रविवार, जून 10, 2018

आ अब लौट चलें … कैसे गूँजा शंकर जयकिशन का शानदार आर्केस्ट्रा? Aa Ab Laut Chalein

पुराने हिंदी फिल्मी गीतों में अगर आर्केस्ट्रा का किसी संगीतकार ने सबसे बढ़िया इस्तेमाल किया तो वो थे शंकर जयकिशन। हालांकि उनके समकालीनों में सलिल चौधरी और बाद के वर्षों में पंचम ने भी इस दृष्टि से अपने संगीत में एक अलग छाप छोड़ी। पर जिस वृहद स्तर पर शंकर जयकिशन की जोड़ी वादकों की फौज को अपने गानों के लिए इक्ठठा करती थी और जो मधुर स्वरलहरी उससे उत्पन्न होती थी उसकी मिसाल किसी अन्य हिंदी फिल्म संगीतकार के साथ मिल पाना मुश्किल है। शंकर जयकिशन का आर्केस्ट्रा ना केवल गीतों में रंग भरता था पर साथ ही इस तरह फिल्म के कथानक के साथ रच बस जाता था कि आप फिल्माए गए दृश्य से संगीत को अलग ही नहीं कर सकते थे।

मिसाल के तौर पर फिल्म  "जिस देश में गंगा बहती है" के इस सदाबहार गीत आ अब अब लौट चलें को याद कीजिए। 1960 में बनी इस फिल्म का विषय चंबल के बीहड़ों में उत्पात मचा रहे डाकुओं को समाज की मुख्यधारा में वापस लौटाने का था। इस फिल्म के निर्माता थे राज कपूर साहब। राजकपूर की फिल्म थी तो शंकर जयकिशन की जोड़ी के साथ शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मुकेश और लता जैसे कलाकारों का जुड़ना स्वाभाविक था। कुछ ही दिनों पहले सोशल मीडिया पर शैलेंद्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेंद्र ने इस फिल्म से जुड़ी एक रोचक घटना सब के साथ बाँटी थी। दिनेश शंकर शैलेंद्र के अनुसार
"राजकपूर ने फिल्म की पटकथा बताने के लिए शंकर, जयकिशन, हसरत और मुकेश को आर के स्टूडियो के अपने काटेज में बुलाया था। राजकपूर ने  फिल्म की कहानी जब सुनानी खत्म की तो कमरे में सन्नाटा छा गया। अचानक शंकर ने चाय का कप टेबल पर दे मारा और गाली देते हुए उस ठंडे, धुँए भरे कमरे से बाहर निकल गए। सारे लोग उनके इस व्यवहार पर चकित थे। फिर राजकपूर ने शैलेंद्र से कहा कि जरा देखो जा के आख़िर पहलवान* को क्या हो गया? कहानी पसंद नहीं आई? शैलेन्द्र शंकर के पास गए और उनसे पूछा कि मामला क्या है? शंकर ने गालियों की एक और बौछार निकाली और फिर कहा कि डाकुओं की फिल्म में भला संगीत का क्या काम है? बना लें बिन गानों की फिल्म, हमें यहाँ क्यूँ बुलाया है? शैलेंद्र ने उन्हें समझाया कि इस फिल्म में भी गाने होंगे। सब लोग वापस आए और कहानी के हिसाब से गीतों के सही स्थान पर विचार विमर्श हुआ और अंततः फिल्म के लिए नौ गाने बने।" 

(*संगीतकार बनने से पहले शंकर तबला बजाने के साथ साथ पहलवानी का हुनर भी रखते थे 😊।)



तो बात शुरु हुई थी शंकर जयकिशन की आर्केस्ट्रा पर माहिरी से। आ अब लौट चलें के लिए शंकर जयकिशन ने सौ के करीब वायलिन वादकों को जमा किया था। साथ में कोरस अलग से। हालत ये थी कि तारादेव स्टूडियो जहाँ इस गीत की रिकार्डिंग होनी थी में इतनी जगह नहीं बची थी कि सारे वादकों को अंदर बैठाया जा सके। लिहाजा कुछ को बाहर फुटपाथ पर बैठाना पड़ा था। कहा जाता है कि इस गीत कि रिहर्सल डेढ़ दिन लगातार चली और इसीलिए परिणाम भी जबरदस्त आया।

