रविवार, जून 28, 2015

नीला स्कार्फ ... Neela Scarf by Anu Singh Choudhary

स्कूल के ज़माने तक जो कहानियाँ पढ़ीं सो पढ़ी पर उसके बाद कॉलेज में गुजारे वक़्त से लेकर आज तक कहानियों से ज्यादा उपन्यास पढ़ने के प्रति मेरा रुझान रहा है। तो जो अब तक डेढ़ दो सौ किताबें पढ़ी हैं उनमें कहानी संग्रह का हिस्सा दहाई से कम ही रहा होगा। । कई कहानी संग्रह खरीद कर बस आलमारियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। मेरी इस प्रवृति की वजह शायद ये है कि मुझे हर पात्र के चरित्र को अंदर तक समझने का हठ उपन्यास के विस्तार में ही मिल पाता है


इसीलिए पिछले दिसंबर में जब अनु सिंह चौधरी की किताब नीला स्कार्फ मुझे मिली तो आदतन दो कहानियों के बाद पढ़ने का सिलसिला रुक ही गया। फिर फरवरी के आख़िरी हफ्ते में अनु जी का एक साक्षात्कार देखा तो उनके पात्रों पर हुई चर्चा ने किताब की ओर फिर ध्यान आकृष्ट किया। राँची से कोयम्बटूर आने जाने में जो पाँच छः घंटे यात्रा में बीते वो पुस्तक को पूरा खत्म करने के लिए पर्याप्त निकले।

अनु  के लेखन से मैं उनके ब्लॉग मैं घुमंतू से पूर्व परिचित था। पर बतौर कहानीकार उन्हें जानने का मेरा ये पहला अनुभव है। इस संग्रह की कुल दर्जन भर कहानियों में लगभग तीन चौथाई कहानियों में मुख्य किरदार के रूप में एक नारी चरित्र है। अच्छी बात ये है कि इन चरित्रों में एकरूपता नहीं है। उनकी नायिकाएँ समाज के अलग अलग वर्गों और उम्र के हर पड़ावों से आती हैं। इसी वजह से कथानक का परिदृश्य  तेजी से बदलता जाता है और पाठकों को पुस्तक से बाँध कर रखता है।

जहाँ बिसेसर बो की प्रेमिका और देखवकी की बोलचाल में ठेठ बिहारी परिवेश की झलक मिलती है वहीं रूममेट, लिव इन और प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब में आप अपने आप को शहरी हिंग्लिश में बात करते चरित्रों के बीच  घिरा पाते हैं। पर अनु की खूबी है उनकी भाषा पात्र के हिसाब से अपना लहजा बदलती रहती है। देखवेकी की सुशीला चाची के इन बिहारी बोलों को ही पढ़ लीजिए। किस तरह बेटी की शादी तय होने की भड़ास लड़के व उसके परिवार पर निकाल रही हैं..


व्यक्तिगत रूप से हिंदी कथ्य में अंग्रेजी के बेजा इस्तेमाल का मैं विरोधी रहा हूँ और इस किताब में कहीं कहीं ऐसे प्रयोग खटकते हैं जहाँ चरित्रों के हिसाब से भी अंग्रेजी के बजाए हिंदी का शब्द लिया जा सकता था।

तो आइए बात करते हैं इस किताब में सम्मिलित कहानियों की। रूममेट छोटे शहरों से संघर्ष कर महानगरीय जिंदगी में पहचान बनाने वाली लड़कियों की कहानी है जो अधपके रिश्तों और अरमानों को मूर्त रूप देने में एक दूसरे का संबल बनती हैं।  नीला स्कार्फ और लिव इन में लेखिका शादी के पहले और बाद के बनते बिगड़ते रिश्तों की पड़ताल करती नज़र आती हैं। पर जहाँ नीला स्कार्फ का स्वर धीर गंभीर है वहीं लिव इन में आज के डिजिटल प्रेम को वे हल्के फुल्के पर रोचक अंदाज़ में चित्रित कर जाती हैं। थोपे गए रिश्ते के अनुरूप अपने आपको ढालती और अपनी इच्छाओं को दमित कर गृहस्थी की गाड़ी खींचती स्त्री की आंतरिक व्यथा का मार्मिक चित्रण उनकी कहानी मुक्ति में दिखता है। शादी के बाद घर और बच्चों की जिम्मेवारेयों के बीच ख़ुद को घुटता महसूस करती महिलाओं को  मर्ज जिंदगी इलाज ज़िंदगी में वे अपना कृत्रिम रंगीन संसार रचने को प्रेरित करती हैं।

पर इस संग्रह की सारी कहानियों मे मुझे बिसेसर बो की प्रेमिका, कुछ यूँ होना उसका और मुक्ति खास पसंद आयी पर वहीं सिगरेट का आखिरी कश और प्लीज डू नॉट डिस्टर्ब इस कथा संग्रह की मुझे दो कमजोर कड़ियाँ लगीं।

दरअसल बिसेसर बो का किरदार इस कहानी संग्रह का सबसे सशक्त किरदार है। अनु बिसेसर बो उर्फ चंपाकली का परिचय अपनी पुस्तक में कुछ यूँ देती हैं..


