गुरुवार, दिसंबर 17, 2015

दिल ढूँढता है फिर वही.. जब रसोई में बनी एक सदाबहार धुन ! Dil Dhoondta Hai..

वो कौन होगा जिसे अपने बीते हुए खुशगवार लम्हों में झाँकना अच्छा नहीं लगता? खाली पलों में अपने नजदीकियों से की गई हँसी ठिठोली, गपशप उस लमहे में तो बस यूँ ही गुजारा हुआ वक़्त लगती है। पर आपने देखा होगा की इस बेतहाशा भागती दौड़ती ज़िदगी के बीच कभी कभी  वो पल अनायास से कौंध उठते हैं। मन पुलकता है और फिर टीसता भी है और हम उन्हीं में घुलते हुए खो से जाते हैं। मन की इसी कैफ़ियत के लिए  बस एक ही गीत ज़ेहन में उभरता है  दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...। ग़ालिब के मिसरे पर गुलज़ार ने जो गीत गढ़ा वो ना जाने कितनी पीढियों तक गुनगुनाए जाएगा। अब देखिए ख़ुद गुलज़ार का क्या कहना है इस बारे में
"मिसरा गालिब का और कैफ़ियत अपनी अपनी। दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन। ये फुर्सत रुकी हुई नहीं है। कोई ठहरी हुई जमी हुई चीज़ नहीं। एक जुंबिश है। एक हरकत करती हुई कैफ़ियत"
(दिल की कैफ़ियत - मनोस्थिति,  जुंबिश  -हिलता डुलता हुआ)

गीत के मुखड़े की बात छोड़ भी दें तो इस गीत के हर अंतरे को आपने जरूर कभी ना कभी जिया होगा या मेरी तरह अभी भी जी रहे होंगे। यही वज़ह है कि जाड़ों की नर्म धूप, गर्मियों में तारों से सजा वो आसमान या फिर दूर जंगल के सन्नाटे में बीती वो खामोश रात जैसे गीत में इस्तेमाल किये गए बिंब मुझे इतने अपने से लगते हैं कि क्या कहें?


अपनी बात तो कर ली अब थोड़ी गीत की बात भी कर लें। 1975 में आई फिल्म मौसम के इस गीत की बहुत सारी बाते हैं जो मुझे आपके साथ आज साझा करनी है। पहली तो ये कि इस फिल्म का संगीत पंचम ने नहीं बल्कि मदन मोहन ने दिया था। गुलज़ार को मदनमोहन के साथ सिर्फ दो फिल्में करने का मौका मिला। एक तो कोशिश और दूसरी मौसम। मौसम के संगीत की सफलता को ख़ुद मदनमोहन नहीं देख पाए। 

इस गीत के लिए धुन रचने का काम  कैसे हुआ ये किस्सा भी मज़ेदार है। मदनमोहन पर विश्वनाथ चटर्जी और विश्वास नेरूरकर  की लिखी किताब Madan Mohan: Ultimate Melodies में गुलज़ार ने इस बात का जिक्र किया है..
"मदनमोहन का संगीत रचने का तरीका एकदम अनूठा था। वो हारमोनियम बजाते हुए गीत के बोल गुनगुनाते थे। संगीत रचते हुए जब मूड में होते थे तो सामिष या नॉन वेजीटेरियन भोजन पकाने में लग जाते थे। दिल ढूँढता है......  के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। मैं उनके घर के अंदर बैठा था और मदनमोहन किचन में मटन बना रहे थे और उसके रस के लिए उन्होंने उसमें थोड़ी विहस्की भी मिला दी थी। साथ ही साथ वो इस गीत की धुन भी तैयार कर रहे थे। बीच बीच में वो किचन से बाहर आते और पूछते कि ये धुन कैसी है? मैं उन्हें अपनी राय बताता और वो फिर किचन में चले जाते ये कहकर कि चलो मैं इससे बेहतर कुछ सोचता हूँ।"

कहते हैं कि इस गीत के लिए मदनमोहन जी ने कई अलग अलग धुनें तैयार की और दशकों बाद इसी गीत की एक धुन को फिल्म वीर ज़ारा में यश चोपड़ा ने गीत तेरे लिए हम हैं जिये के लिए इस्तेमाल किया। इस गीत के मुखड़े को लेकर भी काफी बातें चलती रहीं। उसी किताब में गुलज़ार ने ये भी लिखा है कि गीत का मुखड़ा ग़ालिब की ग़ज़ल के हिसाब से जी ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन  था पर मदन मोहन उसे दिल ढूँढता है ..गाते रहे। जब गुलज़ार ने उनसे कहा कि मिसरे के मौलिक रूप से छेड़छाड़ करना सही नहीं तो वो मान भी गए। पर रिकार्डिग के दिन वो अपने साथ ग़ालिब का दीवान ले कर आए और उसमें उन्होंने दिखलाया कि वहाँ  दिल ढूँढता है.. ही लिखा हुआ था।

वैसे मैंने कुछ किताबों में अभी भी जी ढूँढता है.. ही लिखा पाया है। मौसम में इस गीत के दो वर्जन थे एक लता व भुपेंद्र के युगल स्वरों में और दूसरे भूपेंद्र का एकल गीत। जब जब मैं इस गीत की भावनाओं में डूबता हूँ तो मुझे भूपेंद्र का गाया वर्सन और उसके साथ हौले हौले चलती वो धुन ही याद आती है। वैसे इस बारे में आपका ख़्याल क्या है? तो आइए एक बार फिर सुनते हैं इस गीत को..

दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...

जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...

या गरमियों की रात जो पुरवाईयाँ चलें
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें देर तक
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...

बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर
वादी में गूँजती हुई खामोशियाँ सुनें
आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...
 

बुधवार, दिसंबर 09, 2015

जब दाग़ देहलवी ने याद दिलाई चचा ग़ालिब की : दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यूँ Dil hi to hai... Daagh and Ghalib

मिर्जा ग़ालिब मेरी ज़िंदगी में पहली बार उन पर बने टीवी सीरियल की वज़ह से आए थे। अस्सी का दशक ख़त्म हो रहा था। जगजीत सिंह की आवाज़ के साथ उनकी गाई ग़ज़लों का चस्का लग चुका था। ग़ालिब सीरियल देखने की वज़ह भी जगजीत ही थे। पर गुलज़ार के निर्देशन और नसीरुद्दीन शाह की कमाल की अदाकारी की वज़ह से चचा गालिब भी प्रिय लगने लगे थे। उर्दू जुबान के लफ्जों को समझने का दौर जारी था पर चचाजान की भाषा में इस्तेमाल अरबी फ़ारसी के शब्द सर के ऊपर से गुजरते थे। वो तो गुलज़ार ने उस सीरियल में उनके अपेक्षाकृत सरल शेर इस्तेमाल किए जिसकी वज़ह से ग़ालिब की कही बातों का थोड़ा बहुत हमारे पल्ले भी पड़ा और जितना पड़ा उसी में दिल बाग बाग हो गया। 

तब मैं इंटर में था। पढ़ाई लिखाई तो एक ओर थी पर किशोरावस्था में जैसा होता है एक अदद दोस्त की कमी से बेवज़ह दिल में उदासी के बादल मंडराते रहते थे। ऐसे में जब जगजीत की आवाज़ में हजारों ख़्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश में दम निकले, आह को चाहिए बस उम्र बसर होने तक, दिल ही तो है ना संगो खिश्त सुनते तो मायूस दिल को उस आवाज़ में एक मित्र मिल जाता। सो जैसे ही वो दो कैसटों का एलबम बाजार में आया उसी दिन अपने घर ले आए।

आज उसी में से एक ग़ज़ल का जिक्र कर रहे हैं जिसे पहले पहल ग़ालिब ने लिखा और बाद में दाग़ देहलवी साहब  ने उसी ज़मीन पर एक और ग़ज़ल कही जो गालिब की कृति जैसी कालजयी तो नहीं पर काबिले तारीफ़ जरूर है। 

तो पहले आते हैं चचा की इस ग़ज़ल पर। चचा का जब भी जिक्र होता है तो एक अज़ीम शायर के साथ साथ एक आम से आदमी का चेहरा उभरता है। सारी ज़िदगी उन्होंने मुफ़लिसी में गुजारी। घर का खर्च चलाने के लिए जब तब कर्जे लेते रहे। सात औलादें हुई पर सब की सब ख़ुदा को प्यारी हो गयीं। लेकिन अपनी जिंदगी पर कभी उन्होंने इन तकलीफ़ों को हावी नहीं होने दिया। हँसते मुस्कुराते रहे और जीवन की छोटी छोटी खुशियों को जी भर कर जिया। फिर चाहे वो आम के प्रति उनका लगाव हो या फिर उनकी चुहल से भरी हाज़िर जवाबी। पर उनके भीतर की गहरी उदासी रह रह कर उनकी ग़ज़लों में उभरी और ये ग़ज़ल उसका ही एक उदाहरण है।

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त1 दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों
1. ईंट और पत्थर

दैर2 नहीं, हरम3 नहीं, दर नहीं, आस्तां4 नहीं
बैठे हैं रहगुज़र5 पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों
2. मंदिर  3. काबा  4. चौखट 5.रास्ता

क़ैद- ए -हयात- ओ -बंद- ए -ग़म6 अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों
6. जीवन की क़ैद और गम का बंधन

हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों

"ग़ालिब"-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों




आज भी जब गुमसुम होता हूँ तो इस ग़ज़ल को सुनना अच्छा लगता है। अपना ग़म हर मिसरे से छन के आते दर्द के विशाल सागर में मानो विलीन सा हो जाता है। तो सुनिए ये ग़ज़ल जगजीत सिंह और फिर चित्रा जी की आवाज़ों में...



पर आज ये ग़ज़ल याद आई जब मैंने इसी ज़मीन पर कही दाग़ देहलवी की ग़ज़ल पढ़ी। दाग रूमानी शायर थे सो उन्होंने शब्दों का धरातल तो वही रखा पर ग़ज़ल का मिजाज़ बदल दिया। जहाँ गालिब की ग़जल सुन जी भर उठता है वहीं दाग़ की चुहल मन को गुदगुदाती है। अब मतले को ही देखिए। दाग़ कहते हैं

दिल ही तो है ना आए क्यूँ, दम ही तो है ना जाए क्यूँ
हम को ख़ुदा जो सब्र दे तुझ सा हसीं बनाए क्यूँ


यानि ईश्वर ने हमें दिल दिया है तो वो धड़केगा ही और ये जाँ दी है तो जाएगी ही। अगर ख़ुदा ने तुम्हें ये बेपनाह हुस्न बख़्शा है तो मुझे भी ढेर सारा सब्र दिया तुम्हारे इस खूबसूरत दिल तक देर सबेर पहुँचने के लिए। 

गो नहीं बंदगी कुबूल पर तेरा आस्तां तो है
काबा ओ दैर में है क्या, खाक़ कोई उड़ाए क्यूँ


आख़िर तेरी आसमानी चौखट तो हमेशा मेरे सिर पर रहेगी फिर मंदिर और मस्जिद क्यूँ जाए तुझे पूजने? इसी वज़ह से कोई मेरी बेइज़्ज़ती करे क्या ये सही है?

लोग हो या लगाव हो कुछ भी ना हो तो कुछ नहीं
बन के फरिश्ता आदमी बज़्म ए जहान में आए क्यूँ
लोगों से भरी इस दुनिया में अगर इंसान आया है तो वो प्यार के फूल खिलायेगा ही। अगर तुम सोचते हो ऐसा ना हो तो फिर उसे इस संसार में भेजने की जरूरत ही क्या है?

जुर्रत ए शौक़ फिर कहाँ वक़्त ही जब निकल गया
अब तो है ये नदामतें सब्र किया था हाए क्यूँ


शायर को अफ़सोस है कि अपने दिल पर सब्र रखकर उसने वक़्त रहते इश्क़ नहीं किया। अब तो वो ऐसा सोचने से भी कतराते हैं ।

रोने पे वो मेरे हँसे रंज़ में मेरे शाद हो
छेड़ में है कुछ तो मज़ा वर्ना कोई सताए क्यूँ


उन्हें मुझे रोता देख हँसी आती है और तो और मेरी शिकायत से वो खुश हो जाते हैं। पर क्या सच में ऐसा है। उनके छेड़ने से मेरा हृदय भी तो पुलक उठता है नहीं तो वे सताते क्यूँ।

ग़ालिब की ग़ज़ल तो आपने जगजीत व चित्रा जी की आवाज़ में सुन ली दाग़ की ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में सुन लीजिए..

