शुक्रवार, जुलाई 27, 2018

जब नूरजहाँ की दिलकश आवाज़ का साथ मिला नासिर काज़मी की ग़ज़लों को.. Nasir Kazmi and Noor Jehan

पिछले हफ्ते आपको मैंने नूरजहाँ का गाया एक गीत सुनवाया था और ये वादा भी किया था कि उन्हीं की आवाज़ में मकबूल शायर नासिर काज़मी साहब की कुछ ग़ज़लों को आपके सामने लाऊँगा। नासिर साहब की पैदाइश पंजाब के अंबाला की थी। आजादी के बाद वो लाहौर जाकर बस गए। फिर पहले कुछ साल पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन का काम किया। बाद में वो रेडियो पाकिस्तान से भी जुड़े।

यूँ तो नासिर साहब की लिखी ग़ज़लों को लगभग हर बड़े फ़नकार ने गाया है पर मेरा उनकी शायरी से प्रथम परिचय गुलाम अली की वज़ह से अस्सी के दशक में हुआ। ये वो जमाना था जब कैसेट्स की जगह बाजार में एल पी रिकार्ड बिका करते थे। तब पैनासोनिक के टेपरिकार्डर भी नेपाल से मँगाये जाते थे। हमारे भी एक रिश्तेदार नेपाल से सटे बिहार के मोतिहारी जिले से ताल्लुक रखते थे। काम के सिलसिले में उनका नेपाल में आना जाना लगा रहता था। उन्हीं से कहकर हमारे घर में तब कुछ कैसेट्स मँगवाए गए थे। इनमें ज्यादातर कैसेट्स भारत और पाकिस्तानी कलाकारों द्वारा लंदन के रॉयल अलबर्ट हॉल में किये गए कार्यक्रमों के थे।


उसी में एक कैसेट था गुलाम अली साहब का था जिसमें अकबर इलाहाबादी की हंगामा हैं क्यूँ बरपा, मोहसीन नकवी की इतनी मुद्दत बाद मिले हो और आवारगी के साथ नासिर काज़मी साहब की मशहूर ग़ज़ल दिल में इक लहर सी उठी है अभी..कोई ताज़ा हवा चली है अभी.... भी शामिल थी। गुलाम अली ने अपने खास अंदाज़ में इस ग़ज़ल को यूँ गाया था मानो आवाज़ में लहरे उठ रही हों। छोटी बहर की ग़ज़लों में नासिर साहब को कमाल हासिल था। उनकी इस ग़ज़ल के चंद शेर जो मुझे बेहद पसंद आए थे वो थे

कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी

भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी

अस्सी के दशक में ही गुलाब अली साहब ने आशा जी के साथ मिल कर एलबम किया। एलबम का नाम था मेराज ए ग़ज़ल। एलबम की बारह ग़ज़लों में एक तिहाई पर नासिर काज़मी का नाम था। उस एलबम में नासिर साहब की जो ग़ज़ल सबसे ज्यादा बजी उसका मतला कुछ यूँ था गए दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो...अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो।  बड़ी बहर की इस ग़ज़ल में नासिर साहब ने जो शेर लिखे थे वो वाहवाही के हक़दार थे। अब देखिये एक ही ग़ज़ल में दो ऐसे शेर थे जो ख़्याल में एक दूसरे से बिल्कुल जुदा हैं। 

पहले शेर में आलम ये है कि नासिर साहब को ग़म और खुशी दोनों में अपने हमदम की यादें बेचैन करती थीं । बाग का हर फूल उसकी खुशबू की गवाही देता था। कानों में सुनाई देने वाला हर गीत मानो ऐसा लगता कि उसी के लिए लिखा गया हो।

ख़ुशी की रुत हो कि ग़म का मौसम नज़र उसे ढूँढती है हर दम
वो बू-ए-गुल था कि नग़मा-ए-जान मेरे तो दिल में उतर गया वो

वहीं एक अलग ही रंग सामने आ जाता है दूसरे शेर में जब वही प्रियतम यादों से उतरने लगता है। अब तो ना उसकी यादें परेशान करती हैं और ना ही उन उदास सावन की रुतों में उसका इंतज़ार खलता है। हाँ एक हल्की सी कसक दिल में उठती है जब उसका जिक्र आता है पर ये कसक अब कोई पीड़ा नहीं देती। कष्ट हो तो कैसे उसके दिए जख्म भर जो चुके हैं।

