रविवार, मार्च 29, 2015

एक शाम मेरे नाम ने पूरे किए अपने नौ साल ! Ninth Blog Anniversary of Ek Shaam Mere Naam (2006-2015)

करीब दस साल पहले याने अप्रैल 2005 में पहली बार जाना था कि ब्लॉगिंग किस चिड़िया का नाम है। हिंदी में टाइपिंग तब नहीं आती थी सीखने में एक साल का वक़्त लग गया। तब तक  रोमन हिंदी और अंग्रेजी में ही कुछ कारगुजारी चलती रही । मार्च 2006 के आख़िर से हिंदी में लिखने का जो सिलसिला शुरु हुआ उसके पिछले हफ्ते नौ साल पूरे हो गए। इससे पहले कि ये ब्लॉग अपने दसवें साल में प्रवेश करे पिछले एक साल के आलेखों को आप सबने किस नज़रिए से देखा उसकी एक झलक आप को दिखाना चाहूँगा। 



पिछले साल पुराने गीतों की बात करते हुए खास तौर पर संगीतकार मदनमोहन की चर्चा हुई। तुम्हारी जुल्फ के साये ....के बहाने कैफ़ी आज़मी के आरंभिक दिनों के बारे में बताने का मौका मिला। फिर लता जी के साथ उनके जुड़ाव की चर्चा हुई जब मैंने सपनों में अगर मेरे आ जाओ तो अच्छा है ...पर लिखा।  संदीप द्विवेदी का कहना था
"मदन जी ऐसे जौहरी थे जो संगीत के पत्थरों को भी तराश कर कोहेनूर बना देते थे। लता जी आज जो भी हैं उसमें मदन जी का महती योगदान है।"

अगर कैफ़ी की यादों को मदनमोहन के जिक्र के साथ बाँटा गया तो वही सचिन दा के काम करने के तरीके को मज़रूह की यादों के सामने आपके सामने प्रस्तुत किया। गीत ऐसे तो ना देखो पर डा. महेंद्र नाग का कहना था
"मजरूह साहब ने हर मूड के आले दर्जे के गाने लिखे यह उनकी खासियत है और इसीलिए हिंदी उर्दू शायरी के दीपक माने जाते हैं "

वहीं यूँ ही बेख्याल हो के पर साथी चिट्ठाकार नम्रता का ख्याल था
"सच कहा है आपने कि इन साधारण और आम सी लगने वाली बातों को जिसकी अनुभूति हम सब ने शायद की होगी.उन्हें क्या खूबसूरत रूप दिया गया है। वाह ! "

सत्तर से ले के नब्बे के दशक तक के गीतों से जुड़ी पोस्ट में आप सब ने बीती ना बिताई रैना...., समझो ना नैनों की भाषा पिया.... और इक लड़की को देखा... को खूब सराहा। बीती ना बिताई रैना के बारे में इंजीनियर व गायक दिलीप कवठेकर का कहना था

"अमूमन अभी भी मैं कई पुराने गीतों को मात्र उनके धुनों के चमत्कार के कारण पहचानता हूं. यह गीत भी ऐसा ही है, जिसकी इतनी अच्छी लिखाई और उसके पीछे के भावार्थ अभी अभी पूरी तरह से पढे और समझ के दाद दिये बगैर नहीं रह सका....."

ग़ज़लों से मुझे शुरु से बेपनाह मोहब्बत रही है और जब भी कोई मधुर ग़ज़ल कानों में पड़ती है तो उसे उसकी भावनाओं के साथ आप तक पहुँचाने का प्रयास करता हूँ। रात खामोश है, गुलों में रंग भरेइक खलिश को हासिल.., यूँ ना मिल मुझ से ख़फ़ा ..की बातें इसी सिलसिले के तहत आपके साथ हुई। इब्न ए इंशा की नज़्म ये सराय है यहाँ किसका ठिकाना लोगों.. पर शायरा लोरी अली का कहना था

"अदब की दुनिया में जीने वालों के लिए जन्नत है आपका ब्लॉग इन्शाँ जी की याद दिला कर शाम खुशनुमा डाली आपने"

अनूप जलोटा की ग़ज़ल हमसफ़र गम में मोहब्बत  की जब बात हुई तो आकाशवाणी से जुड़ी अन्नपूर्णा जी ने उनसे जुड़ी ये रोचक जानकारी सामने रखी।

"मुझे अवसर मिला था अनूप जी से हैदराबाद दूरदर्शन के लिए बातचीत का, उस समय भी वो हैदराबाद मन्दिर के एक महोत्सव के कार्यक्रम के लिए आए थे, अपनी बातचीत में उन्होने बताया था कि शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत गाना चाहते थे और शुरूवात ग़ज़ल, गैर फिल्मी गीत और भजनों से की थी। चूँकि उस समय भजन गायक बहुत ही कम थे, इसीसे जब भी किसी महोत्सव या मन्दिर निर्माण, आदि अवसरो के कार्यक्रम होते तो अनूप जी को आमन्त्रित किया जाता था, इन कार्यक्रमों में टिकट भी नहीं होता है जिससे भीङ बढ़ने लगी और कार्यक्रम लोकप्रिय होने लगे, साथ ही भजनों के रिकार्ड भी इसी लोकप्रियता के चलते निकाले जाने लगे जिससे अनायास ही भजन के क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता बढ़ गई।"

