सोमवार, अप्रैल 16, 2007

ये शाम आपके नाम : चिट्ठे की पहली सालगिरह आपकी टिप्पणियों के आईने में !

यूँ तो मेरे इस चिट्ठे का पहला साल मार्च के अंतिम सप्ताह में ही पूरा हो गया, पर अपना चिट्ठा किसी छोटे बच्चे की तरह तो है नहीं कि मुँह खोल कर शिकायत कर सके कि मेरा जन्मदिन २६ मार्च को ही क्यूँ नहीं मनाया । सो देर आए दुरुस्त आए की शैली में इस चिट्ठे की ये और अगली कुछ प्रविष्टियाँ समर्पित रहेंगी हिन्दी चिट्ठाकारिता के अपने पहले साल पर ।

साल भर से तो मैं लिखता आ ही रहा हूँ, सो मैंने सोचा कि पहली वर्षगाँठ पर गुजरे साल के सफर पर आपकी क्या राय रही मेरे प्रविष्टियों के बारे में उसकी एक झलक पेश करूँ । ये टिप्पणियाँ कुछ ऐसी हैं जिनसे मुझे लगा कि मैंने जो कहना चाहा है उसे आप तक पहुँचाने में सफल रहा हूँ और ऐसा तब ही होता है जब अपने मन की भावनाएँ को आपके शब्दों में लिखा पाता हूँ । कई बार आपकी राय उस विषय के प्रति एक नई सोच को दर्शाती है तो कई बार आपके सराहने का अंदाज इतना प्यारा होता है कि मन में अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलती है । ऐसी ही कुछ टिप्पणियों से शुरु करते हैं इस पहली सालगिरह का सफर जिसकी अगली कुछ शामें आप सब पाठकों के नाम हैं ।

तो सबसे पहले बात विनोद राहुल जी की जिन्होंने नरेंद्र कोहली के उपन्यास क्षमा करना जीजी पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कुछ प्रश्न हमारे समाज के सामने रखे..



क्या वास्तव में आज के समाज का व्यक्ति अपने रिश्तों को निभा पाता है ? ये अजीब विडंबना है...क्यूँ व्यक्ति नई वधू आने के बाद पुराने रिश्तों को भूलने लगता है ? लोगों को इस बारे में स्वयम् में झांक कर देखने की जरूरत है। ऐसे समय में इस प्रकार की रचनाएँ भाव विभोर करके कर्तव्य बोध कराती हैं। मैं लेखक को अपनी तरफ से कोटिशः धन्यवाद देता हूँ ।




यात्रा वृतांत मेरे इस चिट्ठे का अभिन्न अंग रहा है । पिछले साल अप्रैल में जब मैं सिक्किम गया तो वहाँ की अपनी आपबीती आपके साथ बाँटी । और जिस तरह आपने उसे सराहा उसका मैं आभारी हूँ ।

रत्ना शुक्ला जी का कहना था..आपके साथ बिताई शामें य़ादगार बन जाती है, एक दम रोचक यात्रा की तरह।
और जीतू भाई अपने उसी चिरपरिचित मजाहिया लहजे में कह उठे....बहुत भाग्यशाली हो यार! जो वहाँ सिक्किम पर मौज ले रहे हो, अपन तो यार कुवैत की रेत मे ही चहल कदमी कर रहे है। सिक्किम घूमने की इच्छा जगा दी है आपने, आएंगे एक दिन वहाँ भी।
पंकज बेंगाणी ने १७००० फीट की ऊँचाई पर पहुँचने के लिए कहा ...मुझे नही लगता इस जिन्दगी में मै कभी इतनी उँचाई तक जा पाउंगा. आपको साधुवाद. तस्वीरें तो लाजवाब है ही.
और ई छाया ने तो उस याक पर ही टिप्पणी कर डाली ..अच्छा है, वह याक तो धन्य हो गया, उसने कितने देश विदेश और समय की सीमायें लांघ लीं, हम तक पँहुचा और न जाने कितनों तक जायेगा।
प्रेमलता पांडे जी (मन की बात) ने तो इतनी तारीफ कर दी जिसके मैं लायक भी नहीं हूँ । यात्रा की समापन किश्त पर उन्होंने लिखा "आप जैसे लिखने वालों ने ही यात्रा-वृतांत जैसी विधाओं को जन्म दिया। बहुत ही सुंदर, सिलसिलेवार चित्रात्मक वर्णन किया है। पूरा वृतांत एक बार पुनः पढ़ लिया। शुरु से अंत तक पाठक बँधा रहता है। बहुत आनंददायी है।"

मुंबई बम कांड ने पूरे भारत को हिला कर रख दिया था।जावेद अख्तर के सवाल ईश्वर अल्लाह तेरे जहाँ में नफरत क्यूँ है जंग है क्यूँ पर प्रतिक्रिया मेंसिंधु श्रीधरन का कहना था