रविवार, नवंबर 29, 2015

तेरे बिना ज़िंदगी से कोई, शिकवा, तो नहीं,... Tere bina zindagi se koyi shikwa to nahin...

कितना अज़ीब है ना एक संगीतकार जिसे उर्दू क्या... हिंदी के सारे शब्दों का ज्ञान नहीं और दूसरी ओर गीतकार जो लिखता उर्दू में हो और जिसकी सोच ऐसी जो इन भाषा को जानने वालों के लिए भी इतनी गहरी हो कि भावों में डूबने पर ही समझ आए। फिर भी हिंदी फिल्म संगीत में जब भी ये जोड़ी साथ आई बस कमाल हो गया। इसका सीधा सीधा मतलब तो ये है कि भाषा, तहज़ीब, रहन सहन से भी ऊपर कोई चीज़ है जो दो लोगों को आपस में जोड़ देती है। कलाकार इसे एक शब्द में बाँध देते हैं वो है तारतम्य या आपसी ट्यूनिंग। पंचम दा और गुलज़ार के बीच भी ऐसा ही कुछ था। सत्तर के दशक में इन्होंने साथ साथ जितनी फिल्में की व हिंदी फिल्म जगत के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई और उनमें आँधी की तो बात ही क्या ! 

आँधी के मुख्य किरदार आरती के रूप में सुचित्रा सेन थी। इस किरदार और उस वक़्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी में सरकार ने साम्यता ढूँढ ली और आपातकाल लगने के बाद इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई। रोक गानों पर भी थी। इमरजेंसी के बाद जब गाने फिर से बजे तो फिर बजते ही रहे और आज भी बज रहे हैं।

आँधी के यूँ तो सारे ही गीत मुझे प्रिय हैं पर आज बात करेंगे लता व किशोर के गाए युगल गीत तेरे बिना ज़िंदगी से कोई, शिकवा, तो नहीं की। आख़िर क्या खास था इस गीत में गुलज़ार के जादुई शब्द , पंचम की धुन , लता किशोर की गायिकी या फिर पर्दे पर संजीव कुमार व सुचित्रा सेन की जीवंत अदाकारी? दरअसल इस में सब का सम्मिलित योगदान था और यही वज़ह के सत्तर के दशक के गीतों में आज भी इस गीत की गिनती यू ट्यूब पर सबसे ज्यादा सुने जाने वाले गीतों में होती है। 

आपको उत्सुकता होगी कि आख़िर ये कालजयी गीत बना कैसे ? उस ज़माने के सारे बंगाली संगीतकार दुर्गापूजा के सांस्कृतिक उत्सव के लिए धुनें तैयार करते थे। इस काम में लगे होने पर वो फिल्मों के अनुबंध भी ठुकरा देते थे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पंचम ने इस गीत की धुन को सबसे पहले दुर्गापूजा के इसी महोत्सव के लिए तैयार किया था। गीत के बोल थे जेते जेते पाथे होलो देरी..। 

  

पंचम ने आँधी के लिए यहीं धुन गुलज़ार को थमा दी। गुलज़ार ने इसी धुन को पकड़ कर बोल रचे। पर एक मुश्किल और थी। गुलज़ार गीत के बोलों के बीच नायक व नायिका के कुछ संवाद रखना चाहते थे। पंचम गीत की लय में इस तरह के अवरोध के इच्छुक नहीं थे पर उन्हें झुकना पड़ा। आज ये संवाद इस गीत का उतना ही हिस्सा बन चुके हैं जितना इसके अंतरे।

फिल्म में गीत पार्श्व से बजता है। सितार की मधुर धुन आपको गीत के मुखड़े पर लाती है और फिर बरसों के लंबे अंतराल पर मिलते नायक नायिका का सुख दुख गुलज़ार के शब्दों में बयाँ हो जाता है। दरअसल गुलज़ार ने मुखड़े में भावनाओं का जो विरोधाभास रचा वो ही इस गीत का सार है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमें कई बार रिश्तों को तिलांजलि देनी पड़ती है। कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है। पर मुकाम पर पहुँच कर ये भी लगता है कि गर वो ना किया होता तो क्या ज़िंदगी और खूबसूरत नहीं हो जाती?

ख़ैर अब आप ये प्यारा सा गीत सुनिए। संवादों को भी मैंने आपकी सहूलियत के लिए ज्यों का त्यों डाल दिया है।

तेरे बिना ज़िंदगी से कोई, शिकवा, तो नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं
तेरे बिना ज़िंदगी भी लेकिन,  ज़िंदगी, तो नहीं, ज़िंदगी नहीं...ज़िंदगी नहीं, ज़िंदगी नहीं
तेरे बिना ज़िंदगी..

काश ऐसा हो तेरे कदमों से,  चुन के मंज़िल चले और कहीं दूर कहीं
तुम गर साथ हो,  मंज़िलों की कमी तो नहीं
तेरे बिना ज़िंदगी से कोई, शिकवा, तो नहीं, शिकवा नहीं

सुनो आरती ये जो फूलों की बेलें नजर आती हैं ना ये दरअसल अरबी में आयतें लिखी हुई हैं। इन्हें दिन के वक़्त देखना। बिल्कुल साफ़ नज़र आती हैं। दिन के वक़्त ये पानी से भरा रहता है। दिन के वक़्त ये जो फ़व्वारे हैं ना...
क्यूँ दिन की बात कर रहे हो कहाँ आ पाऊँगी मैं दिन के वक़्त ?
ये जो चाँद है ना इसे रात के वक़्त देखना.. ये रात में निकलता है
ये तो रोज़ निकलता होगा...
हाँ लेकिन कभी कभी अमावस आ जाती है। वैसे तो अमावस पन्द्रह दिन की होती हैं ,,, पर इस बार बहुत लम्बी थी ,
नौ बरस लंबी थी ना....

जी में आता है,  तेरे दामन में,  सर छुपा के हम रोते रहें, रोते रहें 
तेरी भी आँखों में,  आँसुओं की नमी तो नहीं
तेरे बिना .....ज़िंदगी नहीं

तुम जो कह दो तो आज की रात, चाँद डूबेगा नहीं,
रात को रोक लो
रात की बात है,  और ज़िंदगी बाकी तो नहीं
तेरे बिना .....ज़िंदगी नहीं .....ज़िंदगी नहीं


वैसे क्या आपको पता है ये गीत कहाँ फिल्माया गया था? हैदराबाद के गोलकुंडा किले में..

रविवार, नवंबर 22, 2015

मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं.. फ़ैज़ की एक उदासी भरी नज़्म Kya Karein by Faiz !

    एक शाम मेरे नाम पर फ़ैज़ की शायरी से जुड़ी लंबी महफिलें अंजाम ले चुकी हैं। पुराने पाठकों को याद होगा कि उन की ग़ज़लों और नज़्मों पर एक दफ़े मैंने तीन कड़ियों की एक श्रंखला की थी।उन तीन भागों की लिंक तो ये रहीं.
    जो उनकी शायरी के मुरीद हैं उन्हें ये आलेख जरूर रास आएँगे ।

    बीस नवंबर को फ़ैज़ की पुण्यतिथि के रोज़ उनकी बहुत सारी ग़ज़लें और नज़्म एक बार फिर नज़रों से गुजरी और इस नज़्म को देख दिल एकबारगी सिहर उठा। सोचा इसी बहाने इस महान शायर की दमदार लेखिनी को एक बार फिर से याद कर लूँ।

    अब देखिए ना इश्क़ इंसान को मजबूती देता है, खुशी के पल मुहैया कराता है तो वहीं कभी ये हमें बिल्कुल असहाय, अकेला और आत्मविश्वास से परे भी ढकेल देता है। फ़ैज़ की ये नज़्म कुछ ऐसे ही उदास लमहों की कहानी कहती है। नज़्म की शुरुवात में फ़ैज़ कहते हैं..

    मेरी-तेरी निगाह में
    जो लाख इंतज़ार हैं
    जो मेरे-तेरे तन-बदन में
    लाख दिल-फ़िगार1  हैं
    जो मेरी-तेरी उँगलियों की बेहिसी2 से
    सब क़लम नज़ार3 हैं
    जो मेरे-तेरे शहर में
    हर इक गली में
    मेरे-तेरे नक़्श-ए -पा4   के बेनिशाँ मज़ार हैं

    1 . घायल , 2. संवेदनहीन , 3 . कमज़ोर , 4  पदचिन्ह

    इस कभी ना ख़त्म होने वाले इंतज़ार ने पुरानी यादों की रह रह कर उभरती टीस से मिलकर शायर के  दिल के कोने कोने को घायल कर दिया है। यहाँ तक कि प्रेमी के  साथ साथ कदमों से नापी शहर की दहलीज़ भी गुम सी हो गई लगती है। ये अलग बात है कि हमारा ये प्रेमी शायर हमसफ़र के साथ उन गुम से पलों को मन ही मन पूजता है तभी तो वे उसे 'बेनिशाँ मज़ार' से लगते हैं । जिन उँगलियों ने कभी वो मुलायम सा हाथ पकड़ा था वो संवेदनहीन हो चली हैं। ऐसे हालात में कवि की कलम  कमज़ोर  ना हो तो क्या हो?

    जो मेरी-तेरी रात के
    सितारे ज़ख़्म-जख़्म हैं
    जो मेरी-तेरी सुबह के
    गुलाब चाक-चाक हैं
     

    यह ज़ख़्म सारे बे-दवा
    यह चाक सारे बे-रफ़ू
    किसी पे राख चाँद की
    किसी पे ओस का  लहू


    कवि आगे कहते हैं कि तुम्हारे बिना सितारों से सजी वो रातें देखता हूँ तो उनके टिमटिमाते हृदय में भी मुझे अपने जख़्मों की परछाई नज़र आती है। अब तो वो गुलाब जिनके साथ हमारी कितनी सुबहें साथ कटी थीं चीरे हुए से  लगते हैं। फ़ैज की काव्यात्मक सोच का उत्कृष्ट नमूना तब देखने को मिलता है जब वे रातों में अपने दिल पर चाँद की राख मलते नज़र आते हैं। वही सुबह गुलाबों पर गिरी ओस उन्हे हृदय से रिसते लहू जैसी प्रतीत होती है। सच, अब तो उनके लिए प्रेम का ये ये मर्ज़ लाइलाज़  हो चला  है ।

    यह है भी या नहीं बता
    यह है कि महज़ जाल है
    मेरे-तुम्हारे अन्कबूत- ए -वहम5  का बुना हुआ
    जो है तो इसका क्या करें
    नहीं है तो भी क्या करें
    बता, बता, बता, बता 

     5  . संशय की मकड़ी 

    अवसाद की इन घड़ियों में व्यक्ति के लिए प्रेम संशय की स्थिति उत्पन्न कर देता है। क्या वो मुझसे सच में प्रेम करती है/करता  है? क्या मैं उसके लायक हूँ? क्या मेरा प्यार महज़ एक खुशफ़हमी है? ऐसे अनेक प्रश्न उसे मथते रहते हैं। नज़्म के आख़िरी भाग में फ़ैज़ ऐसी ही मनोदशा को हमारे सामने लाते हैं एक उलझन के साथ ! सच तो ये है कि  प्रेम को स्वीकार करने से ही तो दिल में आई आफ़त कम नहीं हो जाती। प्रेम तो तब भी परिस्थितियों का दास बन कर ही रहता है। दिल तो अब भी सवाल करता है जो है तो इसका क्या करें...नहीं है तो भी क्या करें

    फ़ैज़ की इस संवेदनशील नज़्म की उदासी को अपनी आवाज़ में क़ैद करने की कोशिश की है। उम्मीद है आपको पसंद आएगी। रिकार्डिंग के लिए इस पंक्ति में हल्का सा बदलाव किया है बता, बता, मुझे बता .. क्या करें.. क्या करें।


    मंगलवार, नवंबर 17, 2015

    शांताराम : एक विदेशी अपराधी की नज़र में सत्तर के दशक का मुंबई! Shantaram by Gregory David Roberts

