रविवार, नवंबर 10, 2013

जाने भी दो यारों : एक मनोरंजक फिल्म पर लिखी गई रोचक किताब !

कुछ सालों पहले एक मित्र ने फिल्म जाने भी दो यारों पर जय अर्जुन सिंह की लिखी पुस्तक  Jane Do Bhi Yaaro Seriously funny since 1983 की सिफारिश की थी। अपने शहर में तो मिली नहीं। कुछ बड़े शहरों में जब गया तो वहाँ खोजा पर किसी फिल्म के बारे में लिखी किताब लीक से हट कर ही होती है। सो वहाँ भी निराशा हाथ लगी और फिर मैं इस किताब के बारे में भूल ही गया। पिछले महीने अचानक ही दोस्तों के बीच 'जाने भी दो यारों' के सबसे पसंदीदा दृश्य की चर्चा चली तो फिर एकदम से इस किताब की याद आ गई। इंटरनेट पर इसे खँगाला और कुछ ही दिनों में ये मेरे स्टडी टेबल की शोभा बढ़ा रही थी। 'जाने दो भी यारों' को मेरी पीढ़ी के अधिकांश लोगों ने दूरदर्शन पर ही देखा। वैसे भी उन दिनों मल्टीप्लेक्स तो थे नहीं तो NFDC द्वारा निर्मित फिल्मों का हम जैसे छोटे शहरों के बाशिंदों तक पहुँच पाना बेहद मुश्किल था।


किशोरावस्था के दिनों में देखी इस फिल्म का मैंने खूब आनंद उठाया था। फिल्म का चर्चित संवाद 'थोड़ा खाओ थोड़ा फेंको..., म्युनिसिपल कमिश्नर डिमेलो के रूप में फिल्म के आधे हिस्से में चलती फिरती लाश का किरदार निभाने वाले सतीश शाह का अभिनय, तरनेजा और आहूजा की डील पर पलीता लगाता वो सीक्रेट कॉल और अंत का महाभारत वाला दृश्य दशकों तक फिल्म ना देखने के बाद भी दिमाग से उतरा नहीं था इसीलिए ये किताब हमेशा मेरी भविष्य में पढ़ी जाने वाली किताबों की सूची में आगे रही।  पिछले हफ्ते जब दीपावली की छुट्टियों में 272 पृष्ठों वाली इस किताब को पढ़ने का मौका मिला तो इस फिल्म के सारे दृश्य एक एक कर फिर से उभरने लगे।

पर इस किताब की बात करने से पहले इसके लेखक से आपका परिचय करा दूँ। 1977 में जन्मे जय अर्जुन सिंह विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र रूप से लिखते तो रहे ही हैं पर साथ ही वे एक ब्लॉगर भी हैं अपने ब्लॉग Jabberwock पर फिल्मों के बारे में नियमित रूप से लिखते हैं। उनकी दूसरी किताब Popcorn Essayists : What Movies do to Writers ? 2011 में प्रकाशित हुई थी।


अर्जुन ने इस किताब को तीन अहम हिस्सों में बाँटा है। पहले हिस्से की शुरुआत वो फिल्म के निर्देशक कुंदन शाह के छात्र जीवन से करते हैं। वे पाठकों को बताते हैं कि किस तरह 'स्टोर एटेंडेंट' का काम करने वाला ये शख़्स पुणे के फिल्म और टेलीविजन इंस्टट्यूट में जा पहुँचा? किस तरह वहाँ से उत्तीर्ण होने के कई सालों बाद उसके मन में अपनी एक फिल्म बनाने के सपने का जन्म हुआ। अपने आस पास की परिस्थितियों और अपने दोस्त की आप बीती से प्रभावित हो कर कुंदन शाह जब इस फिल्म की पटकथा लिखने बैठे तब जाकर इस फिल्म की कहानी का प्रारूप तैयार हुआ। कुंदन शाह, रंजीत कपूर व सतीश कौशिक के सहयोग से इस फिल्म की पटकथा किस तरह विकसित हुई ये जानना इस फिल्म के चाहने वालों के लिए तो दिलचस्प है ही पर साथ ही फिल्म निर्माण के दौरान पटकथा में आने वाले परिवर्तन की प्रक्रिया फिल्म निर्माण के प्रति हमारी समझ को बढ़ाती है।

