मंगलवार, दिसंबर 29, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2009 का आगाज़ और एक नज़र पिछली संगीतमालाओं पर....

वार्षिक संगीतमाला 2009 में आप सबका स्वागत है। जैसा कि मैं पहले भी इस चिट्ठे पर कह चुका हूँ कि वार्षिक संगीतमालाएँ मेरे लिए नए संगीत में जो कुछ भी अच्छा हो रहा है उसको आप तक संजों लाने की कोशिश मात्र है। बचपन से रेडिओ सीलोन की अमीन सयानी की बिनाका और फिर विविधभारती पर नाम बदल कर आने वाली सिबाका गीतमाला सुनता रहा। उसका असर इतना था कि जब 2005 के आरंभ में अपने रोमन हिंदी ब्लॉग की शुरुआत की तो मन में एक ख्वाहिश थी कि अपने ब्लॉग पर अपनी पसंद के गीतों को पेश करूँ।

तो आइए एक नज़र डालें पिछले चार साल की संगीतमालाओं की तरफ। मैंने अपनी पहली संगीतमाला की शुरुआत 2004 के दस बेहतरीन गानों से की जिसे 2005 में 25 गानों तक कर दिया। 2006 में जब खालिस हिंदी ब्लागिंग में उतरा तो ये सिलसिला इस ब्लॉग पर भी चालू किया जो कि आज अपने चौथे साल में है।

वार्षिक संगीतमाला 2004 में मेरी गीतमाला के सरताज गीत का सेहरा मिला था फिर मिलेंगे में प्रसून जोशी के लिखे और शंकर अहसान लॉए के संगीतबद्ध गीत "खुल के मुस्कुरा ले तू" को जबकि दूसरे स्थान पर भी इसी फिल्म का गीत रहा था कुछ खशबुएँ यादों के जंगल से बह चलीं। ये वही साल था जब कल हो ना हो, रोग, हम तुम, मीनाक्षी और पाप जैसी फिल्मों से कुछ अच्छे गीत सुनने को मिले थे।

वार्षिक संगीतमाला 2005 में बाजी मारी स्वानंद किरकिरे और शान्तनु मोइत्रा की जोड़ी ने जब परिणिता फिल्म का गीत 'रात हमारी तो चाँद की सहेली' है और हजारों ख्वाहिशें ऍसी के गीत 'बावरा मन देखने चला एक सपना' क्रमशः प्रथम और द्वितीय स्थान पर रहे थे।

वार्षिक संगीतमाला 2006 में ओंकारा और गुरु के गीत छाए रहे पर बाजी मारी 'उमराव जान' के संवेदनशील गीत 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' ने। इस गीत और दूसरे नंबर के गीत 'मितवा ' को लिखा था जावेद अख्तर साहब ने

वार्षिक संगीतमाला 2007 में एक बार फिर प्रसून जोशी के लिखे और शंकर अहसान लॉए के संगीतबद्ध, 'तारे जमीं पर' के गीतों के बीच ही प्रथम और द्वितीय स्थानों की जद्दोजहद होती रही। पर माँ...जैसे नग्मे की बराबरी भला कौन गीत कर सकता था


वार्षिक संगीतमाला 2008 का सरताज गीत बना आमिर फिल्म का संवेदनशील नग्मा इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला ने।

इसकी मुख्य वज़ह थी इस गीत में संगीत, बोल और गायिकी का अद्भुत समनव्यन। ये कमाल था संगीतकार अमित त्रिवेदी, गायिका शिल्पा राव और गीतकार अमिताभ की बेमिसाल तिकड़ी का।


आमिर फिल्म के जबरदस्त संगीत की बदौलत गर अमित त्रिवेदी ने विजेता का आसन सँभाला तो रनर्स अप गीत कहने को जश्न-ऐ-बहारा है की मदद से संगीतकार ए आर रहमान ने पिछले साल की संगीतमाला पर अपनी बादशाहत कायम रखी।