कुछ मँजे हुए लेखकों राजेंद्र यादव, कृष्ण बलदेव वैद्य, ख़ालिद हौसैनी के साथ नए उभरते लेखकों की किताबों पर भी चर्चा हुई। सबसे ज्यादा सराहना एक नौकरानी की डॉयरी  की पर लिखी समीक्षा को मिली। पल्लवी त्रिवेदी का कहना था
"सच बात .. हम व्यक्ति के श्रम को मान नहीं देते ! कम पैसे वाला आदमी हमारे समाज की द्रष्टि मे छोटा आदमी होता है! व्यक्ति को आंकने का नजरिया बहुत अमानवीय है हमारे समाज में !"

साल का अंत हुआ और वार्षिक संगीतमाला का दसवाँ संस्करण आपके सामने था। अलग अलग गीतों पर कभी सहमति तो कभी असहमति में आपकी राय पढ़ने को मिली। आपके कुछ बयान यहाँ दर्ज कर रहा हूँ

ग़ज़लकार अंकित जोशी गुलों में रंग भरे पर...जब पहली दफ़ा हैदर में अरिजित द्वारा गाई ये ग़ज़ल सुनी तो अरिजित की आवाज़ बहुत कच्ची लगी, वो लगती भी क्यों न, आखिरकार जिस ग़ज़ल को मेहंदी हसन साहब की आवाज़ में कई मर्तबा सुना हो उसे दूसरी किसी आवाज़ में सुनना शुरुआत में थोड़ा अटपटा तो लगेगा ही। लेकिन जब रिवाइंड कर कुछ एक बार सुना तो ठीक लगने लगी। हालाँकि मुझे ऐसा लगता है कि अगर स्वयं विशाल अपनी आवाज़ इस ग़ज़ल को देते तो शायद असर कुछ और बढ़ता। बहरहाल जो भी हो, फैज़ की मक़बूल ग़ज़ल को फिर से सुनना अच्छा ही लगा। गुज़रा साल अरिजित का था और उसमें उन्हें वाकई अलग अलग रंग के गीत मिले।

राजेश गोयल मैं तैनूँ समझावाँ पर...इस गीत के बारे में सिर्फ एक ही बात कही जा सकती है और वो है "जादुई"। ये गीत सबसे पहले मेरे कानों में आज से लगभग दो तीन साल पहले पड़ा था और उसके बाद जब तक मैंने यू ट्यूब में सर्च करके पूरा गीत सुन नहीं लिया मुझे चैन नहीं आया था । उसके बाद पिछले साल इस गीत के नए संस्करण सुनने को मिले और वो सब भी बहुत ही अच्छे लगे क्योंकि इस गीत की जो मूल धुन है उसके साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की गयी ।

अमेरिका में रह रहे कवि व हिंदी प्रेमी अनूप भार्गव सरताज गीत पापा पर ..देश से दूर रहने के कारण संगीत में रूचि रखते हुए भी अक्सर बड़ी, लोकप्रिय फ़िल्मों के गीत ही सुनने को मिलते हैं और इस कारण कुछ अच्छे गीत हाथ से निकल जाते हैं । Manish आप इस दिशा में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं , हर वर्ष बड़ी मेहनत से 25 गीतों का चयन करते हैं जिस में कुछ ऐसे अनूठे गीत भी होते हैं जो अक्सर फिल्म के लोकप्रिय न होने के कारण सामने नहीं आ पाते

तो आपने देखा कि किस तरह आपकी कही गई बातें इन प्रविष्टियों को एक नया नज़रिया दे गयीं। आपलोगों के इसी प्यार का परिणाम रहा कि हिंदी दिवस के अवसर पर मुझे राष्ट्रीय चैनल स्टार न्यूज़ पर साक्षात्कार देने का मौका मिला। नौ साल के इस सफ़र में मैं कभी थका नहीं क्यूँकि मुझे मालूम है कि आपका स्नेह मेरे साथ है और वो रह रह कर मुझसे किसी ना किसी रूप में प्रकट होता रहा है जैसा आस्ट्रेलिया में रह रहे मेरे अग्रज प्रभात गुप्ता ने अपनी पाती में लिखा..