किताब के दूसरे संक्षिप्त हिस्से में फिल्म में काम करने वाले किरदारों के चयन से जुड़े मज़ेदार तथ्य हैं। क्या आप सोच सकते हैं कि फिल्म के मुख्य किरदार और सबसे बड़े नाम नसीरुद्दीन शाह को मेहनताने के रूप में तब सिर्फ 15000 रुपये मिले थे। पंकज कपूर, रवि वासवानी, सतीश शाह, ओम पुरी जैसे कलाकारों की हालत तो उससे भी गयी गुजरी थी। पर सात लाख से थोड़े ज्यादा बजट की ये फिल्म पैसों के लिए नहीं बनी थी। इसमें काम करने वाले अधिकांश कलाकार अपने कैरियर के उस पड़ाव पर थे जहाँ कुछ अच्छा और सामान्य से अलग करने का जज़्बा किसी भी पारिश्रमिक से कहीं ऊपर था। कलाकारों की इसी भावना ने फिल्म की इतनी बड़ी सफलता की नींव रखी।

इस किताब का सबसे रोचक हिस्सा तब आरंभ होता है जब अर्जुन पाठकों के सामने इसमें आने वाले हर दृश्य के पीछे की कहानी को परत दर परत उधेड़ते हैं। ऐसे तो किसी भी उत्पाद का मूल्यांकन उसके आख़िरी स्वरूप के आधार पर होता है पर अगर आप उस उत्पाद को उस स्वरूप तक लाने के लिए आई मुश्किलों और उन कठिनाइयों पर सामूहिक चेष्टाओं के बल पर पाई विजय के बारे में जान लें तो उस उत्पाद के प्रति आपका नज़रिया पहले से ज्यादा गहन और परिष्कृत हो जाता है। किसी फिल्म को पहली बार देखने वाला पर्दे पर घटने वाली कई बातों को सहज ही नज़रअंदाज कर देता है। इस किताब को पढ़ने के बाद अर्जुन द्वारा लिखी बातों के मद्देनज़र इस फिल्म को दोबारा देख रहा हूँ और हर दृश्य के बारे में एक अलग अनुभूति हो रही है। 


अब भला आप ही बताइए 'तनेजा' और 'आहूजा' की मीटिंग के पहले मारे गए चूहे को देख कर क्या आप सोचेंगे कि चूहे की लाश कैसे जुगाड़ी गई होगी? महाभारत वाले दृश्य के ठीक बाद, लाश को ले कर भागते किरदारों को बुर्का पहने महिलाओं की भीड़ में घुसते देख कर क्या आपको ये अजीब लगा होगा कि इन बुर्कों का रंग सिर्फ काला क्यूँ नहीं है? क्या आप कल्पना करेंगे कि सतीश कौशिक और नसीर के टेलीफोन वाले दृश्य में रिसीवर को नीचे पटकने के बजाए नसीर दृश्य के लॉजिक के परे होने की वज़ह से अपना सर पटक रहे होंगे? फिल्म के निराशाजनक अंत को देखकर कहाँ जाना था कि मेरी तरह राजकपूर को भी ये अंत नागवार गुजरा होगा?  क्या आप जानते हैं कि अनुपम खेर ने इस फिल्म में 'डिस्को किलर' का दिलचस्प चरित्र किया था। पर इतनी मेहनत के बाद उन्हें क्या पता था कि उनका चरित्र सिर्फ इस वजह से फिल्म से कट जाएगा क्यूँकि 145 मिनट से ज्यादा लंबी फिल्म होने से नियमों के मुताबिक निर्माता NFDC को ज्यादा टैक्स भरना पड़ता। ऐसी तमाम घटनाओं का इस पुस्तक में जिक्र है जो आपको पुस्तक से अंत तक बाँधे रखती है।