हाँ, ईश्वर अल्लाह! वहीं ईश्वर अल्लाह जिसे दुनिया शुरु से इतनी भक्ति से पूजती आयी हैं। वहीं ईश्वर अल्लाह, जो जो आतंकवादियों को भाग जाने दे देता हैं, मासूम लोगों ही जान ले लेकर तमाशा देखने।
इस हादसे के बाद भगवान पर विश्वास हट गया, मनीष जी। कोई भगवान नहीं हैं। हैं इंसान और इंसान का नफ़रत भरा दिल।




जुलाई में आया फुटबाल का महापर्व विश्व कप। तो मेरा प्रश्न था कि कितने लोगों ने वास्तव में फुटबाल खेला है?



ई छाया का जवाब था "खुदा झूठ न बुलवाये, मैने भी कुछ गिने चुने अवसरों पर ही फुटबाल खेला होगा। वर्ल्ड कप देख देख कर फिर जोश चढा और पिछली ही चार जुलाई को (अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस पर) दस दस मिनट के दो अंतराल खेले, सच में आज तक लंगडा कर चल रहा हूँ यार।




पर अगर सबसे रोचक बहस हुई धर्मवीर भारती की किताब गुनाहों का देवता पर ।

दिल्ली ब्लॉग की सुर ने कहा...करीब दो साल पहले पढ़ी थी. काफी सुना था पुस्तक के बारे में. गुनाहों का देवता शीर्षक काफी सार्थक लगा था. जिस सच्चे प्यार का त्याग करके इंसान महानता की मिसाल कायम करता है, देवता बनता है, उसे महानता को बनाए रखना आसान नहीं. असली परीक्षा बाद में ही होती है. एक बार कठोर होकर फैसला लेना आसान है. यही चंदर के साथ भी हुआ.

प्रियंकर जी का कहना था .....



" गुनाहों का देवता' पढ़ना युवावस्था की ओर बढ़ते सभी किशोरों के लिये अभूतपूर्व अनुभव है . हम सब, जिन्होंने इसे पढ़ा है एक खास काल-खंड में और एक खास उम्र में वे इसके इंद्रजाल के असर में रहे हैं .और इस उपन्यास के माध्यम से अपने भीतर की कुछ जानी और कुछ अनजानी भावनाओं को समझने का भी प्रयास किया है .पर अन्ततः 'गुनाहों का देवता'
के चन्दर और सुधा की त्रासदी प्यार की नहीं बल्कि सच्चे प्यार के नकार की त्रासदी है .शायद इसीलिए एक खास उम्र के बाद -- ज्ञान और तर्क का 'वर्जित सेब' खा लेने के बाद यह उपन्यास वैसा प्रभाव नहीं छोड़ता . पर एक खास उम्र वालों के लिए तो यह उपन्यास हमेशा ऐसा ही जादू बिखेरता रहेगा और उनको भी अपने 'मैजिकल स्पैल' में बांधे रखेगा जिनमें किशोरावस्था लंबे समय के लिए ठहर गई है




अनूप भार्गव जी ने कहा..." अपने कॉलेज के दिनों में पढी थी यह किताब और सचमुच दीवाना सा बना दिया था । कई बार पढी और हर बार आंखों को नम होनें से बचानें के लिये अपनें आप से लड़ना पड़ा ।
कई बार सवाल उठता है कि ऐसी महानता और आदर्श भी क्या जिस से किसी को भी लाभ न हुआ हो (और सब को दुख ही मिला हो) ?"

पर नंदिनी को ये किताब कितनी बुरी लगी ये आप उनकी प्रतिक्रिया से अंदाजा लगा सकते हैं
" Sorry i disagree,I HATED the book....maybe hate is a strong word to use for it but then again so is 'love'.I have no respect for any of the characters and i feel blessed to have 'escaped' the era where such spineless, masochistic idea of romance was in fashion.
Give me the honest Rajendra Yadav and Manohar Shyam Joshi, hard hitting Krishan Chander or Krishan Baldev Vaid anyday, keep me away from Dharmveer Bharti..."

आँखों की कहानी जब मैंने शायरों की जुबानी सुनाई तो प्रेमलता जी ने ऐसा प्रश्न दागा कि मैं क्लीन बोल्ड हो गया:)।
'और यह-
"नैनों की कर कोठरी,पुतली पलंग बिछाय।
पलकों की चिक डार के, पिय को लियो रिझाय॥"
(बताएँ किसने लिखा है?)