जोधा अकबर, युवराज, जाने तू या जाने ना, गज़नी की बदौलत २००८ की वार्षिक संगीतमाला में उनके गीत दस बार बजे। रहमान के आलावा इस साल के अन्य सफल संगीतकारों में विशाल शेखर, सलीम सुलेमान और अमित त्रिवेदी का नाम लिया जा सकता है।

वार्षिक संगीतमाला 2008 में अमिताभ वर्मा, जयदीप साहनी, अशोक मिश्रा, इरफ़ान सिद्दकी, मयूर सूरी, कौसर मुनीर,अब्बास टॉयरवाला और अन्विता दत्त गुप्तन जैसे नए गीतकारों ने पहली बार अपनी जगह बनाई। इतने सारे प्रतिभाशाली गीतकारों का उभरना फिल्म संगीत के लिए शुभ संकेत है। वहीं गायक गायिकाओं में विजय प्रकाश, जावेद अली, राशिद अली, श्रीनिवास और शिल्पा राव जैसे नामों ने पहली बार संगीत प्रेमी जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।

इस साल हिंदी फिल्म संगीत में पिछले साल की अपेक्षा फीके पकवान ही परोसे गए हैं। फिर भी मेरी कोशिश रहेगी कि इस शोर के बीच उन सुरीले गीतों को आपके सामने लाऊँ जो शायद आपकी नज़रों से गुजरे बिना निकल गए हों। हमेशा मित्र ये प्रश्न करते रहे हैं कि गीतमाला में कोई गीत मैंने इतनी ऊपर या नीचे क्यूँ रखा?

अब ये स्पष्ट कर दूँ कि इस गीतमाला का सीधे सीधे पॉपुलरटी से लेना देना नहीं है। गायिकी, संगीत, बोल और इनके सम्मिलित प्रभाव इन सभी आधारों को बराबर वज़न दे कर मैं अपनी पसंद के गीतों का क्रम तैयार करता हूँ। कई बार ये स्कोर्स लगभग बराबर होते हैं और तब गीतों को ऊपर नीचे करना बड़ा दुरुह होता है। हाँ, गीत से जुड़ी पोस्ट में मेरी पसंद के कारणों का जिक्र आप हमेशा की तरह पढ़ेंगे। प्रस्तुत गीत के बारे में पाठकों की राय भिन्न हो सकती है और उस बारे में आप अपना मंतव्य बेहिचक दें।

सवाल ये है कि वर्ष 2009 की इस संगीतमाला में क्या कोई नया सितारा सामने आएगा या फिर पुराने दिग्गज ही छाए रहेंगे? ये तो आप तभी जान पाएँगे जब आप अगले 2 महिनों तक संगीत के इस सफ़र में मेरे साथ होंगे। संगीतमाला में आप गीत तो सुनेंगे ही। साथ ही हर साल की तरह मेरी कोशिश रहेगी उन नए उभरते कलाकारों से आपको रूबरू कराने की जो इस साल के संगीत पटल पर तेजी से उभरे हैं। तो तैयार है ना आप हिंदी ब्लागिंग की सबसे पुरानी गीतमाला की उलटी गिनती यानि 25 वीं सीढ़ी से लेकर पहली सीढ़ी तक चढ़ने के लिए...

गुरुवार, दिसंबर 24, 2009

रेत में सर किए यूँ ही बैठा रहा, सोचा मुश्किल मेरी ऐसे टल जाएगी...

जिंदगी में बहुत कुछ अपने आस पास के हालात में, अपने समाज में, अपने देश में हम बदलते देखना चाहते हैं। पर सब कुछ वैसा ही रहने पर सारा दोष तत्कालीन व्यवस्था यानि सिस्टम पर मढ़ देते हैं।
  • राजनीति गंदी है कोई नैतिक स्तर तो आजकल रह ही न हीं गया है... ऐसे जुमले रोज़ उछाला करेंगे। पर मतदान का दिन आएगा तो उसे छुट्टी का आम दिन बनाकर बैठ जाएँगे।
  • भ्रष्टाचार चरम पर है इस पर कार्यालय और घर में लंबी चौड़ी बहस करेंगे पर अपना कोई काम फँस गया हो कहीं तो चपरासी से लेकर क्लर्क तक को छोटी मोटी रिश्वत देने से नहीं कतराएँगे।
  • अपने घर को साफ सुथरा रखेंगे पर घर से बाहर निकलेंगे तो फिर जहाँ जाएँगे कूड़ेदान की तलाश बिना किए चीजों को इधर उधर फेकेंगे। फिर ये भी टिप्पणी करने से नहीं चूकेंगे कि ये जगह कितनी गंदी है। सरकार कुछ भी नहीं करती।


