गुरुवार, दिसंबर 14, 2017

किसे पेश करूँ : जब साहिर ने मदन मोहन के लिए लिखे एक ही रदीफ़ पर तीन नग्मे Kise Pesh Karoon ?

ग़ज़लों को संगीतबद्ध करने में अगर किसी संगीतकार को सबसे ज्यादा महारत हासिल थी तो वो थे मदन मोहन। ग़ज़लों के सानिध्य में वो कैसे आए इसके लिए आपको उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में एक बार झाँकना होगा। मदन मोहन के पिता इराक के पुलिस विभाग में मुनीम थे। बगदाद में ही मदन मोहन का जन्म हुआ। पर जब इराक अंग्रेजों के चंगुल से निकल आजाद हुआ, मदनमोहन का परिवार बगदाद से पहले लाहौर और फिर मुंबई आ कर बस गया। 

मदन मोहन के पिता तो उस वक्त बाम्बे टॉकीज़ में नौकरी करने लगे वहीं मदन मोहन ने पढ़ाई के बाद फौज में जाना मुनासिब समझा। पर संगीत के प्रति बचपन से रुझान रखने वाले मदन मोहन को लगा कि उन्होंने अपने व्यवसाय का गलत चुनाव कर लिया है। लिहाजा फौज की नौकरी से इस्तीफा दे कर उन्होंने संगीत से जुड़कर काम करने के लिए लखनऊ की राह पकड़ी। वो वहाँ आल इंडिया रेडियो  में सहायक संगीत संयोजक का काम करने लगे। यहीं उनकी मुलाकात ग़ज़ल गायिका बेगम अख्तर और उभरते हुए गायक तलत महमूद से हुई। यही वो समय था जब ग़ज़लों को करीब से सुनने व परखने का मौका मदन मोहन को नजदीक से मिला।


यूँ तो एक शाम मेरे नाम पर मदन मोहन की संगीतबद्ध कई ग़ज़लों का जिक्र हो चुका है पर आज आपसे मैं बात करना चाहूँगा 1964 में प्रदर्शित हुई एक ऐसी फिल्म की जिसका नाम ही "ग़ज़ल" था। आगरे की सरज़मी पर रची इस कहानी में गीतों को लिखने का जिम्मा मिला था साहिर लुधियानवी को। मिलता भी ना कैसे? कहानी का नायक ही शायर जो  था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक जैसी बहर, रदीफ़ और काफिये के साथ साहिर ने इस फिल्म में दो ग़ज़लें और एक गीत लिखा। साहिर ने इन तीनों में रदीफ़ के तौर पर "किसे पेश करूँ" का इस्तेमाल किया। पर ये मदन मोहन साहब की कारीगिरी थी कि इन मिलते जुलते गीतों के लिए उन्होंने ऐसी धुन तैयार की वो सुनने में बिल्कुल अलग अलग लगते हैं।

सुनील दत्त और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत इस प्रेम कहानी का खाका ये तीनों नग्मे खींचते से चलते हैं। जहाँ नायिका पहली ग़ज़ल में  हमदम की तलाश में अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रही हैं तो दूसरी ग़ज़ल में उनकी गायिकी से प्रभावित होकर शायर महोदय अपने दिल में पैदा हुई हलचल की कहानी पेश कर रहे हैं। वहीं अपनी प्रेमिका से ना मिल पाने की तड़प इसी फिल्म के अन्य गीत रंग और नूर की बारात किसे पैश करूँ..  में नज़र आती है। रंग और नूर की बारात .. तो इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय नग्मा रहा पर उसी मीटर में साहिर ने जो दो ग़ज़लें लिखी वो कम खूबसूरत नहीं थीं। तो आइए सुनें इन दोनों ग़ज़लों को लता और रफ़ी की आवाज़ में

नग़्मा-ओ-शेर की सौगात किसे पेश करूँ
ये छलकते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ

शोख़ आँखों के उजालों को लुटाऊँ किस पर
मस्त ज़ुल्फ़ों की स्याह रात किसे पेश करूँ

गर्म सांसों में छुपे राज़ बताऊँ किसको
नर्म होठों में दबी बात किसे पेश करूँ

कोइ हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ




साहिर के खूबसूरत बोलों से मुझे सबसे ज्यादा न्याय लता की आवाज़ करती है। वैसे भी लता दी ने मदन मोहन के लिए जो गीत गाए उनकी अदाएगी बेमिसाल रही।

 

इश्क़ की गर्मी-ए-जज़्बात किसे पेश करूँ
ये सुलग़ते हुए दिन-रात किसे पेश करूँ

हुस्न और हुस्न का हर नाज़ है पर्दे में अभी
अपनी नज़रों की शिकायात किसे पेश करूँ

तेरी आवाज़ के जादू ने जगाया है जिन्हें
वो तस्सव्वुर, वो ख़यालात किसे पेश करूँ

ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल, ऐ मेरी ईमान-ए-ग़ज़ल
अब सिवा तेरे ये नग़मात किसे पेश करूँ

कोई हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ

जहाँ तक रंग और नूर की बारात किसे पैश करूँ. का ताल्लुक है तो उस गीत का दर्द रफ़ी की आवाज़ में पूरी ईमानदारी से झलका था।  वैसे इन तीनों में आपको कौन सी ग़ज़ल/ गीत प्यारा लगता है?
 

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