"प्यारे मनीष भाई - आपकी साइट  पे जाके मानो मैं अपनी ज़िन्दगी के कई गुमशुदा पल जो थे उनको पा गया।आँखों में आनंद अश्रु थे और छाती में हल्का सा दर्द और शायद पूरे बदन में एक अजीब सी कंप कंपी । "

लेख ज्यादा वृहत ना हो जाए इस लिए मैं आप सब के विचार जो उतने ही उल्लेखनीय थे यहाँ समेट नहीं पाया इसका मुझे ख़ेद है। आपकी मोहब्बत इस ब्लॉग के लिए इसी तरह बरक़रार रहेगी ऐसी उम्मीद रखता हूँ।

रविवार, मार्च 22, 2015

अहसान दानिश मजदूरी से मक़बूलियत का सफ़र Yoon na mil mujh se khafa ho jaise

आदमी की शुरुआती ज़िदगी भले किसी भी मोड़ पर शुरु हो मगर उसमें शायरी का कीड़ा है तो देर सबेर उभरता ही है। अब देखिए मोहब्बतों का शायर कहे जाने वाले क़तील शिफ़ाई एक ज़माने में पहलवानी किया करते थे। आनंद नारायण 'मुल्ला' को शायरी के लिए जब साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया तो वो इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज की कुर्सी पर आसीन थे। पर इन सबसे विस्मित करने वाले एक शायर थे अहसान दानिश जिन्होंने मेहनत मजदूरी करते हुए शायरी की और उस मुकाम तक पहुँचे कि देश की ओर से उन्हें तमगा ए इम्तियाज़ का सम्मान प्राप्त हुआ। आज उन्ही दानिश साहब की पुण्य तिथि है तो सोचा उनकी शख़्सियत के साथ उनकी कुछ कृतियों की चर्चा कर ली जाए।


अहसान दानिश का जन्म भारत के मुजफ्फरनगर जिले के कांधला में हुआ था। वे एक बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे सो चौथी कक्षा से आगे नहीं पढ़ पाए। पर शायरी का शौक़ उन्हें तीसरी ज़मात से ही लग गया था। शुरुआती दौर में उन्होंने खेती बाड़ी में बतौर मज़दूरी की। फसलें काटी, हल चलाया। तीस के दशक में जब लाहौर पहुँचे तो भवन निर्माण के काम में लग गए। अपनी आत्मकथा और साक्षात्कारों में उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि पंजाब यूनिवर्सिटी के निर्माण में उन्होंने गारा ढोया। दीवारों पे रंग रोगन किया। 

वक़्त का कमाल या मेहनत की मिसाल देखिए कि जिस यूनिवर्सिटी के निर्माण में बतौर मजदूर उनका पसीना गया , उसी यूनिवर्सिटी ने उन्हें बाद में  एम ए के प्रश्नपत्र को बनाने का जिम्मा सौंपा। दानिश कहा करते थे कि उस दौर में वे दिन भर मशक्क़त करते और रात में अपने इल्म की कमी को पूरा करने के लिए पढ़ाई करते और कभी कभी समय निकालकर मुशायरों में बतौर श्रोता शिरक़त करते। बाद में लोग जब ये जानने लगे कि ये कुछ लिखना पढ़ना और शायरी करना जानता है तो प्रूफ रीडिंग और नज़्म लिखने का काम मिलने लगा। चौंकिए मत तब दानिश दो रुपये  में अपनी नज़्म दूसरों के लिए लिख कर बेचा करते थे।

एहसान दानिश ने इस दौर में जो कष्ट सहे, जिन परिस्थितियों को झेला उन्हें ही अपनी शायरी का मुख्य विषय बनाया। मजदूरों की ज़िदगी पर लिखी उनकी नज़्में इतनी मकबूल हुई कि ऊन्हें शायर ए मज़दूर की उपाधि दी गई। उनकी नज़्म मज़दूर की बेटी में आर्थिक तंगी के बीच होते विवाह उत्सव का मार्मिक चित्रण हैं। अब देखिए अपने मालिक के कुत्ते द्वारा दौड़ाए जाने को दानिश ने अपनी नज़्म 'मज़दूर और कुत्ता' में किस तरह चित्रित किया है।


कुत्ता इक कोठी के दरवाज़े पे भूँका यक़बयक़
रूई की गद्दी थी जिसकी पुश्त से गरदन तलक
रास्ते की सिम्त सीना बेख़तर ताने हुए
लपका इक मज़दूर पर वह सैद गरदाने हुए

जो यक़ीनन शुक्र ख़ालिक़ का अदा करता हुआ
सर झुकाए जा रहा था सिसकियाँ भरता हुआ

पाँव नंगे फावड़ा काँधे पे यह हाले तबाह
उँगलियाँ ठिठुरी हुईं धुँधली फ़िज़ाओं पर निगाह
जिस्म पर बेआस्तीं मैला, पुराना-सा लिबास
पिंडलियों पर नीली-नीली-सी रगें चेहरा उदास

ख़ौफ़ से भागा बेचारा ठोकरें खाता हुआ
संगदिल ज़रदार के कुत्ते से थर्राता हुआ

क्या यह एक धब्बा नहीं हिन्दोस्ताँ की शान पर
यह मुसीबत और ख़ुदा के लाडले इन्सान पर
क्या है इस दारुल -अमाँ1 में आदमीयत का वक़ार2
जब है इक मज़दूर से बेहतर सगे सरमायादार3