ऐसे कितने ही और उदहारण दिए जा सकते हैं। मुद्दा ये है कि हमारा ध्यान इस बात पर ज्यादा है कि बाकी लोग क्या नहीं कर रहे हैं। ये विचार करने की बात है कि आखिर हमने समाज और अपने आसपास के हालातों को बदलने के लिए कितना कुछ किया है या फिर सब कुछ दूसरों के लिए छोड़ रखा है।

आज जबकि इस साल का अंत करीब आ रहा है आप सब को ऍसे ही विचारों से ओतप्रोत एक गीत सुनवाना चाहता हूँ जो हमें अपने समाज के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही ये गीत इस बात की भी आशा दिलाता है कि ऍसा करने से शायद आपको अपनी जिंदगी के नए माएने भी दिख जाएँ।

सरल शब्दो का भी अगर सही ढ़ंग से मेल करवाया जाए तो उससे उपजी भावनाएँ भी मन पर गहरा असर डालती हैं। जब ऐसे गीतों को पूरी भावना से गायक या गायिका अपना स्वर देता है तो फिर गीत के साथ संगीत का रहना बेमानी सा हो जाता है। नवोदित गायिका शिल्पा राव के गाए इस गीत में भी वही बात है। तो आइए पहले इस गीत के बोलों से परिचित हो लें और फिर सुनें इस गीत को..






रेत में सर किए यूँ ही बैठा रहा
सोचा मुश्किल मेरी ऐसे टल जाएगी
और मेरी तरह सब ही बैठे रहे
हाथ से अब ये दुनिया निकल जाएगी
दिल से अब काम लो
दौड़ कर थाम लो
जिंदगी जो बची है फिसल जाएगी

थोड़ी सी धूप है आसमानों में अब
आँखें खोलों नहीं तो ये ढ़ल जाएगी
आँखें मूँदे हैं ये छू लो इसको ज़रा
नब्ज़ फिर जिंदगी की ये चल जाएगी

दिल से अब काम लो
दौड़ कर थाम लो
जिंदगी जो बची है फिसल जाएगी


क्या आपको नहीं लगता कि ये वक्त अपनी अपनी जिंदगियों में झाँकने का है ? साथ ही कहीं कोई फिसलन दिखे तो विचारने का है कि इसे हम किस तरह बदल सकते हैं।

वैसे ये बता दूँ कि ये गीत पिछले साल मुंबई पर हुए हमलों के मद्देनज़र लिखा गया था। इसे यू ट्यूब पर आप यहाँ देख सकते हैं।




चलते चलते 'एक शाम मेरे नाम' के सभी पाठकों को क्रिसमिस की हार्दिक शुभकामनाएँ। अब इस चिट्ठे के सालाना आयोजन वार्षिक संगीतमाला २००९ के आगाज़ के साथ आप से फिर मुलाकात होगी। तो तब तक के लिए आज्ञा..

