शनिवार, सितंबर 28, 2013

डोली में बिठाई के कहार.. जब सचिन दा ने पंचम की फिल्म में गाया कोई गीत !

सचिन देव बर्मन से जुड़ी इस श्रंखला  में बात चल रही है उनकी गायिकी से जुड़े कुछ पहलुओं की। अब तक चर्चा हुई बंदिनी और गाइड में गाए उनके कालजयी गीतों की। सचिन देव बर्मन के गाए गीतों की एक खासियत ये भी रही है कि वे किसी नायक पर नही फिल्माए गए बल्कि पार्श्व से आती आवाज़ के रूप में चलचित्रों में शामिल किए गए। वैसे भी सचिन देव बर्मन जिस आवाज़ के मालिक थे वो शायद ही उनके फिल्मी नायकों पर फबती। पार्श्वगीतों को फिल्म में रखने का एक फ़ायदा ये भी होता है वो किसी क़िरदार की भावना को ना व्यक्त कर, फिल्म की पूरी परिस्थिति को अपने दायरे में समेट लेते हैं।

ऐसा ही एक गीत था 1971 में आई फिल्म 'अमर प्रेम' का ! फिल्म के संगीत निर्देशक थे पंचम। इसी फिल्म में सचिन देव बर्मन ने एक गीत को आवाज़ दी थी डोली में बिठाई के कहार...लाए मोहे सजना के द्वार । वैसे सचिन दा का पंचम की किसी फिल्म के लिए गाया ये पहला और अंतिम गीत था। यूँ तो अमर प्रेम के सारे गीतों के संगीत निर्देशन का श्रेय पंचम के नाम है पर पंचम के वरीय सहयोगी और वादक मनोहारी सिंह की बात मानी जाए तो उनके अनुसार फिल्म बनते वक्त इस गीत के संगीत संयोजन का काम सचिन दा ने ही किया था। इस गीत की धुन जिसमें गीत के बोलों के बीच बाँसुरी का अच्छा इस्तेमाल है, दादा बर्मन के संगीत की अमिट छाप का संकेत देती है।

बहरहाल ये गीत अमरप्रेम की कास्टिंग के साथ आता है। आजकल तो शादी विवाह में डोली का प्रचलन रहा नहीं। पर एक ज़माना वो भी था जब डोली में दुल्हन अपने पिया के घर पहुँचती थी और फिर उसी घर की हो कर ही रह जाती थी। बड़ा चिरपरिचित संवाद हुआ करता था फिल्मों में उन दिनों कि डोली में आने के बाद अब इस घर से मेरी अर्थी ही निकलेगी।

यानि सामाजिक तानाबाना ऐसा बुना जाता था कि उस पराए घर के आलावा नवविवाहिता किसी और ठोर की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। ऐसे माहौल में पली बढ़ी युवती को घर से अचानक ही निकाल दिया जाए तो कैसी मानसिक वेदना से गुजरेगी वो? गीतकार आनंद बक्षी को फिल्म की इन्हीं परिस्थिति के लिए गीत की रचना करनी थी। गीत तो उन्होंने बड़ा दर्द भरा लिखा पर उसमें निहित भावनाओं में प्राण फूँकने के लिए जरूरत थी, सचिन दा जैसी आवाज़ की।

सचिन दा जिस अंदाज़ में ओ रामा रे... कहकर गीत का आगाज़ करते हैं वो गीत में छुपी पीड़ा की ओर इशारा करने के लिए काफी होता है। सचिना दा की गूँजती आवाज़ के साथ बजती बाँसुरी के बाद आती है इस गीत की ट्रेडमार्क धुन (डोली में बिठाई के कहार के ठीक पहले) जो इस गीत की पहचान है। पूरे गीत में इसका कई बार प्रयोग हुआ है। तो आइए मन को थोड़ा बोझिल करते हैं अमर प्रेम के इस गीत के साथ..


हो रामा रे, हो ओ रामा
डोली में बिठाई के कहार
लाए मोहे सजना के द्वार
ओ डोली में बिठाई के कहार
बीते दिन खुशियों के चार, देके दुख मन को हजार
ओ डोली में...

मर के निकलना था, ओ, मर के निकलना था
घर से साँवरिया के जीते जी निकलना पड़ा
फूलों जैसे पाँवों में, पड़ गए ये छाले रे
काँटों पे जो चलना पड़ा
पतझड़, ओ बन गई पतझड़, ओ बन गई पतझड़  बैरन बहार              
डोली में बिठाई के कहार...