एक वो हैं जिनकी रातें हैं गुनाहों के लिए
एक वो हैं जिनपे शब आती है आहों के लिए

 1.सुख से रहने का स्थान, 2.शील,व्यवहार, 3. पूँजीपति

वे कहा करते थे कि मजदूरों के बारे में लिखने के पीछे उनका मकसद यही था कि मालिक उनके हालातों को समझ सकें और उनके श्रम को वो उचित मूल्य और इज्ज़त दें जिसके वे वाकई हक़दार हैं। पर ये नहीं कि उनकी शायरी मजदूरों के हालात तक ही सिमट गई। अन्य शायरों की तरह उन्होंने रूमानी शायरी पर भी हाथ आज़माया। उनका कहना था कि

"जो आदमी हुस्न से मुतासिर नहीं होता उसे मैं आदमी ही नहीं समझता। ये अलग बात है कि मेरी ज़िदगी कुछ यूँ रही कि इसमें ज्यादा उलझने का अवसर मुझे नहीं मिला।"

उनकी लिखी इस ग़ज़ल के चंद अशआर  याद आ रहे हैं..

कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के
वो बदल गये अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के

कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गये हैं, तेरी अंजुमन में जल के

एहसान दानिश एक आवामी शायर थे और इसी वज़ह से उनकी भाषा में वो सहजता थी जो आम आदमी के दिल को छू सके। मिसाल के तौर पर इस ग़ज़ल को देखिए। कितनी सहजता से प्रेम और विरह की पीड़ा को इन अशआरों में ढाला है उन्होंने। मेहदी हसन ने भी पूरी तबियत से लफ़्जों के अंदर के अहसासों को और उभार दिया है।



यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज़-ए-सबा हो जैसे

लोग यूँ देख कर हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न छुप हमसे ख़ुदा हो जैसे

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे एहसान किया हो जैसे

ऐसे अजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे

हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे

ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे

अहसान दानिश का कर्मठ जीवन हमेशा काव्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा ऐसी उम्मीद है।

सोमवार, मार्च 16, 2015

बेअदब साँसें : राहुल वर्मा की त्रिवेणियाँ Beadab Saansein

उपन्यास, कहानी, कविता, ग़ज़ल, नज़्म इन सब से इतर गुलज़ार साहब ने अपनी लेखनी से त्रिवेणी जैसी नई विधा को विकसित किया। वैसे वे ख़ुद कहते हैं कि त्रिवेणी जैसा ही कुछ एक समय टाइम्स ग्रुप की साहित्यिक पत्रिका सारिका में सत्तर के दशक के आरंभ में छपा करता था। पर गुलज़ार के प्रयासों का ही परिणाम था कि पिछले डेढ़ दशक में त्रिवेणी उनकी किताब के माध्यम से सबसे पहले 2001 में आम लोगों के बीच पहुँची। 

ज़ाहिर है उनके चाहने वालों में भी इस विधा को अपनाने की चाहत बढ़ी। इंदौर में पले बढ़े राहुल वर्मा का भी  अहसास के साथ शब्दों के फ़न को बरतने वाली त्रिवेणी के प्रति आकर्षण बढ़ा और अगस्त 2013 में उनकी ये किताब गुलज़ार की किताब के बारह साल बाद बाज़ार में आई। राहुल वर्मा की ये किताब कैसी है ये बताने से पहले एक आम कविता प्रेमी पाठक का ये जान लेना जरूरी है कि आख़िर त्रिवेणी होती क्या है? बकौल गुलज़ार
"शुरू शुरू में तो जब यह फॉर्म बनाई थी, तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसीलिए दिया था कि पहले दो मिसरे, गंगा-जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती जो गुप्त है नज़र नहीं आती; त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है ।"
दो मिसरे कह कर तीसरे में सत्य उद्घाटित करने की इस कला में महारत हासिल करना इतना सरल भी नहीं है। गुलज़ार की इन दो मशहूर त्रिवेणियों को गौर से देखिए

उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वह शाख़ फ़िज़ा में
अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?

सामने आए मेरे देखा मुझे बात भी की
मुस्कराए भी ,पुरानी किसी पहचान की खातिर
कल का अखबार था ,बस देख लिया रख भी दिया

आकाश में उड़ रहे पंछी और हिलती शाख मामूली से ख़याल लगते हैं पर उसमें जब तीसरी पंक्ति जुड़ती है तो दिल के अंदर एक टीस सी उठती है जो पहली दो पंक्तियों में छिपे भाव को मुकम्मल बना देती है। अब दूसरी त्रिवेणी को देखें किसी पुराने परिचित से हल्की सी मुस्कारहट के दो बोल बोल लेने भर से ही उस रिश्ते के अंदर की पीड़ा कहाँ उभर पाती अगर तीसरी पंक्ति में उसकी तुलना गुलज़ार कल के अख़बार से नहीं करते। 