राँची की दुर्गापूजा की बात राँची वालों राजीव और प्रत्यक्षा में नोस्टाल्जिया जगा गई ।
राजीव ने कहा..मैं स्वयं भी राँची का हूँ, पर दशकों से राँची की दुर्गा पूजा नहीं देखा। मेन रोड, अपर बजार आदि के भव्य आयोजन काफी मिस करता हूँ।कचहरी रोड पर गोलगप्पे के ठेले अभी भी याद है। आपका बहुत धन्यवाद, आपके वर्णन से मेरी यादें ताजा हो गई।
प्रत्यक्षा का कहना था कि यहाँ गुडगाँव में तो सब फीका ही रहता है । पटना और राँची के खासकर दशहरा से लेकर छठ तक जो रौनक रहती है उसका जवाब नहीं ।

कविता के नाम पर हमसे इस साल में एक ही कविता लिखी गई तो हौसला बढ़ाने वाले पीछे कैसे रहते रत्ना जी ने हमें पेड़ पर चढ़ाना चाहा ...."भाषा सराहें या भाव, दोनों ही अनुपम है।लगता है हमें अब थ से खत्म होने वाली कविता लिखनी पड़ेगी ताकि आपकी एक सुन्दर कृति देखने को मिले। पर हमारी कविता झेलने से अच्छा है आप स्वयं ही कविता की सरिता बहाते रहें।"

हमने ठीक इसका उलट किया क्योंकि रत्ना जी का असली मतलब वही था :) :p

शादी के लिए होने वाले इंटरव्यू की बात चली तो रवि रतलामी जी से ना रहा गया कह उठे
मेरी बात मानें तो ये इंटरव्यू का चक्कर छोड़ें. वैसे भी 40 मिनट में कुछ नहीं होता. उत्तम विचार होगा कि जाति-पांति के बंधन से उठकर अपने विचारों से मिलते जुलते विचारों वाली लड़की जिसे आप जानते हों उससे रिश्ता बनाएं, या फिर तलाशें, जान पहचान बनाएँ, फिर शादी करें. अब, ये मैं अपने अनुभव बता रहा हूँ. :)

और हमारे परिचर्चा वाले अमित गुप्ता ने अपने बेबाक अंदाज में कहा बहुत सही बात सामने रखी है मनीष भाई. आजकल वर पक्ष के लोगों की मण्डी में आलू चुनने और अपने बेटे के लिये वधू चुनने की मानसिकताओं में कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया है. इस प्रक्रिया में सहजता लाने में भावी वर ही कुछ कर सकता है, अन्यथा मैं तो वर को घोड़ी पर बैठे हुए गधे से कम नहीं समझता!

आपकी चुनिंदा टिप्पणियों का सिलसिला अगले भाग में जारी रहेगा......
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27 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

याद का ये सिलसिला अच्छा लगा । साल पूरा होने पर बहुत बधाई । लेकिन केक का टुकडा बहुत छोटा है , हमारा हिस्सा कहाँ ?

बेनामी ने कहा…

चिट्ठाकारिता की पहली सालगिरह पर आपको हार्दिक बधाईयाँ।

उन्मुक्त on अप्रैल 16, 2007 ने कहा…

सालगिरह पर बधाई। अक्सर मिली टिप्पणियां मन को छू जाती हैं।

Udan Tashtari on अप्रैल 16, 2007 ने कहा…

सालगिरह की बहुत बहुत बधाई!! यह सालगिरह मनाने का तरीका बहुत बेहतरीन लगा!

ढ़ेरों शुभकामनायें ऐसी अनेकों सालगिरहों के लिये!

बेनामी ने कहा…

मनीष, मुझे यकीन नही होता कि आपको लिखते हुए अभी एक ही साल हुआ है..सच ।ऐसा लगता है, काफी समय से आपको पढ रहा हूँ।
वैसे मैने टिप्पणियाँ कम लिखी होंगी आपके ब्लाग पर , पर हर लेख पढा जरूर है।

शुभकामनाएं....

बेनामी ने कहा…

और हाँ, इस पोस्ट का आखिरी आधा भाग, फायरफाक्स में सही नही दिख रहा, शायद पोस्ट जस्टिफाई कर रखी है...

पंकज बेंगाणी on अप्रैल 16, 2007 ने कहा…

सालगिरह मुबारक हो जी! :)

बढिया अन्दाज रहा बर्थडे मनाने का, हाँ... यह टिप्पणी भी याद आ गई. धन्यवाद यार ! :)

बेनामी ने कहा…

चिट्ठे की पहली वर्षगांठ पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकारें .

अफ़लातून on अप्रैल 16, 2007 ने कहा…

चिट्ठे की पहली साल गिरह पर हार्दिक मुबारकबाद।

बेनामी ने कहा…

चिट्ठाकारिता की पहली सालगिरह पर आपको बधाईयाँ।

ravishndtv on अप्रैल 16, 2007 ने कहा…

बधाई पर कम से कम ई-केक ही भेज देते । चिट्ठे की उम्र हो हजार साल । चलिये ये सिलसिला भी अच्छा है । ब्लागदिन मनाने का ।

बेनामी ने कहा…

बधाई! बडा ही क्रिएटिव आइडिया है सालगिरह मनाने का!