पर बिसेसर बो भले ही जमींदारों के घर में काम कर कर हाड़ मांस जलाती हो पर आत्मसम्मान की भावना  उसमें कूट कूट कर भरी है  तभी तो बड़े मालिक की गलत नीयत का शिकार बनने से पहले वो उनको  ऐसा करारा जवाब देती है कि उनके नीचे की जमीन खिसक जाती है।


बिसेसर बो की ये निर्भयता उसे उन सभी कुलीन पढ़ी लिखी महिलाओं से आगे खड़ा कर देती है जो थोपे गए समझौतों के बीच अपनी ज़िंदगी को घसीट रही हैं। इसीलिए किताब पढ़ लेने के बाद भी वो याद रह जाती है। कुछ यूँ होना उसका पढ़कर लगता है कि बतौर शिक्षक हम किसी छात्र को उसके प्रकट व्यवहार से ही उद्दंड या अनुशासनहीन की श्रेणी में नहीं रख सकते। छात्रों से बेहतर परिणाम के लिए पढ़ाई के आलावा उनके सामाजिक पारिवारिक परिवेश से जुड़ी समस्याओं का निराकरण भी उतना ही जरूरी है।

पाठक इस संग्रह की हर एक कहानी से पूरी तरह जुड़े ना जुड़े पर उसमें कहीं कुछ बातों को अपने दिल से निकलता पाता है। दूसरों में अपने अक्स को प्यार करने की बात हो या यात्रा में अपनी पुरानी यादों के सबसे करीब होने की ऐसी कई छोटी छोटी मन को छू जाती हैं।

कुल मिलाकर ये एक ऐसा कहानी संग्रह है जिसे पढ़ना निश्चय ही आपको रुचिकर लगेगा। इस पुस्तक का प्रकाशन हिंद युग्म ने किया है। पहले संस्करण की सफलता के बाद पुस्तक का दूसरा संस्करण शीघ्र ही बाजार में आ रहा है।  चलते चलते इस कथा संग्रह की कहानी लिव इन के कुछ अंशों से आपको रूबरू कराऊँगा जो आपके दिल को अवश्य गुदगुदाएँगे और लेखिका की सहज सरस लेखन शैली की ओर भी आपका ध्यान आकृष्ट करेंगे।

शुक्रवार, जून 19, 2015

मैं क्यों प्यार किया करता हूँ? : गोपाल दास नीरज Main kyun pyar kiya karta hoon Gopal Das Neeraj

आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहि
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए...


गोपाल दास नीरज की इन पंक्तियों से कौन नहीं वाकिफ़ होगा। बिल्कुल सही कहा नीरज ने अगर हममें प्रेम का भाव नहीं हो तो फिर हम इंसान ही नही है। सच मानिए ज़िदगी का जितना हिस्सा इस भाव में डूबा रहे हम उतने ही स्नेहिल, खुशमिजाज़ व उर्जावान हो जाते हैं।  ऐसे में आप अपने से ज्यादा दूसरों के बारे में सोचते हैं। स्वार्थ की परछाई आपको छू भी नहीं पाती। संसार में आपके वज़ूद को एक वजह मिल जाती है। ये स्थिति आपको अपनी परिपूर्णता का अहसास दिलाती है। ऐसी अवस्था में दुखों से घिरा होने के बावजूद आप उसके प्रभावों से मुक्त रहते हैं ।

दूसरी ओर ये भी सच है कि प्रेम में हों तो  पीड़ा भी होती है। पर ये वो पीड़ा है जो आपको अश्रुविगलित करते हुए भी आपके मन आँगन को धो डालती है। आप उस व्यथा से गुजर कर अपने मन को पहले से अधिक निर्मल पाते हैं। सो प्रेम में पड़िए और बार बार पड़िए चाहे वो 
प्रेम बच्चों, नाते रिश्तादारों, संगी साथियों, सहचरों या जरूरतमंदों से ही की क्यूँ ना हो। 

हो सकता है आपको अब भी मेरे तर्क कुछ खास जम नहीं रहें हों कोई बात नहीं मेरी नहीं मानते ना सही गोपाल दास नीरज की बात तो मानेंगे ना आप तो चलिए आज उनका ये प्यारा सा गीत ही सुनवा देता हूँ। आवाज़ जरूर मेरी है..