अगर सहज भाषा में कहूँ तो त्रिवेणी एक चलचित्र की तरह है जो पहली दो पंक्तियों में कहानी को गढ़ती तो है पर फिल्म की सोच, उसकी परिपूर्णता तीसरी पंक्ति के माध्यम से उसके क्लाइमेक्स में व्यक्त करती है।

राहुल कोई पूर्णकालिक साहित्यकार नहीं हैं। वकालत जैसे व्यवसाय से जुड़े होने के बावज़ूद उनका कविता प्रेम उन्हें पिछले सोलह वर्षों से त्रिवेणियों की रचना में संलग्न किए हुए है। अपने त्रिवेणी प्रेम की शुरुआत कैसे हुई ये उन्होंने इसी विधा के ज़रिए व्यक्त करना चाहा है..

नज़्म और ग़ज़ल से इतर करूँ, ये उसने टोका था
मेरे लिए भी अब दहलीज़ उलाँघने का, एक मौक़ा था
त्रिवेणी कुछ इस तरह से मिली है मुझे

राहुल वर्मा की इस किताब में दो सौ के करीब त्रिवेणियाँ है।  इन दौ सौ त्रिवेणियों में अधिकांश प्रेम से जुड़ी भावनाओं से ओतप्रोत हैं पर इसके आलावा कई त्रिवेणियों में उन्होंने अपने स्कूल, शहर और ज़िदगी की मुश्किलातों का भी जिक्र किया है। पर मेरा मानना है त्रिवेणियों की प्रकृति के हिसाब से ये संख्या बहुत ज्यादा है।

राहुल किताब की प्रस्तावना में कहते हैं कि आज के इस मशीनी युग में जहाँ वक़्त की मारामारी है वहाँ पाठक तीन पंक्ति में ही भावनाओं की इस त्रिधारा में बह जाता है। पर इस बहाव की निरंतरता बनाए रखने के लिए जज़्बातों की गहराई से निकलते जिन तेज थपेड़ों की जरूरत पड़ती है उसकी कमी इस पुस्तक को पढ़ते हुए पाठक को महसूस होती है।

जब आप उनकी इस किताब से गुजरते हैं तो बीच बीच में अहसासों की सरगर्मियाँ आपके दिल को झकझोरती जरूर हैं पर किताब के कुछ हिस्सों में भावनाओं की सरिता बिना किसी आवेग के शिथिलता से भी बहती जाती है। कई जगह शब्दों, विचारों और एक जगह तो पूरी त्रिवेणी का दोहराव खटकता है।  मुझे लगता है कि अगर इस किताब को लेखक अपनी पचास बेहतरीन त्रिवेणियों तक सीमित रखते तो पाठकों को इसका एक एक पन्ना बार बार उलटने की इच्छा होती।

राहुल वर्मा की इस किताब से मैंने अपनी कुछ पसंदीदा त्रिवेणियाँ चुनी हैं। इन त्रिवेणियों को पढ़ कर मुझे जो आनंद मिला वो अपनी आवाज़ के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूँ...


 (1)
सहर आई थी कितनी शरमाई हुई
रतजगी शब की यादें लिए अलसाई हुई
रातभर चाँद साथ ही तो था मेरे

(2)
क़तरा क़तरा मिलती है, क़तराते हुए मिलती है
ज़िदगी अब हमपे तरस खाते हुए मिलती है
तुम्हारे साथ होने का बड़ा ही फ़र्क था शायद

 (3)
चीखें थमती नहीं, आवाज़ें आती रहती हैं
कानों में डाल दो उँगली या रूई के फाहे
मेरे माज़ी के पन्ने फड़फड़ाते रहते हैं

 (4)
मैं तेरे दम से ज़िदा था
मैं तेरे ग़म से ज़िंदा हूँ
मेरे जीने की वज़ह हरदम ही रहे हो तुम

(5)
कौन दे जाता है रोज़ इनकी जड़ों में पानी
कौन है जो इनको किसी भी सूरत मरने नहीं देता
जख़्म ये मेरे अब तक किसकी रसद से ज़िंदा हैं

(6)
फिर किसी दर्द की कराह बढ़ी
फिर किसी टीस का दम घुटता है
फिर आज मेरी ये कलम, उम्मीद से है

(7)
घेरे रहते हैं हर पल पुरानी यादों के हसीं मंज़र
जेहन में माज़ी के कई किस्से भी चलते रहते हैं
लोग तन्हाई में भी तनहा कहाँ रहते हैं..