बेनामी ने कहा…

बहुत अच्छा लगा आपकी सालगिरह पर! बधाई!

Srijan Shilpi on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

चिट्ठे की वर्षगांठ पर बहुत-बहुत बधाई! वर्ष 2006 में शुरू हुए चिट्ठों में से आपके चिट्ठे का एक महत्वपूर्ण स्थान है। साहित्य की सक्रिय धारा आपके चिट्ठे पर निरंतर बहती रहती है।

टिप्पणियों के आइने में आपने सालगिरह मनाई, यह अंदाज बहुत अच्छा लगा।

Unknown on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

आप बहुत अच्छा और संतुलित लिखते हैं...आपके लेखन में जो व्यक्तित्व उभरता है वह भी शालीन लगता है।
आपके ब्लाग को ढ़ेर सारी शुभकामनायें!!

Poonam Misra on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

बहुत बहुत बधाई मनीष . आपका चिट्ठा हमेशा यूँ ही सृजनात्मक रहे यह मेरी कामना है.

Jitendra Chaudhary on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

चिट्ठे के प्रथम जन्मदिवस पर बहुत बहुत बधाई। टिप्पणीकृत जन्मदिन मनाने का आइडिया अच्छा लगा।

ghughutibasuti on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

बहुत बधाई मनीष जी । ऐसी ही शामें आप सबके साथ मनाते रहें ।
घुघूती बासूती

Manish Kumar on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

प्रत्यक्षा जी शुक्रिया ! ये केक तो दिखाने भर को है , गर खाने का मन हो तो राँची आना पड़ेगा ।

सागर भाई बहुत बहुत शुक्रिया !

उनमुक्त जी बिलकुल सही कहा आपने । दरअसल ऐसी टिप्पणियाँ पूरी प्रविष्टि में रंग भरती हैं ।

Manish Kumar on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

समीर जी, रचना जी, पंकज और जीतू भाई शुक्रिया आप सबका इस तरीके को पसंद करने के लिए :)

Manish Kumar on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

अनूप जी, अफलातून जी, प्रियंकर जी और तरुण भाई धन्यवाद आप सब का !

Manish Kumar on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

रवीश स्वागत है आपका ! बधाई के लिए शुक्रिया..केक खाने के लिए तो आपको इधर आना होगा हुजूर !

घुघूती जी जरूर , आप लोगों का साथ रहा तो ऍसी शामें आती रहेंगी

नितिन जानकर खुशी हुई कि आप मेरा लिखा हुआ पसंद करते हैं। कोशिश करूँगा कि आगे भी आपकी उम्मीद पर खरा उतरूँ ।

Manish Kumar on अप्रैल 17, 2007 ने कहा…

सृजन शिल्पी जानकर खुशी हुई कि आप ऐसा सोचते हैं । बधाई का शुक्रिया !

बेजी जी तारीफ और बधाई का शुक्रिया !

पूनम जी शुक्रिया...
कोशिश करुँगा कि अपने लेखन में सृजनात्मकता का स्तर बनाए रख सकूँ ।

Mohinder56 on अप्रैल 18, 2007 ने कहा…

मनीष जी,

चिट्ठे की पहली सालगिरह की आपको हार्दिक बाधाई हो...अब तो आपको इसका और भी ध्यान रखना पडेगा, चलने फ़िरने जो लग गया है... हा हा
यूं ही बढिया बढिया लिखते रहिये

ePandit on अप्रैल 19, 2007 ने कहा…

सालगिरह मुबारक मनीष जी अब आप पक्के ब्लॉगर हो गए। :)

बेनामी ने कहा…

वर्षगांठ पर मेरी भी मुबारकबाद टिका लें मनीष जी। :) अब तो आप ब्लॉगची(जो एक साल या उससे अधिक टिक जाए, ब्लॉगिंग का नशा उसकी रगों में दौड़ता है) बन गए हैं। ;)

Manish Kumar on अप्रैल 20, 2007 ने कहा…

मोहिन्दर कुमार जी हा हा , असली चिट्ठाकार वही है जो चलने, ना चलने की परवाह किए बगैर अपने मन की बात को कलमबद्ध करता जाए ।

श्रीश भाई, हम तो दो साल से इस पचड़े में पड़े हैं । वो अलग बात है कि WIN ९८ में हिन्दी में कैसे लिखें ये समस्या रोमन हिन्दी में लिखने को एक साल तक बाध्य करती रही .

अमित लो भई मैंने भी तुम्हारी ये उपाधि टिका ली .

 

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