सोमवार, अक्तूबर 15, 2007

हमारा हिस्सा : आज की नारी की छवि को उभारता एक सशक्त कहानी संग्रह- भाग १

मुझे उपन्यास पढ़ना एक कहानी संग्रह पढ़ने की अपेक्षा ज्यादा रुचिकर लगता है। उपन्यास में सुविधा ये है कि एक बार कथा वस्तु आपको भा गई तो फिर उसे खत्म करने के लिए समय अपने आप निकल जाता है। पर कहानी संग्रह में हर नई कहानी को तुरंत पढ़ने की बाध्यता नहीं रहती, सो मामला खिंचता चला जाता है। अब इसी कहानी संग्रह को लें। आज की नारी की तस्वीर  उभारती इन १६ कहानियों को पढ़ने में मैंने आठ महीने लगा दिए। पर ये कहानियाँ इतनी सशक्त हैं और इनके पात्र इतने सजीव, कि उन्हें पढ़ने के बाद भी महिनों तक इन पात्रों के इर्द गिर्द की सामाजिक परिस्थितियाँ रह-रह कर इस दौरान मन में प्रश्न करती रहीं।

इस कहानी संकलन के संपादक अरुण प्रकाश हैं जो पुस्तक की प्रस्तावना में कहते हैं कि

"...बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्दी कहानी ने स्त्री की कैसी छवि निर्मित की इस संकलन की चिंता इतनी भर है। इस चयन में दो बातों का ही ध्यान रखा गया स्त्री की छवि और कहानी की प्रभावशीलता..."

और इसमें कोई शक नहीं कि अरुण प्रकाश जी ने जिन कहानियों का चयन किया है, उनमें ज्यादातर इस कसौटी पर खरी उतरी हैं।

कहानी संकलन की शुरुवात पचास के दशक में लिखी गई कमलेश्वर जी की रचना 'देवा की माँ ' से होती है जो एक परित्यक्ता होने के बावजूद अपने पति को सम्मान की नज़रों से देखती है। वक़्त के साथ पति की असली छवि जब उसपे प्रकट होती है तो संस्कारगत आचरण और पूर्ण विद्रोह से परे वो अपने और अपने बेटे के लिए एक मध्यम मार्ग चुनती है।

रांगेय राघव की कहानी 'गदल' भी एक ऍसे ही एक पात्र की कहानी है जो 'देवा की माँ' की तरह ही अपनी संस्कारगत सीमाओं में रहकर अपना विद्रोह प्रकट करती हैं। गूजर समुदाय की गदल अपने पति की मृत्यु होने पर अपना भरा पूरा परिवार छोड़ कर दूसरे परिवार में शादी का निर्णय लेती है क्यूँकि पति की अनुपस्थिति में वो बहुओं के सामने अपना कद छोटा होते नहीं देखना चाहती। पर अपने आत्मसम्मान की रक्षा के साथ साथ वो अपने देवर के आत्मसम्मान पर भी चोट करना चाहती है जो उसके पति की मृत्यु के बाद चाहता तो उससे शादी कर सकता था, पर गदल का मन जानकर भी उदासीन है। देवर पर गदल की ये मनोवैज्ञानिक चोट उसके लिए प्राणघातक सिद्ध होती है। इसके बाद गदल का उठाया गया कदम कहानी और गदल के चरित्र को एक दूसरे ही स्तर तक उठा ले जाता है।

आगे की दो कहानियाँ शहरी जीवन में विवाहोपरांत स्त्री पुरुष संबंधों के बनते बिगड़ते आयाम को देखने की कोशिश है। स्वयम् प्रकाश अपनी कहानी में पति द्वारा पत्नी के प्रति अपने संबंधों और आपसी व्यवहार का पुनरावलोकन उसके साथ खेले गए बैडमिंटन मैच के दौरान करते हैं। वहीं नासिरा शर्मा ने बच्चों के सेटल हो जाने और पति के अपने काम में रमे रहने से नायिका के जीवन में आई रिक्तिता को भरने के लिए परपुरुष के सहारा लेने को अपना विषय बनाया है।

