मंगलवार, दिसंबर 27, 2016

वार्षिक संगीतमाला 2016 वो गीत जो संगीतमाला में दस्तक देते देते रह गए Part II

साल की आख़िरी पोस्ट में हाज़िर हूँ छः और नग्मों के साथ जो मूल्यांकन की दृष्टि से अंतिम पाँच पॉयदानों के आसपास थे। इनमें से तीन शायद आपने ना सुने हों पर वक़्त मिले तो सुनिएगा।

आज का पहला गीत मैंने लिया है फिल्म Parched से जो Pink के आस पास ही प्रदर्शित हुई थी। अपने अंदर की आवाज़ को ढूँढती निम्न मध्यम वर्ग की महिलाओं से जुड़ी एक संवेदनशील फिल्म थी Parched ! इसी फिल्म का एक गीत है माई रे माई जिसे लिखा स्वानंद किरकिरे ने और धुन बनाई हितेश सोनिक ने। स्वानंद कोई गीत लिखें और उसमें काव्यात्मकता ना हो ऐसा हो सकता है भला.. गीत का मुखड़ा देखिए 

माई रे माई , मैं बादल की बिटिया.. 
माई रे माई , मैं सावन की नदिया 
दो पल का जोबन, दो पल ठिठोली, 
बूँदों सजी है ,चुनर मेरी चोली 

इस गीत को गाया है नीति मोहन और हर्षदीप कौर ने..

  

प्रकाश झा अपनी फिल्मों के संगीत रचने में संगीतकारों को अच्छी खासी आज़ादी देते हैं। ख़ुद तो संगीत के पारखी हैं ही। जय गंगाजल में सलीम सुलेमान का रचा संगीत वाकई विविधता लिए हुए है। फिल्म का एक गीत राग भैरवी पर आधारित है जिसे शब्द दिए हैं मनोज मुन्तसिर ने। मनोज की शब्द रचना जीवन के सत्य को  हमारे सामने कुछ यूँ खोलती है

मद माया में लुटा रे कबीरा
काँच को समझा कंचन हीरा
झर गए सपने पाती पाती
आँख खुली तो सब धन माटी

शायद नोटबंदी के बाद भी कुछ लोगों को ये गीत याद आया होगा। इस गीत को अरिजीत ने भी गाया है और दूसरे वर्जन में अमृता फणनवीस ने उनका साथ दिया है जो ज्यादा बेहतर बन पड़ा है।
  

ऊपर के दो गीतों जैसा ही तीसरा अनसुना गीत है फिल्म धनक से जिसे नागेश कुकनूर ने बनाया है। राजस्थान की पृष्ठभूमि में एक भाई बहन की कहानी कहती इस फिल्म में एक प्यारा सा गीत रचा है मीर अली हुसैन ने। देखिए इस  गीत में हुसैन  क्या हिदायत दे रहे हैं इन बच्चों को

ख़्वाबों में अपने तू घुल कर खो जा रे
पलकों पे सपने मल कर सो जा रे
होगी फिर महक तेरे हाथो में
और देखेगा तू धनक रातो में


तापस रेलिया के संगीत निर्देशन में इस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है मोनाली ठाकुर ने.


तो ये थी अनसुने गीतों की बात। आगे के तीनों गीत इस साल खूब बजे हैं और इन्हें आपने टीवी या रेडियो पर बारहा सुना होगा। फिल्म वज़ीर में शान्तनु मोइत्रा ने बड़ी ही मधुर पर अपनी पुरानी धुनों से मिलती जुलती धुन रची। परिणिता के गीत याद हैं ना आपको।ये गीत उसी फिल्म के संगीत की याद दिलाता है। ख़ैर सोनू निगम और श्रेया ने इस गीत में जान फूँक दी वो भी विधु विनोद चोपड़ा के बोलों पर जो एक अंतरे से ज्यादा नहीं जा पाए।



सुल्तान बतौर एलबम साल के शानदार एलबम में रहा। विशाल शेखर का संगीत और इरशाद क़ामिल के बोलों ने खूब रंग ज़माया। अब उनकी इन पंक्तियों में पहलवान क्या आम आदमी का ख़ून भी गर्म हो उठेगा

ख़ून में तेरे मिट्टी, मिट्टी में तेरा ख़ून
ऊपर अल्लाह नीचे धरती, बीच में तेरा जूनून...ऐ सुल्तान..

