमाँ मालूम
खाक़ थे दीद ए बेबाक में गरदूँ के नजूम
बज़्मे परवीन भी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम

लैल ए नाज़ बरअफ़गंदा नक़ाब आती थी
अपनी आँखों में लिए दावत ए ख़्वाब आती थी


उन दिनों दिलो दिमाग पर मौज मस्ती का नशा छाया हुआ था। चाँद के उन हसीन टुकड़ों को मैं अपनी मोहब्बत का हासिल समझने लगा था। मेरे गुरूर की इंतहा इस हद तक थी कि हुस्न के मैदान में मैं बादशाहों से भी मुकाबला करने को तैयार था। मखमल के बिस्तर में सिमटा मेरा वो संसार एक हसीन सपने की तरह था। गर्म हवा की आफ़तों से अपरिचित वो दुनिया मेरे लिए प्रेम का स्वर्ग के समान दिखती थी। मेरा पास उस वक़्त हर दर्द की दवा थी। तब मुझे ऐसा लगता था कि मेरी बेबाक नज़रे आसमान के तारों तक को खाक़ में मिला सकती हैं। सुन्दरियों की महफिल मुझे दासियों का हुजूम लगती थी।

वैसे ये जुनूँ बेवज़ह तो नहीं था। वो भी क्या दिन थे ! नाज़ नखरों में पली बढ़ी सुंदरियाँ तक नक़ाब उठा कर मुझे आँखों ही आँखों में अपनी ख़्वाबगाह में आने का निमंत्रण दे डालती थी।

संग को गौहरे नायाबों गिराँ जाना था
दश्ते पुरख़ार को फ़िरदौसे जवाँ जाना था
रेग को सिलसिल ए आबे रवाँ जाना था
आह ये राज अभी मैंने कहाँ जाना था

मेरी हर फतह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मुसर्रत में है राज़े ग़मो हसरत पिनहाँ


क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार

वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहाँ से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?


पर शायद वो मेरा बचपना था। दुनिया के तौर तरीकों से मैं वाकिफ़ नहीं था।

मैं क्या जानता था कि एक पत्थर भी दुर्लभ मोती जवाहरात बनने की लालसा रखता है!
काँटेदार जंगल भी खिलती बगिया का रूप रखने की आस रखता है!
रेत के कण भी बहती धारा के साथ सागर को चूमने की ख्वाहिश रखते हैं!

वो भी अपने सुनहरे भविष्य की आस में मुझे छोड़ कर चली गई। गर्व और अहंकार में डूबी मेरी उस ज़िदगी की हर जीत अब शिकस्त में तब्दील हुई लगती है। ध्यान से देखो तो पाओगी कि मेरे हर खुशी के पीछे कई ग़म चेहरा छुपाए बैठे हैं। अपने इस घायल हृदय की हालत को तुम से अब क्या बयाँ करूँ?  कौन समझेगा मेरी हृदय को चीरनेवाली इस फ़रियाद को, आँसू भरे गीतों को व दर्द में डूबी मेरी बातों को। हालात ये हैं कि मैं  ख़ुद अपने तौर तरीकों की वज़ह से सबके बीच मजाक़ का पात्र बन गया हूँ। तुमने आने में अब बहुत देर कर दी है। तुम्हीं कहो अब इस मरे हुए दिल में वो कोमलता कहाँ से लाऊँ? अपनी भावनाओं में वो पहली वाली मासूमियत कहाँ से लाऊँ?

मेरे साये से डरो, तुम मेरी कुरबत से डरो
अपनी जुरअत की कसम , तुम मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर, मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो, मेरी मोहब्बत से डरो

अब में अल्ताफ़ो इनायत का सज़ावार नही
मैं वफ़ादार नहीं, हाँ मैं वफ़ादार नहीं
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?


नज़्म का ये आख़िरी हिस्सा मजाज़ के दिल मैं फैले नैराश्य को सामने लाता है। मजाज़ को अपनी ज़िदगी अपने साये तक से नफ़रत हो गई है। इसलिए वो नायिका को अपने से दूर रहने की सलाह देते हैं। जिस वफ़ा, कोमलता, रूमानियत समाज से लड़ने के जज़्बे को वो अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना कर चले थे उन पर उनका खुद का विश्वास डगमगा गया था। मजाज़ ने ये नज़्म 1945 में लिखी थी यानि अपनी मृत्यु के ग्यारह साल पहले। जीवन के अंतिम सालों में वे अपने मानसिक संतुलन खो बैठे थे। इलाज से उनकी हालत में सुधार जरूर हुआ पर एकाकी जीवन और शराब पीने की लत ने उन्हें इस दुनिया को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। तो आइए एक बार फिर सुनें इस नज़्म में छुपी शायर की पीड़ा को जगजीत की आवाज़ में...

एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

 

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