गुरुवार, अगस्त 02, 2007

दिखाई दिए यूँ, कि बेखुद किया.. : फिल्म बाज़ार से लिया मीर तकी 'मीर' का क़लाम


बाज़ार फिल्म में लता मंगेशकर की गाई इस ग़ज़ल में मीर तकी 'मीर' के लिखे हुए चंद शेरों को शामिल किया गया है। ख़य्याम साहब की धुन, लता जी की गायिकी और पर्दे पर सुप्रिया पाठक की अदायगी का अंदाज़ ही कुछ ऍसा है कि ये ग़ज़ल, पूरा मर्म ना समझते हुए भी, मन में कुछ अज़ीब सी क़शिश छोड़ जाती है।

पिछले हफ्ते 'भानुमति का पिटारा' वाले अमित कुलश्रेष्ठ ने इसके बारे में तफ़सील से लिखने को कहा। मुझे याद पड़ा कि एक दफ़ा अंतरजाल के किसी फोरम पर इसकी चर्चा हुई थी। लिहाजा डॉयरी के पन्ने उलटे और पूरी ग़ज़ल ही लिखी मिल गई। तो हुजूर जितना मैं समझ पाया मीर की इस ग़ज़ल को, वो आप तक पहुँचाने कि कोशिश करता हूँ....

मतले में मीर साहब कहते हैं कि जिंदगी मैंने फ़कीरों सी काटी। चाहा बस इतना कि सब राजी खुशी रहें..

फ़कीराना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो ये दुआ कर चले


मेरा निश्चय था तुम्हारे साथ जीने मरने का..आज उसी सोच को मैंने तुम्हारे सामने ज़ाहिर कर दिया ताकि उसे निभाने को हमेशा तैयार रहूँ

जो तुझ बिन ना जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफा कर चले


मन में कोई उम्मीद तो नहीं फिर भी निगाह है कि उस राह से हटती ही नहीं। पर ये कैसी बेरुखी या रब ... कि तुम आ॓ए भी तो मुँह छिपाकर चलते बने ?

कोई नाउम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले


मिलने की बेक़रारी इस कदर थी कि रगों में बहते खून की लाली सारे शरीर पर छा गई थी। बस ये समझ लो मेरे महबूब, कि तुम्हारी गली, तुम्हारे दरबार में बस, अपने खून से नहाकर आ रहे हैं।

बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो यां से लहू में नहा कर चले


और ये जो अगला शेर है उसे फिल्मी ग़ज़ल में बतौर मुखड़े की तरह इस्तेमाल किया गया है। ये शेर मुझे पूरी ग़ज़ल की जान लगता है। मीर साहब कहते हैं कि तुम्हारी इक झलक पाकर हम इस कदर मदहोश हो चुके हैं कि हमें अब अपनी ख़बर ही नहीं है। या यूँ कहें कि मेरा वज़ूद तेरे हुस्न की चाँदनी में समा सा गया है। सादगी भरे अल्फ़ाज़ में कितनी खूबसूरती से गहरी बात कह गए हैं मीर!


दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया
हमें आप से ही जुदा कर चले


जिंदगी भर ये मस्तक तेरी अराधना में झुका ही रहा। कम से कम इस बात का तो संतोष है कि हमने तेरी ख़िदमत में कोई कमी नहीं रखी।

जबीं सज़दा करते ही करते गई
हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले


इतनी शिद्दत और गहराई से मैंने तुझे पूजा मेरे दोस्त कि जिन्होंने मेरी ये इबादत देखी, वे सारे लोग तुझे भगवान का ही रूप मान बैठे।

परस्तिश कि यां तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले


सारी ज़िदगी ग़ज़ल के अशआर मुकम्मल करने में गुजर गई। पर आज देखो हमारी वो मेहनत रंग ला रही है और ये काव्य कला कितनी फल-फूल रही है

गई उम्र दर बंद‍-ए-फिक्र-ए-ग़ज़ल
सो इस फ़न को बढ़ा कर चले


मक़ते में मीर का अंदाज कुछ अध्यात्मिक हो जाता है। कहते हैं कि ग़र कोई हमसे पूछे कि इस संसार में हमें किस लिए भेजा गया था और हमने अपने इस जीवन से क्या कुछ पाया तो हम क्या जवाब देंगे?

