गुरुवार, अक्तूबर 31, 2013

न मोहब्बत न दोस्ती के लिए, वक्त रुकता नहीं किसी के लिए : आख़िर क्या था सुदर्शन फ़ाकिर का दर्दे दिल ?

अस्सी के दशक की शुरुआत में जगजीत सिंह ने अपनी ग़ज़ल एलबमों के आलावा कई फिल्मों में अपनी आवाज़ दी। अर्थ, साथ-साथ और प्रेम गीत में गाए नग्मे भला किस संगीत प्रेमी के दिलोदिमाग में नक़्श नहीं है? 1985 में ही एक गुमनाम सी फिल्म आई थी 'फिर आएगी बरसात'। अनजान कलाकारों के बीच अनुराधा पटेल ही फिल्म में एक जाना हुआ नाम था। ख़ैर इस फिल्म को तो अब कोई याद नहीं करता सिवाए इसमें गाई जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल की वज़हसे जिसका संगीत दिया था कुलदीप सिंह ने। कुलदीप सिंह को मूलतः फिल्म साथ -साथ के संगीत के लिए जाना जाता है और आज उनकी पहचान नवोदित ग़जल गायक जसविंदर सिंह के पिता के रूप में है। पर आज इस ग़ज़ल की याद मुझे इसके शायर सुदर्शन फाकिर की वज़ह से आयी है। पाँच साल पहले जब फ़ाकिर गुजरे तो मैंने उनकी पसंदीदा ग़ज़लों के गुलदस्ते को आपके समक्ष श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत किया था


कुछ ही दिन पहले अपने एक मित्र के यहाँ रवी्द्र कालिया की कृति ग़ालिब छूटी शराब  के पन्ने पलट रहा था कि उसमें फ़ाकिर जसे जुड़े संस्मरण पढ़ कर सहसा उनकी इस ग़ज़ल का ख्याल आ गया। न मोहब्बत न दोस्ती के लिए... उस दिन से मेरी पसंदीदा ग़ज़ल रही है जब मैंने इसे पहली बार सुना था। कितनी सादगी से फाकिर के बोलों और जगजीत की नौजवान आवाज़ से ये ग़ज़ल बेहद अपनी सी हो गई थी। इसका हर मिसरा अपने दिल से फूटता महसूस होता था। तब क्या जानते थे कि फ़ाकिर जिंदगी के दर्शन को जिस खूबी से इन अशआरों में पिरो गए हैं, ख़ुद उन्होंने ने क्या दर्द सहे होंगे ऍसी ग़ज़लों को लिखने के लिए


 