सुखविंदर सिंह की सधी आवाज़ तन मन में जोश भर देती है..



वैसे तो इस साल के झूमने झुमाने वाले गीतों में काला चश्मा, बेबी को बेस पसंद है और ब्रेकअप सांग खूब चले पर मेरा मन जीता बागी फिल्म की इस छम छम ने। तो इस छम छम के साथ आप भी छम छम कीजिए और मुझे दीजिए विदा। अगले साल वार्षिक संगीतमाला 2016 के साथ पुनः प्रस्तुत हूँगा


शनिवार, दिसंबर 24, 2016

वार्षिक संगीतमाला 2016 वो गीत जो संगीतमाला में दस्तक देते देते रह गए Part I

वार्षिक संगीतमाला के प्रथम पच्चीस गीतों का सिलसिला तो जनवरी के पहले हफ्ते से शुरु हो ही जाएगा पर उसके पहले आपको मिलवाना चाहूँगा उन दर्जन भर गीतों से जो मधुर होते हुए भी संगीतमाला  से थोड़ा दूर रह गए। अब इसकी एक वज़ह तो ये है कि आजकल संगीतकार गीतकार लगभग एक ही जैसी धुनें और बोल थोड़ा जायक़ा बदल कर अलग अलग थालियों में परोस रहे हैं। लिहाज़ा मीठी चाशनी में सने इन गीतों में कई बार वो नयापन नहीं रह पाता जिसकी मेरे जैसे श्रोता को उम्मीद रहती है।

पर ऊपर वाली बात सारे गीतों पर लागू नहीं होती जिन्हें मैं सुनाने जा रहा हूँ। कुछ को तो मुझे संगीतमाला में जगह ना दे पाने का अफ़सोस हुआ पर कहीं तो लकीर खींचनी थी ना सो खींच दी।

तो सबसे पहले बात एयरलिफ्ट के इस गीत की जिसे लिखा गीतकार कुमार ने और धुन बनाई  अमल मलिक ने। सच कहूँ तो अमल की धुन बड़ी प्यारी है। रही कुमार साहब के बोलों की बात तो पंजाबी तड़का लगाने में वो हमेशा माहिर रहे हैं। बस अपने प्रियके बिन रहने में कुछ सोच ना सकूँ की बजाए कुछ गहरा सोच लेते तो मज़ा आ जाता। ख़ैर आप तो सुनिए इस गीत को..



पंजाबी माहौल दूर ही नहीं हो पा रहा क्यूँकि हम आ गए हैं कपूरों के खानदान में। कपूर एंड संस के इस गीत को सुन कर शायद आप भी बोल ही उठें, उनसे जिनसे नाराज़ चल रहे थे अब तक। कम से कम गीतकार देवेन्द्र क़ाफिर की तो यही कोशिश है। संगीतकार के रूप में यहाँ हैं पंचम के शैदाई युवा तनिष्क बागची। तनिष्क का सफ़र तो अभी शुरु ही हुआ है। आगे भी उम्मीद रहेगी उनसे। तो आइए सुनते हैं अरिजीत सिंह और असीस कौर के गाए इस युगल गीत को



जान एब्राहम गठे हुए शरीर के मालिक हैं। इस बात का इल्म उन्हें अच्छी तरह से है तभी तो अपनी फिल्म का नाम रॉकी हैंडसम रखवाना नहीं भूलते 😀। अगला गीत उनकी इसी फिल्म का है जिसमें वो रहनुमा बने हैं श्रुति हासन के। संगीतकार की कमान सँभाली है यहाँ इन्दर और सनी बावरा ने।। गीत को लिखा मनोज मुन्तसिर और सागर लाहौरी ने। ये साल श्रेया घोषाल के लिए उतना अच्छा नहीं रहा। बहुत सारे ऐसे गीत जो उनकी आवाज़ को फबते नयी गायिका पलक मुच्छल या फिर तुलसी कुमार की झोली में चले गए। ये उनकी निज़ी व्यस्तता का नतीज़ा था या फिर कुछ और ये तो वक़्त ही बताएगा। फिलहाल तो वो इस नग्मे में रूमानियत बिखेरती सुनी जा सकती हैं..



