सोमवार, सितंबर 14, 2015

बहुत दिनों से बहुत दिनों से..बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना : गजानन माधव मुक्तिबोध Gajanan Madhav Muktibodh

गजानन माधव मुक्तिबोध हिन्दी के एक प्रखर कवि थे। पर स्कूल में बिहार बोर्ड की भाषा सरिता के दसवीं तक के सफ़र में ना उनकी किसी कविता से साबका पड़ा ना उसके बाद ही। इंटर के बाद तो वैसे ही कॉलेज में हिंदी से नाता टूट गया सो मुक्ति बोध को जानते कैसे? सच पूछिए तो मेरे लिए  हिंदी कविता भक्ति, श्रंगार, प्रेम, वीर रस से होती हुई जयशंकर प्रसाद, महादेवी, पंत व निराला जैसे छायावादी कवियों तक ही  सिमट गई। हिंदी कविता में छायावाद से प्रयोगवाद के जिस सफ़र में गजानन माधव मुक्तिबोध जैसे कवियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उससे कम से कम मैं तो अनजान ही रहा।

गजानन माधव मुक्तिबोध Gajanan Madhav Muktibodh
जो लोग मेरी तरह मुक्तिबोध के लेखन से उतने परिचित नहीं रहे हैं उन्हें ये बताना आवश्यक रहेगा कि उनकी पैदाइश   शिवपुरी में हुई थी जो मध्यप्रदेश के मुरैना जिले का हिस्सा है। वे एक मध्यमवर्गीय खानदान से ताल्लुक रखते थे। पिता माधवराव यूँ तो पुलिस में थे पर ईमानदारी से जीवन जीने में विश्वास रखते थे। उज्जैन में वो इंस्पेक्टर के पद से सेवानिवृत हुए और वहीं मुक्तिबोध की प्रारंभिक शिक्षा भी शुरु हुई। स्नातक की डिग्री लेने के बाद पहले वे स्कूल में पढ़ाने लगे। बाद में राजनंदगाँव से जब परास्नातक (MA) की डिग्री हासिल हुई तो कॉलेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए।

माता पिता की सहमति के बगैर उन्होंने शादी तो की पर अपनी पत्नी से उनका तारतम्य ना बैठ सका। लकवे की वज़ह से वे अपनी ज़िदगी का अर्धशतक भी पूरा ना कर पाए। ये विडंबना ही रही कि वे अपने ज्यादातर काव्य संग्रहों को ख़ुद छपते और सम्मान पाते नहीं देख पाए।  पिछले हफ्ते उनकी पुण्यतिथि पर जब उनकी कविताओं की चर्चा हुई तो उनकी प्रमुख रचनाओं को पढ़ने की इच्छा हुई। उनकी दो कविताएँ जो मन के किसी कोने को छू गई को आज अपनी आवाज़ में प्रस्तुत करने की एक कोशिश कर रहा हूँ।

मुक्तिबोध कि जो पहली कविता मैंने यहाँ चुनी है उसकी भावनाओं से आपमें से ज्यादातर अपने आप को जोड़ पाएँगे। कोई हमें कितना प्यारा है? कितना दिलअजीज़ है? हमारे मन में उसके लिए कितनी कद्र है? क्या हम हमेशा उसको सीधे सीधे बतला पाते हैं.. नहीं ना! अंदर से ख़्वाहिश तो बहुत रहती है कि वो हमारी भावनाओं को पढ़ लें पर प्रत्यक्ष में हम वो कह नहीं पाते। रिश्तों की ऐसी पेंच में फँसे होते हैं कि कह सुन कर उनकी गिरहों को ऐसा नहीं बना देना चाहते कि उनमें हमेशा हमेशा के लिए गाँठ लग जाए। पर पूरी चुप्पी भी बेचैन हृदय को कहाँ बर्दाश्त होने वाली है। सो संकेतों व प्रतीकों का सहारा लेने लगते हैं  अपने भीतर अंकुरित होती कोमल भावनाओं के संप्रेषण के लिए। ये छोटे छोटे इशारे ही काफी होते हैं दिल की मिट्टी को आपसी स्नेह से भिंगोए रखने के लिए। मुक्तिबोध की इस कविता के नायक नायिका आसमान और धरती हैं। धरती के प्रति अपनी आत्मीयता को आसमान किस तरह व्यक्त कर रहा है आइए देखते हैं इन पंक्तियों में..


बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ यों साथ-साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाज़ों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से

मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान,
कुहरे की मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ
रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।

मुक्तिबोध की दूसरी कविता इस बात को पुरज़ोर तरीके से रखती है कि इस संसार में बिना किसी कलुष के निर्मल हृदय रखने वाले इंसान को ख़ुद कितनी व्यथा से गुजरना पड़ता है। वो तो सबकी अच्छाई में विश्वास कर लेता है। सबकी पीड़ा को अपना लेता है। हर मुस्कुराहट में उसे एक पवित्रता नज़र आती है। किसी के हृदय की बेचैनी महसूस कर वो ख़ुद अधीर हो उठता है। पर फिर भी वो बार बार छला जाता है। वास्तविकता तो ये है कि इस कपटी संसार को तो वो निरा मूर्ख ही नज़र आता है। 

पर वो करे भी तो क्या करे अंदर का रुदन छुपाकर  हँसे भी तो किसके लिए? जिस संसार से भावनाओं के तार उसने जोड़ रखे थे वो तो उसका इस्तेमाल कर आगे बढ़ चुका है। अब उसके सहारे की जरूरत जो नहीं रह गई है । पर नहीं अभी सारे रास्ते बंद नहीं हुए। उसका जीवन व्यर्थ नहीं है क्यूँकि वो मन का सच्चा है।  नई पगडंडियाँ अब भी बाँह पसारे बुला रहीं हैं उसे।

शायद उनमें उसके अस्तित्व, उसके वज़ूद के पीछे की कई और कहानियाँ दफन हों।

शायद इन पंगडंडियों पर चलकर बटोरी कहानियों से वो जीवन के उपन्यास को एक मूर्त रूप दे सके ..



मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहें फैलाए!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ,
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने....
सब सच्चे लगते हैं,
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीडा है,
पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ,
इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है जिंदगी!
बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,
और यह देख-देख बडा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ...
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस -हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत.... स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियाँ  लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ  ज़रा खडे होकर
बातें कुछ करता हूँ
.... उपन्यास मिल जाते ।
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12 टिप्पणियाँ:

Raki Garg on सितंबर 15, 2015 ने कहा…

Mujhe kadam kadam par chaurahe milte hain..one of my favourites

Manish Kumar on सितंबर 15, 2015 ने कहा…

मैंने उन्हें ज्यादा नहीं पढ़ा। पर हाल ही में जब उनकी कुछ कविताओं से मुझे भी कदम कदम पर चौराहे मिलते हैं अच्छी लगी और इसीलिए इस पोस्ट के लिए मैंने उसे चुना भी।

ओंकारनाथ मिश्र on सितंबर 15, 2015 ने कहा…

अच्छा किया आपने मुक्तिबोध को याद करके. मानसिक धरातल की जिस उंचाई पर मुक्तिबोध की कवितायें लिखी गयी हैं वह निश्चय ही अद्वितीय है. ज़ाहिर है ऐसी कवितायें स्कूली पाठ्यपुस्तकों में नहीं है क्योंकि शायद उस उम्र में हम मानसिक रूप से ऐसी कवितायें समझने के लिए परिपक्व नहीं होते हैं. मैंने जब शुरूआती दिनों में मुक्तिबोध की कवितायें पढ़ी थी तो मुझे समझने में काफी दिक्कत पेश आई थी. लेकिन उनका जीवन और कविता लिखते समय उनके व्यक्तिगत जीवन के संघर्षों के बारे में जानकार कविता को समझाने में आसनी हुई. समय के साथ मुझे यह आभास होने लगा है कि किसी भी कवि के जीवन के बारे में जानकर उनकी कविता को बेहतर समझा जा सकता है. उदाहरण के तौर पर निदा फाज़ली का ...कभी किसी को मुकम्मल जहां ... ग़ज़ल ही लीजिये. कितना प्यारा ग़ज़ल है. लेकिन उसके पीछे की कहानी जानकर ग़ज़ल और प्यारा लगने लगता है.