    ग्रेगरी डेविड राबर्ट्स की शांताराम वर्ष 2003 में प्रकाशित हुई थी। वो अलग बात है कि मैं  इस किताब को इसके पहली बार छपने के बारह साल बाद पढ़ पाया और वो भी इसलिए कि मेरे एक अभिन्न मित्र ने अपनी इस पसंदीदा किताब को मुझे भेंट किया था । 933 पृष्ठों की इस मोटी किताब को मैंने घर से बाहर छुट्टियों के दौरान ही थोड़ा थोड़ा पढ़ा। इसी वज़ह से इसे ख़त्म करने में छः महीने से ज्यादा का वक़्त लग गया।

    ग्रेगरी डेविड राबर्ट्स की निजी कथा वैसे तो जगज़ाहिर है फिर भी जिन लोगों ने इस लोकप्रिय किताब और उसके लेखक के बारे में ना सुना हो उन्हें बता दूँ कि आस्ट्रेलिया से ताल्लुक रखने वाले राबर्ट्स का अपने परिवार से साथ हेरोइन की लत का शिकार होने की वज़ह से छूटा। बाद में वो हेरोइन की अपनी तलब  लोगों को डरा धमका कर की गई पैसे की उगाही से पूरा करने लगे। नतीजन वे गिरफ़्तार हुए पर एक फिल्मी हीरो की तरह 1980 में आस्ट्रेलिया की जेल से भाग कर मुंबई आ पहुँचे। अस्सी का दशक उनका मुंबई में गुजरा। मुंबई में एक ओर तो उनका कुछ समय झोपड़पट्टियों में रहते हुए बतौर एक चिकित्सक बीता तो दूसरी ओर माफिया के संपर्क में रहते हुए उन्होंने उसके लिए पासपोर्ट की जालसाजी और काले धन को वैध बनाने जैसे काम किए। 1990 में वे फैंकफर्ट में फिर पकड़े गए और छः साल के लिए फिर से आस्ट्रेलिया की जेल में क़ैद रहे। इसी काल में उन्होंने मुंबई के अपने अनुभवों को शांताराम की शक़्ल में ढालना शुरु किया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने बतौर लेखक अपनी ज़िन्दगी बितानी शुरू की। अब वो मेलबॉर्न में रहते  हैं और बीच बीच में भारत आते जाते रहे हैं।

    शांताराम को पढ़ने वालों के मन में हमेशा ये जिज्ञासा रही है कि पुस्तक का कितना भाग राबर्ट्स के निजी जीवन का हिस्सा है और कितनी उनकी कल्पना। राबर्ट्स ने अपने आख़िरी साक्षात्कार में इस बाबत प्रश्नों का जवाब देते हुए कहा था..
    "इस किताब के बहुत सारे प्रसंग मेरे जीवन से ज्यों के त्यों लिए गए हैं जबकी बाकी मेरे द्वारा रची कथा है जिसे मैंने अपने अनुभवों से बुना है। मैं अपनी ज़िंदगी की घटनाओं के इर्द गिर्द दो से तीन उपन्यासों को लिखना चाहता था। ये घटनाएँ उन विषयों से संबंधित थीं जो मेरे दिल के करीब थीं और जिन्हें मैं अपने जीवन की सच्ची घटनाओं से जोड़कर विकसित करना चाहता था।
    ये एक उपन्यास है कोई आत्मकथा नहीं। सारे चरित्रों और संवादों को मैंने गढ़ा है। ये मायने नहीं रखता कि उसमें से कितना मेरी ज़िदगी में सचमुच घटा। महत्त्वपूर्ण ये है कि वो हम सब व हमारे समाज के लिए सही था या नहीं। मुझे अच्छा लगता है जब लोग पूछते हैं कि कार्ला कैसी है या ये कि आपने उतने सालों बाद तक अपने संवाद याद कैसे रखे? मुझे ये सोचकर खुशी होती है कि मेरे इन काल्पनिक चरित्रों में लोगों को वास्तविकता झलकी।"
    पाँच भागों में बँटी इस किताब का कैनवास काफी वृहद है। मुंबई के मैरीन ड्राइव के पास की बस्ती से शुरु होकर ये उपन्यास आपको अफ़गानिस्तान के युद्ध क्षेत्र तक ले जाता है। मुंबई में रह रहे अवैध बस्तियों के बाशिंदों,  कानून से भागते विदेशियों, माफिया सरगनाओं, छोटे बड़े अपराधियों, ज़िहादियों जैसे सैकड़ों चरित्रों से अटा पड़ा है ये उपन्यास।  झोपड़पट्टियों के रोजमर्रा के जीवन को लेखक ने करीब से देखा है और इतने आभाव व गरीबी में जीवन बिताने वाले लोगों की जीवटता और उनसे मिलने वाली आत्मीयता को उन्होंने अपने किरदारों के माध्यम से बखूबी उभारा है । 

    किताब का एक बड़ा हिस्सा सरकार की नाक के नीचे मुंबई के माफिया के फलते फूलते कारोबार और उनके अंदर पनपने वाले पेशेवर अपराधियों की मानसिकता को चित्रित करता है। किताब में शारीरिक प्रताड़ना और व्यक्तिगत हिंसा का दिल दहलाने वाला वर्णन है जो लेखक के निजी अनुभवों की वज़ह से और सजीव हो उठा है। पर पढ़ते वक़्त किताब के ये हिस्से विचलित भी बहुत करते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि एक आम मध्यमवर्गीय शायद ही ऐसे चरित्रों से अपनी ज़िदगी में रूबरू हो पाता है।


    अब जहाँ हिंसा है तो प्रेम भी होगा। पर नायिका के रूप में कार्ला के प्रेम को समझ पाना पाठक क्या लेखक के रूप में लिन के किरदार के लिए भी मुश्किल है। कथानक में अपराध व  प्रेम के साथ अध्यात्म का भी पुट है जो लिन और  माफिया सरगना अब्दुल ख़ादेर खान के वार्तालाप में उभर कर सामने आता है। हम व्यक्तिगत जीवन में जो करते हैं उसे सही और गलत के तराजू में कैसे तौला जाए इस बारे में भी लेखक खान के माध्यम से कुछ रोचक तर्क हमारे सामने रखते हैं।

    मैं ऐसा तो नहीं कह सकता कि इस किताब ने शुरु से अंत तक मुझे बाँधे रखा पर ये जरूर कहूँगा कि लेखक अपने कथ्य के बीच बीच में  किरदारों के माध्यम से ऐसे बुद्धिमत्ता पूर्ण व चुटीले संवाद सामने लाते हैं कि पाठक लाजवाब हुए बिना नहीं रह पाता। ये कथ्य कभी आपके चेहरे पर मुस्कुराहट की रेखा खींच देते हैं तो कभी उनकी सच्चाई आपको एक नए सिरे से सोचने पर मज़बूर कर देती है। यही इस किताब का सबसे मजबूत पक्ष है।  मिसाल के तौर पर कुछ बानगियाँ देखें.

    • You know the difference between news and gossip, don't you? News tells you what people did. Gossip tells you how much they enjoyed it.
    • Men reveal what they think when they look away, and what they feel when they hesitate. With women, it's the other way around.
    • Sometimes we love with nothing more than hope. Sometimes we cry with everything except tears. In the end that’s all there is: love and its duty, sorrow and its truth. In the end that’s all we have - to hold on tight until the dawn.
    • Virtue is concerned with what we do and honour is concerned with how we do it.
    • If fate doesn't make you laugh, you just don't get the joke.
    • When greed meets control, you get a black market.
    • A politician is someone who promises you a bridge, even when there is no river.
    • Mistakes are like bad loves, the more you learn from them, the more you wish they’d never happened.
    •  A dream is a place where a wish and a fear meet. When the wish and fear are exactly the same, we call the dream a nightmare.
    •  It is always a fool's mistake to be alone with someone you shouldn't have loved.
    • I don't know what frightens me more, the power that crushes us, or our endless ability to endure it.
    • Civilization, after all, is defined by what we forbid, more than what we permit.
    • Fate gives all of us three teachers, three friends, three enemies, and three great loves in our lives. But these twelve are always disguised, and we can never know which one is which until we’ve loved them, left them, or fought them.
    • Nothing ever fits the palm so perfectly, or feels so right, or inspires so much protective instinct as the hand of a child
    • Most loves are like that ... You heart starts to feel like an overcrowded lifeboat. You throw your pride out to keep it afloat, and your self-respect and independence. After a while, you start throwing people out - your friends, everyone you used to know. And it's still not enough. The lifeboat is still sinking, and you know it's going to take you down with it. I've seen that happen to a lot of girls here. That's why I'm sick of love.

    पिछले ही महीने दस साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद राबर्ट्स ने शांताराम के बाद की घटनाओं को एक sequel की तरह अपनी किताब The Mountain Shadow के रूप में प्रकाशित किया है। पर अगर ये किताब आपकी इच्छा सूची में है तो फिर आपको शांताराम से गुजरना होगा क्यूँकि नए उपन्यास में लिन, कार्ला, संजय व जीत जैसे किरदार नए चरित्रों से मिलकर कहानी को आगे बढ़ाते हैं। 

    बुधवार, नवंबर 04, 2015

    मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है Poora Din by Gulzar

    दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। नित विकसित होती ये तकनीकें दूरियों को इस तेजी से पाटेंगी ये किसे पता था? आज हालात ये हैं कि इंटरनेट पर चंद कदमों के फ़ासले पर आप किसी से भी अपने तार जोड़ सकते हैं। पर ये भी है कि इन आभासी डोरियों के  जोड़ बड़े  नाज़ुक होते हैं । जरूरत से ज्यादा आप उसे खींच नहीं सकते। ये जोड़ तभी पुख्ता होते है जब हम अपने उन पसंदीदा लोगों के साथ कुछ वक़्त साथ साथ बिता पाते हैं। यही वज़ह है कि कॉलेज की दोस्तियाँ कभी फीकी नहीं पड़तीं क्यूँकि उनके साथ गुज़रे हुए लमहों की एक बड़ी सी पोटली होती है।

    पर अपनी अपनी दिनचर्या की  गुलाम बनी इस दुनिया में अपने मोहल्लों, अपने  शहरों में रहने वालों के लिए ही वक़्त नहीं निकल पाता तो उस आभासी दुनिया की बिसात क्या? पर यही तो सहूलियत है उस दुनिया की जो एक हल्के फुल्के चुटकुले, एक छोटे से लाइक या फिर टिप्पणियों की चंद पंक्तियों से ही उस शख़्स को ये जतलाने में कामयाब रहती है कि  उस पल के लिए ही सही किसी ने उसके बारे में सोचा तो है। पर जैसा लोभी ये मन है ना उसे चैन कहाँ आता है? वो तो फिर भी सोचता है चंद घड़ियाँ... .नहीं नहीं पूरा दिन उस शख़्स के साथ बिताने का।

    आज जब मैं गुलज़ार साहब की नज़्म 'पूरा दिन' पढ़ रहा था तो मेरे दिल में यही ख़्याल आ  रहे थे। वैसे भी गुलज़ार के शब्द हमारी रोज़ की ज़िंदगी का इतना सजीव खाका खींचते हैं कि उससे आपने आप को जोड़ने में कुछ सेकेंड से ज्यादा नहीं लगते। इन ख्यालों को अपनी आवाज़ के माध्यम से मूर्त रूप देने की कोशिश की है। पसंद आए तो बताइएगा..


    मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है
    मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है,
    झपट लेता है, अंटी से

    कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की
    आहट भी नहीं होती,
    खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ मैं

    गिरेबान से पकड़ कर ..माँगने वाले भी मिलते हैं
    "तेरी गुजरी हुई पुश्तों का कर्जा है, तुझे किश्तें चुकानी है "
    ज़बरदस्ती कोई गिरवी रख लेता है, ये कह कर
    अभी 2-4 लम्हे खर्च करने के लिए रख ले,
    बकाया उम्र के खाते में लिख देते हैं,
    जब होगा, हिसाब होगा

    बड़ी हसरत है पूरा एक दिन इक बार मैं
    अपने लिए रख लूँ,
    तुम्हारे साथ पूरा एक दिन
    बस खर्च
    करने की तमन्ना है !!

