शनिवार, जून 25, 2016

तेरे बिन मेरे होने का मतलब कुछ-कुछ ऐसा ही है... रमेश गौड़ Tere Bin by Ramesh Gaud

रमेश गौड़ को मैं नहीं जानता। कुछ दिन पहले व्हाट्सएप पर उनकी ये कविता एक मित्र ने भेजी और जी एकदम से उसे पढ़कर उदास हो गया। पता नहीं रमेश जी ने किसको सोचकर ये कविता लिखी होगी. पर इसमें उन सब लोगों का दर्द है जो अपनी छाया से दूर हैं। हम उसी व्यक्तित्व से तो जुड़ते हैं या जोड़ने की सोचते हैं जिसमें हमें अपना अक्स नज़र आता है या फिर ऐसी बात नज़र आती है जो हममें भले ना हो पर हम वैसा होना चाहते हैं। बरसों हम इसी काल्पनिक छाया के सपनों में डूबते उतराते रहते हैं। कभी तो ये कल्पना ज़िदगी की आपा धापी में दब सी जाती है तो कभी उस शख्स से सचमुच ही मिला देती है।
नेपथ्य में ताकती दो आँखें कुछ खोज रही हों जैसे, चित्र सोनमर्ग, जम्मू एवम् कश्मीर

अब ये छाया आभासी है या वास्तविक इससे क्या फर्क पड़ता है। उससे दूरी तो हमेशा ही खटकती है। अपनी छाया के बिना हम पूर्ण ही तो नहीं हो पाते। रमेश गौड़ इसी अपूर्णता को कुछ खूबसूरत और अनसुने से बिंबों में बाँटते हैं। कविता में मुझे विशेष रूप से संख्या के पीछे हटती इकाई, और बरसों बाद आई चिट्ठी के धुल जाने की बात दिल को छू गई। लगा कि जो उदासी इसे पढ़ने से मन में छाई है उसे तभी निकाल पाऊँगा जब इसे एक बार मन से पढ़ दूँ..


जैसे सूखा ताल बच रहे या कुछ कंकड़ या कुछ काई
जैसे धूल भरे मेले में चलने लगे साथ तन्हाई,
तेरे बिन मेरे होने का मतलब कुछ-कुछ ऐसा ही है
जैसे सिफ़रों की क़तार बाक़ी रह जाए बिन इकाई ।

जैसे ध्रुवतारा बेबस हो, स्याही सागर में घुल जाए
जैसे बरसों बाद मिली चिट्ठी भी बिना पढ़े धुल जाए,
तेरे बिन मेरे होने का मतलब कुछ-कुछ ऐसा ही है
जैसे लावारिस बच्चे की आधी रात नींद खुल जाए ।

जैसे निर्णय कर लेने पर मन में एक दुविधा  रह जाए
जैसे बचपन की क़िताब में कोई फूल मुँदा रह जाए,
मेरे मन पर तेरी यादें अब भी कुछ ऐसे अंकित  हैं
जैसे खंडहर  पर शासक का शासन-काल खुदा रह जाए...


रमेश गौड़ से अगर मेरे पाठकों में कोई परिचित हो तो जरूर मुझे आगाह करे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानकर मुझे खुशी होगी...

गुरुवार, जून 16, 2016

हिज्रे यारां ना सता बेवज़ह, बन गया तू क्यूँ वज़ह, बेवज़ह Bewajah

नबील शौक़त अली को क्या आप जानते हैं? मैं तो बिल्कुल नहीं जानता था। आपको याद है रियालटी शो के उस दौर में हर चैनल  चार पाँच  साल पहले गीत संगीत की प्रतियोगिता को अलग अलग रूप रंग से सजा रहा था। कलर्स ने सोचा कि जिस तरह क्रिकेट के मैदान पर भारत पाकिस्तान का आमना सामना लोगों को उत्साहित कर देता है वैसे ही संगीत की सरज़मीं पर दोनों मुल्क के कलाकार जब भिड़ेंगे तो शो का हिट होना पक्का है। कार्यक्रम का नाम रखा गया सुर क्षेत्र।  पर संगीत जब युद्ध की ताल ठोकने का सबब बन जाए तो फिर वो संगीत कैसा? लिहाज़ा कार्यक्रम के प्रोमो में हीमेश रेशमिया व आतिफ़ असलम का नाटकीय अंदाज़ में रणभेरी बजाना मुझे ख़ल गया और आशा, आबिदा व रूना लैला जैसे दिग्गज जूरी के रहते भी मैं इस कार्यक्रम को देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। 