Manish Kumar on सितंबर 15, 2015 ने कहा…

सहमत हूँ आपसे निहार। ब्रह्मराक्षस को समझने में यही दिक्कत मुझे आ रही थी।

पर स्कूल के दिनों में तो रहीम, कबीर व बिहारी के दोहे, तुलसी व सूर की भक्ति, दिनकर और अन्य वीर रस के कवियों का ओज ही हमारे हृदय में गहरी पैठ लगाता था। पंत, प्रसाद और निराला जैसे छायावादी कवियों की भावनाओं को मन से कहाँ समझ पाते थे तब। पर स्कूल में पढ़ने से ये जरूर हुआ कि उम्र के दूसरे अंतराल में वहाँ लौटे और उनकी कविता का आनंद उठाया। भवानी प्रसात मिश्र की सतपुड़ा के घने जंगल पढ़ने के बाद स्कूल में हम सोचते थे कि क्या खिसका हुआ कवि है पर बीस साल बाद जब उन्हीं जंगलों में गए तो उनकी लिखी हर पंक्ति जीवंत हो उठी।

Annapurna Gayhee on सितंबर 15, 2015 ने कहा…

मुक्तिबोध चालीस के दशक में सामने आए लेकिन छायावाद इतना छाया रहा कि नई कविताओं को आगे बढ़ने का अवसर कम ही मिला, वैसे छायावाद के बाद की कविताएं पहले कम ही पसन्द की जाती रही थी, पाठ्यक्रमों में तीस के दशक तक का ही साहित्य रहा बाद का साहित्य अलग तरह का होने से पाठ्यक्रमों में शामिल नही रहा इसी से साहित्य के छात्र ही चालीस के दशक और आगे के साहित्य से अधिक परिचित रहे

Manish Kumar on सितंबर 15, 2015 ने कहा…

सही कह रही हैं अन्नपूर्णा जी..! कार्यालय के पुस्तकालय में कई बार उनकी ग्रंथावली को छू कर निकल गया था। अतुकान्त कविताएँ से वैसे ही प्रेम नहीं था।
उन्हें पढ़ते वक़्त ये भी लगा कि उनकी कविताओं के मर्म तक पहुँचने के लिए मानसिक श्रम करना पड़ता है

गिरिजा कुलश्रेष्ठ on सितंबर 15, 2015 ने कहा…

मनीष जी, वास्तव में इन कविताओं ने मुक्तिबोध जी के बारे में बनी राय को तोड़ा है . यों तो प्रयोगवादी कवियों को मैंने कम ही पढ़ा है .उनमें भी मुझे सिर्फ भवानीप्रसाद मिश्र अच्छे लगते हैं . कुछ कविताएं अज्ञेय जी की भी अच्छी लगीं लेकिन मुक्तिबोध से तो 'ब्रह्मराक्षस ..'पढ़ने के बाद किनारा ही कर लिया था . यह कविता एम ए के दौरान पाठ्यक्रम में थी . मुझे लगा कि केशवप्रसाद को दी गई उपाधि दरअसल इनके लिये होनी थी . आज भी कई स्वनामधन्य कवियों की कविताएं यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि आखिर इतने जटिल गद्य को ये कविताओं का जामा क्यों पहना देते हैं खैर..आज ये दो कविताएं पढ़कर यह भी विचार आया कि पाठ्यक्रम में ऐसी ही रचनाओं को देना चाहिये ताकि कवि को अच्छी तरह पढ़ा समझा जा सके .

Manish Kumar on सितंबर 16, 2015 ने कहा…

सहमत हूँ आपके आकलन से गिरिजा जी। प्रगतिशील और नई कविता से इसी वज़ह से मेरा जुड़ाव नहीं हो पाया । कविता को जटिल गद्य में तब्दील करना मुझे नहीं भाता हालांकि ऐसे लेखन के प्रशंसक भी रहे हैं और रहेंगे। सच तो ये है कि उनकी दर्जनों कविताओं में ये दोनों ही मुझे पढ़ने और समझने में आनंद दे पायीं।

Disha Bhatnagar on सितंबर 18, 2015 ने कहा…

बहुत सुंदर कविता है Manish जी। मुक्तिबोध क्या है मैं नहीं जानती। क्क्लिष्ट शब्दों से सदा दूर ही रही हूँ।धन्यवाद आपको...ये साझा करने के लिए

Manish Kumar on सितंबर 18, 2015 ने कहा…

Disha मुक्तिबोध को मैंने भी ज्यादा नहीं पढ़ा । इनकी जो रचनाएँ बहुत जानी जाती हैं उनके मर्म तक तो नहीं पहुँच पाया पर ये कविता एक बार पढ़कर मन को छू गई सो इनके बारे में लिख पाया। तुम्हें भी पसंद आयी ये, जान कर खुशी हुई।

जमशेद आजमी on सितंबर 18, 2015 ने कहा…

बहुत ही पोस्‍ट।

मन्टू कुमार on अक्तूबर 26, 2015 ने कहा…

उनको पढ़ना हमेशा ही सुकूनदेह रहा है...आत्मसात करना शायद नहीं !

 

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