शनिवार, दिसंबर 19, 2009

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे : शहरयार की एक दिलकश ग़ज़ल सुरेश वाडकर के स्वर में

पिछले एक हफ्ते से ब्लॉगों की दुनिया से दूर रहा। सोचा था कि जाने के पहले सुरेश वाडकर की ये सर्वप्रिय ग़ज़ल सिड्यूल कर आपके सुपुर्द करूँगा पर उसके लिए भी वक़्त नहीं मिला। ख़ैर अब अपनी यात्रा से लौट आया हूँ तो ये ग़ज़ल आपके सामने हैं। इसे लिखा था शहरयार यानि कुँवर अखलाक़ मोहम्मद खान साहब ने।

यूँ तो शहरयार ने चंद फिल्मों के लिए ही अपनी ग़ज़लें लिखी हैं पर वे ग़ज़लें हिन्दी फिल्म संगीत के लिए मील का पत्थर साबित हुई हैं। अब चाहे आप उमराव जान की बात करें या गमन की। ये बात गौर करने की है कि इन दोनों फिल्मों के निर्देशक मुजफ़्फर अली थे। दरअसल शहरयार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जब उर्दू विभाग में पढ़ाते थे तब मुजफ्फर भी वहीं के छात्र थे और शहरयार साहब के काव्य संग्रह से वो इतने प्रभावित हुए कि उनकी दो ग़ज़लों को उन्होंने फिल्म गमन में ले लिया।

उनकी शायरी को विस्तार से पढ़ने का मौका तो अभी तक नहीं मिला पर उनकी जितनी भी ग़ज़लें सुनी हैं उनकी भावनाओं से खुद को जोड़ने में कभी दिक्कत महसूस नहीं की। लेखक मोहनलाल, भारतीय साहित्य की इनसाइक्लोपीडिया (Encyclopedia of Indian Literature, Volume 5) में शहरयार साहब की शायरी के बारे में लिखते हैं

शहरयार ने अपनी शायरी में कभी भी संदेश देने या निष्कर्ष निकालने की परवाह नहीं की। वो तो आज के आदमी के मन में चल रहे द्वन्दों और अध्यात्मिक उलझनों को शब्दों में व्यक्त करते रहे। उनकी शायरी एक ऍसे आम आदमी की शायरी है जो बीत रहे समय और आने वाली मृत्यु जैसी जीवन की कड़वी सच्चाइयों के बीच झूलते रहने के बावज़ूद अपनी अभी की जिंदगी को खुल कर जीना चाहता है। शहरयार ऍसे ही व्यक्ति के ग़मों और खुशियों को अपने अशआरों में समेटते चलते हैं।

मेरी सोच यह है कि साहित्य को अपने दौर से अपने समाज से जुड़ा होना चाहिए, मैं साहित्य को मात्र मन की मौज नहीं मानता, मैं समझता हूँ जब तक दूसरे आदमी का दुख दर्द शामिल न हो तो वह आदमी क्यों पढ़ेगा आपकी रचना को। जाहिर है दुख दर्द ऐसे हैं कि वो कॉमन होते हैं। जैसे बेईमानी है, झूठ है, नाइंसाफी है, ये सब चीजें ऐसी हैं कि इनसे हर आदमी प्रभावित होता है। कुछ लोग कहते हैं कि अदब से कुछ नहीं होता है। मैं कहता हूँ कि अदब से कुछ न कुछ होता है।

अब १९७९ में प्रदर्शित गमन फिल्म की इसी ग़ज़ल पर गौर करें मुझे नहीं लगता कि हममें से ऍसा कोई होगा जिसने इन सवालातों को जिंदगी के सफ़र में कभी ना कभी अपने दिल से ना पूछा हो। मुझे यूँ तो इस ग़ज़ल के सारे अशआर पसंद हैं पर दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे.. वाला शेर सुनते ही मन खुद बा खुद इस गीत को गुनगुनाते हुए इसमें डूब जाता है।

दरअसल एक शायर की सफलता इसी बात में है कि वो अपने ज़रिए कितने अनजाने दिलों की बातें कह जाते हैं।

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है?
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है?

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेज़ान सा क्यूँ है?

तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ों
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है?

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है?