भगवान दास मोरवाल ने अपनी कहानी 'महराब' को मेवात के इलाके में रहने वाले मेव मुसलमानों के समाज पर केंद्रित किया है। ये समाज हिंदू और इस्लामी दोनों रिवाजों का पालन करता आया है । किस तरह आज की पढ़ी लिखी नई पीढ़ी, समाज की इन सामुदायिक परंपराओं के निर्वहन को गैरजरूरी बना कर आपस संबंधों का फीकापन बढ़ाती जा रही है, यही मोरवाल की कथा का विषय है। पर ये सामुदायिक परंपराएँ हर जगह अपनाने लायक हैं ऍसा भी नहीं है। अपनी कहानी 'फट जा पंचधार' में विद्यासागर नौटियाल ने गढ़वाल में प्रचलित बहु विवाह की प्रथा और जाति विभेद की मार सहती एक स्त्री जीवन की कहानी की कोशिश की है जिसे अपनी समस्या का अंत एक सामाजिक भूकंप के आए बिना नहीं दिखता।

ममता कालिया की कहानी 'आपकी छोटी लड़की' इस संकलन की सबसे मासूम कहानी है। यह कहानी, अपनी बड़ी बहन के गुणों और अपनी हीनता की छाया में रहने वाली छोटी बच्ची के अपनी काबिलियत को पहचानने की यात्रा है जो सहज दिल को छू लेती है।

पर शुरु की आठ कहानियों में दिल पर जो सबसे ज्यादा हावी रही वो थी संजीव की कहानी 'दुनिया की सबसे हसीन औरत'। जिस कहानी का चरित्र आप के अगल बगल के समाज से खींचा गया हो, उसके पात्रों की व्यथा को आप मात्र कहानी मानकर अपने दिलो दिमाग से जुदा नहीं कर सकते। झारखंड की किसी भी सवारी गाड़ी या एक्सप्रेस के सामान्य दर्जे के डिब्बे में संजीव की सब्जी बेचती आदिवासी नायिका आपको दिखाई दे जाएगी। उसकी दिन भर की पीठतोड़ मेहनत का बड़ा हिस्सा प्रशासन का ये पुलसिया टीटी तंत्र ले लेता है और हम जैसे पढ़े लिखे लोग देखकर भी मूक दर्शक बने रहते हैं। कहानी पढ़कर अपने प्रति धिक्कार की भावना उपजी कि दोष हमलोगों का भी है ।सिर्फ इसलिए अन्याय से मुँह मोड़ना कि वो हमारे साथ नहीं हो रहा भी एक अपराध है। संजीव ने अपनी कहानी के नायक के माध्यम से जो संदेश दिया है वो अनुकरणीय है।
ये तो था इस पठनीय संग्रह की पहली आठ कहानियों का लेखा जोखा। अगली आठ कहानियों की चर्चा करेंगे इस प्रविष्टि के अगले भाग में ....

इस प्रविष्टि का अगला भाग आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
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6 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari on अक्तूबर 15, 2007 ने कहा…

प्रथम आठ की समीक्षा पढ़कर पूरी किताब बांचने की इच्छा जाग गई है. बहुत सुन्दरता से पेश किया है ब्यौरा. आभार. अब अगले आठ का भी बता ही दें जब तक हम इस किताब का प्रबंध करें.

वैसे मुझे कहानी संग्रह ज्यादा भाते हैं. खैर, इसमें अपने अपने कारण और पसंद की बात है.

बेनामी ने कहा…

मनीषजी , समीक्षा ने किताब के प्रति आकर्षित कर दिया है।धन्यवाद ।

Atul Chauhan on अक्तूबर 15, 2007 ने कहा…

समीक्षा अच्छी लगी।

कंचन सिंह चौहान on अक्तूबर 15, 2007 ने कहा…

कोशिश करूँगी पढ़ने की, आपने इच्छा बलवती कर दी

Sanjeet Tripathi on अक्तूबर 15, 2007 ने कहा…

शुक्रिया इस समीक्षा के लिए!!

Manish Kumar on अक्तूबर 17, 2007 ने कहा…

समीर जी इस समीक्षा का अगला भाग प्रस्तुत है।
अफलातून जी, अतुल चौहान जी, कंचन, संजीत समीक्षा पसंद करने के लिए शुक्रिया ।

 

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