क्यूँ इतने में तुमको ही चुनता हूँ हर पल
क्यूँ तेरे ही ख़्वाब बुनता हूँ हर पल
तूने मुझको जीने का हुनर दिया
खामोशी से सहने का सबर दिया


संदीप नाथ ने एक बेहतरीन मुखड़ा दिया फिल्म दो लफ़्जों की कहानी के इस गीत में। यक़ीन मानिए अल्तमश फरीदी की गायिकी आपको अपनी ओर आकर्षित जरूर करेगी। बबली हक़ की अच्छी कम्पोजीशन जो गीतमाला से ज़रा ही दूर रह गई।


इस साल इश्क़ के नाम पर अच्छा कारोबर चलाया है मुंबई फिल्म जगत ने ने। अब ज़रा फिल्मों के नाम पर ही सरसरी निगाह डाल लीजिए लव गेम्स, वन नाइट स्टैंड, इश्क़ क्लिक, लव के फंडे, लव शगुन, इश्क़ फारएवर।  इनके गीतों को सुनकर माँ कसम लव का ओवरडोज़ हो गया इस बार तो। अब विषय मोहब्बत हो तो गीत भी कम नहीं पर गीत की मुलायमित के साथ ये गीत बालाओं की मुलायमियत भी बेचते नज़र आए। इन गीतों के दलदल से लव गेम्स का ये नग्मा कानों में थोड़ा सुकून जरूर पैदा कर गया।

क़ौसर मुनीर के शब्दों और हल्दीपुर बंधुओं संगीत और सिद्धार्थ की संगीत रचना से लव गेम्स का ये गीत निश्चय ही श्रवणीय बन पड़ा है। गीत में गायक संगीत हल्दीपुर का साथ दिया है उभरती हुई बाँसुरी वादिका रसिका शेखर ने। गीत की धुन प्यारी है और शब्द रचना भी। जरूर सुनिएगा इसे इक दफ़ा


इस साल हमारे खिलाड़ी भी अपने प्रेम प्रसंगों के साथ फिल्मों में नज़र आए। गनीमत ये रही कि धोनी और अज़हर जैसी फिल्मों के एलबम्स मेलोडी से भरपूर रहे। इन फिल्मों का एक एक गीत वार्षिक संगीतमाला का हिस्सा है। चलते चलते एम एस धोनी फिल्म का गीत आपको सुनवाता चलूँ जो गीतमाला से आख़िरी वक़्त बाहर हो गया। आवाज़ अरमान मलिक की और बोल एक बार फिर मनोज मुन्तसिर के...


साल के अंत में फिर बात करेंगे ऐसी ही और छः गीतों की जो अंतिम मुकाम से कुछ फासले पर रह गए.. क्रिसमस और शीतकालीन छुट्टियों की असीम शुभकामनाओं के साथ..

बुधवार, दिसंबर 14, 2016

एक फूल की चाह ... सियाराम शरण गुप्त Ek Phool Ki Chaah

छुआछूत की समस्या ने एक समय इस देश में विकराल रूप धारण किया हुआ था। आज़ादी के सात दशकों बाद हमारे समाज की रुढ़ियाँ ढीली तो हो गयी हैं पर फिर भी गाहे बगाहे देश के सुदूर इलाकों से मंदिर में प्रवेश से ले कर पानी के इस्तेमाल पर रोक जैसी घटनाएँ सामने आती ही रहती हैं। यानि कहीं ना कहीं आज भी सबको समान अधिकार देने के फलसफ़े को हममें से कई लोग दिल से स्वीकार नहीं कर पाए हैं। अगर ऐसा ना होता तो ना ये छिटपुट  घटनाएँ होती और ना ही स्त्रियों को आज भी मंदिर या दरगाह के हर हिस्से में जाने के अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ रहा होता।

किसी आस्थावान व्यक्ति से भगवान का आशीर्वाद पाने का अधिकार छीन लेना कितना घृणित लगता है ना? बरसों पहले इसी समस्या पर सियाराम शरण गुप्त ने एक लंबी सी कविता लिखी थी। कविता क्या कविता के रूप में एक कहानी ही तो थी उनकी ये रचना। वैसे भी सियाराम शरण जी अपनी कविताओं की कथात्मकता के लिए जाने जाते थे। कविता का शीर्षक था एक फूल की चाह जो आजकल NCERT की नवीं कक्षा में अपने संक्षिप्त रूप में पढ़ाई जाती है।