यही वज़ह थी कि नबील शौक़त अली जिन्होंने कार्यक्रम में हो रही ड्रामेबाजी के बीच इस ख़िताब को अपने नाम कर लिया, की आवाज़ से मैं अनजाना ही रह गया। लाहौर में जन्मे 27 वर्षीय नबील को संगीत का शौक़ बचपन से था। घर में संगीत का माहौल था। पिता हारमोनियम में प्रवीण थे तो बड़े भाई गायिकी में । गायिकी का चस्का नबील को टीवी शो में किस्मत आज़माने के लिए प्रेरित कर गया। पाकिस्तानी टीवी के कुछ रियालिटो शो को जीतने के बाद उन्होंने सुर क्षेत्र में हिस्सा ले के अपनी विजय का सिलसिला ज़ारी रखा। पर उनकी आवाज़ को सुनने का मौक़ा मुझे तब मिला जब कुछ  ही दिन पहले एक मित्र ने कोक स्टूडियो के आठवें सत्र की इस प्रस्तुति को साझा किया। यकीन मानिये एक ही बार सुनकर मन इस गीत से बँध सा गया।

इस गीत को गाने के साथ साथ नबील ने इसे संगीतबद्ध भी किया है। गीतकार बाबर शौक़त हाशमी के बोल सहज पर दिल को छू लेने वाले हैं। पर जिस तरह अपनी गायिकी और संगीत रचना से उन्होंने इस ग़ज़ल में चार चाँद लगाए हैं उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। गिटार और ड्रम्स तो कोक स्टूडियो की हर प्रस्तुति का अहम हिस्सा होते हैं पर इंटरल्यूड्स में कानों में शहद की मिठास भरती बाँसुरी और दिल को बहलाते तबले की थाप मन को सुकून से भर देती है !

किसी को याद करने की कोई वज़ह नहीं होती खासकर जब वो शख्स आपको प्यारा लगने लगे। फिर  तो वक़्त बेवक़्त ही वो आपके दिल के किवाड़ों में दस्तक देने लगता है। रिश्ता बना..वक़्त के हाथों बिगड़ गया। दिमाग ने सारी दीवारें खींच दीं और इस अहसास से अपने आप को संतुष्ट कर लिया कि लो मैंने तुम्हें भुला दिया। नादान था वो जो मोहब्बत को इन सींखचों में बाँधने की सोच बैठा। 

अब वो कहाँ जानता था कि कुछ भी करो , कितने भी व्यस्त रहो. अनायास ही ये दिल सींखचों के बीच उड़ता हुआ उन यादों के भँवर में डूब सा जाता है।  वो भी बिना किसी वज़ह के। 

तो आइए आज बेवज़ह ही सुने शौक़त आज़मी की इन भावनाओं को शौक़त अली की आवाज़ में.. :)


हिज्रे यारां ना सता बेवज़ह
बन गया तू क्यूँ वज़ह, बेवज़ह

दिल से कह वक़्त रुक जा पागल
चल पड़ा  करने ये वफ़ा बेवज़ह

मैं उसे भूल चुका भूल चुका
बात ऐ दिल ना बढ़ा बेवज़ह

नाम लेने का इरादा भी ना था
चल पड़ा जिक्र तेरा बेवज़ह

उनसे मिलने की वज़ह कोई नहीं
ढूँढता क्यूँ है वज़ह बेवज़ह



 

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