    शनिवार, अक्तूबर 24, 2015

    तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको..रूबरू होइए शबाना आज़मी की गायिकी से.! Shabana Azmi and songs of Anjuman

    अस्सी के दशक में मुज़फ़्फ़र अली ने एक फिल्म बनाई थी अंज़ुमन। इससे पहले मुज़फ़्फ़र गमन, आगमन और उमराव जान जैसी फिल्में बना चुके थे। पर उमराव जान की सफलता से उलट लखनऊ के चिकन से काम से जुड़े कारीगरों की कहानी कहती ये फिल्म ठीक से प्रदर्शित भी नहीं हो पाई। फिर भी इस फिल्म का जिक्र इसके संगीत और गायिकी के लिए गाहे बाहे होता ही रहता है। 

    ख़य्याम के संगीत निर्देशन में बनी इस फिल्म में पाँच नग्मे थे जिनमें दो तो युगल गीत थे। रोचक तथ्य ये है कि इस फिल्म के तीन एकल गीतों को मशहूर अदाकारा शबाना आज़मी ने अपनी आवाज़ दी थी। जैसा कि मुजफ्फर अली की अमूमन सभी फिल्मों में होता आया है, इस फिल्म के गीतों की की शब्द रचना जाने मने शायर शहरयार साहब ने की थी।

    शबाना ने इस फिल्म तुझसे होती भी तो क्या.. के आलावा मैं राह कब से नई ज़िंदगी की तकती हूँ..हर इक क़दम पे हर इक मोड़ पे सँभलती हूँ...  और ऐसा नहीं कि इसको नहीं जानते हो तुम.आँखों में मेरी ख़्वाब की सूरत बसे हो तुम......  जैसी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी थी। इसके आलावा भूपेंद्र के साथ उनका एक युगल गीत गुलाब ज़िस्म का भी रिकार्ड हुआ था। 



    आजकल नायक व नायिकाओं की आवाज़ का इस्तेमाल निर्माता निर्देशक फिल्मों के प्रमोशन के लिए करते रहते हैं। पिछले कुछ सालों पर नज़र डालें तो आलिया भट्ट, श्रद्धा कपूर व प्रियंका चोपड़ा के साथ सलमान खाँ, संजय दत्त और अक्षय कुमार जैसे कलाकार माइक्रोफोन के पीछे अपनी आवाज़ आज़मा चुके हैं। इनमें प्रियंका और कुछ हद तक आलिया को छोड़ बाकियों की आवाज़ कामचलाऊ ही रही है जिन्हें मशीनों के माध्यम से श्रवणीय बना दिया गया है। पर नब्बे के दशक में रेडिओ के प्रायोजित कार्यक्रम के आलावा कहीं प्रमोशन की ज्यादा गुंजाइश ही नहीं हुआ करती थी और कला फिल्मों की तो वो भी नहीं। फिर भी ख़य्याम ने फिल्म की मुख्य गायिका के रूप में शबाना को ही  चुना।

    शबाना जी से जब भी इस संबंध में सवाल किए गए हैं तो उन्होंने यही कहा है कि अपने पिता की ख़्वाहिश पूरी करने के लिए उन्होंने इन गीतों को गाने के लिए सहमति दी।  दरअसल कैफ़ी आज़मी अपनी बेटी को एक अभिनेत्री के आलावा एक गायिका के रूप में भी देखना चाहते थे। शबाना तो अपने आप को बाथरूम सिंगर भी मानने को तैयार नहीं होती पर ये नग्मे उनकी गायिकी के बारे में कुछ और ही कहानी कहते हैं।

    भले ही उनकी आवाज़ किसी पार्श्व गायक सरीखी ना हो पर उसे नौसिखिये की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता। पहली बार सुनने पर मुझे तो उनकी आवाज़ में कुछ सलमा आगा और कुछ गीता दत्त का अक़्स आता दिखा। शबाना की गाई फिल्म की एकल ग़ज़लों में तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको .. सबसे ज्यादा पसंद हैं। शहरयार ने अपनी लेखनी से ग़ज़ल में जिस दर्द को व्यक्त किया है वो शबाना की आवाज़ में सहजता से उतरता दिखता है।

    आप किसी को चाहते हैं भली भांति जानते हुए कि वो आपका हो नहीं सकता तो फिर शिकायत करने से क्या फ़ायदा ! हाँ जो पीड़ा आपको सहनी पड़ी वो ही तो ऐसे रिश्तों की दौलत है जिसे आप हृदय में सहेज के रख सकते हैं। इसीलिए ग़ज़ल के मतले में शहरयार कहते हैं..

    तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको
    तेरे मिलने से मिली दर्द की दौलत मुझको


    ऐसी हालत में मन को समझाएँ भी तो कैसे? बस यही कह कर ना कि ज़िदगी में और भी मुकाम हैं मोहब्बत के सिवा। किसे पता शायद ही उन्हें ही पूरा करने के लिए किस्मत ये दिन दिखला रही हो..

    जिन्दगी के भी कई कर्ज हैं बाकी मुझ पर
    ये भी अच्छा है न रास आई मुहब्बत मुझको


    पर उदासी की चादर ओढ़ कर ये जीवन तो जिया नहीं जा सकता ना। सो मुझे तुम्हारी यादों की बदलियों से बाहर निकलना होगा। क्या पता शायद इस ज़हान के किसी कोने में धूप की कोई किरण मेरा इंतज़ार कर रही हो? शायद वो दुनिया ही  मेरे ख़्वाबों की तामीर करे
    तेरी यादों के घने साए से रुखसत चाहूँ
    फिर बुलाती है कहीं धूप की शिद्दत मुझको 


    सारी दुनिया मेरे ख्वाबों की तरह हो जाए
    अब तो ले दे के यही एक है हसरत मुझको





    तो कैसी लगी आपको शबाना की आवाज? इस फिल्म के बाकी गाने भी फुर्सत से जरूर सुनिएगा। आज़  के इस शोर  सराबे में जरूर सुकून के कुछ पल आप अपने करीब पाएँगे। वैसे चलते चलते ये बता दूँ कि हाल फिलहाल में शबाना आज़मी ने एक फिल्म चॉक और डस्टर के लिए अपनी आवाज़ रिकार्ड की है। गणित की शिक्षिका के  रूप में यहाँ वो  कुछ तुकबंदियों के सहारे  BODMAS के  गुर को समझाती नज़र आएँगी। 

    शनिवार, अक्तूबर 10, 2015

    रवींद्र जैन : खुशबू जैसे फूलों में उड़ने से भी रह जाए ! Ravindra Jain

    संगीतकार रवींद्र जैन नहीं रहे। पर अपने रचे गीतों की सुनहरी यादों की लड़ी सी छोड़ गए हैं वो। दस वर्ष का भी नहीं रहा हूँगा जब पहली बार उनका रचा संगीत कानों में पड़ा। उन दिनों बाकी फिल्में हम जाएँ या ना जाएँ पर पिताजी राजश्री प्रोडक्शन की फिल्में हमें देखने जरूर ले जाया करते थे। सत्तर के दशक में राजश्री ने जो फिल्में बनाई उनमें से अधिकांश के संगीतकार रवींद्र जैन ही थे। ये वो दौर था जब राजश्री की फिल्में हिट होने पर तीन महीने से लेकर साल भर तक चलती थीं और इन फिल्मों के चलने में कथावस्तु के साथ साथ संगीत का महती योगदान होता था। अब गीत गाता चल और नदिया के पार जैसी फिल्मों का ख़्याल करते वक़्त जेहन में गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल... या कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया... जैसे गीत ना आएँ ऐसा हो सकता है भला?


    बतौर संगीतकार रवींद्र जैन की मुझे सत्तर के दशक की जो दो फिल्में हमेशा याद रहती हैं वो थीं चितचोर और अँखियों के झरोखे से। दोनों ही राजश्री की फिल्में थीं और कमाल की बात तो ये है कि रवींद्र जैन ने ना केवल इन फिल्मों का संगीत दिया था बल्कि  गीतों के बोल भी लिखे थे। चितचोर के गीतों आज से पहले आज से ज्यादा.., जब दीप जले आना...., तू जो मेरे सुर में सुर मिलाए... की मधुरता को कौन भूल सकता है? वहीं अगर आपको याद हो तो गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा ने येसूदास जैसे नवोदित गायक को तब लोकप्रियता की ऊँचाई पर ला खड़ा कर दिया था। येसूदास के आलावा हेमलता , जसपाल सिंह, सुरेश वाडकर जैसी आवाज़ों को जनता के सम्मुख लाने का श्रेय भी रवींद्र जी को ही दिया जाता है।

    पर आज रवींद्र जी की याद मुझे ले गई है करीब तीन दशक पीछे जब मैं उनकी संगीतबद्ध फिल्म अँखियों के झरोखे से देखने गया था। आज भी इसके संगीत से जुड़ी दो बातें भुला नहीं पाया एक तो इसकी दोहावली और दूसरे इसका शीर्षक गीत।


    इस फिल्म में एक दोहावली है जिसमें कॉलेज में चल रही प्रतियोगिता में रवींद्र जी ने एक गीत का रूप दे दिया था। स्कूल में इनके भावार्थ को लेकर हम तब पशोपेश में पड़े रहते थे पर फिल्म में उनका इतना सुन्दर प्रस्तुतिकरण देखकर बाल मन में दोहों के प्रति अभिरुचि फिर से जाग उठी थी।

    रही शीर्षक गीत की बात तो क्या शब्द रचना और क्या धुन बनाई थी रवींद्र जी ने।  जीवन में ना जाने कितनी बातें अप्राप्य लगती हैं। प्रेम भी कभी कभी उनमें से एक हो जाता है क्यूँकि कई बार अपने हमसफ़र तक पहुँचने के लिए कठिन वास्तविकताओं से रूबरू होना पड़ता है, परिस्थितियों से लड़ना पड़ता है। पर आँखें बंद कीजिए, मन के आँगन में गोते लगाइए तो कठोर वास्तविकताओं की ये दीवार ढह सी जाती है। रह जाता है तो अपने उस प्यारे से साथी का सलोना सा मुखड़ा जो इतना करीब आ जाता है कि नींद, चैन, सपने सब फिर से उसके गुलाम हो जाते हैं। पर आँखें हमेशा तो बंद नहीं की जा सकती ना। फिर तो जूझना ही पड़ता है हर किसी को अपने हृदय से, अपने लगाव से और उसके अलग हो जाने के भय से।

    कितनी खूबसूरती से बाँधा था रवीन्द्र जी ने गीत के इन भावों को। मुझे नहीं लगता कि कोई भी संगीतकार ऐसा होगा जिसे कहानी के अनुरूप भावनाओं को शब्दों का जामा पहनाना इस बखूबी से आता हो। यही वज़ह है कि रवीन्द्र जी का गीत संगीत हमेशा एक दूसरे में पूरी तरह घुला मिला सा लगता  है।

    फिल्म देखते वक़्त मेरा बाल मन इस गीत से ऐसा जुड़ गया था कि इसके  दुख भरे हिस्से के आते आते आँसुओं की अविरल धारा को मेरे लिए रोकना मुश्किल हो गया था... शायद ये दर्द ही है जो इस गीत को यादों के दायरे के बाहर जाने नहीं देता..। तो आइए आज सुनते हैं इस गीत को जिसे गाया था हेमलता व जसपाल सिंह ने।


    अँखियों के झरोखों से मैने देखा जो साँवरे
    तुम दूर नज़र आये, बड़ी दूर नज़र आये
    बंद कर के झरोखों को ज़रा बैठी जो सोचने
    मन में तुम ही मुस्काए, मन में तुम ही मुस्काए


    एक मन था मेरे पास वो अब खोने लगा है
    पाकर तुझे, हाए मुझे कुछ होने लगा है
    एक तेरे भरोसे पे सब बैठी हूँ भूल के
    यूँ ही उम्र गुजर जाए, तेरे साथ गुजर जाए

    जीती हूँ तुम्हे देख के मरती हूँ तुम्हीं पे
    तुम हो जहाँ साजन मेरी दुनियाँ है वही पे
    दिन रात दुआ माँगे मेरा मन तेरे वास्ते
    कही अपनी उम्मीदों का कोई फूल ना मुरझाए

    मैं जब से तेरे प्यार के रंगो में रंगी हूँ
    जगते हुए सोयी रही, नींदो में जगी हूँ
    मेरे प्यार भरे सपने, कही कोई न छीन ले
    मन सोच के घबराए, यही सोच के घबराए


    रवींद्र जैन ने धार्मिक फिल्मों में भी संगीत दिया, रामायण जैसे कई लोकप्रिय धारावाहिक में अपना संगीत पिरोया, यहाँ तक कि तमाम गैर फिल्मी एलबम किए जो बेहद लोकप्रिय भी हुए। क्या इतनी बहुमुखी प्रतिभा का धनी कोई व्यक्ति जन्म से अंधा हो सकता है? दरअसल उनके जीवन की इस क्रूर सच्चाई का पता मुझे नब्बे के दशक में चला। ऐसे व्यक्ति की जीवटता और हुनर देख के मन में सच्ची श्रद्धा उमड़ती है। उनका जीवन अपने आप में एक मिसाल था और रहेगा। आज  वो हमारे बीच नहीं है पर उनको याद करते हुए शायद ये शब्द सदा मेरे होठों पर रहें..

