गुरुवार, मार्च 24, 2016

होली के रंग दोहों के संग...

दो तीन हफ्तों से ब्लॉग पर चुप्पी छाई है तो वो इस वज़ह से कि इसी बीच कॉलोनी में घर भी बदलना पड़ा और फिर BSNL वालों से टेलीफोन का स्थानांतरण करवाना कोई आसान काम थोड़े ही है। चलिए फोन अगर शिफ्ट करवा भी लिया तो फिर इंटरनेट सेवा की बहाली करना भी कम मुश्किल नहीं?

सारा कुछ होते होते दो हफ्ते बीत गए और होली भी आ गई तो सोचा सही अवसर है अपने नए घर से पहली पोस्ट करने का। नया घर कॉलोनी के कोने में है। पिछवाड़े में ग्वालों की बस्ती है सो दस बजे के बाद से ही कॉलोनी के अंदर व बाहर हुड़दंग का माहौल है। जोगीया सा रा रा की तर्ज पर एक से एक होली गीत गाए जा रहे हैं। तो मौसम का मिज़ाज देखते हुए लगा कि आपको भी होली के रंग में रँगे कुछ दोहे सुना दिए जाएँ।


इन्हें लिखा है पंकज सुबीर जी ने जो एक ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हैं और अपने उपन्यास ये वो सहर तो नहीं के लिए ज्ञानपीठ नवलेखन व अपने कथा संग्रह महुआ घटवारिन के लिए इन्दु शर्मा सम्मान से नवाज़े जा चुके हैं।

बरसाने बरसन लगी, नौ मन केसर धार ।
ब्रज मंडल में आ गया, होली का त्‍यौहार ।।


सतरंगी सी देह पर, चूनर है पचरंग ।
तन में बजती बाँसुरी, मन में बजे मृदंग ।।


बिरहन को याद आ रहा, साजन का भुजपाश।
अगन लगाये देह में, बन में खिला पलाश ।। 


जवाकुसुम के फूल से, डोरे पड़ गये नैन ।
सुर्खी है बतला रही, मनवा है बेचैन ।।


बरजोरी कर लिख गया, प्रीत रंग से छंद ।
ऊपर से रूठी दिखे, अंदर है आनंद ।।


आंखों में महुआ भरा, सांसों में मकरंद ।
साजन दोहे सा लगे, गोरी लगती छंद ।।


कस के डस के जीत ली, रँग रसिया ने रार ।
होली ही हिम्‍मत हुई, होली ही हथियार ।।


हो ली, हो ली, हो ही ली, होनी थी जो बात ।
हौले से हँसली हँसी, कल फागुन की रात ।।

केसरिया बालम लगा, हँस गोरी के अंग ।
गोरी तो केसर हुई, साँवरिया बेरंग ।।

देह गुलाबी कर गया, फागुन का उपहार ।
साँवरिया बेशर्म है, भली करे करतार ।।

साँवरिया रँगरेज ने, की रँगरेजी खूब ।
फागुन की रैना हुई, रँग में डूबम डूब।।

कंचन घट केशर घुली, चंदन डाली गंध ।
आ जाये जो साँवरा, हो जाये आनंद ।।

घर से निकली साँवरी, देख देख चहुँ ओर ।
चुपके रंग लगा गया, इक छैला बरजोर ।।

बरजोरी कान्‍हा करे, राधा भागी जाय ।
बृजमंडल में डोलता, फागुन है गन्नाय ।।

होरी में इत उत लगी, दो अधरन की छाप ।
सखियाँ छेड़ें घेर कर, किसका है ये पाप ।।

कैसो रँग डारो पिया, सगरी हो गई लाल ।
किस नदिया में धोऊँ अब, जाऊँ अब किस ताल ।।

फागुन है सर पर चढ़ा, तिस पर दूजी भाँग ।
उस पे ढोलक भी बजे, धिक धा धा, धिक ताँग ।।

हौले हौले रँग पिया, कोमल कोमल गात ।
काहे की जल्‍दी तुझे, दूर अभी परभात ।।

फगुआ की मस्‍ती चढ़ी, मनवा हुआ मलंग ।
तीन चीज़ हैं सूझतीं, रंग, भंग और चंग ।।


इन दोहों की मस्ती को अपनी आवाज़ देने की कोशिश की है यहाँ...


मेरी तरफ़ से एक शाम मेरे नाम के पाठकों को होली की रंगारंग शुभकामनाएँ !
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7 टिप्पणियाँ:

lori on मार्च 24, 2016 ने कहा…

ताज़ा ताज़ा वेब्दुनिया पर पढे और आपके इधर भी ......सभी प्यारे हैं

Anuradha on मार्च 24, 2016 ने कहा…

Mazaa aa gaya padh kar Manish Ji.

Thank you :-)

पंकज सुबीर on मार्च 25, 2016 ने कहा…

अरे वाह मनीष जी । क्‍या बात है। असल में यह दोहे कुछ वर्षों पूर्व लिखे थे और कहीं पर प्रकाशित भी हुए थे। लेकिन कट पेस्‍ट की साहित्यिक दुनिया में यह दोहे पिछले साल और इस साल भी बेनामी होकर घूम रहे हैं। इस साल तो मेरे ही कई मित्रों ने मुझे यह दोहे बेनामी भेजे। यहां तक कि एक कवि मित्र जिनके साथ में पिछले साल दूरदर्शन पर यह दोहे पढ़ च़का था था उन्‍होंने भी बेनामी भेजे । खैर इस साल तो आपकी आवाज का परस इनको मिल चुका है । वाह वाह वाह।

Manish Kumar on मार्च 25, 2016 ने कहा…

पंकज जी व्हाटसएप की दुनिया बेहरम है। कट पेस्ट तकनीक में चंद लमहे लेखक के नाम को खोजने पर लोग ज़ाया नहीं करते। मुझे जब ये दोहे एक मेसेज के रूप में मिले तो मैंने इसके लेखक को ढूँढना शुरु किया और मुझे बड़ी खुशी हुई आपका नाम देखकर। पर आपके दोहे व नीरज जी की ग़ज़ल का इस तरह व्हाट्सएप पर वॉयरल होना इस बात को दर्शाता है कि आम जनता ने आपकी इन कृतियों को हाथों हाथ लिया है ।

अब आप तो जानते ही होंगे की बशीर बद्र के शेर ट्रक ,रिक्शों , आटो कहाँ कहाँ इस्तेमाल नहीं होते। दुष्यन्त जी के अशआर को कितने ही वक़्ता उनका नाम लिए बिना महफिलों में उछालते रहते हैं। तकलीफ़ तब होती है जब साहित्य में रुचि रखने वाले तथाकथित संवेदनशील लोग लेखक की संवेदना से न्याय नहीं कर पाते। ये जिम्मेदारी हमारे जैसे लोगों की है कि लोगों को इन कृतियों को उनके लेखक के साथ पहुँचायें।

Mansoor ali Hashmi on मार्च 25, 2016 ने कहा…

बेहतरीन, शानदार उपहार है इस त्यौहार का. शुक्रिया, पंकज जी के भंडार में क्या क्या समाया हुआ है!

Manish Kumar on मार्च 28, 2016 ने कहा…

लोरी अनुराधा और हाशमी साहब आप सब को पंकज जी के लिखे ये दोहे पसंद आए, जान कर खुशी हुई।

Unknown on मार्च 13, 2017 ने कहा…

बहुत ही सुंदर शब्द रचना और होली के सभी भावोसे भरपूर

 

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