सर्वस देकर मौन रुदन का क्यों व्यापार किया करता हूँ?
भूल सकूँ जग की दुर्घातें उसकी स्मृति में खोकर ही
जीवन का कल्मष धो डालूँ अपने नयनों से रोकर ही
इसीलिए तो उर-अरमानों को मैं छार किया करता हूँ


मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?


कहता जग पागल मुझको, पर पागलपन मेरा मधुप्याला
अश्रु-धार है मेरी मदिरा, उर-ज्वाला मेरी मधुशाला
इससे जग की मधुशाला का मैं परिहार किया करता हूँ


मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?


कर ले जग मुझसे मन की पर, मैं अपनेपन में दीवाना
चिन्ता करता नहीं दु:खों की, मैं जलने वाला परवाना
अरे! इसी से सारपूर्ण-जीवन निस्सार किया करता हूँ


मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?


उसके बन्धन में बँध कर ही दो क्षण जीवन का सुख पा लूँ
और न उच्छृंखल हो पाऊँ, मानस-सागर को मथ डालूँ
इसीलिए तो प्रणय-बन्धनों का सत्कार किया करता हूँ


 मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?

 (उर : दिल,  सर्वस : सर्वस्व,  कल्मष : मैल,  परिहार  : त्यागने की क्रिया )

मंगलवार, जून 09, 2015

सफलता के सोपान पर जब थे अनजान : खई के पान.. से छू कर मेरे मन को तक का सफ़र ! Anjaan the lyricist...

साठ के दशक में गीतकार अनजान की संघर्ष गाथा को तो पिछली पोस्ट में बयाँ कर ही चुका हूँ आज आपसे बाते करूँगा उनके उत्कर्ष काल की यानि सत्तर के आखिर से लेकर अस्सी का दशक की। ये वो दौर था जब हम बचपन से किशोरावस्था की ओर प्रवेश कर रहे थे। लिहाज़ा अनजान के लिखे उन नग्मों को अपनी आँखों के सामने लोकप्रिय होते देखने का सौभाग्य मिला था मुझे। जैसा कि पिछली पोस्ट में मैंने आपको बताया कि संगीतकार कल्याण जी आनंद जी के साथ फिल्म बंधन के बनते वक़्त अनजान की जो मुलाकात हुई वो उन्हें 1978 में आई फिल्म डॉन के साथ सफलता की नई ऊँचाइयों पर ले गई।



डॉन  के गाने भी कल्याण जी आनंद जी इंदीवर से लिखवाने की सोच रहे थे। इंदीवर ने उसका एक गीत ये मेरा दिल.. लिखा भी पर फिर किसी बात से उनके बीच अनबन हो गई और बाकी गाने अनजान की झोली में आ गए। अनजान ने इस मौके को पूरी तरह भुनाया। जिसका मुझे था इंतजार..... से लेकर खई के पान बनारसवाला... तक हर गली मोहल्ले में अनजान के गीत बजने लगे। खई के पान... .के पीछे की भी एक मजेदार कहानी है जिसे उनके पुत्र समीर कई साक्षात्कारों में बता चुके हैं।

हुआ यूँ कि अनजान किशोर कुमार को गीत के बोल लिखवा रहे थे भंग का रंग जमा हो चकाचक...। किशोर दा ने ये पंक्ति सुनी और अपनी कलम रख दी और कहा कि अनजान तुम ये कहाँ कहाँ के शब्द ढूँढ के लाते हो.. मैंने तो सारी ज़िदगी ये "चकाचक" शब्द नहीं सुना।
किशोर दा की अगली आपत्ति गीत के मुखड़े को लेकर थी। कहने लगे अनजान, मैं खई के नहीं, खा के पान बनारसवाला ही गाऊँगा। पूरे गाने को सुनने के बाद किशोर दा ने कल्याण जी से कहा भाई ये बड़ा कठिन गाना है, ऊपर से इतने अटपटे से शब्द हैं मैं तो इसे एक एक बार ही गाऊँगा अगर सही रहा तो तुम्हारा नसीब नहीं हुआ तो किशोर कुमार भाग जाएगा
रिकार्डिंग के ठीक पहले किशोर दा ने पूछा कि आप लोग पान खाते खाते बात कैसे करते हैं? आनन फानन में पान के बीड़े और पीकदान मँगवाए गए। सबने पान खाए और उनकी बात करने के अंदाज़ को किशोर ने परखा और हू बहू गाने में उतार दिया। इतनी सब नौटंकी के बाद भी किशोर दा ने इस गीत के लिए जो बनारसी अदा दिखाई उसे कौन भूल सकता है?