(8)
नज़रे मिली हो और सामने आ जाए चिलमन
चेहरे का नूर आँखें मुसलसल नहीं पी पातीं
बादलों के बीच आ के धूप तुतलाती बहुत है

 (9)
वो कि जब अलविदा कहा था ना तुमने मुझे
ज़िदगी अब तलक उसी रात पर अटकी सी पड़ी है
अब तो बस कहने को ही रोज़ सुबह होती है

(10)
तेरी वहशत, तेरी उम्मीदें और तेरे ख़याल
तेरी हसरत, तेरी यादें और तेरे ख़्वाब
बड़ी मसरूफियत रहती है, इन दिनों मुझे

(11)
मुझको बस एक ही शामत है बहुत
देर करने की तुमको आदत है बहुत
ऐ ज़िदगी! कब से तेरी राह तक रहा हूँ मैं

 (12)
पहली आई थी,बिना मेरी मर्ज़ी के
आख़िरी भी,बिन बताये आ जायेगी
बड़ी बेअदब होती हैं,ये साँसें..

पर लेखक की हिम्मत की इस बात के लिए दाद जरूर देनी चाहिए कि जिस आकाश पर गुलज़ार ने त्रिवेणी को बैठा रखा है उस विधा को अपनी पहली किताब का विषय बनाते समय ज़रा भी हिचकिचाहट महसूस नहीं की, ये जानते हुए भी कि इन्हें गुलज़ार की त्रिवेणियों के स्तर से तौला जाएगा।

बहरहाल उन्होंने एक ज़मीं तो तैयार की ही है जिसे नई पीढ़ी के लेखक समय के साथ और पुख्ता बनाते जाएँगे। जिस तरह अदम गोंडवी व दुष्यन्त कुमार जैसे शायरों ने ग़ज़ल को इश्क़ की सीमाओं से बाहर निकाल कर उसका दायरा बढ़ाया है वैसा ही कुछ त्रिवेणियों में आगे देखने को मिलेगा ऐसी उम्मीद है।

पुस्तक के बारे में
प्रकाशक :  हिन्द युग्म, पृष्ठ संख्या :112, मूल्य Rs 150

रविवार, मार्च 08, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 सरताज गीत : क्या वहाँ दिन है अभी भी पापा तुम रहते जहाँ हो Papa

तो दोस्तों वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला 2014 के सरताजी बिगुल को बजाने का। यूँ तो संगीतमाला के आरंभ के छः गीत मेरे बेहद प्रिय रहे हैं पर पिछली पॉयदानों से उलट वार्षिक संगीतमाला की सर्वोच्च पॉयदान पर आसीन ये गीत एकदम भिन्न प्रकृति का है। पिछले गीतों की तरह ये कोई रूमानी गीत नहीं है। इस गीत में एक रिश्ते को शिद्दत से याद करने का आग्रह है। उससे जुड़ी पुरानी यादों को बटोरने की ललक है। उसके दरकने और राह से भटकने का क्षोभ है। ये रिश्ता है पिता व पुत्री का जिसे अपनी आवाज़ से सँवारा है गायिका शिल्पा राव ने। नवोदित गीतकार गौरव सोलंकी के रचे शब्द इतने गहरे हैं कि संगीतकार जी वी प्रकाश कुमार पियानो आधारित नाममात्र के संगीत से भी वो असर पैदा करते हैं जो बहुतेरे संगीतकार आर्केस्ट्रा में भी नहीं ला पाते। ये गीत है पिछले साल दिसंबर के आखिर में प्रदर्शित हुई फिल्म Ugly का। 



संगीतकार जी वी प्रकाश कुमार मुख्यतः तमिल फिल्मों के संगीतकार व गायक हैं। प्रकाश रिश्ते में ए आर रहमान के भांजे हैं। उनकी माँ ए आर रेहाना एक पार्श्व गायिका रह चुकी हैं। पिछले दस सालों से तमिल फिल्म उद्योग में सक्रिय  प्रकाश तीस से ज्यादा फिल्मों में अपना संगीत दे चुके हैं। पर  Ugly के माध्यम से उन्होंने पहली दफा हिंदी फिल्मों में कदम रखा  है। इससे पहले उन्होंने अनुराग की फिल्म Gangs of Wasseypur.में पार्श्व संगीत भी दिया था। पर इस गीत के असली हीरो हैं इसके गीतकार गौरव सोलंकी। गीत की हर पंक्ति दाद की  हक़दार है।
G V Prakash Kumar, Shilpa Rao and Gaurav Solanki

गौरव सोलंकी के लेखन से मैं बतौर हिंदी ब्लॉगिंग के ज़रिए परिचित हुआ था। आई आई टी रुड़की से इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग में स्नातक गौरव को हाईस्कूल के बाद से ही  कविता और कहानी लिखने का चस्का लग गया था। इंजीनियरिंग कॉलेज में लेखन के साथ साथ वे कॉलेज की पत्रिका से भी जुड़े रहे। फिल्मों से जुड़ने का उनका ख़्वाब इससे भी पहले का था। इसीलिए वो आई आई टी मुंबई जाना चाहते थे ताकि जब चाहें वहाँ से फिल्म उद्योग में छलाँग लगा दें। उन्हें ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार के लिए भी चुना गया जिसे बाद में उन्होंने प्रकाशकों द्वारा लेखको का आर्थिक दोहन करने के विरोध में लौटा दिया। बहरहाल अब उन्होंने अपने आपको मुंबई वाला बना लिया है और जयदीप साहनी की तर्ज पर बतौर पटकथा लेखक व गीतकार अपने आपको फिल्म जगत में स्थापित करने में जुट गए हैं।