झांसी से ताल्लुक रखने वाले सियाराम शरण गुप्त, हिंदी के प्रखर कवि मैथिली शरण गुप्त के अनुज थे। गाँधी और विनोबा के विचारों से प्रभावित सियाराम शरण गुप्त ने अपनी कविताओं में तात्कालीन सामाजिक कुरीतियों पर जबरदस्त कुठाराघात किया है। अछूतों से सामाजिक भेदभाव को दर्शाती ये कविता एक छोटी बच्ची सुखिया और उसके पिता के इर्द गिर्द घूमती है।

महामारी में ज्वर से पीड़ित सुखिया  मंदिर से देवी के आशीर्वाद स्वरूप पूजा के एक फूल की कामना रखती थी पर तमाम कोशिशों के बावज़ूद उसका  पिता अपनी बेटी की ये अंतिम  इच्छा पूरी नहीं कर पाता क्यूंकि समाज के ठेकेदारों ने उसे अछूत का तमगा दे रखा है। सियारामशरण जी ने इस घटना का कविता में मार्मिकता से चित्रण किया है।

भगवान के घर के रखवालों की ऐसी छोटी सोच पर प्रभावशाली ढंग  से तंज़ कसते हुए कवि सुखिया के पिता की तरफ़ से सवाल दागते हुए कहते हैं कि

ऐ, क्या मेरा कलुष बड़ा है, देवी की गरिमा से भी
किसी बात में हूँ मैं आगे, माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा!


इस कविता को अंत तक पढ़ते हुए गला रूँध सा जाता है और आवाज़ जवाब दे जाती है। फिर भी मैंने एक कोशिश की है सुनियेगा और बताइएगा कि क्या ये कविता आपके दिल को झकझोरने में सफल हुई?  कम से कम मुझे तो ऐसा ही महसूस हुआ इसे पढ़ते हुए..




उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ, हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो, फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का, करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में, हाहाकार अपार अशान्त।

बहुत रोकता था सुखिया को, ‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका, नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था, बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ, किसी भांति इस बार उसे।

भीतर जो डर रहा छिपाये, हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को, ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह, क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको, किसने तुझे बताया यह
किसके द्वारा, कैसे तूने. भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा! मन्दिर में जाने देगा
देवी का प्रसाद ही मुझको, कौन यहाँ लाने देगा?


बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!, पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे, धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा!, हुई तप्त अंगार-मयी
प्रति पल बढ़ती ही जाती है, विपुल वेदना, व्यथा नई।


मैंने कई फूल ला लाकर, रक्खे उसकी खटिया पर
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको, किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब, बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया, शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की, चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से, हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा, कब आई सन्ध्या गहरी।

सभी ओर दिखलाई दी बस, अन्धकार की ही छाया
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने, कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में, जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें, जगमग जगते तारों से।

देख रहा था - जो सुस्थिर हो, नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी, अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं, उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर!

हे माते:, हे शिवे, अम्बिके, तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह, हाय! न मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी, हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर, साँसों में ही हाय यहाँ!

अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही, है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण, मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी, विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जाएगी, तेरे श्री-मन्दिर को छूत?

किसे ज्ञात, मेरी विनती वह, पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा, पार न मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात, क्या अक्ष्यता का, पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर, प्रलय-घटा सी छाई तू!

पग भर भी न बढ़ी आगे तू, डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी, सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं, तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू, बोल, बोल, कुछ तो बेटी!

वह चुप थी, पर गूँज रही थी, उसकी गिरा गगन-भर भर
‘मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल तुम दो लाकर!’
“कुछ हो देवी के प्रसाद का, एक फूल तो लाऊँगा
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही, मन्दिर को मैं जाऊँगा।

तुझ पर देवी की छाया है, और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में, रोक सकेगा कौन मुझे।”
मेरे इस निश्चल निश्चय ने, झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से, रंजित भाल नभस्थल का!

झड़-सी गई तारकावलि थी, म्लान और निष्प्रभ होकर
निकल पड़े थे खग नीड़ों से, मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर, निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो, सलिल-सुधा से तनु को सींच।

उज्वल वस्र पहन घर आकर, अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से, सजली पूजा की थाली।
सुखिया  के सिरहाने जाकर, मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी, मुरझा-सा था पड़ा हुआ।

मैंने चाहा - उसे चूम लें, किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर, खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा, जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा! कर न सकी मुझको मुद-मग्न।

अक्षम मुझे समझकर क्या तू, हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में, आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही, बोल उठा तब धीरज धर
तुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल तो दूँ लाकर!

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर, मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे, पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की, ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था, कल-कल मधुर गान कर-कर।

पुष्प-हार-सा जँचता था वह, मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी, पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था, मन्दिर का आंगन सारा
गूँज रही थी भीतर-बाहर, मुखरित उत्सव की धारा।

भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से, गाते थे सभक्ति मुद-मय -
“पतित-तारिणि पाप-हारिणी, माता, तेरी जय-जय-जय!”
“पतित-तारिणी, तेरी जय-जय” -मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को, जानें किस बल से ढिकला!

माता, तू इतनी सुन्दर है, नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की, कैसी विधि यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से, तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह, श्री-चरणों तक आया है।

मेरे दीप-फूल लेकर वे, अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब, आगे को अंजलि भरके
भूल गया उसका लेना झट, परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये, पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से, नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - “कैसे, यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जावे, बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किए है, भले मानुषों जैसा!

पापी ने मन्दिर में घुसकर, किया अनर्थ बड़ा भारी
कुलषित कर दी है मन्दिर की, चिरकालिक शुचिता सारी।”
ऐ, क्या मेरा कलुष बड़ा है, देवी की गरिमा से भी
किसी बात में हूँ मैं आगे, माता की महिमा से भी?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा!

कुछ न सुना भक्तों ने, झट से, मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार-मार कर मुक्के-घूँसे, धम-से नीचे गिरा दिया!

मेरे हाथों से प्रसाद भी, बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक, कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो, मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस, यह एक फूल कोई भी, दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गए मुझे वे, सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे, देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह, शीश झुकाकर चुप ही रह
उस असीम अभियोग, दोष का, क्या उत्तर देता; क्या कह?

सात रोज ही रहा जेल में, या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी, आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - “अरे मूर्ख, क्यों ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी, दूर न था गिरजाघर भी।”

कैसे उनको समझाता मैं, वहाँ गया था क्या सुख से
देवी का प्रसाद चाहा था, बेटी ने अपने मुख से।
दण्ड भोग कर जब मैं छूटा, पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई, भय-जर्जर तनु पंजर को।

पहले की-सी लेने मुझको, नहीं दौड़ कर आई वह
उलझी हुई खेल में ही हा! अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही, गया दौड़ता हुआ वहाँ
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही, फूँक चुके थे उसे जहाँ।

बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर, छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची, हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी, तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी, तुझको दे न सका मैं हा!

वह प्रसाद देकर ही तुझको, जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के, दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह, कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का, सभी विभव  मैं हर लेता?

यहीं चिता पर धर दूँगा मैं, - कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही लाकर दो!


(मृतवत्सा – जिस माँ की संतान मर गई हो, दुर्दांत – जिसे दबाना या वश में करना करना हो, कॄश – कमज़ोर, रव – शोर , तनु - शरीर• स्वर्ण घन - सुनहले बादल,  तिमिर – अंधकार, विस्तीर्ण – फैला हुआ, रविकर जाल - सूर्य किरणों का समूह, अमोदित - आनंदपूर्ण, ढिकला - ठेला गया, सिंह पौर - मंदिर का मुख्य द्वार, परिधान - वस्त्र,• शुचिता – पवित्रता, सरसिज – कमल , अविश्रांत – बिना थके हुए , प्रभात सजग - हलचल भरी सुबह।)

गुरुवार, दिसंबर 01, 2016

ऐ ज़िंदगी गले लगा ले : क्यूँ तकलीफ़ हुई थी गुलज़ार को ये गीत रचने में? Aye Zindagi Gale Laga Le...

