लोकगीतों और लोकगायकों की सबसे बड़ी खासियत होती है कि उनके गाने का लहज़ा और रिदम कुछ इस तरह का होता है कि बिना भाषाई ज्ञान रखते हुए भी आप उस संगीत रचना से बँध कर रह जाते हैं। आज एक ऐसे ही गीत से आपको रूबरू करा रहा हूँ जिसकी भाषा बलूची है। इसे गाया है बलूची लोकगायक अख़्तर चानल ज़ाहरी ने। बलूची रेडियो स्टेशन से पहली बार चार दशकों पहले अपनी प्रतिभा का परिचय देने वाले 60 वर्षीय ज़ाहरी पूरे विश्व में बलूची लोकसंगीत के लिए जाना हुआ नाम हैं। अपनी मिट्टी के संगीत के बारे में ज़ाहरी कहते हैं
"जिस जगह से मैं आता हूँ वहाँ बच्चे सिर्फ दो बातें जानते हैं गाना और रोना। संगीत से हमारा राब्ता बचपन से ही हो जाता है। बचपन में एक गड़ेरिए के रूप में अपनी भेड़ों को चराते हुए मैं जो नग्मे गुनगुनाता था वो मुझे आज तक याद हैं। मुझे तो ये लगता है कि हर जानवर, खेत खलिहान, फूल और यहाँ तक कि घास का एक क़तरा भी संगीत की धनात्मक उर्जा को महसूस कर सकता है।"
आज जिस बलूची गीत की बात मैं करने जा रहा हूँ उसे ज़ाहरी के साथ गाया था पाकिस्तानी गायिका कोमल रिज़वी ने। बहुमुखी प्रतिभा वाली 33 वर्षीय कोमल गायिकी के आलावा गीतकार और टीवी होस्ट के रूप में भी पाकिस्तान में एक चर्चित नाम हैं। जिस तरह बलूचिस्तान के दक्षिणी इलाके के साथ सिंध की सीमाएँ सटती हुई चलती हैं उसी को देखते हुए कोक स्टूडियो की इस प्रस्तुति में बलूची गीत का सिंध के सबसे लोकप्रिय लोकगीत ओ यार मेरी..दमादम मस्त कलंदर के साथ फ्यूज़न किया है। फ्यूजन तो अपनी जगह है पर इस गीत का असली आनंद ज़ाहरी और कोमल रिज़वी द्वारा गाए बलूची हिस्से को सुन कर आता है।
गीत की भाषा ब्राह्वी है जो प्राचीन बलूचिस्तान की प्रमुख स्थानीय भाषा थी। ज़ाहिरी इस गीत के बारे में बताते हैं कि क्वेटा में जब वो एक दर्जी की दुकान में बैठे थे तो उन्होंने एक फकीर को दानेह पे दानेह दानना गाते सुना। इसी मुखड़े से उन्होंने बलूचिस्तान से जुड़े अपने इस गीत को विकसित किया। गीत के मुखड़े दानेह पे दानेह दानना का अर्थ है कि संसार के अथाह दानों में से एक दाना मेरा भी है। ज़ाहरी के इस गीत में एक गड़ेरिया अपने बच्चों को बलूचिस्तान की नदियों, शहरों व प्राचीन गौरवमयी इतिहास और दंत कथाओं से परिचय कराता है। गीत के बीच बीच में जानवरों को हाँकने के लिए प्रचलित बोलियों का इस्तेमाल किया गया है ताकि लगता रहे कि ये एक चरवाहे का गीत है।
पर इस गीत का लोकगीत की सबसे मजबूत पक्ष इसकी रिदम और ज़ाहरी की जोरदार आवाज़ है जिसका प्रयोग वो अपने मुल्क की तारीफ़ करते हुए इस मस्ती से करते हैं कि मन झूम उठता है। कोमल ज़ाहरी के साथ वही मस्ती अपनी गायिकी में भी ले आती हैं। गीत के दूसरा हिस्सा मुझे उतना प्रभावित नहीं करता क्यूँकि दमादम मस्त कलंदर को इतनी बार सुन चुका हूँ कि उसे यहाँ सुनने में कुछ खास नयापन नहीं लगता।
इसलिए अगर आप सिर्फ बलूची हिस्से को सुनना चाहें तो नीचे की आडियो लिंक पर क्लिक करें।