ऊपर से जयदेव का कर्णप्रिय सुकून देने वाला संगीत जिसमें सितार , बाँसुरी और कई अन्य भारतीय वाद्य यंत्रों का प्रयोग मन को सोहता है। तो लीजिए सुनिए इस गीत को सुरेश वाडकर की आवाज़ में 


सोमवार, दिसंबर 07, 2009

एक मतदानकर्मी की डॉयरी : बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ, ये लोकतंत्र देखने लायक़ तो है मगर हसीन नहीं

किसी भी चुनाव के आते ही सरकारी कार्यालयों, बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारियों में हलचल सी मच जाती है। इस हलचल को राजनीतिक सरगर्मी से जोड़ कर देखने की भूल मत कीजिएगा। दरअसल ये बेचैनी आती है चुनावी ड्यूटी में नाम आने की दहशत की वज़ह से। पर इस दहशत की वज़ह क्या है? आखिर ये वर्ग तो समाज का वो हिस्सा है जो पढ़ा लिखा है, जिसे रोज़गार के साधन उपलब्ध हैं। क्या लोकतंत्र के इस पुनीत पर्व में ये वर्ग अपने दायित्वों का वहन नहीं करना चाहता?


कुछ लोग तो बिल्कुल इस वज़ह से नहीं जाना चाहते कि चुनावी दिन मज़े से घर बैठने वाला छुट्टी का दिन लगता है। पर अधिकांश इस लिए नहीं जाना चाहते कि उन्हें अपनी जिंदगी खतरे में नज़र आती है। आज भी देश के कई प्रदेशों में चुनाव करवाना एक ऐसी क़वायद है जिसमें हमारे सैनिकों और नागरिकों की जिंदगी दाँव पर लग जाती है। दुर्भाग्य से झारखंड ऍसे प्रदेशों की सूची में प्रथम स्थान पर आता है।
पर ये भी सही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान करवाने का अनुभव एक ऐसा अनुभव है जो शहरों और कस्बों में रहने वाले मध्यमवर्गीय वर्ग को अपने देश की तथाकथित जम्हूरियत और उनके मनसबदारों के बारे में अपनी आस्थाओं और सोच पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर देता है। पिछले हफ्ते प्रथम चरण का चुनाव करा कर लौटे अपने कार्यालय के दो युवा मतदानकर्मियों की जब मैंने आपबीती सुनी तो लगा कि हम जिन परिस्थितियों में रहते हैं उससे बाहर की दुनिया कितनी पृथक है।


स्थान : मांडर

राँची शहर से मांडर प्रखंड की दूरी मात्र 25 किमी होगी। पूरे प्रखंड में 69 गाँव हैं। हमारा काफ़िला बस में सवार हो कर अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा है। मांडर अपेक्षाकृत सुरक्षित इलाका है इसलिए पैट्रोलिंग पार्टी में राज्य की पुलिस का ही सशस्त्र बल है पर सिर के गिरते बालों, कमर के ऊपर बढ़ती गोलाई और चेहरे की भावशून्यता शायद ही ये अहसास दिलाती है कि मैं किसी फोर्स के साथ चल रहा हूँ।

राँची से मांडर तक का रास्ता तो घंटे भर में खत्म हो जाता है। पर आगे तो गाड़ी जाने का रास्ता नहीं पगडंडी है तो पैदल ही जाना होगा। हमारा बूथ यहाँ से तीन किमी दूर है। गाँवों और खेत खलिहानों से होकर आधे पौन घंटे में हम सभी उस गाँव में जा पहुँचते हैं जहाँ हमारा मतदान केंद्र है। कच्चे मकानों के बीच पूरे गाँव में एक ही पक्की इमारत दिख रही है जो यहाँ का स्कूल है। मेरी भूमिका मतदान में मैक्रो आबसरवर की है। मतदान के पूर्व की तैयारी शुरु नहीं हो पाई है क्यूँकि EVM और बाकी सामग्री नहीं पहुँची। शाम के साथ ही पूरे गाँव में अँधेरा छा गया है। बाइक से एक व्यक्ति मशीन तो ले आया है पर रौशनी ना होने से कुछ काम आगे बढ़ नहीं रहा। स्कूल के एक कमरे में हम कुछ मोमबत्तियाँ जलाकर काम को किसी तरह निबटाना पड़ा है।