     

    कलियाँ ये सदा प्यार की मुसकाती रहेंगी
    खामोशियाँ तुझसे मेरे अफ़साने कहेंगी
    जी लूँगा नया जीवन तेरी यादों में बैठ के
    खुशबू जैसे फूलों में उड़ने से भी रह जाए

    बुधवार, सितंबर 30, 2015

    जगजीत और जावेद : साथ साथ, सिलसिले और सोज़ का वो साझा सफ़र! Tamanna phir machal jaye...

    जावेद अख़्तर और जगजीत सिंह यानि 'ज' से शुरु होने वाले वे दो नाम जिनकी कृतियाँ जुबान पर आते ही जादू सा जगाती हैं। अस्सी के दशक के आरंभ में एक फिल्म आई थी साथ साथ जिसके संगीतकार थे कुलदीप सिंह जी। इस फिल्म के लिए बतौर गायक व गीतकार, जगजीत और जावेद साहब को एक साथ लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। तुम को देखा तो ख्याल आया.. तो ख़ैर आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना उस समय हुआ था। पर फिल्म के अन्य गीत प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी.... और ये तेरा घर ये मेरा घर... तब रेडियो पर खूब बजे थे।

    फिल्मों के इतर इन दो सितारों की पहली जुगलबंदी 1998 में आए  ग़ज़लों के एलबम 'सिलसिले ' में हुई। क्या कमाल का एलबम था वो। सिलसिले की ग़ज़ले जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया.., दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं.. और नज़्म मैं भूल जाऊँ तुम्हें, अब यही मुनासिब है... अपने आप में अलग से एक आलेख की हक़दार हैं पर आज बात उनके सिलसिले से थोड़ी कम मक़बूलियत हासिल करने वाले एलबम सोज़ की जो वर्ष 2001 में बाजार में आया।


    सोज़ का शाब्दिक अर्थ यूँ तो जलन होता है पर ये एलबम श्रोताओं के सीने में आग लगाने में नाकामयाब रहा। फिर भी सोज़ ने शायरी के मुरीदों को दो बेशकीमती तोहफे जरूर दिये जिन्हें गुनगुनाते रहना उसके प्रेमियों की स्वाभावगत मजबूरी है। इनमें से एक तो ग़ज़ल थी और दूसरी एक नज़्म। मजे की बात ये थी कि ये दोनों मिजाज में बिल्कुल एक दूसरे से सर्वथा अलग थीं। एक में अनुनय, विनय और मान मनुहार से प्रेमिका से मुलाकात की आरजू थी तो दूसरे में बुलावा तो था पर पूरी खुद्दारी के साथ।

    पर पहले बात ग़ज़ल  तमन्‍ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ.. की।  ओए होए क्या मुखड़ा था इस ग़ज़ल का। समझिए इसके हर एक मिसरे में चाहत के साथ एक नटखटपन था जो इस ग़ज़ल की खूबसूरती और बढ़ा देता है। आज भी जब इसे गुनगुनाता हूँ तो मन एकदम से हल्का हो जाता है तो चलिए एक बार फिर सुर में सुर मिलाया जाए..


    तमन्‍ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
    यह मौसम ही बदल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ

    मुझे गम है कि मैने जिन्‍दगी में कुछ नहीं पाया
    ये ग़म दिल से निकल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ

    नहीं मिलते हो मुझसे तुम तो सब हमदर्द हैं मेरे
    ज़माना मुझसे जल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ

    ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्‍से, काम की बातें
    बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ 

    सोज़ की ये ग़ज़ल भले दिल को गुदगुदाती हो पर उसकी इस नज़्म के बारे में आप ऐसी सोच नहीं रख पाएँगे। प्रेम किसी पर दया दिखलाने या अहसान करने का अहसास नहीं। ये तो स्वतःस्फूर्त भावना है जो दो दिलों में जब उभरती है तो एक दूसरे के बिना हम अपने आप को अपूर्ण सा महसूस करते हैं। पर इस मुलायम से अहसास को जब भावनाओं का सहज प्रतिकार नहीं मिलता तो बेचैन मन खुद्दार हो उठता है। प्रेमी से मिलन की तड़प को कोई उसकी कमजोरी समझ उसका फायदा उठाए ये उसे स्वीकार नहीं। तभी तो जावेद साहब कहते हैं कि अहसान जताने और रस्म अदाएगी के लिए आने की जरूरत नहीं.... आना तभी जब सच्ची मोहब्बत तुम्हारे दिल में हो..

     

    अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
    सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

    मैंने पलकों पे तमन्‍नाएँ सजा रखी हैं
    दिल में उम्‍मीद की सौ शम्‍मे जला रखी हैं
    ये हसीं शम्‍मे बुझाने के लिए मत आना

    प्‍यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं
    चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं
    तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना


    अब तुम आना जो तुम्‍हें मुझसे मुहब्‍बत है कोई
    मुझसे मिलने की अगर तुमको भी चाहत है कोई
    तुम कोई रस्‍म निभाने के लिए मत आना  


    जगजीत तो अचानक हमें छोड़ के चले गए पर अस्पताल में भर्ती होने से केवल एक दिन पहले उन्होंने जावेद साहब के साथ अमेरिका में एक साथ शो करने का प्रोग्राम बनाया था जिसमें आपसी गुफ्तगू के बाद जावेद साहब को अपनी कविताएँ पढ़नी थीं और जगजीत को ग़ज़ल गायिकी से श्रोताओं को लुभाना था। जगजीत के बारे में अक्सर जावेद साहब कहा करते थे कि उनकी आवाज़ में एक चैन था., सुकून था। इसी सुकून का रसपान करते हुए आज की इस महफ़िल से मुझे अब आज्ञा दीजिए पर ये जरूर बताइएगा कि इस एलबम से आपकी पसंद की ग़ज़ल  कौन सी है ?

    सोमवार, सितंबर 21, 2015

    कैसे तय किया ओ पी नैयर ने संघर्ष से सफलता का सफ़र :जा जा जा जा बेवफ़ा, कैसा प्यार कैसी प्रीत रे ! Ja Ja ja Ja Bewafa !

    आजकल कई बार ऐसा देखा गया है कि पुराने मशहूर गीतों व ग़ज़लों को नई फिल्मों में फिर से नए कलाकारों से गवा कर या फिर हूबहू उसी रूप में पेश किया जा रहा है। हैदर में गुलों में रंग भरे गाया तो अरिजित सिंह ने पर याद दिला गए वो मेहदी हसन साहब की। वहीं पुरानी आशिकी में कुमार सानू का गाया धीरे धीरे से मेरी ज़िदगी में आना को तोड़ मरोड़ कर हनी सिंह ने अपने रैप में ढाल लिया है। शुक्र है तनु वेड्स मनु रिटर्न में फिल्म के अंत में कंगना पर आर पार के गाने जा जा जा जा बेवफ़ा का मूल रूप ही बजाया गया। इससे ये हुआ कि कई युवाओं ने पुरानी फिल्म आर पार के सारे गीत सुन डाले। आज आर पार की इस सुरीली और उदास गीत रचना का जिक्र छेड़ते हुए कुछ बातें रिदम किंग कहे जाने वाले नैयर साहब के बारे में भी कर लेते हैं।

    ये तो सब जानते है कि आर पार ही वो फिल्म थी जिसने सुरों के जादूगर ओ पी नैयर की नैया पार लगा दी थी। पर उसके पहले नैयर साहब को काफी असफलताएँ भी झेलने पड़ी थीं।  नैयर लाहौर में जन्मे और फिर पटियाला में पले बढ़े। घर में सभी पढ़े लिखे और उच्च पदों पर आसीन लोग थे सो संगीत का माहौल ना के बराबर था। ऊपर से उन्हें बचपन में ही ढ़ेर सारी बीमारियों ने धर दबोचा। पर इन सब से जूझते हुए कब संगीत का चस्का लग गया उन्हें ख़ुद ही पता नहीं चला। ये रुझान उन्हें रेडियो तक ले गया जहाँ वे गाने गाया करते थे। 

    मज़े की बात है कि ओ पी नैयर साहब ने मुंबई का रुख संगीत निर्देशक बनने के लिए नहीं बल्कि हीरो बनने के लिए किया था। स्क्रीन टेस्ट में असफल होने के बाद उन्हें लगा कि वो इस लायक नहीं हैं। फिर संगीत निर्देशक बनने का ख़्वाब जागा पर मुंबई की पहली यात्रा में अपने संगीत निर्देशन वो दो गैर फिल्मी गीत ही रिकार्ड कर पाए जिसमें एक था सी एच  आत्मा का गाया प्रीतम आन मिलो। काम नहीं मिलने की वज़ह से नैयर साहब वापस चले गए। पर वो गाना बजते बजते इतना लोकप्रिय हो गया कि उस वक़्त आसमान का निर्देशन कर रहे पंचोली साहब ने उन्हें मुंबई आने का बुलावा भेज दिया। कहते हैं कि नैयर साहब के पास ख़ुशी की ये सौगात ठीक उनकी शादी के दिन पहुँची।

    1952 में उन्हें आसमान के आलावा दो फिल्में और मिलीं छम छमा छम और गुरुदत्त की बाज। दुर्भाग्यवश उनकी ये तीनों फिल्में बुरी तरह पिट गयीं। गीता जी नैयर साहब के साथ आसमान में देखो जादू भरे मोरे नैन के लिए काम कर चुकी थीं और उन्हें ऐसा लगा कि नैयर साहब उनकी आवाज़ का सही इस्तेमाल कर पाने की कूवत रखते हैं। जब ओ पी नैयर गुरुदत्त से बाज के लिए अपना बकाया माँगने गए तो उन्होंने उन्हें पैसे तो नहीं दिए पर गीता जी के कहने पर उन्हें अपनी अगली फिल्म आर पार के लिए अनुबंधित कर लिया। नैयर साहब ने बाबूजी धीरे चलना...., सुन सुन सुन जालिमा...., मोहब्बत कर लो जी भर लो अजी किसने देखा है.... जैसे गीतों के बल पर वो धमाल मचाया कि पचास के दशक में आगे चलकर किसी फिल्म के लिए एक लाख रुपये लेने वाले पहले संगीत निर्देशन बन गए।

    सुन सुन सुन जालिमा.... का ही एक उदास रूप था जा जा जा ऐ बेवफ़ा... ! पर गीत के मूड के साथ साथ दोनों गीतों के संगीत संयोजन में काफी फर्क था। सुन सुन की तरह जा जा जा में ताल वाद्यों का कहीं इस्तेमाल नहीं हुआ। पूरे गीत में पार्श्व में हल्के हल्के तार वाद्यों की रिदम चलती रहती है जो गीत की उदासी को उभारती है। मजरूह ने गीत के मुखड़े और अंतरों में नायिका के शिकायती तेवर को बरक़रार रखा है। उलाहना भी इसलिए दी जा रही है कि कम से कम वही सुन कर नायक का दिल पसीज़ जाए। 

    नैयर साहब ने गज़ब का गाना रचा था।  मुखड़े का हर जा.. दिल की कचोट को गहराता है वहीं अगली पंक्ति का प्रश्न हताशा के भँवर से निकलता सुनाई देता है।आज भी मन जब यूँ ही उदास होता है तो ये गीत बरबस सामने आ खड़ा होता है.. तो आइए सुनते हैं इस गीत को

    जा जा जा जा बेवफ़ा, कैसा प्यार कैसी प्रीत रे
    तू ना किसी का मीत रे, झूठी तेरी प्यार की कसम

    दिल पे हर जफ़ा देख ली, बेअसर दुआ देख ली
    कुछ किया न दिल का ख़याल, जा तेरी वफ़ा देख ली

    क्यों ना ग़म से आहें भरूँ, याद आ गए क्या करूँ
    बेखबर बस इतना बता, प्यार में जिऊँ या मरूँ




    और अब देखिए हाल ही में आई फिल्म तनु वेड्स मनु रिटर्न में कंगना पर इसे कैसे फिल्माया गया है..