न मोहब्बत न दोस्ती के लिए
वक्त रुकता नहीं किसी के लिए


दिल को अपने सज़ा न दे यूँ ही
इस ज़माने की बेरुखी के लिए

कल जवानी का हश्र क्या होगा
सोच ले आज दो घड़ी के लिए

हर कोई प्यार ढूंढता है यहाँ
अपनी तनहा सी ज़िन्दगी के लिए

वक्त के साथ साथ चलता रहे
यही बेहतर है आदमी के लिए



कोई ग़ज़ल किसी शायर के लिए क्या माएने रखती है ये जानना हर ग़ज़ल प्रेमी श्रोता की फ़ितरत में होता है। जब मैंने कालिया जी की किताब से फ़ाकिर से जुड़ा ये संस्मरण पढ़ा तो लगा कि शायद ये ग़ज़ल भी उन्होंने ऍसे ही मानसिक हालातों में लिखी होगी जिसका ज़िक्र कालिया जी यूँ करते हैं।
"फाकिर का कमरा एक मुसाफिरखाने की तरह था। सुदर्शन फाकिर इश्‍क में नाकाम होकर सदा के लिए फीरोजपुर छोड़कर जालंधर चला आया था और उसने एम0ए0 (राजनीति शास्‍त्र) में दाखिला ले लिया था। जालंधर आकर वह फकीरों की तरह रहने लगा। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और शायरों का लिबास पहन लिया था। उसका कमरा भी देखने लायक था। एक बड़ा हालनुमा कमरा था, उसमें फर्नीचर के नाम पर सिर्फ दरी बिछी हुई थी। बीच-बीच में कई जगह दरी सिगरेट से जली हुई थी। अलग-अलग आकार की शराब की खाली बोतलें पूरे कमरे में बिखरी पड़ी थीं, पूरा कमरा जैसे ऐशट्रे में तब्‍दील हो गया था। फाकिर का कोई शागिर्द हफ्‍ते में एकाध बार झाड़ू लगा देता था। कमरे के ठीक नीचे एक ढाबा था। कोई भी घंटी बजाकर कुछ भी मंगवा सकता था। देखते-देखते फ़ाकिर का यह दौलतखाना पंजाब के उर्दू, हिन्‍दी और पंजाबी लेखकों का मरकज़ बन गया। अगर कोई काफी हाउस में न मिलता तो यहाँ अवश्‍य मिल जाता। दिन भर चाय के दौर चलते और मूँगफली का नाश्‍ता। अव्‍वल तो फ़ाकिर को एकांत नहीं मिलता था, मिलता तो ‘दीवाने गालिब' में रखे अपनी प्रेमिका के विवाह के निमंत्रण को टकटकी लगाकर घूरता रहता। इस एक पत्र ने उसकी ज़िन्‍दगी का रुख पलट दिया था।"

इसे पढ़ने के बाद आप इस ग़ज़ल को फिर सुनें। क्या आपको सुदर्शन के दर्द की गिरहों का सिरा नहीं मिलता?


शुक्रवार, अक्तूबर 25, 2013

मन्ना डे (1919-2013) : हम ना भूलेंगे तुम्हें अल्लाह कसम..!

कल सुबह कार्यालय पहुँचने के साथ ही मन्ना दा के जाने की ख़बर मिल गयी थी।  अपनी तरह की आवाज़, शास्त्रीयता पर गहरी पकड़ और किसी भी मूड के गीत को निभा पाने की सलाहियत के बावज़ूद मन्ना डे को वो मौके नहीं मिल पाए जिसके वो हक़दार थे। शायद ये उस युग में पैदा होने का दुर्भाग्य था जब रफ़ी, किशोर, लता व मुकेश की तूती बोलती थी। फिर भी मन्ना दा ने जितने भी गीत गाए वो उन्हें बतौर पार्श्व गायक अमरता प्रदान करने के लिए काफ़ी रहे।

सत्तर के उत्तरार्ध और फिर अस्सी के दशक में जब हमारी पीढ़ी किशोरावस्था की सीढ़ियाँ लाँघ रही थी तब हिंदी फिल्मी गीतों में मन्ना डे की भागीदारी बहुत सीमित हो गई थी। ऐसे में रेडियो ही मन्ना दा की आवाज़ को हम तक पहुँचाता रहा था। बचपन में मन्ना डे के जिस गीत ने मुझे सबसे ज्यादा आनंदित किया था वो गीत था फिल्म 'तीसरी कसम' से। गीत के बोल थे  'चलत मुसाफ़िर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया..'। मन्ना डे जब गीत की इस पंक्ति तक पहुँचते  'उड़ उड़ बैठी हलवइया दुकनिया, बर्फी के सब रस ले लिया रे पिंजरे वाली मुनिया' तो बालमन गीत की लय में पूरी तरह तरंगित हो जाता। हाँ ये जरूर था कि गीत के बोल  से मन में इस चिड़िया के बारे मैं कौतूहल जरूर उत्पन्न होता था कि ये कैसे मिठाई व कपड़ों का रस निकाल लेती होगी। अब ये क्या जानते थे कि गीतकार शैलेंद्र की इस विचित्र चिड़िया का संबंध 'खूबसूरत स्त्री' से था।