खाने और पीने के लिए जो घर से लाया था उसी से काम चलाना है। वैसे बगल में कुआँ है पर उसके मटमैले पानी को पीने की हिम्मत नहीं हो रही। वैसे भी ज्यादा खाना ना ही खाना श्रेयस्कर है क्यूँकि फिर तो जाड़े की इस कड़कड़ाती ठंड में खेतों के चक्कर लगाने के आलावा कोई उपाय ही नहीं बचेगा। मतदान तो प्रारंभ हो गया है पर मेरे मतदान केंद्र में मतदान की गति धीमी है। बाहर से हल्ले की आवाज़ आती है। देखता हूँ कि मतदानकर्मियों में से एक, जिसे सूची से मतदाताओं को चिन्हित करने का काम मिला है, बेहद मंथर गति से अपना काम कर रहा है। रास्ते में उससे परिचय हुआ था, एच ई सी में गार्ड है बेचारा। उसे देखने से तो लगता है कि अब तक सेवानिवृति हो जानी चाहिए थी पर फिर भी उसे भेजा गया है। उसकी कलम लिखते समय हिल रही है। लोगो के हल्ले से अब तो उसके हाथ भी काँपने लगे हैं। इतने में गश्त करने वाले मजिस्ट्रेट आ गए हैं। उन्होंने उसे वहाँ से हटाकर मुझे उस जगह पर बैठने को कहा है।

थोड़ी देर में एक मतदाता आकर मतदान करते वक़्त लाल बत्ती ना जलने की शिकायत करता है। अंदर जाकर देखता हूँ कि सचमुच बत्ती पिचक सी गई है। दरअसल कई मतदाता बटन दबाने की बजाए अपना सारा जोर उसके बगल में जलने वाली बत्ती को बटन समझ कर लगा रहे हैं। मतदान रोककर लोगों को समझाने का प्रयास करता हूँ कि उन्हें मतदान कैसे करना है पर मतदान खत्म होने पर देखता हूँ कि सभी प्रमुख उम्मीदवारों के बटन के बगल में जलने वाली बत्ती दबकर टूट चुकी है।

स्थान : तमाड़
तमाड़ राँची से जमशेदपुर जाने वाले सड़क मार्ग 55 किमी दूरी पर है। तमाड़ प्रखंड के अंदर आने वाले गाँव नक्सल प्रभावित हैं। इसलिए यहाँ के चप्पे चप्पे पर CRPF ने अपनी टुकड़ियाँ लगा रखी हैं। माहौल चुनाव से ज्यादा युद्ध का लग रहा है। जगह-जगह लैंडमाइन का खतरा है। इसलिए मतदान केंद्र से 15 किमी पहले तक ही गाड़ी से जाने की व्यवस्था है। सात किमी का रास्ता पार कर मैं एक गाँव पहुँचता हूँ। इस बार चुनाव सामग्री साथ ही ले जाई जा रही है। गाँव में कुछ देर विश्राम कर आगे का सफ़र शुरु करना है।

पन्द्रह किमी बाद अपने लक्ष्य तक पहुँचने के बाद थकान बहुत हो रही है। सभी लोग थोड़े डरे भी हुए हैं। सुरक्षाकर्मियों ने सख्त ताक़ीद की है कि कोई भी स्कूल परिसर में नहीं सोएगा। सभी सहयोगी दूर एक खेत की ओर चल पड़े हैं। खेतों के बीचोबीच थोड़ी समतल जगह पर चादर बिछाई गई है। चाँद की रोशनी के बीच घुप्प अँधेरा है। सभी किसी तरह इस रात को काटने को बाध्य हैं। जैसे तैसे झपकी लग गई है।