आर्केस्ट्रा में बजते संगीत को ध्यान में रखते हुए निर्देशक राधू कर्माकर ने गीत की रचना की थी। ये गीत फिल्म को अपने अंत पर ले जाता है जब फिल्म का मुख्य किरदार डाकुओं को आत्मसमर्पण करवाने के लिए तैयार करवा लेता है। गीत में एक ओर तो डाकुओं का गिरोह अपने आश्रितों के साथ लौटता दिख रहा है तो दूसरी ओर पुलिस की सशंकित टुकड़ी हथियार से लैस होकर डाकुओं के समूह को घेरने के लिए कदमताल कर रही है। निर्देशक ने पुलिस की इस कदमताल को वायलिन और ब्रास सेक्शन के संगीत में ऐसा पिरोया है कि दर्शक संगीत के साथ उस दृश्य से बँध जाते हैं। संगीत का उतर चढाव भी ऐसा जो दिल की धड़कनों के  साथ दृश्य की नाटकीयता को बढ़ा दे। वायलिन आधारित द्रुत गति की धुन और साथ में लहर की तरह उभरते कोरस को अंतरे के पहले तब विराम मिलता है जब हाथों से तारों को एक साथ छेड़ने से प्रक्रिया से शंकर जयकिशन हल्की मधुर ध्वनि निकालते हैं। इस प्रक्रिया को संगीत की भाषा में Pizzicato कहते हैं। इस गीत में Pizzicato का प्रभाव आप वीडियो के 39 से 45 सेकेंड के बीच में सुन सकते हैं।

गिटार की धुन के साथ गीत गीत आगे बढ़ता है।  मुकेश तो खैर राजकपूर की शानदार आवाज़ थे ही, अंतरों के बीच कोरस के साथ लता का ऊँचे सुरों तक जाता लंबा आलाप गीत का मास्टर स्ट्रोक था। इस गीत में लता जी की कोई और पंक्ति नहीं है पर ये आलाप इतनी खूबसूरती से निभाया गया है कि पूरे गीत के फिल्मांकन में जान फूँक देता है। गीतकार शैलेंद्र की खासियत थी कि वो बड़ी सहजता के साथ ऐसे बोल लिख जाते थे जो सीधे श्रोताओं के दिल को छू लेते थी। गलत राह पे चलने से नुकसान की बात हो या समाज द्वारा इन भटके मुसाफ़िरों को पुनः स्वीकार करने की बात, अपने सीधे सच्चे शब्दों से शैलेंद्र ने गीत में एक आत्मीयता सी भर दी है। उनका दूसरे अंतरे में बस इतना कहना कि अपना घर तो अपना घर है आज भी घर से दूर पड़े लोगों की आँखों की कोरें गीला कर देगा।


आ अब लौट चलें, आ अब लौट चलें
नैन बिछाए बाँहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा
आ जा रे – आ आ आ

सहज है सीधी राह पे चलना
देख के उलझन बच के निकलना
कोई ये चाहे माने न माने
बहुत है मुश्किल गिर के संभलना
आ अब लौट चलें …

आँख हमारी मंज़िल पर है
दिल में ख़ुशी की मस्त लहर है
लाख लुभाएँ महल पराए
अपना घर फिर अपना घर है
आ अब लौट चलें …

इतना मधुर संगीत संयोजन करने के बाद भी ये गीत उस साल के फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए नामांकित नहीं हुआ। इसके संगीत संयोजन के बारे में शंकर जयकिशन पर आरोप लगा कि उनकी धुन उस समय रिलीज़ हुए इटालवी गीत Ciao Ciao Bambina से मिलती है। अगर आप वो गीत इटालवी में सुनें तो शायद ही आप इस साम्यता को पकड़ पाएँ। पर अलग से उस धुन सुनने के बाद तुझको पुकारे देश मेरा वाली पंक्ति गीत की धुन से मिलती दिखती है। पर इस हल्की सी प्रेरणा को नज़रअंदाज करें तो जिस तरह गीत को शंकर जयकिशन ने कोरस और लता के आलाप के साथ आगे बढ़ाया है वो उनके हुनर और रचनात्मकता को दर्शाता है।



शंकर जयकिशन कुछ शानदार गीतों की फेरहिस्त इस ब्लॉग पर आप यहाँ देख सकते हैं
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8 टिप्पणियाँ:

अभिषेक मिश्र on जून 11, 2018 ने कहा…

दिलचस्प जानकारी।

Manish Kumar on जून 11, 2018 ने कहा…

शुक्रिया 😊

Pratima Sharan on जून 15, 2018 ने कहा…

Bahut acha geet hai

Manish Kumar on जून 15, 2018 ने कहा…

हां,बिल्कुल।

Dilip Kawathekar on जून 15, 2018 ने कहा…

अद्भुत गीत। इन्ही हसीन देशप्रेम की संवेदनाओं से ओतप्रोत हम परदेस से लौटे।

गाईड पवन भावसार on जून 19, 2018 ने कहा…

शैलेन्द्र सेल्युलाइड के असीमित चितेरे रहे हैं ।
उनका कोई सानी नही ,
संगीत से बढ़कर शब्दों का परिचालन महत्वपूर्ण है यहॉं
शंकर जयकिशन मास्टर है पर यहाँ शब्द वज़नदार है

Manish Kumar on जून 23, 2018 ने कहा…

शैलेंद्र के शब्द तो सहज और दिल को छूने वाले हैं पवन और वो मैंने लिखा भी है। मेरी राय में जिस तरह संगीत को फिल्मांकन से गुंथा गया है, संगीत के उतार चढाव से कहानी की नाटकीयता को उभारा गया है वो इसे एक दूसरे स्तर पर ले जाता है।

Lori Ali ने कहा…

bahut khubsurat

 

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