बुधवार, जून 05, 2013

उर्दू की आखिरी किताब : इंशा जी की नज़रों से देखिए भारत का इतिहास और सुनिए एक मज़ेदार कहानी !

पिछली पोस्ट में मैंने आपसे इब्ने इंशा के व्यंग्य संग्रह 'उर्दू की आख़िरी किताब' के कुछ पहलुओं पर चर्चा की थी। आज इस सिलसिले को ज़ारी रखते हुए  बात करेंगे इतिहास, गणित, विज्ञान, व्याकरण और नीति शिक्षा से जुड़ी इब्ने इंशा की कुछ दिलचस्प व्यंग्यात्मक टिप्पणियों पर। इंशा जी ने 154 पृष्ठों की किताब के करीब एक तिहाई हिस्से में भारत के इतिहास और उसके अहम किरदारों और उनसे जुड़ी घटनाओं को एक अलग दृष्टिकोण देने की कोशिश की है। जरूरी नहीं कि पाठक उनके व्यंग्य से हमेशा सहमत हो पर उनका अंदाजे बयाँ कुछ ऐसा है जो आपको इतिहास के उस चरित्र या घटना पर दोबारा सोचने पर मज़बूर करता है।   


अब शहंशाह अकबर के क़सीदे तो पढ़ पढ़ कर ही आपने हाई स्कूल की परीक्षा पास की होगी। इसी सम्राट अकबर का परिचय इंशा जी कुछ यूँ देते हैं।

आपने बीरबल के मलफ़ूतात (लतीफ़ों) में इस बादशाह का नाम सुना होगा। राजपूत मुसव्वरी (चित्रकला) के शाहकारों में इसकी तसवीर देखी होगी। इन तहरीरों और तसवीरों से ये गुमान होता है कि ये बादशाह सारा वक़्त दाढ़ी घुटवाए, मूँछें तरशवाए उकड़ूँ बैठा फूल सूँघता रहता था, या लतीफ़े सुनता रहता था।.......ये बात नहीं, और काम भी करता था।

अकबर और उनके नवरत्नों के बारे में तो हम सब जानते हैं। इंशा नवरत्नों और अकबर के संबंधों को आज के राजनीतिज्ञों और अफ़सरों के कामकाज़ से जोड़ते हुए एक बेहद उम्दा बात कह जाते हैं

अकबर अनपढ़ था । बाज़ लोगों को गुमान है कि अनपढ़ होने की वज़ह से इतनी हुकूमत कर गया। उसके दरबार में पढ़े लिखे नौकर थे। नवरत्न कहलाते थे। यह रिवायत उस ज़माने से आज तक चली आती है कि अनपढ़ लोग पढ़े लिखों को  नौकर रखते हैं और पढ़े लिखे इस पर फख्र करते हैं।

अब मुगलिया खानदान का जिक्र हो और औरंगजेब का उल्लेख ना हो ये कैसे हो सकता है! किसी की तारीफ़ करते हुए कैसे चुपके से चपत जड़ी जाती है इसका हुनर कोई इंशा जी से सीखे...

शाह औरंगजेब आलमगीर बहुत ही लायक और मुतदय्यन (धार्मिक) बादशाह था। दीन और दुनिया दोनों पर नज़र रखता था। उसने कभी कोई नमाज कज़ा नहीं की और किसी भाई को ज़िंदा नहीं छोड़ा। हालांकि ये जरूरी था। उसके सब भाई नालायक थे, जैसे कि हर बादशाह के होते हैं। नालायक ना हों तो खुद पहल करके बादशाह को कत्ल ना कर दें।

मुसलमान शासकों का जिक्र करते समय उनसे जुड़ी घटनाओं को आज के परिदृश्य से जोड़ने का काम, एक कुशल व्यंग्यकार के नाते इंशा सहजता से करते हैं। देखिए इन पंक्तियों में किस तरह महमूद गजनवी का जिक्र करते हुए आज के प्रकाशकों को उन्होंने आड़े हाथों लिया है