जितने हैं आँसू मेरी, ओ, जितने हैं आँसू मेरी
अँखियों में, उतना नदिया में नाहीं रे नीर
ओ लिखनेवाले तूने लिख दी ये कैसी मेरी
टूटी नय्या जैसी तक़दीर
उठा माझी, ओ माझी, उठा माझी,
ओ माझी रे, उठा माझी
उठे पटवार 
डोली में बिठाई के कहार...

टूटा पहले मेरे मन, ओ, टूटा पहले मन अब
चूड़ियाँ टूटीं, ये सारे सपने यूँ चूर
कैसा हुआ धोखा आया पवन का झोंका
मिट गया मेरा सिंदूर
लुट गए, ओ रामा, लुट गए, ओ रामा मेरे लुट गए
सोलह श्रंगार         
डोली में बिठाई के कहार...


सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की सारी कड़ियाँ...

मंगलवार, सितंबर 24, 2013

कलम या कि तलवार : रामाधारी सिंह 'दिनकर' के जन्मदिन पर सुनिए उनकी ये प्रेरक कविता !

कल राष्ट्रकवि रामाधारी सिंह 'दिनकर' का जन्मदिन था। स्कूल और कॉलेज जीवन में मेरे प्रियतम कवि होने के बावज़ूद विगत कुछ सालों में "रश्मिरथी" के आलावा उनकी कोई और पुस्तक नहीं पढ़ पाया हूँ। ये जरूर है कि मेरे कार्यालय में दिनकर प्रेमी गाहे बगाहे उनको याद अवश्य कर लिया करते हैं। इसी बहाने उनके व्यक्तित्व से जुड़े कई वाकये और उनकी ओजमयी कविताएँ सुनने को मिल जाती हैं।

कल ऐसे ही एक कार्यक्रम में सहकर्मियों के साथ वक़्त गुजरा। पद्य के साथ गद्य पर उनके समान अधिकार, उनका आकर्षक रूप, विनम्र व्यवहार और ओजपूर्ण भाषा, 1971 के भारत पाक युद्ध के समय उनका लगातार तीन दिनों तक पटना में वीर रस कवि सम्मेलन का आयोजन कराना, नेहरु, राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण से उनके घनिष्ठ संबंध और अंतिम दिनों में धनाभाव के चलते पौत्रियों के विवाह की चिंता... बहुत सारी बातों पर चर्चा हुई और मन उनके व्यक्तित्व के प्रति आदरभाव से हृदय में सब समेटता चला गया।

शाम को वापस लौटा तो दिनकर की लिखी ये कविता जो स्कूल के दिनों में पढ़ी थी बरबस याद आ गयी। तब भी इसे पढ़ते वक्त मन प्रफुल्लित हो उठता था और आज भी इसके पाठ के दौरान मैं वैसी ही भावनाओं से एक बार फिर गुजरा। कलम और तलवार में से एक को चुनने की दुविधा को दिनकर चंद पंक्तियों में बड़ी ही सहजता से दूर करते हुए तलवार के ऊपर कलम की सर्वोच्चता को स्थापित करते हैं। तो आइए दिनकर को याद करें उनकी इस कविता के माध्यम से



दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति अजेय अपार

अंध कक्षा में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान

कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,
दिल ही नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली

पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे

एक भेद है और वहाँ निर्भय होते नर -नारी,
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी

जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादलों में बिजली होती, होते दिमाग में गोले

जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार

और चलते चलते उनकी इन पंक्तियों के साथ आपसे विदा लूँ

लोहे के पेड़ हरे होंगे,
तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,
आँसू के कण बरसाता चल।

 अगर दिनकर की कविताएँ आपको भी उद्वेलित करती हैं तो इन्हें भी आप पढ़ना पसंद करेंगे

बुधवार, सितंबर 18, 2013

वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर, जाएगा कहाँ : कैसे सचिन दा की गायिकी ने उन्हें जेल की हवा खाने से बचाया ?