    सोमवार, सितंबर 14, 2015

    बहुत दिनों से बहुत दिनों से..बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना : गजानन माधव मुक्तिबोध Gajanan Madhav Muktibodh

    गजानन माधव मुक्तिबोध हिन्दी के एक प्रखर कवि थे। पर स्कूल में बिहार बोर्ड की भाषा सरिता के दसवीं तक के सफ़र में ना उनकी किसी कविता से साबका पड़ा ना उसके बाद ही। इंटर के बाद तो वैसे ही कॉलेज में हिंदी से नाता टूट गया सो मुक्ति बोध को जानते कैसे? सच पूछिए तो मेरे लिए  हिंदी कविता भक्ति, श्रंगार, प्रेम, वीर रस से होती हुई जयशंकर प्रसाद, महादेवी, पंत व निराला जैसे छायावादी कवियों तक ही  सिमट गई। हिंदी कविता में छायावाद से प्रयोगवाद के जिस सफ़र में गजानन माधव मुक्तिबोध जैसे कवियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उससे कम से कम मैं तो अनजान ही रहा।

    गजानन माधव मुक्तिबोध Gajanan Madhav Muktibodh
    जो लोग मेरी तरह मुक्तिबोध के लेखन से उतने परिचित नहीं रहे हैं उन्हें ये बताना आवश्यक रहेगा कि उनकी पैदाइश   शिवपुरी में हुई थी जो मध्यप्रदेश के मुरैना जिले का हिस्सा है। वे एक मध्यमवर्गीय खानदान से ताल्लुक रखते थे। पिता माधवराव यूँ तो पुलिस में थे पर ईमानदारी से जीवन जीने में विश्वास रखते थे। उज्जैन में वो इंस्पेक्टर के पद से सेवानिवृत हुए और वहीं मुक्तिबोध की प्रारंभिक शिक्षा भी शुरु हुई। स्नातक की डिग्री लेने के बाद पहले वे स्कूल में पढ़ाने लगे। बाद में राजनंदगाँव से जब परास्नातक (MA) की डिग्री हासिल हुई तो कॉलेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए।

    माता पिता की सहमति के बगैर उन्होंने शादी तो की पर अपनी पत्नी से उनका तारतम्य ना बैठ सका। लकवे की वज़ह से वे अपनी ज़िदगी का अर्धशतक भी पूरा ना कर पाए। ये विडंबना ही रही कि वे अपने ज्यादातर काव्य संग्रहों को ख़ुद छपते और सम्मान पाते नहीं देख पाए।  पिछले हफ्ते उनकी पुण्यतिथि पर जब उनकी कविताओं की चर्चा हुई तो उनकी प्रमुख रचनाओं को पढ़ने की इच्छा हुई। उनकी दो कविताएँ जो मन के किसी कोने को छू गई को आज अपनी आवाज़ में प्रस्तुत करने की एक कोशिश कर रहा हूँ।

    मुक्तिबोध कि जो पहली कविता मैंने यहाँ चुनी है उसकी भावनाओं से आपमें से ज्यादातर अपने आप को जोड़ पाएँगे। कोई हमें कितना प्यारा है? कितना दिलअजीज़ है? हमारे मन में उसके लिए कितनी कद्र है? क्या हम हमेशा उसको सीधे सीधे बतला पाते हैं.. नहीं ना! अंदर से ख़्वाहिश तो बहुत रहती है कि वो हमारी भावनाओं को पढ़ लें पर प्रत्यक्ष में हम वो कह नहीं पाते। रिश्तों की ऐसी पेंच में फँसे होते हैं कि कह सुन कर उनकी गिरहों को ऐसा नहीं बना देना चाहते कि उनमें हमेशा हमेशा के लिए गाँठ लग जाए। पर पूरी चुप्पी भी बेचैन हृदय को कहाँ बर्दाश्त होने वाली है। सो संकेतों व प्रतीकों का सहारा लेने लगते हैं  अपने भीतर अंकुरित होती कोमल भावनाओं के संप्रेषण के लिए। ये छोटे छोटे इशारे ही काफी होते हैं दिल की मिट्टी को आपसी स्नेह से भिंगोए रखने के लिए। मुक्तिबोध की इस कविता के नायक नायिका आसमान और धरती हैं। धरती के प्रति अपनी आत्मीयता को आसमान किस तरह व्यक्त कर रहा है आइए देखते हैं इन पंक्तियों में..


    बहुत दिनों से बहुत दिनों से
    बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
    और कि साथ यों साथ-साथ
    फिर बहना बहना बहना
    मेघों की आवाज़ों से
    कुहरे की भाषाओं से
    रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
    है बोल रहा धरती से
    जी खोल रहा धरती से
    त्यों चाह रहा कहना
    उपमा संकेतों से
    रूपक से, मौन प्रतीकों से

    मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
    तुमसे चाह रहा था कहना!
    जैसे मैदानों को आसमान,
    कुहरे की मेघों की भाषा त्याग
    बिचारा आसमान कुछ
    रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।

    मुक्तिबोध की दूसरी कविता इस बात को पुरज़ोर तरीके से रखती है कि इस संसार में बिना किसी कलुष के निर्मल हृदय रखने वाले इंसान को ख़ुद कितनी व्यथा से गुजरना पड़ता है। वो तो सबकी अच्छाई में विश्वास कर लेता है। सबकी पीड़ा को अपना लेता है। हर मुस्कुराहट में उसे एक पवित्रता नज़र आती है। किसी के हृदय की बेचैनी महसूस कर वो ख़ुद अधीर हो उठता है। पर फिर भी वो बार बार छला जाता है। वास्तविकता तो ये है कि इस कपटी संसार को तो वो निरा मूर्ख ही नज़र आता है। 

    पर वो करे भी तो क्या करे अंदर का रुदन छुपाकर  हँसे भी तो किसके लिए? जिस संसार से भावनाओं के तार उसने जोड़ रखे थे वो तो उसका इस्तेमाल कर आगे बढ़ चुका है। अब उसके सहारे की जरूरत जो नहीं रह गई है । पर नहीं अभी सारे रास्ते बंद नहीं हुए। उसका जीवन व्यर्थ नहीं है क्यूँकि वो मन का सच्चा है।  नई पगडंडियाँ अब भी बाँह पसारे बुला रहीं हैं उसे।

    शायद उनमें उसके अस्तित्व, उसके वज़ूद के पीछे की कई और कहानियाँ दफन हों।

    शायद इन पंगडंडियों पर चलकर बटोरी कहानियों से वो जीवन के उपन्यास को एक मूर्त रूप दे सके ..



    मुझे कदम-कदम पर
    चौराहे मिलते हैं
    बाँहें फैलाए!
    एक पैर रखता हूँ
    कि सौ राहें फूटतीं,
    मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ,
    बहुत अच्छे लगते हैं
    उनके तजुर्बे और अपने सपने....
    सब सच्चे लगते हैं,
    अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
    मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
    जाने क्या मिल जाए!

    मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
    चमकता हीरा है,
    हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
    प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,
    मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
    महाकाव्य पीडा है,
    पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ,
    इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ,
    अजीब है जिंदगी!
    बेवकूफ बनने की खातिर ही
    सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,
    और यह देख-देख बडा मजा आता है
    कि मैं ठगा जाता हूँ...
    हृदय में मेरे ही,
    प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
    हँस -हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
    कि जगत.... स्वायत्त हुआ जाता है।
    कहानियाँ  लेकर और
    मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
    जहाँ  ज़रा खडे होकर
    बातें कुछ करता हूँ
    .... उपन्यास मिल जाते ।

    बुधवार, सितंबर 09, 2015

    'नदिया से दरिया' से 'मैं शायर बदनाम' तक : नमक हराम का संगीत कब दूर गया है दिल से ? Songs of Namak Haraam

    सत्तर के दशक का शुरुआती दौर पंचम के लिए उनके स्वर्णिम दौर के रूप में जाना जाता रहा है। सत्तर से पचहत्तर के छः सालों में उनकी करीब सत्तर फिल्में रिलीज़ हुई। यानि हर साल ये आंकड़ा दहाई छूता रहा। पंचम ने इस दौरान जिन फिल्मों को हाथ लगाया वे भले ख़ुद चली ना चली हों पर उनके संगीत को खासी वाहवाही मिली। दरअसल काम मिलने का ये सिलसिला फ़िल्म कटी पतंग की सफलता के बाद ही शुरु हो गया था। मनोहारी सिंह जो बतौर वादक उनके आर्केस्ट्रा का अहम हिस्सा हुआ करते थे ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था..
    "उस व्यस्त दौर में कई बार महीने में पंचम ने तीस से ज्यादा गानों को रिकार्ड किया। कई बार तो एक ही दिन में दो गाने रिकार्ड कर लिए जाते थे। हम लोग दिन रात काम करते। संगीत सिर्फ गानों के लिए ही नहीं बल्कि फिल्म में बजते पार्श्व संगीत पर भी साथ ही काम चलता। अब सोचता हूँ तो लगता है आख़िर हमने वो सब कैसे किया। सचमुच वे दिन अविस्मरणीय थे।.… "

    1973 में ऐसी ही एक फिल्म मिली पंचम को नाम था नमक हराम। पर आपको जान कर आश्चर्य होगा कि पंचम निर्माता सतीश वागले की पहली पसंद नहीं थे। सतीश ये जिम्मेदारी संगीतकार शंकर को सौंपना चाहते थे पर अपने जोड़ीदार राजाराम के कहने पर ये फिल्म पंचम की झोली में आ गई और पंचम ने किशोर कुमार और गीतकार आनंद बख़्शी के साथ मिलकर जो काम किया उसे किसी संगीत प्रेमी के लिए भूलना मुश्किल है।



    फिल्म में पाँच गाने थे जिसमें तीन बेहद लोकप्रिय हुए। ये तीनों गीत एकल थे और इन सबको किशोर ने अपनी आवाज़ दी थी।

    कुछ गीत ऐसे होते हैं जिनके मुखड़े कुछ इस तरह ज़ेहन से चिपक जाते हैं कि आप उन्हें गुनगुनाते वक़्त अंतरों तक पहुँच ही नहीं पाते। बस मुखड़े को ही बार बार दोहराते रह जाते हैं। मेरे ख़्याल से नदिया से दरिया…  बख़्शी साहब का लिखा ऐसा ही एक नग्मा है। कितने सहज शब्दों में एक ज़ाम की गहराई नाप ली थी उन्होंने। मुखड़े के पहले पंचम का संगीत संयोजन कुछ अलग सा है। होली के मौके पे गाया ये नग्मा सामूहिक गीत ना होते हुए भी मस्ती से सराबोर है और उसकी वज़ह है खुले गले से गीत में घुलती किशोर दा की दमदार आवाज़।

     

    नदिया से दरिया, दरिया से सागर
    सागर से गहरा जाम
    हो हो हो जाम में डूब गयी यारों मेरे,
    जीवन की हर शाम...

    वर्ग विभेद के बावज़ूद पलती बढ़ती दोस्ती की इस कहानी में एक गीत ऐसा है जो मुझे हमेशा अपने  प्यारे दोस्तों की याद दिला देता है। याद आया ना आपको वो गीत दीये जलते हैं, फूल खिलते हैं...। ताल वाद्यों का गीत के बोलों के बीच में क्या बेहतरीन उपयोग किया था पंचम ने।

    दीये जलते हैं, फूल खिलते हैं
    बड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्त मिलते हैं

    जब जिस वक़्त किसी का, यार जुदा होता हैं
    कुछ ना पूछो यारों दिल का, हाल बुरा होता है
    दिल पे यादों के जैसे, तीर चलते हैं....