स्कूल के दिन में शास्त्रीय संगीत की ज्यादा समझ तो नहीं थी पर बहन को रियाज़ करता सुनते रहने से संगीत में उसकी अहमियत का भास जरूर हो आया था। ऐसे में रेडियो पर जब पहली बार मन्ना डे का फिल्म वसंत बहार के लिए गाया गीत 'सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं .'.सुना तो बस इस गीत में डूबता चला गया और इतने दशकों बाद भी इसे गुनगुनाते हुए मन एक अलग ही दुनिया में विचरण करने लगता है। बाँसुरी की आरंभिक धुन के बाद मन्ना डे का आलाप मन को मोह लेता है और जब मन्नाडे की आवाज़ स्वर की साधना को परमेश्वर की आराधना का पर्याय बताती है तो उससे ज्यादा सच्ची बात कोई नहीं लगती।

सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं, सुर के बिना जीवन सूना.
संगीत मन को पंख लगाए,गीतों से रिमझिम रस बरसाए
स्वर की साधना ....,स्वर की साधना परमेश्वर की
सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं
सुर के बिना जीवन सूना.


मैंने मन्ना डे के मुरीद बहुतेरे संगीत प्रेमियों के संग्रह में उनके बेमिसाल शास्त्रीय गीतों की फेरहिस्त देखी है। मजे की बात ये है कि इनमें से अधिकांश ऐसे लोग थे जिन्हें शास्त्रीय संगीत के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। ये मन्ना डे की गायिकी और आवाज़ का ही जादू ही था जो शास्त्रीय संगीत को आम संगीतप्रेमी जनमानस के करीब खींच सका। लपक झपक तू आ रे बदरवा, ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं (राग पीलू), लागा चुनरी में दाग (राग भैरवी), तू छुपी है कहाँ (राग मालकोस) जैसे शास्त्रीय रागों पर आधारित कठिन गीतों को गाकर मन्ना डे ने आम जनमानस से जो वाहवाही लूटी वो किसी से छुपी नहीं है। शास्त्रीय रागों पर आधारित गीतों में मुझे राग अहीर भैरव पर आधारित मन्ना डे का फिल्म तेरी सूरत मेरी आँखें फिल्म का ये गीत बेहद प्रिय है.

पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई 
इक पल जैसे, इक जुग बीता 
जुग बीते मोहे नींद ना आयी
उत जले दीपक, इत मन मेरा
फिर भी ना जाए मेरे घर का अँधेरा
तरपत तरसत उमर गँवाई,
पूछो ना कैसे...



ख़ुद संगीतकार सचिन देव बर्मन अपनी पुस्तक 'सरगमेर निखाद' में इस गीत का जिक्र करते हुए कहते हैं 
"जब भी मैंने अपनी फिल्म के लिए जब भी शास्त्रीय गीत को संगीतबद्ध किया मेरी पहली पसंद मन्ना डे रहे और देखिए ये गीत किस खूबसूरती से मन्ना की आवाज़ में निखरा। ये एक गंभीर और धीमा गीत था जिसे निभाना बेहद कठिन था। मन्ना ने इस अंदाज़ में गीत को निभाया कि वो आज भी उतना ही लोकप्रिय है और मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाले समय में भी ये संगीत के मर्मज्ञों और आम जनों द्वारा समान रूप से सराहा जाएगा। "
सचिन दा के आलावा संगीतकार सलिल चौधरी ने अंत तक मन्ना डे की आवाज़ का बेहतरीन इस्तेमाल किया। सलिल दा और मन्ना डे की इस जुगलबादी से निकले अपने तीन सर्वप्रिय गीतों 'ज़िंदगी कैसी है पहेली हाए..', 'फिर कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको....' और 'हँसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है...' के बारे में पहले भी मैं विस्तार से लिख चुका हूँ।