कहें क्या जो पूछे कोई हम से मीर
ज़हाँ में तुम आए थे क्या कर चले


बाज़ार फिल्म की इस ग़जल को आप यहाँ भी सुन सकते हैं।


और महफ़िल का वो दृश्य भी देखना चाहें जहाँ सुप्रिया, आँखों ही आँखों में इस ग़जल के माध्यम से फारूख शेख साहब से अपनी मोहब्बत का इज़हार कर रही हैं तो ये वीडियो अवश्य देखें।



Dikhai Diye Yoon Ke Bekhud Kiya by waferthin
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16 टिप्पणियाँ:

अनुराग श्रीवास्तव on अगस्त 02, 2007 ने कहा…

मीर तक़ी 'मीर' साहब, नवाब आसफ़ुद्दौला की हुक़ूमत के दर्मयान लख़नऊ आये थे. नवाब ने उनको बाइज़्ज़त लख़नऊ में रखा, फिर भी मीर साहब को लख़नऊ कभी रास ना आया. उन्होंने खुद भी लिखा है कि लखनऊ में वो खुश नहीं थे.

मीर साहब का एक शेर है (मुझे याद नहीं पड़ रहा है इस वक़्त) जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरी कब्र पर धीरे से आना, मैं सोया हुआ हूँ.

सुकून पसंद मीर साहब को उनके इंतकाल के बाद लखनऊ में जिस जगह दफ़्न किया गया था, उस जगह के ऊपर से रेल की पटरियाँ बिछी हुयी हैं.

जिस इंसान को ये डर था कि वो मौत के बाद भी कदमों की आहट से जग जायेगा, उसकी कब्र के ऊपर से शोर करती हुयी ट्रेनें गुज़रती हैं - लगातार.

अफ़सोस होता है!

बेनामी ने कहा…

आपने मेरी गुज़ारिश को अमली जामा पहनाया मनीष भाई, आपका शुक्रगुज़ार हूं. आपने न केवल मीर साहब की ग़ज़ल के मानी समझाये, बल्कि उसे सुनवाया और दिखाया भी. इसे कहते हैं सोने पे सुहागा... [:)]

Udan Tashtari on अगस्त 02, 2007 ने कहा…

क्या कहने आपके अंदाजे बयानी का. बहुत खूबसूरती से गज़ल की टोह ली है. आनन्द आ गया. आभार.

बेनामी ने कहा…

अनुराग भाई! शेर कुछ यूं है :

" सिराहने मीर के आहिस्तः बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है "

उन्हें अपनी शायरी पर बहुत भरोसा था तभी तो आत्मविश्वास से लबरेज़ वे कह पाए :

" जाने का नहीं शोर सुखन का मिरे हरगिज़
ता हश्र जहां में मिरा दीवान रहेगा "

मनीष को बधाई! बेहतरीन और बेहद ज़रूरी पोस्ट .

Yunus Khan on अगस्त 02, 2007 ने कहा…

मनीष बहुत अच्‍छी पोस्‍ट है । आपने अच्‍छी तरह इस ग़ज़ल के मायने समझाए हैं । लता जी ने जिस अंदाज़ में इसे गाया है, वो काबिले तारीफ है । बाज़ार में ख़ैयाम का संगीत था । मीर को थोड़े साल पहले मेरे ख्‍याल से रूप कुमार राठौड़ ने और शायद पंकज उधास ने भी गाया है । इसमें रूप जी वाला अलबम अच्‍छा है ।
मीर का ये शेर मुझे नाज़ुक नज़र का खूबसूरत शेर लगता है--
मीर इन नीमबाज़ आंखों में सारी मस्‍ती शराब सी है नाज़ुकी उस हुस्‍न की क्‍या कहिये पंखुड़ी एक गुलाब सी है ।

पता नहीं अल्‍फ़ाज़ का हेर फेर तो नहीं हुआ । पर ये शेर कमाल है । बेहतरीन पोस्‍ट के लिए बधाई ।

Monika (Manya) on अगस्त 03, 2007 ने कहा…

एक और बेहतरीन पेश्कश.. मुझे ये गाना बेहद पसंद है.. और एक मुद्द्त के बाद आपकी वजह से सुन पाई.. याद दिलाने का बेहद शुक्रिया.. मुझे नहीं पता था की इसमें मीर साहब के शेर शामिल है.. इस जानकारी का भी शुक्रिया... शेर वाकई बहुत उम्दा हैं.. और इनके बारे में कुछ कहने की हिमाकत मैं नहीं कर सकती.. बस ये की एक बार फ़िर आपने बहुत अच्छा गीत याद दिलाया..

अनामदास on अगस्त 03, 2007 ने कहा…

मनीष राँचवी साहब
शुक्रिया.
बहुत बेहतरीन काम किया है आपने, मीर और ग़ालिब का दीवाना हूँ. बेहतरीन लिखा आपने,मैं वाकिफ़ नहीं था इनमें से ज़्यादातर बातों से.
और लिखिए नायाब शायरों के बारे में.