लेखक ने जहाँ इस फिल्म के सशक्त पक्षों को पाठकों के सामने रखा है वहीं इसकी कमियों की ओर इशारा करने से भी गुरेज़ नहीं किया है। कुल मिलाकर इंटरनेट पर दौ सौ रुपयों में उपलब्ध ये किताब उन सभी लोगों को पसंद आएगी जिन्हें समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को अपने तीखे व्यंग्यों से कचोटती और अपनी निराली पटकथा से गुदगुदाती ये फिल्म हिंदी सिनेमा में अपनी कोटि की बेहतरीन फिल्म लगती है।
Related Posts with Thumbnails

12 टिप्पणियाँ:

विकास सोनी on नवंबर 11, 2013 ने कहा…

अगर कभी पढ़ने का मोका मिला तो ज़रूर पढ़ूंगा ये किताब !

मुनीश ( munish ) on नवंबर 11, 2013 ने कहा…

कुछ अंश यहीं छाप दें तो इनायत होगी । फिल्म का मज़ा कई बार लिया है लेकिन किताब खरीदना तो तभी होगा जी जब भारत आया जाएगा । बहरहाल, मेरी मनपसंद फ़िल्म का ज़िक्र करने के लिए धन्यवाद ।

suparna ने कहा…

i really need to re-read this book, but i loved the idea of the 'disco killer' character, which they sadly had to drop...

lori on नवंबर 12, 2013 ने कहा…

फ़िल्म तो बहुत मज़े लेकर देखी, मगर इस क़िस्म की कोई
किताब भी शाय हुई, यह आज मालूम चला!! बहरहाल मज़मून देख कर लगता है,खरीदनी ही होगी! जानकारी के लिए आभार
http://meourmeriaavaaragee.blogspot.in/2013/11/blog-post_3080.html

Dilip Kawathekar on नवंबर 12, 2013 ने कहा…

Telephone wala drushya isiliye haasya ki utpatti karta hai kyonki It defies logic.
Manish Kumar ji. Where can i get it?

Ankit Joshi on नवंबर 12, 2013 ने कहा…

Padhni padegi kitaab

Manish Kumar on नवंबर 12, 2013 ने कहा…

सही कहा दिलीप जी। फिल्म प्रदर्शित होने के बाद नसीर को महसूस हुआ कि वो दृश्य का उस वक़्त सही मूल्यांकन नहीं कर पाए थे। दरअसल उससे पहले तक वो गंभीर सिनेमा यानि Art Cinema के मुख्य कर्णधार थे। कॉमेडी उनके लिए एकदम नया genre था और फिल्म के कई दृश्यों को अभिनीत करने में वे खुद को असहज महसूस कर रहे थे।

पुस्तक को आप इंटरनेट पर यहाँ से मँगा सकते हैं
http://www.flipkart.com/jaane-bhi-do-yaaro/p/itmdf86kxfgnzezh

Manish Kumar on नवंबर 12, 2013 ने कहा…

मुनीश जानकर खुशी हुई कि मेरी तरह ये आपकी भी पसंदीदा फिल्म है। अगर आप पुस्तक के कुछ अंश पढ़ना चाहते हैं तो नीचे की लिंक पर जाएँ
http://books.google.co.in/books?id=wdVHFs8WjwEC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false

Manish Kumar on नवंबर 14, 2013 ने कहा…

हाँ विकास, अंकित व लोरी जरूर पढ़िए !

Manish Kumar on नवंबर 14, 2013 ने कहा…

सुपर्णा, अनुपम खेर को डिस्को किलर के रूप में देखना सच में मजेदार रहता। दुख की बात है कि फिल्म के कटे हुए वो हिस्से अब उपलब्ध नही हैं।

Kush Vaishnav on नवंबर 17, 2013 ने कहा…

Order placed with amazon 185/-

Jai Arjun Singh on नवंबर 20, 2013 ने कहा…

Hi Manish,

Mihir Pandya sent me a link to your review a few days back. A big thank you for your kind words - I'm very happy you liked the book! It has been 3 years since it came out, plus it was not very well promoted by the publishers - so it's great to know that it is still being read and liked.
best wishes,
Jai

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie