गुरुवार, जून 22, 2017

मैकदे बंद करे लाख ज़माने वाले.. शहर में कम नहीं आँखों से पिलाने वाले Maikade Band Kare

बाहर बारिश की झमाझम है और मन भी थोड़ा रिमझिम सा हो रहा है तो सोच रहा हूँ कि क्यूँ ना आज आपको हरिहरण साहब की गायी वो हल्की फुल्की पर बेहद मधुर ग़ज़ल सुनाऊँ जिसके कुछ अशआर कुछ दिनों से मन में तरलता सी घोल रहे हैं।


हरिहरण ने ये ग़ज़ल अपने एलबम काश में वर्ष 2000 में रिकार्ड की थी। 'काश' उस समय तक के हरिहरण के एलबमों से थोड़ी भिन्नता लिए जरूर था। सामान्यतः हरिहरण ग़ज़लों में हमेशा से अपनी शास्त्रीयता के लिए जाने जाते रहे हैं। ग़ज़ल में परंपरागत रूप से इस्तेमाल होने वाले वाद्य यंत्रों जैसे हारमोनियम, सारंगी और तबले के साथ हरिहरण का आलाप आपने भी कई ग़ज़लों में सुना होगा। पर जगजीत सिंह की तरह ही वक़्त के साथ उन्होंने भी कई एलबमों में नए नए प्रयोग करने की कोशिश की। जनवरी 1999 से इस एलबम की तैयारी शुरु हुई पर इसे बनने में पूरा एक साल लग गया। बकौल हरिहरण

"मुझे इस एलबम को पूरा रिकार्ड करने में इतना समय इसलिए लगा क्यूँकि इन ग़ज़लों को मैं उस आवाज़ व संगीत के साथ पेश करना चाहता था जो वर्षों से मेरे मन में रच बस रही थी। आप इसे आज के प्रचलित वाद्यों के साथ कविता और ठेठ गायिकी का मिश्रण मान सकते हैं।"

हरिहरण ने अपने इस प्रयोग को तब Urdu Blues की संज्ञा दी थी। अब ये एलबम उस वक़्त सराहा तो गया था पर इतना भी नहीं कि इसे हरिहरण के सर्वोत्तम एलबमों में आँका जा सके। इसका एक कारण हरिहरण की चुनी हुई कुछ ग़ज़लों में शब्दों की गहराई का ना होना भी था।

ख़ैर एलबम की कुछ पसंदीदा ग़ज़लों में एक थी मैकदे बंद करे लाख जमाने वाले. जिसे मैं आज आपको सुनवाने जा रहा  हूँ। गिटार और बांसुरी के साथ उस्ताद रईस खान का सितार मन को तब चंचल कर देता है जब  ग़ज़ल के मतले में हरिहरण की आवाज़ कुछ ये कहती सुनाई पड़ती है

मैकदे बंद करे लाख ज़माने  वाले
शहर में कम नहीं आँखों से पिलाने वाले

सच ही तो है , जिसने भी हुस्न और  शोखियों का स्वाद उनकी आँखों के पैमाने से पिया है उसे भला मयखाने जाने की क्या जरूरत?

मतले के बाद का शेर  सुनकर तो बस आह ही उभरती है, कोई पुरानी कसक याद दिला ही जाता है ये नामुराद शेर

काश मुझको भी लगा ले तू कभी सीने से
मेरी तस्वीर को सीने से लगाने वाले

ग़ज़ल का अगला शेर सुनने के पहले आप घटम और सितार की मधुर जुगलबंदी सुन सकते हैं। वैसे इस एलबम में ड्रम्स या घटम जैसे ताल वाद्यों को बजाया  था मशहूर ड्रमर शिवमणि ने ।

हम यकीं आप के वादे पे भला कैसे करें
आप हरगिज़ नहीं हैं वादा निभाने वाले

इस ग़ज़ल को किसने लिखा ये ठीक ठीक पता कर पाना मुश्किल है। कुछ लोग इसे ताज भोपाली की ग़ज़ल बताते हैं। पर हरिहरण साहब ने एक जगह जरूर ये कहा था कि मैंने इस एलबम में ताहिर फ़राज़, मुन्नवर मासूम, मुजफ्फर वारसी, वाली असी, कैफ़ भोपाली, शहरयार और क़ैसर उल जाफ़री की ग़ज़लें ली थीं। अब इनमें से जिन जनाब की भी ये ग़ज़ल हो आख़िरी शेर में सादी जुबां में ज़िदगी की एक हकीक़त ये कह कर बयाँ की है कि

अपने ऐबों पर नज़र जिनकी नहीं होती है
आईना उनको दिखाते हैं ज़माने वाले

तो आइए इस बरसाती मौसम में आप भी मेरे साथ इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाइए...

रविवार, जून 11, 2017

अम्बर की एक पाक सुराही : आख़िर क्यूँ था कुफ्र चाँदनी का घूँट पीना? Amber Ki Ek Paak Surahi

कुछ गीत बेहद गूढ़ होते हैं। जल्दी समझ नहीं आते। फिर भी उनकी धुन, उनके शब्दों में कुछ ऐसा होता है कि वो बेहद अच्छे लगते हैं।  जब जब चाँद और चाँदनी को लेकर कुछ लिखने का मन हुआ मेरे ज़हन में अमृता प्रीतम की लिखी हुई ये पंक्तियाँ सबसे पहले आती रहीं अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर, घूंट चाँदनी पी है हमने। सन 1975 में आई फिल्म कादंबरी  के इस गीत का मुखड़ा अपने लाजवाब रूपकों और मधुर धुन की वज़ह से हमेशा मेरा प्रिय रहा। पर इस गीत से मेरा नाता इन शब्दों के साथ साथ रुक सा जाता था क्यूँकि मुझे ये समझ नहीं आता था कि  आसमान की सुराही से मेंघों के प्याले में चाँदनी भर उसे चखने का इतना खूबसूरत ख़्याल आख़िर कुफ्र यानि पाप कैसे हो सकता है? तब मुझे ना इस बात की जानकारी थी कि कादम्बरी अमृता जी के उपन्यास धरती सागर और सीपियाँ पर आधारित है और ना ही मैंने कादम्बरी फिल्म देखी थी।

कुछ दिनों पहले इस किताब का अंश हाथ लगा तो पता चला कि किताब में ये गीत कविता की शक़्ल में था और कविता के शब्द कुछ यूँ थे..

