शनिवार, अक्तूबर 22, 2016

सतपुड़ा के घने जंगल, नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल

कविताएँ तो स्कूल के ज़माने में खूब पढ़ीं। कुछ खूब पसंद आतीं तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़तीं। सतपुड़ा के घने जंगल भी पसंद ना आने वाली कविताओं में ही एक थी। एक तो थी भी इतनी लंबी। दूसरे तब ये समझ के बाहर होता था कि किसी जंगल पर भी इतनी लंबी कविता लिखी जा सकती है। किसी जंगल में घूमना विचरना ही उस छोटी उम्र में  हुआ ही कहाँ था? फिर भी परीक्षा के ख़्याल से ही कुछ रट रटा के ये पाठ निकालने की फिराक़ में थे कि घास पागल, कास पागल, शाल और पलाश पागल, लता पागल, वात पागल, डाल पागल, पात पागल पढ़कर हमने ये निष्कर्ष निकाल लिया था कि या तो ये कवि पागल था या इस कविता का मर्म समझते समझते हम ही पागल हो जाएँगे।


आज से ठीक दस साल पहले मुझे पचमढ़ी जाने का मौका मिला और वहाँ सतपुड़ा के घने जंगलों से पहली बार आमना सामना हुआ। अप्सरा, डचेस और बी जैसे जलप्रपातों तक पहुँचने के लिए हमें वहाँ के जंगलों के बीच अच्छी खासी पैदल यात्रा करनी पड़ी। सच कहूँ तब मुझे पग पग पर भवानी प्रसाद मिश्र की ये कविता याद आई और तब जाकर बुद्धि खुली कि कवि ने क्या महसूस कर ये सब रचा होगा। सतपुड़ा के जंगल के बीच बसे पचमढ़ी से जुड़े यात्रा वृत्तांत में मैंने जगह जगह इस कविता के विभिन्न छंदो को अपने आस पास सजीव होता पाया... 
"सतपुड़ा के हरे भरे जंगलों में एक अजीब सी गहन निस्तब्धता है। ना तो हवा में कोई सरसराहट, ना ही पंछियों की कोई कलरव ध्वनि। सब कुछ अलसाया सा, अनमना सा। पत्थरों का रास्ता काटती पतली लताएँ जगह जगह हमें अवलम्ब देने के लिये हमेशा तत्पर दिखती थीं। पेड़ कहीं आसमान को छूते दिखाई देते थे तो कहीं आड़े तिरछे बेतरतीबी से फैल कर पगडंडियों के बिलकुल करीब आ बैठते थे।.."

अगर इन जंगलों की प्रकृति के बारे में आपकी उत्सुकता हो तो आप उस आलेख को यहाँ पढ़ सकते हैं।

भवानी प्रसाद मिश्र जी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले से ताल्लुक रखते थे। गाँधीवादी थे सो कविताओं के साथ आजादी की लड़ाई में भी अपना योगदान निभाते रहे। कविताएँ तो हाईस्कूल से ही लिखनी शुरु कर चुके थे।  गीत फरोश, चकित है दुख, गान्धी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल सन्ध्या जैसे कई काव्य संग्रह उनकी लेखनी के नाम है। बुनी हुई रस्सी के लिए वो 1972 में साहित्य अकादमी पुरस्कार  से सम्मानित हुए उनकी कविताएं भाषा की सहजता और गेयता के लिए जानी जाती थीं। कविताओं में सहज भाषा के प्रयोग की हिमायत करती उनकी ये उक्ति बार बार याद की जाती है....

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।

है ना पते की बात। वही कविता जिसका सिर पैर मुझे समझ नहीं आता था, अब मेरी प्रिय हो गई है। इसीलिए आज मैंने इस कविता को अपनी आवाज़ में रिकार्ड किया है। आशा है आप इसे सुनकर मुझे बताएँगे कि मेरा ये प्रयास आपको कैसा लगा?



सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल
झाड़ ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मींचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
सतपुड़ा के घने जंगल पचमढ़ी शहर के करीब

सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनौने-घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाएँ।
सांप सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।
सतपुड़ा के जंगल डचेस फॉल ले रास्ते में

मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

अजगरों से भरे जंगल  
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े-छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फूस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।
हांडी खोह, पचमढ़ी

जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।

क्षितिज तक फैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फूल, फलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।
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38 टिप्पणियाँ:

गिरिजा कुलश्रेष्ठ on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

यह एक अनूठी और अद्भुत कविता है मनीष जी .मेरे विचार से निर्बाध प्रवाह मिश्र जी की कविताओं की जीन है .वे जैसे बहतीं हैं धारा की तरह .मैं तो उनकी कविताओं के प्रवाह और शब्द-चयन पर मुग्ध हूँ . यह कविता अभी भी मध्यप्रदेश पा पु नि की कक्षा नौवीं की हिन्दी में है . पढ़ने और पढ़ाने दोनों में ही सरस और सरल लेकिन बहुत ही प्रभावशाली ..

Manish Kumar on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

हाँ मैंने इस कविता को रिकार्ड करते हुए उनकी भाषा के प्रवाह को बखूबी महसूस किया। गिरिजा जी उनकी अन्य प्रसिद्ध कविताओं में प्रवाह और शब्द चयन के हिसाब से आपको कौन सी कविताएँ भाती हैं उसका उल्लेख करें तो मेहरबानी होगी। उन्हें पढ़ना और रिकार्ड करना चाहूँगा।

Alok Malik on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

High school ki yaadein taaza kar di aapne.. yeh teesri sabse lambi kavita thi mere poore school time ki

kumar gulshan on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

bahut badiya manish ji jaisa ki hamesha hota hai aapki aawaz se lagta hai jaise ham bhi wanhi par hai unhi junglon mein

Manish Kumar on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

Alok तीसरी सबसे लंबी तो इससे भी लंबी बाकी दौ कौन थीं?

Manish Kumar on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

Gulshan मेरे इस प्रयास को सराहने का शुक्रिया :)

Archana Singh on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

आज इस कविता को सुनने और गुनने में जो मज़ा आया वो कभी स्कूल में नहीं आया . कारण यह था कि हमें हर अंश का तात्पर्य लिखना होता था. अगर छह पंक्तियों का भावार्थ लिख लिया तो ऐसा लगता था पूरी कविता का केंद्रीय भाव लिख गए आगे क्या लिखें . पर अब हर लाइन में एक अलग रस मिलता है.

Parmeshwari Choudhary on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

बहुत सुन्दर मनीष जी .प्रवाह बहुत अच्छा बन पड़ा है . भवानी प्रसाद जी अतुल्य कवि हैं . इनकी कविताओं में 'हुज़ूर मैं गीत बेचता हूँ' और 'पढो गीता बनो सीता' लाज़वाब हैं. उन्हें भी सुनाइए तो :) अगर आपको पसन्द हो तो

Manish Kumar on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

अर्चना सिंह दी, मुझे तो लगता है मैंने ठीक से भावों को समझने की कोशिश ही नहीं की थी। कविता की लंबाई और उस पर से जंगल जैसे विषय ने कविता के प्रति उदासीनता ला दी थी। पर दिमाग में रह गयी और पचमढ़ी में सतपुड़ा के जंगलों के बीच जाते ही एकदम से उभर आई और फिर बार बार पढ़ा इसको।

Manish Kumar on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

परमेश्वरी जी मैं गीत बेचता हूँ तो स्वानंद जी की आवाज़ में सुना था कुछ दिनों पहले। पढ़ो गीता बनो सीता पढ़ता हूँ अगर बोलते हुए रिदम बना तो जरूर सुनाने की कोशिश करूँगा कभी।

Rajay Sinha on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

क्या ही लय है। मुझे अतिप्रिय थी यह कविता। शायद दसवीं में पढ़ी थी।

Unknown on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

धन्यवाद मनीष जी । बहुत ही सुन्दर कविता है।
क्या आप ने कभी निम्नलिखित कविता अंश को पढ़ा/सुना है?