सचिन देव बर्मन के गाए पसंदीदा गीतों की श्रंखला में पिछली पोस्ट में बात हुई फिल्म बंदिनी के गीत मेरे साजन हैं उस पार.... की। आज उसी सिलसिले को बढ़ाते हुए बात करते हैं सचिन दा के गाए फिल्म 'गाइड' के बेहद मशहूर गीत वहाँ कौन है तेरा मुसाफ़िर जाएगा कहाँ..... की...।  पर गाइड के इस गीत के बारे में बात करने से पहले ये जानना रोचक रहेगा कि दादा बर्मन को गायिकी का रोग लगा कैसे?
सचिन दा के पिता खुद भी ध्रुपद गायक थे। वे सितार भी बजाते थे। बालक सचिन देव बर्मन पर संगीत की पहली छाया उन्हीं के माध्यम से पड़ी। पर सचिन जिस लोक संगीत के बाद में मर्मज्ञ बने, उसका आरंभिक ज्ञान उन्हें राजपरिवार के लिए काम करने वाले सेवकों की सोहबत से मिला। पहली बार पाँचवी कक्षा में पूजा के अवसर पर सचिन दा ने गीत गाया। स्कूल से जब भी उन्हें वक़्त मिलता वे दोस्तों की मंडली के साथ गाने में तल्लीन हो जाते। बचपन के इन्हीं दिनों की एक मजेदार घटना का जिक्र सचिन दा अपने संस्मरण में कुछ इस तरीके से करते हैं....

"कोमिला से दस मील दूर कमल सागर में एक काली का मंदिर था। पूजा के दिनों में वहाँ एक मेला लगता था। हमारी मित्र मंडली उस मेले में जा पहुँची। हम खूब घूमे, इतना कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। मेला खाली होने लगा तो होश आया और किसी तरह दौड़ कर आखिरी गाड़ी पकड़ी। टिकट लेने के लिए समय ना बचा था। कोमिला उतरे तो टिकट चेकर ने आ घेरा। बहुत हाथ पैर जोड़े पर वो सुनने को तैयार ना हुआ। उलटे स्टेशन मास्टर से कह कर हमें एक कमरे में बंद करा दिया। एक तो घर से अनुमति नहीं ली थी और दूसरे इतनी देर भी हो गई थी, ऊपर से ये नई मुसीबत। मैं रोने लगा। पर मेरे एक मित्र को एक तरकीब सूझी। कुछ दिनों पहले पूजा के अवसर पर स्टेशन मास्टर की माँ उसके घर आई थी और उसका कोई गीत सुनकर भावविभोर हो कर रो पड़ी थी। याद तो नहीं पड़ता पर मेरे मित्र ने मुझसे भाटियाली या बाउल गीत गाने को कहा। मैंने जैसे तैसे रोना रोका और गाने लगा। परिणाम सचमुच अच्छा निकला, थोड़ी ही देर में कमरे के दरवाजे पर आहट हुई और दरवाजा खोलकर स्टेशन मास्टर की माँ अंदर आ गई। उसने अपने बेटे से कह कर हमें छुड़वा ही नहीं दिया बल्कि खाने के लिए मिठाई भी दी।"

तो देखा आपने किस तरह सचिन दा की गायिकी ने उन्हें जेल की हवा खाने से बचाया। सचिन दा पचास और साठ के दशक में मुंबई में बतौर संगीत निर्देशक फिल्मों में संगीत देते रहे पर हर साल कोलकाता जाकर उन्होंने अपने नए नए गीत रिकार्ड किए जिनमें कई बेहद लोकप्रिय हुए। साठ के दशक की शुरुआत में सचिन दा को हृदयाघात हुआ। तबियत खराब होने की वजह से उनका काम रुक गया।  देव आनंद तब गाइड पर फिल्म बनाने की तैयारियों में लगे थे। सारे निर्माता जब सचिन दा से कन्नी काट रहे थे तब देव आनंद ने सचिन दा के स्वस्थ होने का इंतज़ार किया और गाइड की कमान उन्हें ही सौंपी। दादा ने भी गाइड के लिए जो संगीत दिया वो सदा सदा के लिए अजेय अमर हो गया।

फिल्म की कहानी जेल से निकलते हुए गाइड राजू से शुरु होती है जो अपनी पुरानी ज़िंदगी में लौटने की बजाए अपने नए सफ़र की शुरुआत  के लिए एक अनजान डगर पर चल उठता है। सचिन दा ने इस परिस्थिति के लिए एक बार फिर गीतकार शैलेंद्र को याद किया। अपनी आत्मकथा सरगमेर निखाद में वो लिखते हैं कि

जो भी शैलेंद्र ने मेरे लिए लिखा व सीधा और सरल होता था।  यही वज़ह थी कि मैं अपने सीमित हिंदी ज्ञान के बावज़ूद उसके बोलों को मन में पूरी तरह दृश्यांकित कर पाता था।