अम्बर की एक पाक सुराही,
बादल का एक जाम उठा कर
घूँट चाँदनी पी है हमने

हमने आज यह दुनिया बेची
और एक दिन खरीद के लाए
बात कुफ़्र की की है हमने

सपनो का एक थान बुना था
गज एक कपडा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी है हमने

कैसे इसका कर्ज़ चुकाएं
माँग के अपनी मौत के हाथों
यह जो ज़िन्दगी ली है हमने

कुफ्र की बात यहाँ भी थी। यानि ऐसा पाप जिसे ऊपरवाला करने की इजाज़त नहीं देता। कविता को गीत में पिरोते हुए अमृता ने काफी परिवर्तन किए थे पर मूल भाव वही था। गीतों के बोलों के इस रहस्य को समझने के लिए फिल्म देखी और तब अमृता के बोलों की गहराई तक पहुँचने का रास्ता मिल पाया...


फिल्म का मुख्य किरदार चेतना का है जो बालपन से अपने साथी अमित के प्रेम में गिरफ्तार हो जाती है। अमित भी चेतना को चाहता है पर उसके माथे पर नाजायज़ औलाद का एक तमगा लगा है। वो सोचता है कि उसकी माँ ने उसके लिए जो दुख सहे हैं उनकी भरपाई वो बिना पत्नी और माँ में अपना प्रेम विभाजित किए हुए ही कर सकता है। चेतना अमित के निर्णय को स्वीकार कर  लेती है पर उसे लगता है कि उसका अस्तित्व अमित की छाया के बिना अधूरा है। वो अमित के साथ नहीं रह सकती तो क्या हुआ वो उसके अंश के साथ तो जीवन जी ही सकती है। इसके लिए वो अपने मन के साथ ही अपना तन भी हिचकते नायक को न्योछावर कर देती है। चेतना के लिए ये अर्पण चाँदनी के घूँट को पी लेना जैसा निर्मल है पर समाज के संस्कारों के पैमाने में तो एक कुफ्र ही है ना। इसलिए अमृता गीत के मुखड़े में लिखती हैं..

अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर
घूंट चाँदनी पी है हमने, बात कुफ़्र की, की है हमने

पर ये मिलन जिस नए बीज को जन्म देगा उसके लिए समाज के तंज़ तो चेतना को जीवन पर्यन्त सुनने को मिलेंगे। शायद यही कर्ज है या जीवन भर की फाँस जिसमें लटकते हुए अपने प्रेम की पवित्रता की गवाही देनी है उसे

कैसे इसका कर्ज़ चुकाएँ,
मांग के अपनी मौत के हाथों
उम्र की सूली सी है हमने,
बात कुफ़्र की, की है हमने
अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर...

अमृता की नायिका दूसरे अंतरे मे दार्शनिकता का लबादा ओढ़ लेती हैं और कहती है कि प्यार तो जिससे होना है होकर ही रहता है। हम लाख चाहें हमारा वश कब चलता है अपने मन पर? जिस दिन से मैंने इस संसार में कदम रखा है उसी दिन से ये दिल उस की अमानत हो चुका था। फिर मैंने तो बस उसका सामान उसे सौंपा भर है। अगर चाँदनी जैसे शीतल व  स्निग्ध प्रेम का रसपान करना जुर्म है तो हुआ करे।

अपना इसमे कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं है
रोज़-ए-अज़ल से उसकी अमानत,
उसको वही तो दी है हमने,
बात कुफ़्र की, की है हमने
अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर..


इस प्यारे से गीत का संगीत संयोजन किया था मशहूर सितार वादक उस्ताद विलायत खाँ साहब ने। अपने पूरे जीवन में उन्होंने तीन बार ही फिल्मों में संगीत संयोजन किया। कादंबरी में दिया उनका संगीत हिन्दी फिल्मों के लिए पहला और आख़िरी था। इसके पहले वे सत्यजीत रे की फिल्म जलसा घर और अंग्रेजी फिल्म गुरु के लिए संगीत दे चुके थे।

गीत सुनते वक़्त विलायत खाँ साहब के मुखड़े के पहले के संगीत संयोजन पर जरूर ध्यान दीजिएगा। संतूर से गीत की शुरुआत होती है और फिर गिटार के साथ सितार के समावेश के बीच आशा जी की मधुर आवाज़ में आलाप उभरता है। इंटरल्यूड में गिटार का साथ बाँसुरी देती है।  इस गीत से जुड़े सारे वादक अपने अपने क्षेत्र के दिग्गज रहे हैं। संतूर बाँसुरी पर शिव हरि की जोड़ी तो गिटार पर खूद भूपेंद्र और इन सब के बीच आशा जी की खनकती बेमिसाल आवाज़ सोने में सुहागा का काम करती है।

वैसे चलते चलते आपको एक और रिकार्डिंग भी दिखा दी जाए जिसमें  यही गीत जी टीवी के सारेगामा कार्यक्रम में सोनू निगम जजों के समक्ष गाते हुए दिख जाएँगे।

 

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