'इस पार हमारा भारत है उस पार चीन जापान देश'

यह कविता उत्तर प्रदेश के मिडिल स्कूल में पढ़ाई जाती थी ।

Manish Kumar on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

सुरेंद्र प्रताप जी कविता पसंद करने का शुक्रिया। आपने जिस कविता का जिक्र किया वो गिरिराज हिमालय पर केंद्रित थीं और उसे सोहनलाल द्विवेदी जी ने लिखा था। उस कविता की आरंभिक पंक्तियाँ कुछ यूँ थी।


यह है भारत का शुभ्र मुकुट
यह है भारत का उच्च भाल,
सामने अचल जो खड़ा हुआ
हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल!

Manish Kumar on अक्तूबर 23, 2016 ने कहा…

Rajay Sinha हाँ बड़ी प्यारी लय है इस कविता की इसलिए इसे पढ़ने में काफी आनंद आता है।

Unknown on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

बहुत ही सुन्दर लेख मनीष जी... पहली बार ये कविता पढ़ने और सुनने का मौका मिला,हमारे यहाँ हिंदी काव्य में यह मौजूद नहीं थी....
कविता के शब्द, लय और भाव बहुत सुन्दर हे..और आपकी आवाज़ तो सीधा उन जंगलो तक पहुँचाती हे...

Manish Kumar on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

शुक्रिया स्वाति कविता व उसका पाठ आपको रुचा जानकर प्रसन्नता हुई।

Maitry Dutt on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

One of my favourites from school days.. thanks for sharing.

Manish Kumar on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

Nice to know that Maitry !

Pushkar Jha on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

Adbhut......thanks for sharing

Manish Kumar on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

शुक्रिया पुष्कर जी !

Ekta Singh on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

वहां तक याद थी जहां तक शायद किसी को नहीं ..इसकी लय और टेकनीक पसंद थी ..पर अगर भाव लिखने को आ जाता तो एक ही बात, अलग अलग तरह के वाक्य विन्यास में, लिखने के सिवा कोई चारा नहीं बचता था .

Manish Kumar on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

Ekta Singh उस वक़्त का तो याद नहीं पर आज जब इस कविता को पढ़ता हूँ तो पाता हूँ किमिश्र जी ने जो छंद लिखें हैं उसमें जंगल की सघनता, निस्तबधता, भयावहता के साथ उसके अंदर बसने वाले गोंड आदिवासियों के सरस जीवनऔर उसे एक प्यारा रूप देने वाले झरनों का अलग अलग अंतरों में जिक्र है। कहने का मतलब ये कि जंगल के प्रति उनकी भावनाएँ उसके अलग अलग रूपों में उभरी हैं।

Premlata on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

बहुत खूब मनीष। भाव पूर्ण पठन। मैंने कुछ अँश श्रद्धैय मिश्र जी की वाणीं मे भी सुने थे।

Manish Kumar on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

अरे वाह प्रेमलता जी आप खुशकिस्मत हैं कि आपने मिश्र जी की ये कविता कुछ हिस्सों में उनसे सुनी। मेरे कवितापाठ को पसंद करने के लिए शुक्रिया।

Manish Kaushal on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

स्कूल के दिनों में दीदी की किताब में पढ़ीथी.. इतनी लम्बी कविता पढ़ते- पढ़ते बोर हो गया था.. कुछ ख़ास समझ मेंभी नहीं आया था.. पर इस बार पूरा पढ़ा... धन्यवाद सर..

Manish Kumar on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

मनीष कौशल सिर्फ पढ़ा या सुना भी?