शैले्द ने जिस खूबसूरती से जीवन के शाश्वत सत्य को, हमारे रहने ना रहने से दुनिया पर पड़ते फर्क को अपने दर्शन के साथ इस गीत में उभारा है उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम होगी। इस गीत को अगर आप ध्यान से सुनें तो हर अंतरे की पहली और तीसरी पंक्ति को दो हिस्से में बँटा पाएँगे जिनके बीच और बाद में संगीत के टुकड़े गीत की भावनाओं की गूँज से प्रतीत होते हैं। सचिन दा दूसरी और चौथी पंक्ति में अपनी आवाज़ का सारा दर्द उड़ेल देते हैं। हर अंतरे की पाँचवी पंक्ति के ठीक बीच में नगाड़े की ध्वनि का इस्तेमाल भी बड़ी खूबसूरती से हुआ है। इसी वज़ह से इतने अल्प वाद्य यंत्रों के प्रयोग बावज़ूद ये गीत इतना प्रभावी बन पड़ा है। आख़िर में मुसाफ़िर शब्द को सचिन दा का अलग अलग रूप  में गाना, श्रोता कभी भूल नहीं पाता।

वैसे क्या आप जानते हैं सचिन दा ने इस गीत की आंरंभिक धुन अपने गाए बंगाली गीत  दूर कोन प्रबासे तोमि चले जाइबा रे, तोमि चोले जाइबा रे बंधु रे कबे आइबा रे से ली थी। यकीन नहीं आता तो सचिन दा के गाए इस बाँग्ला गीत को सुनिए।



और अब सुनिए फिल्म गाइड का ये नग्मा


वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर, जाएगा कहाँ
दम लेले घड़ी भर, ये छैयाँ, पाएगा कहाँ
वहाँ कौन है तेरा ...

बीत गये दिन, प्यार के पलछिन
सपना बनी वो रातें
भूल गये वो, तू भी भुला दे
प्यार की वो मुलाक़ातें
सब दूर अँधेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहाँ ...

कोई भी तेरी, राह न देखे
नैन बिछाए ना कोई
दर्द से तेरे, कोई ना तड़पा
आँख किसी की ना रोयी
कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहाँ ...

कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी
पानी पे लिखी लिखायी
है सबकी देखी, है सबकी जानी
हाथ किसी के न आयी
कुछ तेरा ना मेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहाँ ..

देव आनंद पर फिल्माए गीत को आप यहाँ देख सकते हैं।

सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की सारी कड़ियाँ...

शुक्रवार, सितंबर 13, 2013

मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार : कैसे सचिन दा ने आत्मसात किया अपनी आवाज़ में भाटियाली लोक संगीत ?

ज़रा सोचिए एक ऐसे संगीतकार के बारे में जिसने हिंदी फिल्मों में बीस से भी कम गाने गाए हों पर उसके हर दूसरे गाए गीत में से एक कालजयी साबित हुआ हो। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ पंचम के पिता और त्रिपुरा के राजसी ख़ानदान से ताल्लुक रखने वाले सचिन देव बर्मन की। सचिन दा के संगीतबद्ध गीतों से कहीं पहले उनकी आवाज़ का मैं कायल हुआ था। जब जब रेडियो पर उनकी आवाज़ सुनी उनके गाए शब्दों की दार्शनिकता और दर्द में अपने आपको डूबता पाया। बहुत दिनों से सोच रहा था कि सचिन दा के गाए गीतों के बारे में एक सिलसिला चलाया जाए जिसमें बातों का के्द्रबिंदु में उनके संगीत के साथ साथ उनकी बेमिसाल गायिकी भी हो।


इस श्रंखला में मैंने उनके उन पाँच गीतों का चयन किया है जो मेरे सर्वाधिक प्रिय रहे हैं।  तो आज इस श्रंखला की शुरुआत बंदिनी के गीत 'ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी...मेरे साजन हैं उस पार' से जो कहानी के निर्णायक मोड़ पर फिल्म समाप्त होने की ठीक पूर्व आता है। बंदिनी छुटपन में तब देखी थी जब दूरदर्शन श्वेत श्याम हुआ करता था। सच कहूँ तो आज फिल्म की कहानी भी ठीक से याद नहीं पर इस गीत और इसका हर एक शब्द दिमाग के कोने कोने में नक़्श है। कोरी भावुकता कह लीजिए या कुछ और, जब भी स्कूल और कॉलेज के ज़माने में इस गीत को सुनता था तो दिल इस क़दर बोझिल हो जाता कि मन अकेले कमरे में आँसू बहाने को करता। क्या बोल लिखे थे शैलेंद्र ने 

मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना..
गुण तो न था कोई भी.. अवगुण मेरे भुला देना।

नदी के जल से धुले सीधे सच्चे शब्द जो सचिन दा की आवाज़ के जादू से दिल में भावनाओं का सैलाब ले आते।

इस गीत को सुनते हुए क्या आपके मन में ये प्रश्न नहीं उठता कि एक नाविक द्वारा गाए जाने वाले गीतों को त्रिपुरा का ये राजकुमार अपनी गायिकी में इतनी अच्छी तरह कैसे समाहित कर पाया?

दरअसल असम, पश्चिम बंगाल, बाँग्लादेश से बहती ब्रह्मपुत्र नदी अपने चौड़े पाटों के बीच लोकसंगीत की एक अद्भुत धारा को पोषित पल्लवित करती है जिसे लोग भाटियाली लोक संगीत के नाम से जानते हैं। अविभाजित भारत में त्रिपुरा और आज का बाँग्लादेश का इलाका एक ही रियासत का हिस्सा रहे थे। 1922 में  इंटर पास करने के बाद सचिन दा बीए करने के लिए कलकत्ता जाना चाहते थे पर उनके पिता ने उन्हें कोमिला बुला लिया।  सत्तर के दशक में लोकप्रिय हिंदी पत्रिका धर्मयुग में दिए साक्षात्कार में सचिन देव बर्मन ने अपने उन दिनों के संस्मरण को बाँटते हुए लिखा था...

"जब एक वर्ष तक मैं पिताजी के पास रहा तब मैंने आसपास का सारा क्षेत्र घूम डाला। मैं मल्लाहों और कोलियों के बीच घूमता और उनसे लोकगीतों के बारे में जानकारी एकत्र करता जाता। मैं वैष्णव और फकीरों के बीच बैठता, उनसे गाने सुनता, उनके साथ हुक्का पीता। उन्हें पता भी नहीं चल पाया कि मैं एक राजकुमार हूँ। सारे नदी नाले जंगल तालाब मेरी पहचान के हो गए। उन दिनों मैंने इतने सारे गीत इकठ्ठा कर डाले कि मैं आज तक उनका उपयोग करता आ रहा हूँ पर भंडार कम ही नहीं होता। चालीस पचास वर्ष पूर्व के गीत आज भी मेरे गले से उसी सहजता से निकलते हैं।"

सो किशोरावस्था में अपने आस पास के संगीत से जुड़ने की वज़ह से सचिन दा के गले में जो सरस्वती विराजमान हुईं उसका रसपान कर आज कई दशकों बाद भी संगीतप्रेमी उसी तरह आनंदित हो रहे हैं जैसा पचास साठ साल पहले उन फिल्मों के प्रदर्शित होने पर हुए थे। तो आइए सचिन दा की करिश्माई आवाज़ के जादू में एक बार और डूबते हैं बंदिनी के इस अमर गीत के साथ...





ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी,
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी अब की बार, ले चल पार, ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार..

मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना
गुण तो न था कोई भी अवगुण मेरे भुला देना
मुझे आज की विदा का, मर के भी रहता इंतज़ार
मेरे साजन हैं उस पार..

मत खेल जल जाएगी, कहती है आग मेरे मन की
मैं बंदिनी पिया की, मैं संगिनी हूँ साजन की
मेरा खींचती है आँचल, मनमीत तेरी, हर पुकार
मेरे साजन..ओ रे माँझी...

विमल राय ने इस गीत को जिस खूबसूरती से पर्दे पर उतारा था वो भी देखने के क़ाबिल है। अगर सचिन दा के गाए इस गीत के संगीत पक्ष की ओर ध्यान दें तो पाएँगे कि पूरे गीत में बाँसुरी की मधुर तान तबले की संगत के साथ चलती रहती है। गीत की परिस्थिति के अनुसार स्टीमर के हार्न और ट्रेन की सीटी को गीत में इतने सटीक ढंग से डाला गया है कि अपने साजन से बिछुड़ रही  नायिका के मन में उठ रहा झंझावात जीवंत हो उठता है।


सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की अगली कड़ी में चर्चा होगी उनके गाए एक और बेमिसाल गीत की...

सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की सारी कड़ियाँ...

 

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