महमूद पर इलजाम लगाया जाता है कि उसने फिरदौसी से शाहनामा लिखवाया और उसकी साठ हजार अशर्फियाँ नहीं दी बल्कि साठ हजार रुपये देकर टालना चाहा। भला एक किताब की साठ हजार अशर्फियाँ कैसे दी जा सकती हैं? बजट भी तो देखना पड़ता है। महमूद की हम इस बात की तारीफ़ करेंगे कि फिर भी साठ हजार की रकम फिरदौसी को भिजवाई। ख्वाह उसके मरने के बाद ही भिजवाई। आजकल के प्रकाशक तो मरने के बाद भी लेखक को कुछ नहीं देते। साठ हजार तो बड़ी चीज हैं उनसे साठ  रुपये ही वसूल हो जाएँ तो लेखक अपने आप को खुशकिस्मत समझते हैं।
व्याकरण की बातें करते हुए इंशा जी की लेखनी आज के उन तमाम कवियों और शायरों को अपनी चपेट में ले लेती है जो छन्दशास्त्र के ज्ञान के बिना ही छंद पर छंद रचते जाते हैं
लफ़्ज़ों के उलट फेर को ग्रामर कहते हैं। शायरी की ग्रामर को 'अरूज़' (छन्दशास्त्र) कहते हैं। पुराने लोग अरूज़ के बगैर शायरी नहीं किया करते थे। आजकल किसी शायर के सामने अरूज़ का नाम लीजिए तो पूछता है, "वह क्या चीज होती है"? हमने एक शायर के सामने इज़ाफ़ात (कारकों) का नाम लिया, बोले खुराफ़ात? खुराफ़ात मुझे पसंद नहीं। बस मेरी ग़ज़ल सुनिए और जाइए।

इंशा जी ने गणित के मोलिक सिद्धान्तों यानि जोड़, घटाव, गुणा और भाग के माध्यम से समाज की थोथी नैतिकता और भ्रष्ट अलगाववादी राजनिति पर निशाना साधा है। वहीं विज्ञान के पाठ में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों की विवेचना इंशा कुछ यूँ करते हैं..

यह न्यूटन ने दरयाफ़्त की थी। ग़ालेबन उससे पहले नहीं होती थी। न्यूटन उससे दरख़्तों से सेब गिराया करता था। आजकल सीढ़ी पर चढ़कर तोड़ लेते हैं। आपने देखा होगा कि कोई शख़्स हुकूमत की कुर्सी पर बैठ जाए तो उसके लिए उठना मुश्किल हो जाता है। लोग जबरदस्ती उठाते हैं। यह भी कशिशे सिक़्ल के बाइस  (गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का उदाहरण) है

किताब के हर पाठ के बाद इंशा जी पाठ्यपुस्तक शैली में विद्यार्थियों से सवाल पूछते हैं जो पाठ से कम दिलचस्प नहीं हैं।  भाषिक व्यंग्य सौंदर्य बाधित ना हो इसलिए अनुवादक अब्दुल बिस्मिल्लाह ने इंशा की किताब का लिप्यांतरण भर किया है। एक तरह से ये सही है पर सारे कठिन उर्दू शब्दों के मायने नहीं दिये जाने की वज़ह से उर्दू में उतना दखल ना रखने वाले पाठकों को बार बार शब्दकोश का सहारा लेना पड़ सकता है।

किताब के आख़िरी हिस्से में इंशा जी ने नीति शिक्षा के दौरान बचपन में पढ़ाई गई कहानियों मसलन चिड़े और चिड़िया, कछुआ और ख़रगोश, एकता ही बल है को एक अलग ही अंदाज़ में पेश किया है जिसे पढ़कर आप आनंदित हुए बिना नहीं रहेंगे। यकीन नहीं आ रहा तो सुनिए इंशा जी की एक कहानी मेरी जुबानी..
एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
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6 टिप्पणियाँ:

Arvind Mishra on जून 06, 2013 ने कहा…

जल्द ही पढ़ते हैं

Archana Chaoji on जून 06, 2013 ने कहा…

किताबों के बारे में जानकारी न के बराबर है ...:-( अब आपके लिखने से फ़ायदा हो रहा है, कुछ तो पता हो रहा है....
सुनने में मजा आया बहुत ....

प्रवीण पाण्डेय on जून 06, 2013 ने कहा…

यह किताब पढ़ने योग्य..

Radha Chamoli on जून 07, 2013 ने कहा…

nice post :)

Jagdish Arora on जून 13, 2013 ने कहा…

Bahut Khoob. Ekdum sahi. mantri fail, santri topper

Annapurna Gayhee on जून 23, 2013 ने कहा…

"लफ़्ज़ों के उलट फेर .... मेरी ग़ज़ल सुनिए और जाइए।"

जैसे श्रोताओं की महफ़िल वैसे शायर ... श्रोता बोले इरशाद भाई को सुनने की फरमाइश कर रहे थे लोग, बार - बार इरशाद कह रहे थे पर इरशाद आए ही नहीं थे

 

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