Namrata Kumari on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

बचपन में पढ़ी थी यह कविता। उस समय भी मुझे ये बड़ी रोचक लगी थी। कवि ने जंगल को पूरी तरह से जीवित कर दिया। ऐसा लगता है जैसे इन जंगलों का अपना एक अनोखा व्यक्तित्व है। आपकी आवाज़ में इसे आज सुनकर बहुत आनंद आया। आपके कविता पाठ का अंदाज़ भी बहुत खूब है।

Manish Kumar on अक्तूबर 24, 2016 ने कहा…

Namrata मैंने सातवीं या आठवीं में जब ये कविता पढ़ी थी तब बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ी थी। कोई जंगल देखा भी नहीं था तब। सालों बाद में सतपुड़ा के जंगलों से गुजरने के बाद इस कविता के सार को ग्रहण कर पाया। शुक्रिया इस सुनने और अपनी राय से अवगत करने का। :)

ANu on अक्तूबर 25, 2016 ने कहा…

मैंने भी ये कविता स्कूल में पढ़ी थी। हमारे हिन्दी शिक्षक किसी को भी खड़ा कर किताब से कुछ पढ़ने को कह देते थे। और जब ये कविता किसी के हिस्से में आती तो वो पूरी मस्ती से पढ़ जाता था - इसलिए नहीं कि उसे सब समझ में आ रहा हो - इसलिए क्योंकि यह लयबद्ध है।

इसे अन्यथा ना लीजियेगा, कुछ टाइपिंग की अशुद्धियों को सुधारनॆ की कोशिश की है। आशा है आप अपनॆ ब्लॅाग पोस्ट को अपडेट करेंगे।

सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।
झाड़ ऊँचे और नीचे
चुप खड़े हैं आँख मींचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।

सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनौने, घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाएँ
साँप-सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सिर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात-झंझा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

अजगरों से भरे जंगल  
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े-छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कंप से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजन वन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फूस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।

क्षितिज तक फैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फूल फलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।

Manish Kumar on अक्तूबर 25, 2016 ने कहा…

सिर्फ लय से आनंद आधा रहता है। समझ कर पढ़ने से भाव भी साथ आता है तो पूर्ण आनंद आ जाता है। एक जाल पृष्ठ से ये कविता पेस्ट करने की वज़ह से ये त्रुटियाँ नज़रअंदाज़ हो गयीं । ध्यान दिलाने के लिए शुक्रिया।

Manish Kaushal on अक्तूबर 25, 2016 ने कहा…

पढने से ज्यादा मजा आपको सुनने में आया... धन्यवाद सर जी...

Manish Kumar on अक्तूबर 25, 2016 ने कहा…

सुनने के लिए समय निकालने का शुक्रिया ! :)

Surbhi Athaya Rajak on अक्तूबर 25, 2016 ने कहा…

Sir ye kavita bachpan se hi bhut pasand h thanks for sharing

Manish Kumar on अक्तूबर 25, 2016 ने कहा…

अच्छा सुरभि बचपन से ही...मतलब हमारे जैसे लोग अल्पमत में हैं

Ekta Singh on अक्तूबर 25, 2016 ने कहा…

Manish Sir तब pre boards या unit tests में कुछ पंक्तियां ही आती थीं ...लम्बी कविता थी इसलिये एक पद्यांश में एक ही भाव समा पाता था ..और तब के हमारे हिन्दी टीचर क्लिष्ट भाषा में अलंकार पूर्वक की गयी व्याख्या को ही पसंद करते थे ..☺..ऐसे में सरल शब्दों में लिखी इस कविता की व्याख्या से उन्हें प्रभावित करना होता था ...

HindIndia on अक्तूबर 26, 2016 ने कहा…

बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)

Unknown on अक्तूबर 29, 2016 ने कहा…

धन्यवाद मनीष जी।

बहुत दिनों से यह कविता ढूँढ रहा था ।

BHOLA KUMAR on मई 31, 2021 ने कहा…

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