पुरानी फिल्मों के गीतों को नए मर्तबान में लाकर फिर पेश करने का चलन बॉलीवुड में कोई नया नहीं है। मूल गीतों की गुणवत्ता से अगर इन नए गीतों की तुलना की जाए तो ये उनके सामने कहीं नहीं ठहरते। पर नए लिबासों में इन गीत ग़ज़लों के आने से एक फ़ायदा ये जरूर रहता है कि हर दौर के संगीतप्रेमी उन पुराने गीतों से फिर से रूबरू हो जाते हैं। अब कुछ साल पहले की तो बात है। मेहदी हसन साहब की ग़ज़ल गुलो में रंग भरे को हैदर में अरिजीत ने गाकर उसमें लोगों की दिलचस्पी जगा दी थी। 


फिलहाल तो "वज़ह तुम हो" की वज़ह से हमें किशोर दा का सदाबहार नग्मा पल पल दिल के पास तुम रहती हो बारहा सुनाई दे रहा है तो वहीं "डियर ज़िंदगी" हमें इलयराजा, गुलज़ार और सुरेश वाडकर के कालजयी गीत ऐ ज़िंदगी गले लगा ले......  की याद दिला रही है।

गुलज़ार और इलयराजा
क्या प्रील्यूड्स और इंटरल्यूड्स रचे थे इस गीत के इलयराजा ने। पश्चिमी वाद्य के साथ सितार का बेहतरीन मिश्रण किया था उन्होंने संगीत संयोजन में । सदमा तो 1983 में पर्दे पर आई थी पर इसके एक साल पहले निर्देशक बालू महेन्द्रू इसका तमिल रूप मूंदरम पिरई ला चुके थे। पर आश्चर्य की बात ये है कि तमिल वर्सन में इस धुन का आपको कोई गीत नहीं मिलेगा। 

ऍसा कहा जाता है कि मूल तमिल गीत Poongatru Puthidanadhu के लिए जब हिंदी अनुवाद की बात आई तो गुलज़ार को उसके मीटर पर गीत लिखने में मुश्किल हुई। फिर निर्णय लिया गया कि इसके लिए एक नई धुन बनेगी। इलयराजा की धुन कमाल की थी पर गुलज़ार को इसके लिए ख़ुद काफी पापड़ बेलने पड़े थे। ख़ुद उनके शब्दों में..
"बड़ी इन्ट्रिकेट थी इस गीत की स्कैनिंग। मूल तमिल गीत के मीटर को पकड़ना था। गाने के म्यूजिक में टिउऊँ सा आता था  ऐ ज़िंदगी गले लगा ले..टिउऊँ 😆😆 । उसके नोट्स कुछ वैसे थे। मुझे कुछ नहीं सूझा तो वहाँ पर मैंने लफ़्ज़ "है ना" डाल  दिया। अब मुझे लगा पता नहीं इलयराजा को वो पसंद आएगा या नहीं पर उन्होंने दो मिनटों में ऊपर का म्यूजिक बदल कर है ना को अपनी धुन के मुताबिक कर लिया।"

बड़ी संवेदनशील फिल्म थी सदमा और उसके गीत भी। मुझे लगता है कि आज इस गीत को एक क्लासिक का दर्जा मिला है तो वो इसके मुखड़े की वज़ह से। इंसानों से भरी इस दुनिया भी हमें कभी बेगानियत का अहसास दिला जाती है। बड़े अकेले अलग थलग पड़ जाते हैं हम और तब लगता है कि ये ज़िंदगी हमें थोड़ी पुचकार तो ले। कोई राह ही दिखा दे, किसी रिश्ते का किनारा दिला दे...

ऐ ज़िंदगी गले लगा ले
हमने भी तेरे हर इक ग़म को
गले से लगाया है......  है ना

हमने बहाने से, छुपके ज़माने से
पलकों के परदे में, घर भर लिया 
तेरा सहारा मिल गया है ज़िंदगी

छोटा सा साया था,  आँखों में आया था
हमने दो बूंदो से मन भर लिया 
हमको किनारा मिल गया है ज़िंदगी


तो आइए सुनें ये गीत सुरेश वाडकर की आवाज़ में. 



डियर ज़िंदगी में इस गीत के मुखड़े और पहले अंतरे का इस्तेमाल किया है अमित त्रिवेदी ने। पर अरिजीत की आवाज़ में ये गीत भला ही लगता है अगर आप इंटरल्यूड्स में ड्रम और स्ट्रिंग के शोर को नज़रअंदाज़ कर दें तो। वैसे इस गीत को अमित ने अलिया भट्ट से भी गवाया है। तो आपको मैं अरिजीत का वो वर्सन सुनवा रहा हूँ जिसमें इंटरल्यूड्स हटा दिए गए हैं। ये रूप शायद मेरी तरह आपको भी अच्छा लगे।

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
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Madhushala
कसप Kasap
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उर्दू की आख़िरी किताब
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