न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो

नासिर साहब को घुड़सवारी और शिकार तो भाते  थे ही उन्हें घूमने का भी बड़ा शौक था। गाँवों में विचरना, नदी के किनारे टहलना, पेड़ों और पंक्षियों को निहारना और पहाड़ों में वक़्त बिताना उन्हें खासा पसंद था। वे कहा करते थे कि यही वो वक़्त होता था जब वो प्रकृति के करीब होते और कविता हृदय में आकार लेती। प्रकृति के बदलते रूपों पर मनुष्य की कभी पकड़ तो रही नहीं पर उन गुजरते खूबसूरत लमहों को शब्दों के जाल में तो बाँधा जा ही सकता था। नासिर साहब ने इन्हीं पलों को क़ैद करने के लिए कविता लिखनी शुरु की।

ख़ैर हम बातें कर रहे थे उनकी ग़ज़लों की। नासिर साहब की लिखी एक ग़ज़ल जो उदासी के लमहों में हमेशा मेरे साथ होती थी वो थी दिल धड़कने का सबब याद आया .. वो तेरी याद थी अब याद आया। इसे  पहली बार मैंने पंकज उधास की आवाज़ में सुना था और तभी से इसका मतला जुबाँ पर चढ़  गया  था। बाद में इसे जब नूरजहाँ की दिलकश आवाज़ में सुना तो इस ग़ज़ल का दर्द और उभर आया। 

नासिर काज़मी की ग़ज़लों की खासियत उनका सरल लहजा है़। पर इस सरल लहजे में गहरी बात कहने का जो हुनर उनके पास था वो आप इन अशआरों में ख़ुद ही महसूस कर सकते हैं। जब किसी की याद बुरी तरह सताए तो बस इस ग़ज़ल के साथ अपने को बहा दीजिए, आँसुओं के साथ साथ दिल का खारापन भी जाता रहेगा।

दिल धड़कने का सबब याद आया 
वो तेरी याद थी अब याद आया 

आज मुश्किल था सम्भलना ऐ दोस्त 
तू मुसीबत में अजब याद आया 

दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से 
फिर तेरा वादा-ए-शब याद आया 

तेरा भूला हुआ पैमान-ए-वफ़ा 
मर रहेंगे अगर अब याद आया 

फिर कई लोग नज़र से गुज़रे 
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया 

हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन 
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया

बैठ कर साया-ए-गुल में "नासिर"
हम बहुत रोये वो जब याद आया 


यूँ तो इस ग़ज़ल को नूरजहाँ के आलावा गुलाम अली, जगजीत सिंह, आशा भोसले और पंकज उधास ने भी  गाया है पर जो असर नूरजहाँ की आवाज़ का है वो और कहीं नहीं मिलता।


नासिर साहब की लिखी और नूरजहाँ की गाई एक और मशहूर ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है। ये ग़ज़ल है नीयत-ए-शौक़ भर न जाये कही.....  तू भी दिल से उतर न जाये कहीं । दरअसल हम जिसे चाहते हैं उसे कोसते भी हैं तो कभी उसकी चिंता में घुलते रहते  हैं। ऐसे ही विपरीत मनोभावों को नासिर ने इस ग़ज़ल में जगह दी है। मतले में अपने प्रिय से जी भर जाने की बात करते हैं और फिर ये आरजू भी व्यक्त कर देते हैं कि प्रियतम जब लौट कर आए तो उन्हें छोड़ कर ना जाए। 


नीयत-ए-शौक़ भर न जाये कहीं 
तू भी दिल से उतर न जाये कहीं 

आज देखा है तुझे देर के बाद 
आज का दिन गुज़र न जाये कहीं 

न मिला कर उदास लोगों से 
हुस्न तेरा बिखर न जाये कहीं 

आरज़ू है के तू यहाँ आये 
और फिर उम्र भर न जाये कहीं 

आओ कुछ देर रो ही लें "नासिर"
फिर ये दरिया उतर न जाये कहीं


नासिर साहब की लिखी कोई और ग़ज़ल जो आपको पसंद हो तो बताएँ। मुझे जानकर खुशी होगी।

सोमवार, जुलाई 09, 2018

जो न मिल सके वही बेवफा, ये बड़ी अजीब सी बात है Jo Na Mil Sake Wahi Bewafa

पिछले हफ्ते मशहूर शायर नासिर काज़मी की कुछ ग़ज़लें तलाश कर रहा था कि भटकते भटकते इस गीत पर जा कर मेरे कानों की सुई अटक गयी। इक प्यारा सा दर्द था इस गीत में जो एकदम से दिल में उतरता चला गया। पहली बार सुना था ये नग्मा तो उत्सुकता हुई पता करने कि इसे किसने  लिखा है? कुछ जाल पृष्ठों पर गीतकार ख़्वाजा परवेज़ का नाम देखा। बाद में ये जानकारी हाथ लगी कि मलिका ए तरन्नुम नूरजहाँ के गाए सैकड़ों गीतों में ख़्वाजा परवेज़ ही गीतकार रहे हैं।