Ugly एक ऐसी बच्ची की कहानी है जो अपने पिता से बिछुड़ जाती है। गौरव इस गीत के माध्यम से इतनी संवेदनशीलता से बच्चे के मन में अपने पिता के लिए उभरने वाली यादों को टटोलते हैं कि उन्हें एकबारगी सुन कर ही आँखें भर आती हैं। टीन के कनस्तर से बूँदी चुराने की बात हो या पापा की ऊँगली थामे चलते हुए खिसकते फर्श को देखने का आभास, दोपहरी में नीम के पेड़ के नीचे जलती ज़मीन की याद हो, या खरगोशों और चीटियों के पीछे गुज़ारे वो दिन ,गौरव बचपन की इन सजीव कल्पनाओं का इस्तेमाल कर यादों के आँगन से कोमल से रिश्ते के पीछे के प्रेम को बड़ी खूबसूरती से उभार लाते हैं।  भौतिक संपदा के लोभ में इंसानी रिश्तों को तिलांजलि देने वाले इस समाज पर गौरव बखूबी तंज़ कसते हुए कहते हैं गिनतियाँ सब लाख में हैं .. हाथ लेकिन राख में हैं।

गौरव की भावनाओं को शिल्पा राव जब स्वर देती हैं तो मन बचपन की उन पुरानी यादों में खो जाता है। ये दूसरी बार है जब शिल्पा ने वार्षिक संगीतमाला के सरताज गीत का हिस्सा बनने में सफलता पाई है। इससे पहले वर्ष 2008 में  फिल्म आमिर के लिए अमित त्रिवेदी के संगीतबद्ध गीत इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला में उन्होंने ये सफलता अर्जित की थी। तो आइए सुनें इस बेहद भावनात्मक नग्मे को


क्या वहाँ दिन है अभी भी
पापा तुम रहते जहाँ हो
ओस बन के मैं गिरूँगी
देखना, तुम आसमाँ हो

टीन के टूटे कनस्तर
से ज़रा बूंदी चुराकर
भागती है कोई लड़की
क्या तुम्हें अब भी चिढ़ाकर

फ़र्श अब भी थाम उँगली
साथ चलता है क्या पापा
भाग के देखो रे आँगन
नीम जलता है क्या पापा


आग की भी छाँव है क्या
चींटियों के गाँव हैं क्या
जिस कुएँ में हम गिरे हैं
उस कुएँ में नाव है क्या

क्या तुम्हें कहता है कोई कि चलो, अब खा भी लो
डिब्बियों में धूप भरकर कोई घर लाता है क्या
चिमनियों के इस धुएँ में मेरे दो खरगोश थे
वे कभी आवाज़ दें तो कोई सुन पाता है क्या

गिनतियाँ सब लाख में हैं
हाथ लेकिन राख में हैं


चाँद अब भी गोल है क्या
जश्न अब भी ढोल है क्या
पी रहे हैं शरबतें क्या
क्या वहाँ सब होश में हैं?
या कि माथे सी रहे हैं
दो मिनट अफ़सोस में हैं?


वार्षिक संगीतमाला 2013 का ये सफ़र आज यहीं पूरा हुआ। आशा है मेरी तरह आप सब के लिए ये आनंददायक अनुभव रहा होगा ।  इस सफ़र में साथ बने रहने के लिए शुक्रिया..

वार्षिक संगीतमाला 2014

रविवार, मार्च 01, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 रनर्स अप : मनवा लागे, लागे रे साँवरे Manwa Lage

दो महीने के इस सफ़र के बाद आज ये संगीतमाला जा पहुँची है अपनी दूसरी सीढ़ी पर। एक शाम मेरे नाम पर इस साल की संगीतमाला का रनर्स अप खिताब जीता है फिल्म Happy New Year के गीत मनवा लागे ने। विशाल शेखर ने इस गीत की ऐसी मधुर धुन रची कि गीत के यू ट्यूब पर रिलीज होते ही एक दिन के अंदर ही इसे दस लाख लोगों ने सुना। क्या कहें इस गीत की मधुरता ही ऐसी है कि पहली बार सुनते ही आप इसके हो के रह जाते हैं। सच तो ये हैं कि धुन की मधुरता के साथ साथ  इरशाद क़ामिल की शब्द रचना और श्रेया व अरिजित सिंह की प्यारी युगल गायिकी ने इस गीत को वार्षिक संगीतमाला की दूसरी पॉयदान पर ला कर खड़ा कर दिया है। 