    आनंद बख्शी साहब के गीत एक आम आदमी की भाषा में आपसे मुख़ातिब होते हैं इसलिए जनता जनार्दन में वे इतने लोकप्रिय हुए। उनके प्रशंसक विजय अकेला जी ने उन के गीतों से जुड़ी एक किताब लिखी है मैं शायर बदनाम। पुस्तक में आशा जी बख्शी साहब के बारे में एक रोचक टिप्पणी करती हैं। वे कहती हैं.
    "चाहे मजरूह सुल्तानपुरी हों या साहिर लुधियानवी, चाहे शकील बदायूँनी हों या शैलेंद्र इन सबों ने फिल्मी लिखा तो इल्मी भी। पर ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि इन सारे शायरों को इल्मी ज्यादा और फिल्मी कम माना गया। एक ही ऐसे शायर थे आनंद बख़्शी, जिन्हें सिर्फ और सिर्फ फिल्मी माना गया और मज़े की बात ये है कि उन्होंने कभी इल्मी बनने की कोशिश भी नहीं की बल्कि भागते रहे दूर इल्मी बनने से।.."

    नमक हराम फिल्म के जिस गीत को सबसे ज्यादा सराहा गया वो था मैं शायर बदनाम। ज़िदगी में कौन ऐसा शख़्स होगा जिसने नाकामी नहीं सही होगी। कभी तो हम इनसे उबर जाते हैं तो कभी बिल्कुल टूट से जाते हैं। शायद यही वज़ह है कि एक असफल शायर का दर्द जब बख़्शी जी के शब्दों में उतरता है तो हमारे दिल का कोई घाव एकदम से हरा हो जाता है। बख़्शी साहब ने तो कमाल लिखा ही पर किशोर दा की आवाज़ और उदासी के साये में डूबती उतराती  पंचम की धुन का उन्हें साथ ना मिला होता तो ये गीत हमारे मन की गहराइयों में इतनी  पैठ नहीं बना पाता।

    मैं शायर बदनाम, हो मैं चला, मैं चला
    महफ़िल से नाकाम, हो मैं चला, मैं चला
    मैं शायर बदनाम

    मेरे घर से तुमको, कुछ सामान मिलेगा
    दीवाने शायर का, एक दीवान मिलेगा
    और इक चीज़ मिलेगी, टूटा खाली जाम
    हो मैं चला, मैं चला, मैं शायर बदनाम



    वैसे आप क्या सोचते हैं नमक हराम के संगीत के बारे में ?

    रविवार, अगस्त 30, 2015

    ये जो उठता है दिल में रह रह कर. अब्र है या गुबार है क्या है Ye Jo Qaul O Qaraar Hai Kya Hai : Firaq Gorakhpuri

    विनोद सहगल याद आते हैं आपको ? जगजीत सिंह के दो मशहूर एलबमों से उनका जुड़ाव मुझे तो उनकी आवाज़ से दूर नहीं जाने देता। इंटर में था जब मिर्जा गालिब में उनके द्वारा गाई ग़ज़ल कोई दिनगर ज़िंदगानी और है.... सुनी थी। पर फिर नव्बे के दशक की शुरुआत में कहक़शाँ में उनकी आवाज़ जो गूँजी वो गूँज धीरे धीरे कहाँ विलुप्त हो गई पता ही नहीं चला। कुछ फिल्मों में मौके तो मिले पर माचिस का छोड़ आए हम वो गलियाँ के सामूहिक स्वर के आलावा शायद ही कोई गीत श्रोताओं तक ठीक से पहुँच सका। पर उनकी रुहानी आवाज़ रह रह कर यादों के गुलिस्ताँ से कानों तक यू ट्यूब के माध्यम से पहुँचती रही। आज आपको दूरदर्शन द्वारा उर्दू कवियों पर बनाया गए धारावाहिक कहक़शाँ की वो दिलकश ग़ज़ल सुनवाने जा रहा हूँ जो फिराक़ गोरखपुरी ने लिखी थी। पर इस पहले कि उस ग़ज़ल से आपका परिचय कराऊँ कुछ बातें इस गुमनाम से फ़नकार के बारे में.. 


    अम्बाला में जन्मे विनोद सहगल का संगीत से विधिवत परिचय उनके पिता सोहन लाल सहगल के माध्यम से हुआ था। आशा छाबड़ा, आर एम कुलकर्णी व चमन लाल जिज्ञासु जैसे शिक्षकों का आशीर्वाद पाने वाले विनोद सहगल का सितारा पहली बार तब बुलंद हुआ जब नए ग़ज़ल गायकों को बढ़ावा दे रहे ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह की नज़र उन पर पड़ी।


    अस्सी के दशक में जगजीत के साथ विनोद सहगल को दो एलबमों में काम करने का मौका मिला। पहला तो “Brightest talents of 80’s” और फिर “Jagjit Singh presents Vinod Sehgal। पर अशोक खोसला, घनश्याम वासवानी और सुमिता चक्रवर्ती जैसे ग़ज़ल गायकों के साथ संगीत की दुनिया में क़दम रखने वाले विनोद तेजी से बदलते संगीत में अपना मुकाम नहीं पा सके जिसके वे हक़दार थे।

    कहकशाँ में विनोद सहगल ने फिराक़ की लिखी कई ग़ज़लें गायी हैं पर आज आपसे जिक्र  ये जो क़ौल-ओ-क़रार है क्या है.. का करना चाहूँगा। फिराक़ गोरखपुरी की निजी ज़िंदगी के बारे में पहले भी विस्तार से लिख चुका हूँ। घरेलू ज़िदगी इतनी तकलीफ़देह (जिसके लिए वे ख़ुद काफी हद तक जिम्मेदार थे) होने के बावज़ूद उन्होंने शेर ओ शायरी में मोहब्बत से जुड़े वो रंग बिखेरे कि कहाँ दाद दें कहाँ छोड़े इसका फैसला करना उन्हें पढ़ने सुनने वालों के लिए मुश्किल ही रहा है। अब इस ग़ज़ल को ही देखिए एक बिखरे हुए हुए रिश्ते में उम्मीद की लौ तलाश रहे हैं फिराक़ साहब

    ये जो क़ौल-ओ-क़रार है क्या है
    शक़ है या ऐतबार है क्या है

    ये जो उठता है दिल में रह रह कर
    अब्र है या गुबार है क्या है


    तुम्हारा दिया हुआ वचन, हमारी वो कभी ना बिछड़ने की प्रतिज्ञा आख़िर क्या थी? उस क़रार को मैं शक़ की नज़रों से देखूँ या अभी भी तुम्हारा विश्वास करूँ। दिल का तो ये आलम है कि तुम्हारी यादों की रह रह कर एक हूक़ सी उठती है। क्या इन्हें अपने मन में अब भी तुम्हारे लिए मचलती भावनाओं की घटाएँ मानूँ या  मेरे अंदर तुम्हारी बेवफाई से उपजा हुआ रोष , जो दबते दबाते भी बीच बीच में प्रकट हो ही जाता है।

    ज़ेर-ए-लब इक झलक तबस्सुम की
    बर्क़ है या शरार है क्या है

    कोई दिल का मक़ाम समझाओ
    घर है या रहगुज़ार है क्या है


    क्या कहूँ आज भी समझ नहीं पाता तुम्हारे होठों से छलकती उस मुस्कुराहट में ऐसा कौन सा नशा था जिसे देख कभी दिल पर बिजलियाँ सा गिरा करती थीं । आज तुम्हारे उसी तबस्सुम की याद से हृदय में एक चिंगारी सी जल उठती है। मैंने तो सोचा था कि मेरे दिल को तुम अपना आशियाना बना लोगी। पर अब लगता है कि  वो तो उस रास्ते की तरह था जहाँ तुम एक मुसाफ़िर बन कर आई और चली गयी।

    ना खुला ये कि सामना तेरा
    दीद है इंतज़ार है क्या है


    देखो तो आज फिर तुम्हारा सामना हुआ। तुम्हारी इन तकती आँखों को पढ़ने की कोशिश में हूँ। क्या इसे मैं सिर्फ तुम्हारी एक झलक पाने का संयोग मानूँ या फिर दिल में तुम्हारे इंतज़ार की थोड़ी ही सही गुंजाइश छोड़ दूँ।

    फिराक़ की भावनाओं की इस कशमकश को विनोद सहगल की आवाज़ में सुनना मन को ठहराव सा दे जाता है खासकर जिस अंदाज़ में क्या है.. को निभाते हैं। तो आइए जगजीत सिंह के रचे संगीत पर सुनें विनोद सहगल की गाई ये ग़ज़ल




    एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

    बुधवार, अगस्त 19, 2015

    तू बिन बताए मुझे ले चल कहीं ... Tu bin bataye .. Rang De Basanti

    रंग दे बसंती याद है ना आपको! नौ साल पहले आई इस फिल्म ने समूचे जनमानस विशेषकर युवाओं के मन को खासा उद्वेलित किया था। फिल्म के साथ साथ इसके गीत भी बेहद चर्चित हुए थे। शीर्षक गीत मोहे तू रंग दे बसंती तो लोकप्रिय हुआ ही था, साथ ही साथ रूबरू, खलबली, पाठशाला, लुका छिपी भी पसंद किए गए थे। ए आर रहमान द्वारा संगीत निर्देशित इस फिल्म में प्रसून जोशी का लिखा एक रूमानी नग्मा और भी था जिसे सुन कर मन में आज भी एक तरह का सुकून तारी हो जाता है। गीत के बोल थे तू बिन बताए मुझे ले चल कहीं... जहाँ तू मुस्कुराए मेरी मंज़िल वहीं... तो आज बात करते हैं इसी गीत के बारे में

    पहली पहली बार किसी से प्रेम होता है तो ढेर सारी बैचैनियाँ साथ लाता है। एक ओर तो मन उस संभावित सहचर के साथ मीठे मीठे सपने भी बुन रहा होता है तो दूसरी ओर उसे अपनी अस्वीकृति का भय भी सताता है।

    पर प्रसून जोशी का लिखा ये नग्मा प्रेम के प्रारंभिक चरण की इस उथल पुथल से आगे की बात कहता है जब प्रेम में स्थायित्व आ चुका होता है। रिश्ते की जड़ें इतनी मजबूत हो जाती हैं कि प्रेमी उससे निकलते नित नए पल्लवों व पुष्पों के सानिध्य से आनंदित होता रहता है। दरअसल प्रेम आपसी विश्वास और सम्मान का दूसरा नाम है और जब इनका साथ हो तो गलतफ़हमियों की कोई हवा उस पौधे को उखाड़ नहीं सकती।

    प्रसून  जोशी ने इस गीत के बारे अपनी किताब Sunshine Lanes में लिखा है

    "प्यार कैसे किसी व्यक्ति को पूर्णता प्रदान करता है..कैसे अपने परम प्रिय की शारीरिक अनुपस्थिति भी उसे उसके प्रभाव घेरे से मुक्त नहीं कर पाती..ये बात मुझे हमेशा से अचंभित करती रही है। अपने उस ख़ास की छाया, उसकी बोली, उसके स्पर्श के अहसास से हम कभी दूर नहीं हो पाते। सिर्फ उस इष्ट के ख्याल मात्र से मन की सूनी वादी एक दम से हरी भरी लगने लगती है। प्रेम के इस अवस्था में प्रश्नों के लिए कोई स्थान नहीं । जगह होती है तो सिर्फ समर्पण की,वो भी बिना सवालों के और मेरा ये गीत प्रेम के इसी पड़ाव के बीच से मुखरित होता है।"

    रंग दे वसंती का ये गीत गाया है मधुश्री ने। मधुश्री ए आर रहमान की संगीतबद्ध फिल्मों में बतौर गायिका एक जाना पहचाना चेहरा रही हैं। बहुत कम लोगों को पता है कि कभी नीम नीम कभी शहद शहद  (युवा), हम हैं इस पल यहाँ ...(कृष्णा), इन लमहों के दामन में ....(जोधा अकबर) जैसे शानदार नग्मों को गाने वाली मधुश्री का वास्तविक नाम सुजाता भट्टाचार्य है। रवीन्द भारती विश्वविद्यालय से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने वाली मधुश्री ने हिंदी के आलावा तमिल, तेलगु, कन्नड़ और बांग्ला फिल्मों के गाने भी गाए हैं। 

