गुरुवार, अगस्त 25, 2016

कृष्ण की चेतावनी : रामधारी सिंह दिनकर Krishna ki Chetavani by Dinkar

रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविताएँ बचपन से मन को उद्वेलित करती रही हैं। पर स्कूल की पुस्तकों में उनके लिखे महाकाव्य कुरुक्षेत्र व रश्मिरथी के कुछ बेहद लोकप्रिय अंश ही रहा करते थे । स्कूल के दिनों में उनकी   दो लोकप्रिय कविताएँ शक्ति और क्षमाहिमालय हमने नवीं  और दसवीं में पढ़ी थीं जो कुरुक्षेत्र का ही हिस्सा थीं। कुरुक्षेत्र तो महाभारत के शांति पर्व पर आधारित थी वहीं रश्मिरथी दानवीर कर्ण पर ! रश्मिरथी का शाब्दिक अर्थ वैसे व्यक्ति से है जिसका जीवन रथ किरणों का बना हो। किरणें तो ख़ुद ही सुनहरी व उज्ज्वल होती हैं। कर्ण के लिए ऐसे उपाधि का चयन दिनकर ने संभवतः उनके सूर्यपुत्र और पुण्यात्मा होने की वज़ह से किया हो।


रश्मिरथी के अंशों को मैंने शुरुआत में टुकड़ों में पढ़ा इस बात से अनजान कि ये पुस्तक बचपन से ही घर में मौज़ूद रही। रश्मिरथी यूँ तो 1952 में प्रकाशित हुई पर 1980 में जब करीब सवा सौ पन्नों की ये पुस्तक मेरे घर आई तो जानते हैं इसका मूल्य कितना था? मात्र ढाई रुपये!

जब किताब हाथ में आई तो समझ आया कि ये काव्य तो एक ऐसी रोचक कथा की तरह चलता है जिसे एक बार पढ़ना शुरु किया तो फिर बीच में इसे छोड़ना संभव नहीं। दिनकर, महाभारत के पात्र कर्ण की ये गाथा सात सर्गों यानि खंडों में कहते हैं। दिनकर की भाषा इतनी ओजमयी है कि शायद ही कोई उनके इस काव्य को बिना बोले हुए पढ़ सके।  आज जन्माष्टमी के अवसर पर मैं आपको इस महाकाव्य के तीसरे सर्ग का वो हिस्सा सुनाने जा रहा हूँ जिसमें बारह वर्ष के वनवास और एक साल के अज्ञातवास को काटने के बाद पांडवों ने कौरवों से सुलह के लिए भगवान कृष्ण को हस्तिनापुर भेजा जो कौरवों की राजधानी हुआ करती थी। इस अंश को कई जगह कृष्ण की चेतावनी के रूप में किताबों में प्रस्तुत किया गया।


वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

 हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


 यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
परिधि-बन्ध :  क्षितिज , मैनाक-मेरु : दो पौराणिक पर्वत

दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य, सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
दृग : आँख,  शत कोटि : सौ करोड़

शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
जिष्णु : विष्णु के अवतार

भूलोक अटल पाताल देख, गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन, यह देख महाभारत का रण 
मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान,  कहाँ इसमें तू है

अंबर में  कुंतल जाल देख, पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं
कुंतल :केश 

जिह्वा से कढ़ती ज्वाला सघन, साँसों से पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूँदता  हूँ लोचन
छा जाता चारो ओर  मरण
लोचन : आँख

बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
 वह्नि : अग्निपुंज

भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बँद से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।
 वायस : कौआ,  श्रृगाल : सियार

थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!

विदुर तो पहले से ही कृष्ण भक्त थे इसलिए उन्हें प्रभु के विकराल रूप के दर्शन हुए। पर ऐसी कथा है कि विदुर ने जब धृतराष्ट्र से कहा कि आश्चर्य है कि भगवान अपने विराट रूप में विराज रहे हैं। इसपर धृतराष्ट्र ने अपने अंधे होने का पश्चाताप किया। पश्चाताप करते ही भगवन के इस विराट रूप देखने तक के लिए उनको दृष्टि मिल गयी।

मुझे तो इस कविता को पढ़ना और अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड करना आनंदित कर गया। रश्मिरथी का ये अंश और पूरी किताब आपको कैसी लगती है ये जरूर बताएँ। तीसरे सर्ग के इस अंश का कुछ हिस्सा अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म गुलाल में भी इस्तेमाल किया था। उन अंशों को अपनी आवाज़ से सँवारा था पीयूष मिश्रा ने।
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28 टिप्पणियाँ:

Sumit on अगस्त 25, 2016 ने कहा…

Iss kavita ko bol ke padhna ya bola hua sun kar anand lena hi bhata hai....bilkul sahi kaha aapne. Zabardast hai.

Manish Kumar on अगस्त 25, 2016 ने कहा…

हाँ बिल्कुल सुमित !

Jagdish Arora on अगस्त 25, 2016 ने कहा…

Wonderful and thanks for bringing to my memory as I am fan of Dinkar.

Manish Kumar on अगस्त 25, 2016 ने कहा…

शुक्रिया अरोड़ा सर !
स्कूल में तो मैं हर बार हिंदी की नई किताब मिलते ही ये देखा करता था कि इसमें दिनकर की कोई कविता है या नहीं। कविता की तरफ़ शुरुआती अनुराग उन्हीं की वज़ह से पैदा हुआ।

मन्टू कुमार on अगस्त 26, 2016 ने कहा…

...शायद ही कोई उनके इस काव्य को बिना बोले हुए पढ़ सके।" सच में,शायद ही कोई !