मतदान ज्यादा नहीं हो रहा। ग्रामीण वोट दें तो क्यों दें। यहाँ तो चुनाव के समय भी नेता आने से कतराते हैं तो चुनाव के बाद वो क्या आएँगे। चुनाव की अवधि सुबह सात बजे से लेकर अपराह्न तीन बजे तक है। डेढ़ बजे अचानक ही खबर आती है कि सौ की संख्या में नक्सली हथियारबंद होकर इधर ही आ रहे हैं। हम सबों के चेहरे खौफ़ से ज़र्द पड़ गए हैं। आनन फानन में मतदान रोक कर सामान बाँध लिया जाता है। सुरक्षाकर्मियों की मदद से जल्द से जल्द इलाका छोड़ देना है। टेढ़े मेरे रास्तों में मशीन के साथ भागने में कई मतदानकर्मी औंधे मुंह गिरे हैं। मैं भी तीन बार गिरा हूँ पर अभी हम सभी को अपनी जिंदगी बचानी है। भागते भागते मेरा एक सहयोगी छोटी सी पुलिया पार करते वक़्त गड्ढे में जा गिरा है। साथ में मशीन भी गिरी है। शायद उसमें पानी भी चला गया हो पर जैसे तैसे उसे बाहर खींच कर अपने लक्ष्य तक पहुँचने की दौड़ सबने फिर से शुरु कर दी है। डेढ़ घंटे में हम उस सड़क तक जा पहुँचे हैं जहाँ हमारी गाड़ी खड़ी थी। चेहरे पर संतोष चुनाव करवा पाने से ज्यादा बच कर निकलने का है..


ये तो बानगी भर है। इससे भी सुदूर इलाकों में हालात इनसे भी कठिन ही होंगे। और इतना सब होने पर भी ये बात गौर करने की है कि पूर्णतः सुरक्षित राँची के मतदाताओं का चुनाव प्रतिशत 36 फीसदी रहा जबकि किसी भी बुनियादी सुख सुविधाओं से दूर इन इलाकों के 45 से 55 फीसदी लोगों ने मतदान किया। तो ये तो है हमारे यहाँ का लोकतंत्र जहाँ कुछ किलोमीटर के फ़ासले जिंदगी जीने का तरीका ही बदल जाते हैं।

ये सब सुनकर मन खिन्न सा है। रह रह कर दुष्यन्त कुमार जी की कही ये ग़ज़ल दिल को कचोट रही है...

तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं


बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ये कचोट तो कुछ दिनों में निकल जाएगी। अपना काम, अपनी जिंदगी, अपने आसपास की दुनिया हमें इन खयालातों तक वापस लौटने नहीं देगी। शायद अगले चुनावों तक.......या उससे पहले ही जब ये अंधकार हमारे ठीक सामने मुँह बाए खड़ा होगा !

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना बुनती है रेशम के धागे : 'मीना कुमारी' की शायरी के बारे में गुलज़ार की सोच

कुछ लोग ग़म की दुनिया में जीने के लिए बने होते हैं। मीना कुमारी की शख़्सियत भी कुछ ऍसी ही थी। पर्दे की ट्रेजडी क्वीन ने कब अपनी ज़िदगी में ग़मों से खेलना शुरु कर दिया शायद उन्हें भी पता नहीं चला। महज़बीं के नाम से जन्मी और गरीबी में पली बढ़ी इस अदाकारा ने अपने अभिनय का सिक्का पचास और साठ के दशक में इस तरह चलाया कि किसी भी फिल्म से उनका जुड़ाव ही उसके हिट हो जाने का सबब बन जाता था।


अपने कैरियर की ऊँचाई को छू रही मीना जी के कमाल अमरोही साहब से प्रेम, फिर विवाह और कुछ सालों बाद तलाक की कथा तो हम सभी जानते ही हैं। मीना जी का ठोस व्यक्तित्व, उनकी आज़ादख्याली, अपनी ज़िंदगी के निर्णय खुद लेने की क्षमता और अभिनय के प्रति लगन उन्हें जिस मुक़ाम पर ले गई थी वो शायद कमाल साहब से उनके खट्टे होते रिश्तों की वज़ह भी बनी। रिश्तों को न सँभाल पाने के दर्द और अकेलेपन से निज़ात पाने के लिए मीना कुमारी जी ने अपने आप को शराब में डुबो दिया।

