अस्सी के दशक की शुरुआत में जगजीत सिंह ने अपनी ग़ज़ल एलबमों के आलावा कई फिल्मों में अपनी आवाज़ दी। अर्थ, साथ-साथ और प्रेम गीत में गाए नग्मे भला किस संगीत प्रेमी के दिलोदिमाग में नक़्श नहीं है? 1985 में ही एक गुमनाम सी फिल्म आई थी 'फिर आएगी बरसात'। अनजान कलाकारों के बीच अनुराधा पटेल ही फिल्म में एक जाना हुआ नाम था। ख़ैर इस फिल्म को तो अब कोई याद नहीं करता सिवाए इसमें गाई जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल की वज़हसे जिसका संगीत दिया था कुलदीप सिंह ने। कुलदीप सिंह को मूलतः फिल्म साथ -साथ के संगीत के लिए जाना जाता है और आज उनकी पहचान नवोदित ग़जल गायक जसविंदर सिंह के पिता के रूप में है। पर आज इस ग़ज़ल की याद मुझे इसके शायर सुदर्शन फाकिर की वज़ह से आयी है। पाँच साल पहले जब फ़ाकिर गुजरे तो मैंने उनकी पसंदीदा ग़ज़लों के गुलदस्ते को आपके समक्ष श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत किया था।
कुछ ही दिन पहले अपने एक मित्र के यहाँ रवी्द्र कालिया की कृति ग़ालिब छूटी शराब के पन्ने पलट रहा था कि उसमें फ़ाकिर जसे जुड़े संस्मरण पढ़ कर सहसा उनकी इस ग़ज़ल का ख्याल आ गया। न मोहब्बत न दोस्ती के लिए... उस दिन से मेरी पसंदीदा ग़ज़ल रही है जब मैंने इसे पहली बार सुना था। कितनी सादगी से फाकिर के बोलों और जगजीत की नौजवान आवाज़ से ये ग़ज़ल बेहद अपनी सी हो गई थी। इसका हर मिसरा अपने दिल से फूटता महसूस होता था। तब क्या जानते थे कि फ़ाकिर जिंदगी के दर्शन को जिस खूबी से इन अशआरों में पिरो गए हैं, ख़ुद उन्होंने ने क्या दर्द सहे होंगे ऍसी ग़ज़लों को लिखने के लिए
न मोहब्बत न दोस्ती के लिए
वक्त रुकता नहीं किसी के लिए
दिल को अपने सज़ा न दे यूँ ही
इस ज़माने की बेरुखी के लिए
कल जवानी का हश्र क्या होगा
सोच ले आज दो घड़ी के लिए
हर कोई प्यार ढूंढता है यहाँ
अपनी तनहा सी ज़िन्दगी के लिए
वक्त के साथ साथ चलता रहे
यही बेहतर है आदमी के लिए
कोई ग़ज़ल किसी शायर के लिए क्या माएने रखती है ये जानना हर ग़ज़ल प्रेमी श्रोता की फ़ितरत में होता है। जब मैंने कालिया जी की किताब से फ़ाकिर से जुड़ा ये संस्मरण पढ़ा तो लगा कि शायद ये ग़ज़ल भी उन्होंने ऍसे ही मानसिक हालातों में लिखी होगी जिसका ज़िक्र कालिया जी यूँ करते हैं।
"फाकिर का कमरा एक मुसाफिरखाने की तरह था। सुदर्शन फाकिर इश्क में नाकाम होकर सदा के लिए फीरोजपुर छोड़कर जालंधर चला आया था और उसने एम0ए0 (राजनीति शास्त्र) में दाखिला ले लिया था। जालंधर आकर वह फकीरों की तरह रहने लगा। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और शायरों का लिबास पहन लिया था। उसका कमरा भी देखने लायक था। एक बड़ा हालनुमा कमरा था, उसमें फर्नीचर के नाम पर सिर्फ दरी बिछी हुई थी। बीच-बीच में कई जगह दरी सिगरेट से जली हुई थी। अलग-अलग आकार की शराब की खाली बोतलें पूरे कमरे में बिखरी पड़ी थीं, पूरा कमरा जैसे ऐशट्रे में तब्दील हो गया था। फाकिर का कोई शागिर्द हफ्ते में एकाध बार झाड़ू लगा देता था। कमरे के ठीक नीचे एक ढाबा था। कोई भी घंटी बजाकर कुछ भी मंगवा सकता था। देखते-देखते फ़ाकिर का यह दौलतखाना पंजाब के उर्दू, हिन्दी और पंजाबी लेखकों का मरकज़ बन गया। अगर कोई काफी हाउस में न मिलता तो यहाँ अवश्य मिल जाता। दिन भर चाय के दौर चलते और मूँगफली का नाश्ता। अव्वल तो फ़ाकिर को एकांत नहीं मिलता था, मिलता तो ‘दीवाने गालिब' में रखे अपनी प्रेमिका के विवाह के निमंत्रण को टकटकी लगाकर घूरता रहता। इस एक पत्र ने उसकी ज़िन्दगी का रुख पलट दिया था।"
इसे पढ़ने के बाद आप इस ग़ज़ल को फिर सुनें। क्या आपको सुदर्शन के दर्द की गिरहों का सिरा नहीं मिलता?