इतने गुणी गायक होने के बावज़ूद मन्ना डे को फिल्मों में मुख्य नायक को स्वर देने के मौके कम ही मिले। कोई और गायक होता तो इस स्थिति में अवसादग्रस्त हो जाता पर मन्ना जीवटता से डटे रहे। उन्होंने फिल्मों के आम चरित्रों के लिए कुछ ऐसे परिस्थितिजन्य गीत गाए जिनकी पहचान उन फिल्मों से ना होकर उनमें व्यक्त भावों से हुई। आप ही कहिए क्या आप आज भी अपने लाड़ले को देखकर इस गीत की पंक्तियाँ नहीं गुनगुनाते तूझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा ...मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा .....



आज भी जब स्कूलों में प्रार्थना होती है तो फिल्म सीमा का ये गीत तू प्यार का सागर है, तेरी इक बूँद के प्यासे हम..... गाते ही हाथ भगवन की तरफ़ श्रद्धा से जुड़ जाते हैं।



वहीं स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस के दिनों में बजते फिल्म 'काबुलीवाला' के देशभक्ति गीत ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान... सुनकर आँखें डबडबा जाती हैं। 

abc

इसी तरह फिल्म उपहार में चरित्र अभिनेता प्राण पर फिल्माए गीत 
कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं...बातों का क्या, 
कोई किसा का नहीं ये झूठे नाते हैं...नातों का क्या 
में बिना किसी संगीत के जब मन्ना दा की आवाज़ आज भी उभरती है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।




ये सारे गीत इस बात को साबित करते हैं मन्ना दा को भले ही नायकों के पर्दे पर के तिलिस्म का साथ ज्यादा नहीं मिला,फिर भी अपनी बेमिसाल गायिकी से उन्होंने इसकी कमी महसूस नहीं होने दी। ऐसी आवाज़ के मालिक थे मन्ना दा जो हर मूड को अपनी गायिकी से जीवंत कर देते थे। 

मन्ना डे ने जहाँ आओ टविस्ट करें जैसे तेज गीत गाए वहीं किशोर, रफ़ी, आशा व लता जैसे दिग्गजों के साथ इक चतुर नार...., ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे...., फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम...., ना तो कारवाँ की तलाश है..., ये रात भीगी भीगी... में भी अपनी उपस्थिति को बखूबी दर्ज किया। गैर फिल्मी गीतों का भी एक बहुत बड़ा खजाना मन्ना डे के नाम है। हरिवंश राय 'बच्चन' की मधुशाला को जन जन तक पहुँचाने का श्रेय जितना अमिताभ को है उतना ही मन्ना डे का है। इतनी बड़ी विरासत अपने पीछे छोड़ जाने वाले इस गायक के बारे में मेरे जैसे संगीतप्रेमी तो यही कहना चाहेंगे हम ना भूलेंगे तुम्हें अल्लाह कसम..!

सोमवार, अक्तूबर 21, 2013

रंगीला रंगीला रंगीला रे...सुन मेरे बंधु रे : क्या था भाटियाली गीतों के प्रति सचिन दा का नज़रिया ?

पिछले हफ्ते थाइकैंड की यात्रा पर निकलने की वज़ह से एस डी बर्मन से जुड़ी श्रंखला का आख़िरी भाग आपके सम्मुख पहले नहीं ला सका। जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट में जिक्र किया था कि इस कड़ी में मैं उन गीतों की बात करूँगा जिनके बारे में चर्चा करने का अनुरोध आपने अपनी टिप्पणियों में किया है। साथ ही एक सरसरी सी नज़र हिंदी फिल्मों में गाए उनके अन्य गीतों पर भी होगी...



तो आज की कड़ी की शुरुआत करते हैं निहार रंजन के पसंदीदा बाँग्ला गीत रंगीला रंगीला रंगीला रे..से। बर्मन दा ने अपनी आवाज़ में ये गीत सन 1945 में रिकार्ड किया था और ये बेहद लोकप्रिय भी हुआ था। खागेश देव बर्मन, सचिन दा से जुड़ी अपनी किताब में इस गीत के संदर्भ में लोक संगीत को निभाने में सचिन दा की माहिरी के बारे में संगीतकार व गायक कबीर सुमन को उद्धृत करते हुए कहते हैं

लोक संगीत की नब्ज़ जाने बगैर इस गीत की पंक्ति तुमी होइयो किनर बंधु, आमि गांगेर पानी के बाद ई ई.. स्वर को खींचना एक आम गायक के बस की बात नहीं है। खागेश का मानना है कि इस गीत में कुछ खास शब्दों पर जोर देने के लिए सचिन दा का रुकना और डुबियो गेलो बेला के पहले हे हे ..का प्रयोग डूबते सूरज की स्थिति को गायिकी द्वारा चित्रित करने में सहायक होता है।

इस गीत को पूर्वी बंगाल के कवि जसिमुद्दिन ने लिखा था। बाँग्लादेश में जसिमुद्दिन को लोक या ग्रामीण कवि के रूप में जाना जाता है। रंगीला रे एक नाविक द्वारा गाया भाटियाली प्रेम गीत है जिसमें वो अपनी प्रेमिका से पूछता है कि आख़िर तुम मुझे छोड़ कर कहाँ चली गयी?

बंधु रंगीला रंगीला रंगीला रे
आमरे छाड़ियर बंधु कोइ गैला रे

नाविक कहता है कि तुम अगर चंदा हो तो मैं नदी की बहती धारा हूँ। देखना ज्वार भाटा की बेला में हम एक हो जाएँगे। अगर तुम फूल हो तो तुम्हारी सुगंध के पीछे मैं बहती हवा के रूप में देश विदेश तब तक भटकूँगा जब तक पागल ना हो जाऊँ। वैसे बंगाली ना होने के बावज़ूद ये गीत सहज ही मन में बैठ जाता है। आप भी सुनकर देखिए..




वैसे हिंदी फिल्मों में भाटियाली गीतों की परंपरा सचिन दा ने सुजाता में गाए अपने बेहद लोकप्रिय गीत सुन मेरे बंधु रे सुनो मोरे मितवा ...से की। क्या सहज व प्यारे बोल लिखे थे मज़रूह ने इस गीत में...

होता तू पीपल मैं, होती अमरलता तेरी
तेरे गले माला बनके, पड़ी मुसकाती रे, सुन मेरे...
दीया कहे तू सागर मैं, होती तेरी नदिया
लहर लहर करती मैं पिया से मिल जाती.. रे सुन मेरे.



भाटियाली लोक संगीत के बारे में सचिन दा का अपना एक नज़रिया था। उन्होंने लोक संगीत से जुड़े अपने एक लेख में लिखा है..
"मेरे लिए भाटियाली मिट्टी की एक धुन है। इसकी जड़े ज़मीन से निकलती हैं और धरती ही इन धुनों को पोषित पल्लवित करती है। भाटियाली एक तरह से बहती नदी का गीत है। इसके सुर, इसके बोल, इसकी पीड़ा, इसकी खुशियाँ हमें बंगाल की नदियों की याद दिलाती हैं। भाटियाली गीत एक आम किसान का प्रेम गीत भी हो सकता है तो वहीं वो राधा कृष्ण के रास रंग को भी चित्रित कर सकता है। भाटियाली गीतों का मूड, उनकी कैफ़ियत दार्शनिकता में डूबे अकेलेपन को स्वर देती है पर ये दार्शनिकता बाउल गीतों से अलग होती है।"

1969 में आराधना के साथ एक और फिल्म आयी थी जिसका नाम था तलाश जिसका जिक्र हर्षवर्धन ने अपनी टिप्पणी में किया है। इस फिल्म में भी सचिन दा ने अपने अन्य फिल्मी गीतों की तरह पार्श्व से एक गीत गाया था। गीत के बोल थे मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में शीतल छाया तू, दुख के जंगल में। फिल्म के ठीक प्रारंभ में आने वाले इस गीत के बोल लिखे थे गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने। माँ की ममता को सर्वोपरि मानने वाले इस गीत की भावनाओं से भला कौन अपने आपको अलग कर सकता है?



इन गीतों के आलावा सचिन दा ने Eight Days,ताजमहल, प्रेम पुजारी,तेरे मेरे सपने,ज़िंदगी ज़िंदगी व सगीना जैसी फिल्मों में भी पार्श्व गायक की भूमिका अदा की पर इन फिल्मों के लिए उनके गाए गीत उतने चर्चित नहीं रहे। इस प्रविष्टि के साथ सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला का यहीं समापन करता हूँ। आशा है सचिन दा के गाए इन गीतों और उनके पीछे छुपे व्यक्तित्व से जुड़ी बातों को आपने पसंद किया होगा।

सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की सारी कड़ियाँ...

शुक्रवार, अक्तूबर 04, 2013

सफल होगी तेरी आराधना, काहे को रोये... जब पहली बार मिला सचिन दा को गायिकी के लिए नेशनल अवार्ड !

हिंदी फिल्मों में सचिन दा के गाए गीतों की इस चर्चा में आज बात 1969 में आई फिल्म 'आराधना' की। आपको तो याद ही होगा कि इस फिल्म के सुपरहिट गीतों ने नवोदित नायक राजेश खन्ना और गायक किशोर कुमार के कैरियर का रुख ही मोड़ दिया था। इस फिल्म में सचिन दा ने एक गीत गाया था..सफल होगी तेरी आराधना..काहे को रोये। सचिन देव बर्मन के गाए अधिकांश गीतों से उलट इस गीत में भाटियाली लोक संगीत का अक़्स नहीं था। दरअसल इस गीत की जो प्रकृति है वो बहुत कुछ बंगाल के प्रचलित लोक नाट्य  जात्रा (यात्रा) में आने वाले प्रतीतात्मक क़िरदार बिबेक (विवेक) से मिलती जुलती है!

 'जात्रा' जो हिंदी शब्द 'यात्रा' का बंगाली रूप है, एक सांगीतिक लोक नाट्य के रूप में चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन से प्रचलित होना शुरु हुआ। जात्रा की शुरुआत धान की कटाई के साथ होती थी जब कलाकार जत्थों के रूप में गाँव देहात के अंदरुनी इलाकों तक पहुँच जाते। ये सिलसिला अगले मानसून के आने के पहले चलता रहता।
इस तरह के लंबे नाटकों में संगीत का प्रयोग, आरंभिक भीड़ जुटाने और नाटक के बीच के परिदृश्यों को जोड़ने के काम में होता था।  इन नाटकों में अक्सर एक प्रतीतात्मक क़िरदार बिबेक (विवेक) का मध्य में आगमन होता जो नैतिकता के आवरण में नाटक की परिस्थितियों को एक दार्शनिक की तरह तौलते हुए अपना दृष्टिकोण रखता। अगर आपने गौर किया हो तो  पाएँगे कि इससे पहले वहाँ कौन है तेरा मुसाफ़िर जाएगा कहाँ ...में भी आप 'बिबेक' की इस दार्शनिकता का स्वाद चख चुके हैं। सचिन दा के सामने दिक्कत यही थी उनके गीतों में दार्शनिकता का पुट भरने वाले गीतकार शैलेन्द्र आराधना के बनने से पहले ही दुनिया छोड़ चुके थे। बर्मन दा ने शैलेंद्र की अनुपस्थिति में ये काम आनंद बख्शी को सौंपा।


बख्शी साहब को अपने शब्दों से  घोर निराशा में डूबी एक अनब्याही माँ (जिस के सर से अचानक ही प्रेमी और पिता का आसरा छिन जाता है) के मन में आशा का संचार करना था। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सहज शब्दों में जिस सोच को पैदा करने की काबिलियत शैलेंद्र ने अपने गीतों में दिखाई थी, आनंद बख्शी ने इस गीत में भली भाँति उस परंपरा का निर्वाह किया। सचिन दा ने इस खूबी से गीत की भावनाओं को अपने स्वर में उतारा कि उन्हें 1970 में इस गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक का नेशनल एवार्ड मिला।

सचिन दा गाने के साथ प्रयुक्त होने वाले वाद्यों के बारे में निश्चित सोच रखते थे। गीतों में आर्केस्ट्रा के इस्तेमाल को वौ गैरजरूरी समझते थे। उन्हें लगता था कि विविध वाद्य यंत्रों का अतिशय प्रयोग गीत की आत्मा को मार देता है, उसे उभरने नहीं देता। बाँसुरी, सरोद सितार जैसे भारतीय वाद्य यंत्र तो उन्हें प्रिय थे ही वो लोक संगीत में बजने वाले वाद्य यंत्र जैसे इकतारा का भी अपने गीतों में अक्सर इस्तेमाल करते थे। इस गीत के संगीत पक्ष की बात करें तो उससे जुड़ा एक बड़ा मजेदार किस्सा है जिसका जिक्र निर्माता शक्ति सामंत ने अपने संस्मरणों में किया है।

"सचिन दा को मैंने एक बार ही बड़े गुस्से में देखा है। बात तबकी है जब सफल होगी तेरी.... की रिकार्डिंग चल रही थी। पंचम ने उस गीत के लिए कुल मिलाकर बारह वादकों को बुला रखा था जबकि सचिन दा ने पंचम को कह रखा था कि गीत में ग्यारह से ज्यादा वादकों की जरूरत नहीं है। पर पूरा दिमाग लड़ाने के बाद भी पंचम ये निर्णय नहीं ले पाए कि इनमें से किसे छाँटा जाए। जब सचिन दा आए तो वे ये देख के आगबबूला हो गए। आख़िरकार गीत ग्यारह वादकों से ही रिकार्ड किया गया। बारहवें वादक ने कुछ बजाया भले नहीं पर उसे सचिन दा ने पूरा मेहनताना दे कर ही विदा किया।"

तो ऐसे थे हमारे सचिन दा । तो आइए उनकी आवाज़ में इस गीत को सुना जाए..


बनेगी आशा इक दिन तेरी ये निराशा
काहे को रोये, चाहे जो होए
सफल होगी तेरी आराधना
काहे को रोये...

समा जाए इसमें तूफ़ान
जिया तेरा सागर सामान
नज़र तेरी काहे नादान
छलक गयी गागर सामान
ओ.. जाने क्यों तूने यूँ
असुवन से नैन भिगोये
काहे को रोये...

दीया टूटे तो है माटी
जले तो ये ज्योति बने
बहे आँसू तो है पानी
रुके तो ये मोती बने
ओ.. ये मोती आँखों की
पूँजी है ये ना खोये
काहे को रोये...

कहीं पे है दुःख की छाया
कहीं पे है खुशियों की धूप
बुरा भला जैसा भी है
यही तो है बगिया का रूप
ओ..फूलों से, काँटों से
माली ने हार पिरोये
काहे को रोये...


 

ये तो थे सचिन दा के गाए मेरे प्रियतम चार नग्मे। इस श्रंखला की आख़िरी कड़ी में मैं उन गीतों की बात करूँगा जिनके बारे में चर्चा करने का अनुरोध आपने अपनी टिप्पणियों में किया है। साथ ही एक सरसरी सी नज़र हिंदी फिल्मों में गाए उनके अन्य गीतों पर भी.. 

सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की सारी कड़ियाँ...


 

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