जिन्होंने ख़्वाजा परवेज़ का नाम पहली बार सुना है उनको बता दूँ कि ख़्वाजा परवेज़ का वास्तविक नाम गुलाम मोहिउद्दीन था और उनकी पैदाइश पंजाब के अमृतसर जिले में हुई थी। परवेज़ साहब का नाम पाकिस्तान के अग्रणी गीतकारों में लिया जाता है। अपने चार दशकों के फिल्मी जीवन में उन्होंने पंजाबी और उर्दू में करीब आठ हजार से ऊपर गीत लिखे। वे एक संगीतकार भी थे। उनके लिखे तमाम गीतों को नूरजहाँ के आलावा मेहदी हसन, नैयरा नूर, रूना लैला जैसे अज़ीम फनकारों ने अपनी आवाज़ दी। मेहदी हसन का गाया गीत जब कोई प्यार से बुलाएगा.. तुमको एक शख़्स याद आएगा  भी ख़्वाजा परवेज़ का ही लिखा है।



परवेज़ साहब ने इस गीत किसी के ज़िदगी में आकर चले जाने के बाद की मनःस्थितियों को सहज शब्दों में बड़ी बारीकी से पकड़ा है। ऐसे किसी शख़्स को एकदम से भूल कहाँ पाते हैं। वो नज़रों से ओझल तो रहता है पर उसके साथ बिताए लमहों की गर्माहट दिल को रौशन करती रहती है। ये रोशनी रह रह कर हमारा मन पुलकित करती रहती है और इस दौरान हम इस बात को भी भूल जाते हैं कि वो इंसान अब हमारे साथ नहीं है। इसीलिए परवेज़ लिखते हैं..

मेरी जुस्तज़ू को खबर नहीं, न वो दिन रहे न वो रात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है

जब हम आपनी ख्यालों की दुनिया से बाहर निकलते हैं तो अपने अकेलेपन का अहसास  दिल में इक हूक सी उठा देता  है और मन में दर्द का सैलाब उमड़ पड़ता है। एक साथ कई शिकायतें सर उठाने लगती हैं पर फिर भी उसके अस्तित्व का तिलिस्म टूटता नहीं। देखिए गीतकार की कलम क्या खूब चली है इन भावों को व्यक्त करने में.

करे प्यार लब पे गिला न हो, ये किसी किसी का नसीब है
ये करम है उसका ज़फा नहीं, वो जुदा भी रह के करीब है
वो ही आँख है मेरे रूबरू, उसी हाथ में मेरा हाथ है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है

नूरजहाँ ने तो अपनी आवाज़ से परवेज़ जी के इस गीत को यादगार बनाया ही है। पर उनकी आवाज़ में जो ठसक है उसे सुनकर ऐसा लगता है कि किसी महीन मुलायम सी आवाज़ में ये गीत और जमता। हालांकि इंटरनेट पर मैंने कई अन्य गायकों को भी इस गीत पर अपना गला आज़माते सुना पर उनमें नूरजहाँ का वर्सन ही सबसे शानदार लगा। उम्मीद है कि किसी भारतीय कलाकार की आवाज़ से भी ये गीत निखरेगा। गीत का संगीत भी बेहद मधुर है। तबले की संगत तो खास तौर पर कानों को लुभाती है।  तो आइए सुनते हैं ये प्यारा सा नग्मा।


जो न मिल सके वही बेवफा, ये बड़ी अजीब सी बात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा ...

जो किसी नज़र से अता हुई वही रौशनी है ख्याल में
वो न आ सके रहूँ मुंतज़र, ये खलिश कहाँ थी विसाल में
मेरी जुस्तज़ू को खबर नहीं, न वो दिन रहे न वो रात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा ...

करे प्यार लब पे गिला न हो, ये किसी किसी का नसीब है
ये करम है उसका ज़फा नहीं, वो जुदा भी रह के करीब है
वो ही आँख है मेरे रूबरू, उसी हाथ में मेरा हाथ है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा ..

मेरा नाम तक जो न ले सका, जो मुझे क़रार न दे सका
जिसे इख़्तियार तो था मगर, मुझे अपना प्यार न दे सका
वही शख्स मेरी तलाश है, वही दर्द मेरी हयात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा...

नूरजहाँ की आवाज़ का साथ अभी कुछ दिन और रहेगा। अभी तो आपने उनकी आवाज़ में ये गीत सुना। आपकी कुछ शामों को नासिर काज़मी जी की लिखी ग़ज़लों से सुरीला बनाने का मेरा इरादा है।
 

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