    इस गीत की अदाएगी के बारे में एक रोचक तथ्य ये है कि इसके मुखड़े में शास्त्रीय संगीत में प्रयुक्त होने वाले अलंकार मींड का इस्तेमाल हुआ है। आपने गौर किया होगा तू...बिन..बताए....मुझे...ले.. ..चल.कहीं में शब्दों के बीच एक सुर से दुसरे सुर तक जाने का जो सहज खिंचाव है जो गीत की श्रवणीयता को और मधुर बना देता है। फिल्म में ये गीत पार्श्व से आता है। नायक नायिका या उनके मित्रों को कुछ कहने की जरूरत नहीं होती। पीछे से आते बोल उन भावनाओं को मूर्त रूप दे देते हैं जो चरित्रों के मन में चल रही होती हैं।

    इस गीत में मधुश्री का साथ दिया है गायक नरेश अय्यर ने। तो आइए सुनते  हैं ये प्यारा सा नग्मा

     

    तू बिन बताए मुझे ले चल कहीं
    जहाँ तू मुस्कुराए मेरी मंज़िल वहीं

    मीठी लगी, चख के देखी अभी
    मिशरी की डली, ज़िंदगी हो चली
    जहाँ हैं तेरी बाहें मेरा साहिल वहीं
    तू बिन बताए ........मेरी मंज़िल वहीं

    मन की गली तू फुहारों सी आ
    भीग जाए मेरे ख्वाबों का काफिला
    जिसे तू गुनगुनाए मेरी धुन है वहीं
    तू बिन बताए ........मेरी मंज़िल वहीं
    बताए ........मेरी मंज़िल वहीं

    मंगलवार, अगस्त 11, 2015

    अज़ब पागल सी लड़की ..सुनिए आतिफ़ सईद की दो मशहूर नज़्में मेरी आवाज़ में.. (Ajab Pagal Si Ladki Aatif Saeed )

    मोहब्बत एक ऐसा अहसास है, जो कभी बासी नहीं होता। काव्य, साहित्य, संगीत, सिनेमा सब तो इसकी कहानी, न जाने कितनी बार कह चुके हैं, पर फिर भी इसके बारे में कहते रहना इंसान की फ़ितरत है। ये इंसान की काबिलियत का सबूत है कि हर बार वो इस भावना को शब्दों के नए नवेले जाल  में बुनकर एक से बढ़कर एक सुंदर अभिव्यक्ति की रचना करता है।अब आतिफ़ सईद की इस पागल लड़की की ही बात ले लीजिए ना। है तो ये उनकी पागल लड़की पर इस नज़्म को पढ़ते वक़्त वो पागल लड़की कितनी अपनी सी लगने लगती है उनके शब्दों में..


    अज़ब पागल सी लड़की ... इस मुखड़े से दो लोकप्रिय नज्में हैं और इन्हें इन दोनों नज़्मों को आतिफ़ सईद साहब ने लिखा है..। आतिफ़ पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से ताल्लुक रखते हैं। अड़तीस साल के है और नौजवानों में उनकी  नज़्में बड़े प्यार से पढ़ी जाती हैं क्यूँकि ख़्वाब और मोहब्बत से उनका करीबी रिश्ता रहा है। अपनी जुबाँ में वो अपनी शायरी को इन लफ़्जों में बाँधते हैं

    "मेरे ख्वाब मेरा क़ीमती अहसास और मेरे होने की अलामत हैं। मैं उन में साँस लेता हूँ और उन्हें अपने अंदर धड़कता महसूस करता हूँ। मेरे लिए ख़्वाब अच्छे या बुरे नहीं बस ख़्वाब हैं जिनकी मुट्ठी में दर्द की आहट, आस का जुगनू और कभी सिर्फ मोहब्बत है। कभी ये आने वाले अच्छे मौसम की नवेद (शुभ समाचार) सुनाते हैं और कभी गई रुतों के मंज़र दिल के कैनवस पर पेंट करते हैं। कभी आँसू बन कर पलकों पर नारसाई (विफलता, लक्ष्य तक ना पहुँचना ) के दुख काढ़ते हैं और कभी मुस्कान बन कर होठों पर खिल उठते हैं। तो कभी खामोशी बन कर सारे वज़ूद पर फैल जाते हैं और कभी इतना शोर करते हैं कि कुछ सुनाई नहीं देता।
    मेरी शायरी मेरे ख़्वाब और मेरे अंदर के मौसमों की दास्तान हैं जिस्में वस्ल के मेहरबान मौसमों की बारिशें भी हैं और हिज्र रुत की चिलचिलाती धूप भी, सूखे पत्तों पर लिखे जज़्बे भी हैं और गुलाबी मौसम के महकते गीत भी..."

    आतिफ़ की शायरी की तीन किताबें तुम्हें मौसम बुलाते हैं, मुझे तन्हा नहीं करना और तुम्हें खोने से डरता हूँ छप चुकी हैं पर उनका नाम अगर हुआ तो अजब पागल की लड़की से जुड़ी इन दो नज़्मों की वज़ह से। ये नज़्में उन्होंने 2007 के आस पास लिखीं। पहले अजब पागल की लड़की थी.....  लिखा। तो चलिए मैं भी पहले आपको सुनाता हूँ उनकी ये नज़्म जिसमें किस्सा बस इतना है कि प्रेम में अपना पराया कुछ नहीं रह जाता लेकिन जिस मुलायमियत से आतिफ़ ने अपनी बात कही है कि इसे पढ़ते वक़्त बस लगता है कि उसी अहसास में डूबते उतराते रहें..
    .


    अज़ब पागल सी लड़की थी....
    मुझे हर रोज़ कहती थी
    बताओ कुछ नया लिख़ा
    कभी उससे जो कहता था
    कि मैंने नज़्म लिखी है
    मग़र उन्वान देना है..
    बहुत बेताब होती थी


    वो कहती थी...
    सुनो...
    मैं इसे अच्छा सा इक उन्वान देती हूँ
    वो मेरी नज़्म सुनती थी
    और उसकी बोलती आँखें
    किसी मिसरे, किसी तस्बीह पर यूँ मुस्कुराती थीं
    मुझे लफ़्जों से किरणें फूटती महसूस होती थीं
    वो फिर इस नज़्म को अच्छा सा उन्वान देती थी
    और उसके आख़िरी मिसरे के नीचे
    इक अदा-ए-बेनियाज़ी से
    वो अपना नाम लिखती थी

    मैं कहता था
    सुनो....
    ये नज़्म मेरी है
    तो फिर तुमने अपने नाम से मनसूब कर ली है ?
    मेरी ये बात सुनकर उसकी आँखें मुस्कुराती थीं

    वो कहती थी
    सुनो.....
    सादा सा रिश्ता है
    कि जैसे तुम मेरे हो
    इस तरह ये नज़्म मेरी है

    अज़ब पागल सी लड़की थी....


    (उन्वान-शीर्षक, बेनियाज़ी-लापरवाही से, मिसरा - छंद का चरण)

    पर आतिफ़ को असली मक़बूलियत  अजब पागल की लड़की है ...लिखने के बाद मिली। आतिफ़ बताते हैं कि इस नज़्म को लिखने के पहले उनके ज़ेहन में दो पंक्तियाँ ही थी मुझे तुम याद करते हो ?तुम्हें मैं याद आती हूँ ? आतिफ़ ने उस वक़्त के अपने हालातों को इन पंक्तियों से जोड़ा और ये  नज़्म तैयार हो गई। फिर उन्होंने इसे  अपने दोस्त को सुनवाया । उस मित्र ने उसे किसी अख़बार में दिया और वो वहाँ छप गई। धीरे धीरे नज़्म की लोकप्रियता बढ़ने लगी। पाकिस्तान के FM चैनलों पर ये पढ़ी जाने लगी। पर लोग अब तक इसके असली शायर से रूबरू नहीं हो पा रहे थे। इसका कारण था आतिफ़ की अपनी नज़्म पढ़ने में झिझक। ख़ैर वक़्त के साथ उन्होंने अपने आप को माइक के सामने पूरे विश्वास से बोलने के काबिल बनाया। ये नज़्म संवाद-प्रतिसंवाद की शैली में लिखी गई है, यानि पहले प्रेमिका के कभी ना ख़त्म होने वाले सवालों की फेरहिस्त है और फिर है, उसका जवाब...

    इन दोनों नज़्म को पढ़ने में और उसे रिकार्ड करने में मुझे बहुत आनंद आया। कितनी सादगी के साथ अपने आपको अभिव्यक्त किया है उन्होंने.. उनके कथन में एक ईमानदारी है इसीलिए इसे पढ़ते वक़्त भावनाएँ खुद ब खुद दिल से निकल कर आती हैं। तो लीजिए सुनिए मेरी आवाज़ में उनकी इस नज़्म को..



    अजब पागल सी लड़की है...
    मुझे हर ख़त में लिखती है
    मुझे तुम याद करते हो ?
    तुम्हें मैं याद आती हूँ ?
    मेरी बातें सताती हैं
    मेरी नीदें जगाती हैं
    मेरी आँखें रुलाती हैं....

    दिसम्बर की सुनहरी धूप में, अब भी टहलते हो ?
    किसी खामोश रस्ते से

    कोई आवाज़ आती है?
    ठहरती सर्द रातों में

    तुम अब भी छत पे जाते हो ?
    फ़लक के सब सितारों को

    मेरी बातें सुनाते हो?

    किताबों से तुम्हारे इश्क़ में कोई कमी आई?
    वो मेरी याद की शिद्दत से आँखों में नमी आई?
    अज़ब पागल सी लड़की है
    मुझे हर ख़त में लिखती है...

    जवाब उस को लिखता हूँ...मेरी मशरूफ़ियत देखो...
    सुबह से शाम आफिस में
    चराग़-ए-उम्र जलता हूँ
    फिर उस के बाद दुनिया की..
    कई मजबूरियाँ पांव में बेड़ी डाल रखती हैं
    मुझे बेफ़िक्र चाहत से भरे सपने नहीं दिखते
    टहलने, जागने, रोने की मोहलत ही नहीं मिलती
    सितारों से मिले अर्सा हुआ.... नाराज़ हों शायद
    किताबों से शग़फ़ मेरा अब वैसे ही क़ायम है
    फ़र्क इतना पड़ा है अब उन्हें अर्से में पढ़ता हूँ

    तुम्हें किस ने कहा पगली, तुम्हें मैं याद करता हूँ?
    कि मैं ख़ुद को भुलाने की मुसलसल जुस्तजू में हूँ
    तुम्हें ना याद आने की मुसलसल जुस्तजू में हूँ
    मग़र ये जुस्तजू मेरी बहुत नाकाम रहती है
    मेरे दिन रात में अब भी तुम्हारी शाम रहती है
    मेरे लफ़्जों कि हर माला तुम्हारे नाम रहती है
    पुरानी बात है जो लोग अक्सर गुनगुनाते हैं
    उन्हें हम याद करते हैं जिन्हें हम भूल जाते हैं

    अज़ब पागल सी लड़की हो
    मेरी मशरूफ़ियत देखो...
    तुम्हें दिल से भुलाऊँ तो तुम्हारी याद आए ना
    तुम्हें दिल से भुलाने की मुझे फुर्सत नहीं मिलती
    और इस मशरूफ़ जीवन में
    तुम्हारे ख़त का इक जुमला
    "तुम्हें मैं याद आती हूँ?"
    मेरी चाहत की शिद्दत में कमी होने नहीं देता
    बहुत रातें जगाता है, मुझे सोने नहीं देता
    सो अगली बार अपने ख़त में ये जुमला नहीं लिखना


    अजब पागल सी लड़की है
    मुझे फिर भी ये लिखती है...मुझे तुम याद करते हो ?
    तुम्हें मैं याद आती हूँ ?

    (फ़लक-आकाश, शग़फ़-रिश्ता, मसरूफ- व्यस्त, मुसलसल-लगातार)


    तो कैसी लगी आतिफ सईद की लिखी ये नज़्में ! अपने विचारों से जरूर अवगत कराइएगा।।
     

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