कंचन सिंह चौहान on अगस्त 03, 2007 ने कहा…

अब अगर हम आपको शिक्षक कहें तो बुरा मत मानियेगा.....!
बहुत ही अच्छी तरह से किया गया बहुत ही अच्छी गज़ल का व्याख्यान। फिल्म वाली पंक्तियाँ तो सुनी हुई थी, अन्य पंक्तियो् की जानकारी देने के लिये धन्यवाद

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` on अगस्त 03, 2007 ने कहा…

मनीष भाई,
बहुत सँदर लिखा है आपने --एक खूबसुरत नज़्म, कमाल की बँदिश -
वाह ..बहुत खूब!
- सस्नेह,
-लावण्या

Manish Kumar on अगस्त 05, 2007 ने कहा…

अनुराग जी बहुत शुक्रिया, इस जानकारी को यहाँ बाँटने के लिए। हमारे देश में वैसे भी पुरानी धरोहरों को उनका उचित सम्मान देने की परंपरा रही नहीं, वर्ना मीर की समाधि को ये दिन नहीं देखने पड़ते।

Manish Kumar on अगस्त 05, 2007 ने कहा…

अमित तुम्हारी वजह से एक बार फ़िर इस खूबसूरत ग़ज़ल को पढ़ा, पुराने पन्ने पलटे.., मुझे भी लुत्फ़ आया हुजूर !

समीर जी, लावण्या जी, मान्या पसंदगी का शुक्रिया !

यूनुस भाई तारीफ़ का शुक्रिया ! रूप कुमार राठौड़ वाला एलबम तो अब तक नहीं सुन पाया हूँ। अब आपने अच्छा कहा है तो जरूर सुनूँगा।


कंचन :) :)

Manish Kumar on अगस्त 05, 2007 ने कहा…

अनामदास जी इस चिट्ठे पर आपका स्वागत है। जानकर खुशी हुई कि आपको शेर‍ ओ शायरी में दिलचस्पी है। इससे पहले मैंने मज़ाज , फ़ैज और परवीन शाकिर की शायरी के बारे में कुछ लिखने की कोशिश की थी। वे लेख आप शेर‍ ओ शायरी से जुड़ी श्रेणी में देख सकते हैं। और हाँ, आगे भी जरूर लिखूँगा।

प्रियंकर जी वाह, वाह ! क्या क़माल के शेर उद्धृत किए आपने। मज़ा आ गया।

journeycalledlife on अगस्त 05, 2007 ने कहा…

manishji..kya ghazal pesh ki hai..wah..aur dekhiye "acting" isse kehte hain...simple and pretty..supriya pathak...mirchi se smita patil...and khoobsoorat nisha...i like all 3 of them in that movie...so natural

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` on अगस्त 06, 2007 ने कहा…

मनीष भाई,
आपकी एस प्रस्तुति को पढकर हिन्दी जाल घरोँ के ऊँचे स्तर पर पहुँचे पैरहन सुहावने लगने लगे हैँ
ऐसे ही उम्दा उम्दा आलेख लिखते रहिये
स स्नेह,
-- लावण्या

Manish Kumar on अगस्त 07, 2007 ने कहा…

स्मिता सही कहा आपने..सबने इस फिल्म में अपना किरदार बखूबी निभाया । ये ग़ज़ल आपको भी पसंद है ,जानकर खुशी हुई।

लावण्या जी तारीफ़ का शुक्रिया ! कोशिश तो यही रहेगी।

बेनामी ने कहा…

मैंने आज तक जितनी भी ग़ज़ल पढ़ी हे ये उनमे से सर्वश्रेष्ठ ग़ज़ल हे..... सच कहू तो इसके कुछ शेर मुझे समझ नहीं आते थे पर यहाँ आपने हर शेर का बहुत बारीकी और ख़ूबसूरती के साथ वर्णन किया हे इसके लिए धन्यवाद्....

अपने सही कहा यहाँ एक शेर में नायिका कहती हे की मैंने तुम्हारी इस तरह इबादत की हे की मेरे साथ साथ लोग भी तुम्हे खुदा समझने लगे हे...यहाँ मोहब्बत और इबादत में कोई फर्क नहीं हे....बस यही इस ग़ज़ल की ख़ूबसूरती हे . पूरी ग़ज़ल इतनी अर्थपूर्ण हे की इसे बार बार सुनने का मन करता हे........

 

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