यूँ तो मीना कुमारी अपने दिल में उमड़ते जज़्बों को डॉयरी के पन्नों में हमेशा व्यक्त किया करती थीं पर उनका अकेलापन, उनकी पीड़ा और हमसफ़र की बेवफाई उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में रह रह कर उभरी। मिसाल के तौर पर उनकी इस नज़्म को लें।मीना जी के काव्य से मेरा पहला परिचय उनकी इस दिल को छू लेने वाली नज़्म से हुआ था

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौग़ात मिली
जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, लो फिर तुमको अब मात मिली
बातें कैसी ? घातें क्या ? चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया,बेचैनी भी साथ मिली

३९ वर्ष की आयु में इस दुनिया से रुखसत होते हुए वो अपनी २५ निजी डॉयरियों के पन्ने गुलज़ार साहब को वसीयत कर गईं। गुलज़ार ने उनकी ग़ज़लों और नज़्मों की किताब हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित कराई है। कल जब राँची के पुस्तक मेले से गुजरा तो उसमें मीना कुमारी की शायरी के आलावा कुछ और भी पढ़ने को मिला और वो भी गुलज़ार की लेखनी से।

गुलज़ार इस किताब में उनके बारे में लिखते हैं ..मीना जी चली गईं। कहती थीं
राह देखा करेगा सदियों तक,
छोड़ जाएँगे यह ज़हाँ तनहा
और जाते हुए सचमुच सारे जहान को तनहा कर गईं; एक दौर का दौर अपने साथ लेकर चली गईं। लगता है, दुआ में थीं। दुआ खत्म हुई, आमीन कहा, उठीं, और चली गईं। जब तक ज़िन्दा थीं, सरापा दिल की तरह ज़िन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, बटोरती रहीं और दिल में समोती रहीं। समन्दर की तरह गहरा था दिल। वह छलक गया, मर गया और बन्द हो गया, लगता यही कि दर्द लावारिस हो गए, यतीम हो गए, उन्हें अपनानेवाला कोई नहीं रहा। मैंने एक बार उनका पोर्ट्रेट नज़्म करके दिया था उन्हें। लिखा था...
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लमहा-लमहा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक साँस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक साँस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।

पढ़कर हँस पड़ीं। कहने लगीं–‘जानते हो न, वे तागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटाकर मर सके, तो और क्या चाहिए ?’
उन्हीं का एक पन्ना है मेरे सामने खुला हुआ। लिखा है....
प्यार सोचा था, प्यार ढूँढ़ा था
ठंडी-ठंडी-सी हसरतें ढूँढ़ी
सोंधी-सोंधी-सी, रूह की मिट्टी
तपते, नोकीले, नंगे रस्तों पर
नंगे पैरों ने दौड़कर, थमकर,
धूप में सेंकीं छाँव की चोटें
छाँव में देखे धूप के छाले

अपने अन्दर महक रहा था प्यार–
ख़ुद से बाहर तलाश करते थे

अपनी और मीना कुमारी जी की चंद पंक्तियों के द्वारा गुलज़ार साहब ने उनके जटिल व्यक्तित्व को कितनी आसानी से पाठकों के लिए पारदर्शी बना दिया है। अगर गुलज़ार ने मीना जी के कवि मन को टटोलने की कोशिश की है तो संगीतकार खय्याम को मीना जी के दिल की व्यथा को उनकी आवाज़ के माध्यम से निकालने का श्रेय जाता है।

खय्याम द्वारा संगीतबद्ध एलबम I write I recite EMI/HMV में मीना जी ने अपनी दिल की मनोभावनाओं को बड़ी बारीकी से अपने स्वर में ढाला है। इस एलबम से ली गई उनकी ये ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है। आशा है आपको भी पसंद आएगी।

आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता

जब जुल्फ की कालिख में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता

हँस हँस के जवाँ दिल के हम क्यूँ न चुने टुकड़े
हर शख़्स की किस्मत में ईनाम नहीं होता

बहते हुऐ आँसू ने आँखों से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता

दिन डूबे हैं या डूबी बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता

 

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