Unknown on अगस्त 26, 2016 ने कहा…

हिन्दी काव्य की सुंदरता और उसके लिए अपना प्रेम मैंने भी पहली बार नवी कक्षा मे ही महसूस किया... तब वीर रस और श्रृंगार रस को खूब पढ़ा.. निराला, मैथलीशरण गुप्त, नागार्जुन और दिनकर बहुत पसंद हुआ करते थे.. आपकी पोस्ट से वो समय दोबारा याद आ गया.. शुक्रिया इसे साझा करने के लिए..

Manish Kumar on अगस्त 26, 2016 ने कहा…

मन्टू हाँ बिल्कुल, मुझे रिकार्डिंग के लिए बार बार पढ़ना पड़ा और हर बार मन साथ साथ आनंदित होता गया।

स्वाति श्रंगार रस हमें तब उतना समझ नहीं आता था। कुछ देर से बुद्धि खुली। तब कविता वो अच्छी लगती थी जो या तो गेय हो या वीर या हास्य रस से परिपूर्ण

Unknown on अगस्त 27, 2016 ने कहा…

दसवीं कक्षा की याद आ गयी। हिंदी की किताब में पढ़ी थी इस कविता को पहली बार। एक और थी - शक्ति और क्षमा।

Rajiv Verma on अक्तूबर 06, 2016 ने कहा…

बहुत ही उत्तम। इस कविता को जितनी बार भी पढ़ा जाए आनन्द आता है। मधुरता एवं तेज का अद्भुत संगम है दिनकर जी की इस रचना में। आभार।

बेनामी ने कहा…

बहुत ही आनंद आता है इस कविता को पढ़ने में, मैं बहुत गरबांबित महसूस करता हूं कि मैं उस गांव में पैदा लिया हूं जिस गाँव में रामधारी सिंह दिनकर जी जैसे महान कवि का जन्म हुआ

Unknown on दिसंबर 13, 2018 ने कहा…

I want to know the meaning of do nyay agar to aadha do

Manish Kumar on दिसंबर 21, 2018 ने कहा…

पहली गुजारिश Unknown तो ये कि कोई प्रश्न पूछते समय अपना नाम अवश्य लिखें।

दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम।


दो न्याय अगर तो आधा दो का अर्थ है कि अगर न्यायपूर्वक चलोगे तो बराबर हिस्सा यानि राज्य का आधा हिस्सा कौरवों और पांडवों में बाँट दो। अगर वो भी नहीं माजूर तो सिर्फ पाँच गाँव ही दे दो।

Unknown on फ़रवरी 24, 2019 ने कहा…

Iss Kavita ki shaili Kya hai??

Unknown on जून 15, 2019 ने कहा…

In this line Lord Krishna meddle the disputes between pandavas and kauravas and appealed to kauravas that If they did give justice then give them(pandavas) half of the properties. And if they are not willing give half then at leastt give them five village.

Akash Tomar ने कहा…

सूने को साध न सकता है
वह मुझे बांध क्या सकता है
कृपया करके इसका अर्थ बताएं
और कुछ किताबों में अंतिम पंक्ति इस प्रकार है
केवल दो नर न अघाते थे
भीष्म - विदुर सुख पाते थे।
(धारावाहिक महाभारत*BR Chopra* में भी केवल भीष्म विदुर और कृपाचार्य ने ही विश्वरूप को देखा था )
रश्मिरथी के ओरिजिनल संस्करण में क्या है ये भी उल्लेख करें।

Unknown on नवंबर 10, 2019 ने कहा…

Great

Unknown on फ़रवरी 28, 2020 ने कहा…

Sir
Me to 1992 se school me bolta aaya hu
Mujhe achhi lagti he

Manish Kumar on मार्च 03, 2020 ने कहा…

"Unknown" Kindly also write your name while commenting.
ये कविता आपको भी पसंद है जानकर अच्छा लगा।

Unknown on अक्तूबर 09, 2021 ने कहा…

कविता पढ़ कर आत्मा तृप्त हो गया ऐसा लग रहा हैं स्वयम कृष्ण बोल रहे हैं।
जय श्री कृष्ण🙏

गिरिजा कुलश्रेष्ठ on जुलाई 21, 2022 ने कहा…

कालजयी कविताएं तो यही हैं युगों तक चलने वाली । अब की कविताएं जो केवल मन का गुबार हैं । अल्पकालिक ।

बेनामी ने कहा…

Gagan ka paryayvachi shoonya hota hai. Usi shoonya ke liye soone shabd ka prayog kiya gaya hai.

बेनामी ने कहा…

गौरवान्वित होने की तो बात ही है। आपकी और उनकी जन्मभूमि एक है।

बेनामी ने कहा…

कृपया इन पंक्तियों का आशय स्पष्ट करें

1. परिजन पर असि न उठायेंगे!

2. केवल दो नर न अघाते थे

आशीष

Janhavi Srivastava ने कहा…

Maine ye Kavita aashutosh rana ji se suni hai YouTube par, aur mujhe itni achhi lagi ki ab isko yaad karne ki koshish mein hu

Manish Kumar on अगस्त 08, 2023 ने कहा…

आशुतोष जी की आवाज़ तो शानदार है ही पर ये कविता ही ऐसी है कि इसे पढ़ते वक़्त पूरा तन मन रोमांचित हो जाता है जान्हवी।

बेनामी ने कहा…

में कुछ नही समझ पा रहा हु इस कविता का अर्थ

बेनामी ने कहा…

कुंतल का अर्थ....केश होता है।

बेनामी ने कहा…

👍

 

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