खून पसीना और डॉन जैसी फिल्मों के गीत बजने बंद भी नहीं हुए थे कि अनजान के गीतों ने फिर एक बड़ा धमाका किया। फिल्म थी मुकद्दर का सिकंदर। मुझे अच्छी तरह याद है कि इस फिल्म को हॉल में देखने के बाद उसका हर एक गीत रोते हुए आते हें सब...., ज़िदगी तो बेवफ़ा है...., ओ साथी रे...., दिल तो है दिल ...., सलाम ए इश्क...., महीनों जुबान पर रहे थे ।  

अगले ही साल यानि 1979 में उनकी भोजपुरी फिल्म आई बलम परदेसिया । वो फिल्म इतनी हिट हुई थी कि दो रिक्शों में हमारा परिवार घर से पाँच छः किमी दूर पटना के अल्पना सिनेमा हाल में देखने गया था। फिल्म कैसी लगी थी उस वक्त याद नहीं पर जब ये गाना गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ उड़ जाए ....पर्दे पर आया था तो भाई लोग कमीज खोल खोल कर पर्दे तक नाचते हुए पहुँच गए थे। 

संगीतकार बदलते रहे पर अनजान की सफलता का ये सिलसिला अस्सी के दशक में भी जारी  रहा। अनजान, किशोर कुमार और अमिताभ बच्चन की तिकड़ी ने अस्सी के दशक में लावारिस, शराबी, और नमकहलाल जैसी फिल्मों में खूब धमाल मचाया। अनजान के गीतों में गज़ब की विविधता थी यशोदा का नंदलाला... जैसी लोरी लिखने वाले अनजान बप्पी दा के लिए I am a Disco Dancer लिख गए। एक ओर पिपरा के पतवा ..लिखा तो वहीं गोरकी पतरकी... भी। मानो तो हूँ गंगा माता ना मानो तो बहता पानी... जैसे भावपूर्ण गीत  लिखे तो आज रपट जाएँ ....जैसे मस्ती भरे तराने भी। इस दौर में लिखे उनके दो गीतों को आज भी मन से याद करता हूँ। एक तो डिस्को बीट्स पर रचा और अलीशा चिनॉय का गाया मेरा दिल गाए जा  जूबी जूबी जूबी जूबी जो उन दिनों मोहल्ले  में होने वाली दुर्गा और सरस्वती पूजा की शान हुआ करता था और दूसरा वो जिसे फिल्म याराना के लिए उन्होंने राजेश रोशन के लिए रचा था.

कॉलेज के दिनों में मेरे मित्र वार्षिक संगीत संध्या पर पूरी आर्केस्टा के साथ ये गीत बजाते और हम घंटों इस गीत की धुन और शब्दों की ख़मारी में झूमते रहते। गीत तो आप पहचान ही गए होंगे चलिए आपको फिर से सुनवा भी देते हैं..


छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा
बदला ये मौसम लगे प्यारा जग सारा

तू जो कहे जीवनभर तेरे लिए मैं गाऊँ
गीत तेरे बोलों पे लिखता चला जाऊँ
मेरे गीतों में तुझे ढूंढ़े जग सारा

आजा तेरा आँचल ये प्यार से मैं भर दूँ
खुशियाँ जहाँ भर की तुझको नजर कर दूँ
तू ही मेरा जीवन तू ही जीने का सहारा

अनजान के इन सहज भोले शब्दों को गुनगुनाते हुए मन आज भी प्रेम की इस निर्मल हवा में झूम जाता है।

लंबे समय के संघर्ष के बाद मिली इस जबरदस्त सफलता के बाद भी अनजान को ज़िंदगी से दो मलाल रह गए थे। पहला तो तीन दशकों के संगीत सफ़र में एक बार भी फिल्मफेयर एवार्ड ना जीत पाने का ग़म और दूसरे बतौर साहित्यकार समाज को कुछ ना दे पाने की पीड़ा। पर भगवान की कृपा ये जरूर रही कि इस संसार को छोड़ने के पहले वो अपने पुत्र समीर को फिल्मफेयर पुरस्कार लेते हुए देख सके और बीमारी के बीच अपना कविता संग्रह 'गंगा तट का बंजारा' भी लिख पाए जिसका विमोचन खुद अमिताभ जी ने किया। अनजान के नाम से भले आप अनजान पर उनके रचे गीतों से आप और आने वाली पीढ़ियाँ अनजान रहेंगी इसकी कल्पना भी नामुमकिन है।
 

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