इस कोटि के गीतों को निभाने में श्रेया घोषाल की सलाहियत जग ज़ाहिर है। इरशाद क़ामिल के प्रेम से रससिक्त बोलों को जब श्रेया की गुड़ सी मीठी आवाज़ का साथ मिलता है तो समझि॓ए सीधे दिल में छनछनाहट होती है।  गीतकार इरशाद क़ामिल इस गीत को मिली मकबूलियत के बारे में कहते हैं
"सहज शब्द अगर दिल से कहे जाएँ तो वो बिना किसी मशक्कत के लोगों के हृदय में अपना घर बना लेते हैं, इस गीत की सफलता से मेरी इस धारणा को बल मिला है। मैं श्रोताओं को धन्यवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने अपना प्यार इस गीत पर लुटाया।"
इरशाद क़ामिल ने इस गीत में जिस खूबसुरती से शब्दों का दोहराव किया है वो सुनने में बड़ा प्यारा लगता है। गीत के बीच के कोरस में जब वो लिखते हैं रस बुँदिया नयन पिया रास रचे..दिल धड़ धड़ धड़के शोर मचे..यूँ देख सेक सा लग जाये..मैं जल जाऊँ बस प्यार बचे तो उनके शब्दों में प्यार की मीठी तपिश को श्रोता सहज ही महसूस कर पाता है

पार्श्व गायिकी के लिहाज़ से ये साल अरिजित सिंह के नाम रहा है। शायद ही किसी संगीतमाला में  एक ही गायक के इतने सारे गीत एक साथ बजे हों। पर जहाँ तक इस गीत की बात है विशाल शेखर ने इसे दो साल पहले यानि 2012 में रिकार्ड किया था जब अरिजित पार्श्व गायन में इतने बड़े नाम नहीं थे जितने वो आज हैं। अरिजित को गीत का जितना हिस्सा मिला है उसमें वो श्रेया के साथ अपना असर भी छोड़ने में सफल हुए हैं।

ज़हनसीब के बारे में चर्चा करते समय मैंने लिखा था कि  मेलोडी पर  विशाल शेखर की गहरी पकड़ हर साल ऐसे कुछ गाने दे ही जाती है जिन्हें बार बार गुनगुनाने को दिल चाहता है। संगीतकार जोड़ी का ये मानना है कि
इस संसार में जहाँ हर बात हो हल्ले से कही जाती है ये गीत प्रेम और सुकून का बहता हुआ झोंका है। 
बिल्कुल सही कह रहे हैं विशाल शेखर पर ये हो पाया है उनके गीत में ढोल के साथ अन्य वाद्यों के सुंदर संगीत संयोजन से। तो आइए एक बार फिर से सुने इस रोमांटिक गीत को..

मनवा लागे, ओ मनवा लागे
लागे रे साँवरे, लागे रे साँवरे
ले तेरा हुआ जिया का, जिया का, जिया का ये गाँव रे
मनवा लागे, ओ मनवा लागे
लागे रे साँवरे, लागे रे साँवरे
ले खेला मैंने जिया का, जिया का, जिया का है दाँव रे

मुसाफिर हूँ मैं दूर का, दीवाना हूँ मैं धूप का
मुझे ना भाये, ना भाये, ना भाये छाँव रे

ऐसी वैसी बोली तेरे नैनों ने बोली
जाने क्यों मैं डोली
ऐसा लगे तेरी हो ली मैं, तू मेरा
तूने बात खोली कच्चे धागों में पिरो ली
बातों की रंगोली से ना खेलूँ ऐसे होली मैं, ना तेरा
किसी का तो होगा ही तू
क्यूँ ना तुझे मैं ही जीतूँ
खुले ख़्वाबों मे जीते हैं, जीते हैं बावरे
मन के धागे, ओ मन के धागे
धागे पे साँवरे, धागे पे साँवरे
है लिखा मैंने तेरा ही, तेरा ही, तेरा ही तो नाम रे

रस बुँदिया नयन पिया रास रचे
दिल धड़ धड़ धड़के शोर मचे
यूँ देख सेक सा लग जाये
मैं जल जाऊँ बस प्यार बचे

ऐसे डोरे डाले काला जादू नैना काले
तेरे मैं हवाले हुआ सीने से लगा ले, आ मैं तेरा
दोनों धीमे धीमे जलें
आजा दोनों ऐसे मिलें
ज़मीं पे लागे, ना तेरे, ना मेरे पाँव रे
मनवा लागे...

रहूँ मैं तेरे नैनों की, नैनों की, नैनों की ही छाँव रे
ले तेरा हुआ जिया का, जिया का, जिया का ये गाँव रे
रहूँ मैं तेरे नैनों की, नैनों की, नैनों की ही छाँव रे


अगर आपने इस संगीतमाला में शामिल किए गए गीतों को नहीं सुना तो उन्हें सुनिए नीचे की इन कड़ियों पर और इंतज़ार कीजिए वार्षिक संगीतमाला के सरताजी बिगुल का क्यूँकि सर्वोच्च पॉयदान पर गीत ऐसा जो शायद आपके लिए अनजाना हो...

वार्षिक संगीतमाला 2014
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie