शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010

जोर का ठुमका हाए जोरों से लगा : आइए साल को विदा करें इस साल के झुमाने वाले गीतों के साथ

साल का आखिरी दिन और मसला साल के सबसे ज्यादा थिरकने वाले गीतों को याद करने का। आज जश्न और मस्ती के माहौल को आप तक पहुँचाने के लिए लाया हूँ इस साल के छः लोकप्रिय गीत जो लोगों को ठुमका लगवाने पर मजबूर करते रहे।सच पूछिए तो झूमने- झुमाने के मामले में ये साल पिछले साल से फीका जरूर रहा है। पिछले साल प्रीतम के ट्विस्ट, चोरबाजारी और विशाल के ढैन टणान के आलावा पीयूष मिश्रा ने राजनीतिक मुज़रा पेश कर जिस तरह हमारा तन मन हिलाया था वो उन्माद इस साल के शुरुआत के गीत पैदा नहीं कर सके।

इस साल गीतों में मस्ती का दौर शुरु हुआ इब्नबतूता की वज़ह से जो अपनी कब्र से अचानक ही जूता चरमराते हुए निकले। इब्नबतूता के जूते की चुरचुराहट सर्वैश्वर दयाल सक्सेना के प्रशंसकों के दिल की किरकिरी बन गई। तरह तरह के आरोप लगे पर हमारे गुलज़ार साहब बड़े इत्मिनान से इब्न बतूता से फुर्र फुर्र चिड़िया उड़वाते रहे। तो आइए एक बार फिर से आनंद उठाइए इस चुरमुराते और फुरफुराते से गीत का...




इब्न बतूता तो जनवरी की आखिर में आकर निकल गए। इसके बाद की कमान सँभाली शंकर एहसान लॉए ने फिल्म 'कार्तिक कालिंग कार्तिक में। कुछ और विकल्प ना होने की वज़ह से लोग उनकी इस अदा पे कुछ दिन ही सही पर झूमने के लिए विवश हुए.



यानि साल का पहला उत्तरार्ध सूखा सूखा ही गया। जुलाई में आई फिल्म आई हेट लव स्टोरीज़। अब इस फिल्म को देखने से लोग प्रेम कथाओं से कितने विमुख हुए ये तो पता नहीं पर कुछ लोगों को तो सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म देखने से विरक्ति जरूर हो गई। विशाल शेखर का संगीत जरूर युवाओं में खासा लोकप्रिय हुआ। खासकर फिल्म का ये शीर्षक गीत...




पर हिंदी फिल्म संगीत में इस साल सब से ज्यादा धमाल मचाया 'मुन्नी' ने। ललित पंडित ने बदनाम हुई का मुखड़ा तो पहले बन चुके गीतों से उठाया पर गीत के अंतरों में ऐसे ऐसे झटके दिये कि आम जनों ने इसे हाथों हाथ लिया। क्या दिल्ली क्या राजस्थान, क्या बिहार क्या यूपी हर जगह मुन्नी की बदनामी के चर्चे आम हो गए। शिल्पा व बेबो तो धन्य हो गयीं कि अभिनय के लिए ना सही पर अपनी अदाओं से ही किसी फिल्मी गीत में उनका नाम आ तो गया। और झंडू ब्रांड नेम वालों की तो लॉटरी ही खुल गई। बिना पैसा लगाए ही ऐसा प्रचार मिला कि इस पीढ़ी को अपने ब्रांडनेम की याद दिलाने की उन्हें आगे जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

मुन्नी कुछ ज्यादा यश बटोरने लगी तो साल के आखिर में विशाल शेखर की जोड़ी ने शीला को आगे खड़ा कर दिया। 'शीला की जवानी' का मैं तो कायल नहीं हुआ पर इस गीत के बाजार में आने का समय ऐसा है कि वर्ष के अंत में होने वाली पार्टियों में ये गीत फिलहाल अपने नयेपन की वज़ह से  लोगों की पसंदीदा लिस्ट में आएगा ही।


पर जब साल का अंत करीब आ रहा है तो मैं आपको एक ऐसे गीत के साथ छोड़ता हूँ  जो आपको ले जाएगा अगले साल में दलेर मेंहदी और ॠचा शर्मा के दिए गए एक जोर के झटके के साथ ..




चलते चलते एक शाम मेरे नाम के सभी पाठकों और मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। अगले साल में मिलेंगे वार्षिक संगीतमाला 2010 के गीतों के साथ...

रविवार, दिसंबर 26, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2010 का आगाज़ और एक नज़र पिछली संगीतमालाओं पर...

वार्षिक संगीतमाला 2010 में आप सबका स्वागत है। जैसा कि मैं पहले भी इस चिट्ठे पर कह चुका हूँ कि वार्षिक संगीतमालाएँ मेरे लिए नए संगीत में जो कुछ भी अच्छा हो रहा है उसको आप तक संजों लाने की कोशिश मात्र है। बचपन से रेडिओ सीलोन की अमीन सयानी की बिनाका और फिर विविधभारती पर नाम बदल कर आने वाली सिबाका गीतमाला सुनता रहा। उसका असर इतना था कि जब 2005 के आरंभ में अपने रोमन हिंदी ब्लॉग की शुरुआत की तो मन में एक ख्वाहिश थी कि अपने ब्लॉग पर अपनी पसंद के गीतों को पेश करूँ।

तो आइए एक नज़र डालें पिछली तीन साल की संगीतमालाओं की तरफ। मैंने अपनी पहली संगीतमाला की शुरुआत 2004  के दस बेहतरीन गानों से की जिसे 2005 में 25 गानों तक कर दिया। 2006 में जब खालिस हिंदी ब्लागिंग में उतरा तो ये सिलसिला इस ब्लॉग पर भी चालू किया जो कि आज अपने पाँचवे साल में है।

वार्षिक संगीतमाला 2004 में मेरी गीतमाला के सरताज गीत का सेहरा मिला था फिर मिलेंगे में प्रसून जोशी के लिखे और शंकर अहसान लॉए के संगीतबद्ध गीत "खुल के मुस्कुरा ले तू" को जबकि दूसरे स्थान पर भी इसी फिल्म का गीत रहा था कुछ खशबुएँ यादों के जंगल से बह चलीं। ये वही साल था जब कल हो ना हो, रोग, हम तुम, मीनाक्षी और पाप जैसी फिल्मों से कुछ अच्छे गीत सुनने को मिले थे।


वार्षिक संगीतमाला 2005 में बाजी मारी स्वानंद किरकिरे और शान्तनु मोइत्रा की जोड़ी ने जब परिणिता फिल्म का गीत 'रात हमारी तो चाँद की सहेली' है और हजारों ख्वाहिशें ऍसी के गीत 'बावरा मन देखने चला एक सपना' क्रमशः प्रथम और द्वितीय स्थान पर रहे थे।


वार्षिक संगीतमाला 2006 में ओंकारा और गुरु के गीत छाए रहे पर बाजी मारी 'उमराव जान' के संवेदनशील गीत 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' ने। इस गीत
और दूसरे नंबर के गीत 'मितवा ' को लिखा था जावेद अख्तर साहब ने



वार्षिक संगीतमाला 2007 में एक बार फिर प्रसून जोशी के लिखे और शंकर अहसान लॉए के संगीतबद्ध, 'तारे जमीं पर' के गीतों के बीच ही प्रथम और द्वितीय स्थानों की जद्दोजहद होती रही। पर माँ...जैसे नग्मे की बराबरी भला कौन गीत कर सकता था




वार्षिक संगीतमाला 2008  में सरताज गीत का  का सेहरा बँधा युवा संगीतकार अमित त्रिवेदी के सर पर। सरताज गीत था शिल्पा राव के गाए और अमिताभ द्वारा लिखे इस बेहद संवेदनशील नग्मे के बोल थे इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला !.


बतौर संगीतकार ए आर रहमान ने 2008 की संगीतमाला पर अपनी बादशाहत कायम रखी थी। जोधा अकबर, युवराज, जाने तू या जाने ना, गज़नी की बदौलत उस साल की संगीतमाला में उनके गीत दस बार बजे। रहमान के आलावा 2008  के अन्य सफल संगीतकारों में विशाल शेखर, सलीम सुलेमान और अमित त्रिवेदी का नाम लिया जा सकता है। उसी साल संगीतमाला में अमिताभ वर्मा, जयदीप साहनी, अशोक मिश्रा, इरफ़ान सिद्दकी, मयूर सूरी, कौसर मुनीर,अब्बास टॉयरवाला और अन्विता दत्त गुप्तन जैसे नए गीतकारों ने पहली बार अपनी जगह बनाई।  वहीं गायक गायिकाओं में विजय प्रकाश, जावेद अली, राशिद अली, श्रीनिवास और शिल्पा राव जैसे नामों ने पहली बार संगीत प्रेमी जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।

साल 2009  में पहली बार मेरे चहेते गीतकार गुलज़ार पहली पायदान पर कमीने फिल्म के लिए विशाल भारद्वाज के संगीतबद्ध गीत इक दिल से दोस्ती के सहारे कब्जा जमाया। वार्षिक संगीतमाला 2009 में  संगीतकार शंकर-अहसान-लॉय और प्रीतम ने  अपनी जोरदार उपस्थिति रखी। जहाँ शंकर-अहसान-लॉय के छः गीत इस संगीतमाला में बजे वहीं प्रीतम ने अजब प्रेम की गजब कहानी, लव आज कल एवम् बिल्लू में बेहद कर्णप्रिय संगीत देकर चार पॉयदानों पर अपना कब्जा जमाया।

पर साल 2009 किसी एक संगीतकार का नहीं बल्कि मिश्रित सफलता का साल रहा। रहमान, विशाल भारद्वाज, शांतनु मोइत्रा जैसे संगीतकार जो साल में चुनिंदा फिल्में करते हैं, का काम भी बेहतरीन रहा। इसलिए लोकप्रियता में दिल्ली ६ , कमीने और थ्री इडियट्स भी पीछे नहीं रहे। अमित त्रिवेदी को देव डी और वेक अप सिड के लिए जहाँ शाबासी मिली वहीं सलीम सुलेमान द्वारा संगीत निर्देशित कुर्बान और रॉकेट सिंह जैसी फिल्में भी चर्चा में रहीं। वैसे जहाँ साल २००९ के गीतकारों की बात आती है तो पीयूष मिश्रा का नाम सबसे पहले आता है। ना केवल उन्होंने फिल्म गुलाल के गीतों को अपने बेहतरीन बोलों से सँवारा पर साथ ही गीतों में कुछ अभिनव प्रयोग करते हुए फिल्म संगीत के बोलों को एक नई दिशा दी।

अब ये स्पष्ट कर दूँ कि इस गीतमाला का पॉपुलरटी से कोई लेना देना नहीं है। गायिकी, संगीत , बोल और इनका सम्मिलित प्रभाव इन सभी आधारों को बराबर वज़न दे कर मैं अपनी पसंद के गीतों का क्रम तैयार करता हूँ। कई बार ये स्कोर्स लगभग बराबर होते हैं इसलिए गीतों को ऊपर नीचे करना बड़ा दुरुह होता है। 

साल 2010 की संगीतमाला का स्वरूप क्या होगा इसका अंदाजा तो आप अगले साल जनवरी के पहले सप्ताह से लगा सकेंगे जब वार्षिक संगीतमाला की 25 वीं सीढ़ी से पहली सीढ़ी तक चढ़ने की उल्टी गिनती शुरु होगी। वैसे उसके पहले 31 दिसंबर को आना ना भूलिएगा क्यूँकि इस ब्लॉग पर वो शाम होगी साल के मस्ती भरे गीतों के साथ आपको झूमने झुमाने की ...

रविवार, दिसंबर 19, 2010

मित्रो मरजानी : एक अनूठे नारी व्यक्तित्व की दास्तान...

ज़िंदगीनामा पढ़ने के बाद मित्रों ने याद दिलाया था कि आपको कृष्णा सोबती की लिखी किताब मित्रो मरजानी भी पढ़नी चाहिए। मित्रो के किरदार से बहुत पहले एक मित्र ने अपनी ब्लॉग पोस्ट के ज़रिए मिलाया था। पर ज़िदगीनामा के मिश्रित अनुभव ने मित्रो.. को पढ़ने की इच्छा फिर से जगा दी थी। कुछ महिने पहिले जब पुस्तक मेले में राजकमल द्वारा प्रकाशित इसका सौ पेजों का पेपरबैक संस्करण देखने को मिला तो तत्काल मैंने इसे खरीद लिया। वैसे भी आजकल पतली किताबों को देखकर ज्यादा खुशी होती है क्यूँकि ये भरोसा तो रहता है कि एक बार पढ़ने बैठा तो ख़त्म कर के ही उठूँगा।

मित्रो मरजानी एक मध्यमवर्गीय संयुक्त व्यापारी परिवार की लघु कथा है जिसकी केंद्रीय किरदार 'मित्रो' यानी घर की मँझली बहू है। मित्रो को भगवान ने अनुपम सौंदर्य बख़्शा है और मित्रो इस बात पर इतराती भी है। अपने इस यौवन को वो पूरी तरह जीना चाहती है। पति सरदारी लाल से संपूर्ण शारीरिक सुख न मिलने पर वो कुढ़ती रहती है। अपनी कुढ़न को वो सास और देवरानी के सामने बिना किसी लाग लपेट के निकालती भी रहती है। कृष्णा सोबती की मित्रो उन औरतों में से नहीं है जो सरदारीलाल जैसे पुरुष को अपनी नियति मान कर, रोज़ के पूजा पाठ और चूल्हा चक्की में मन रमाकर अपनी शारीरिक सुख की अवहेलना कर सके। वो अपनी इस भूख की तृप्ति को अपना वाज़िब हक़ समझती है। सो पति की अनुपस्थिति में वो उसके मित्र प्यारों सै नैन मटक्का करने में परहेज़ नहीं करती। सरदारीलाल को अपनी कमी का अहसास है। पत्नी की रंगीन तबियत उसकी बौखलाहट को और बढ़ा देती है। वो अपनी पत्नी के चरित्र पर सवाल उठाता है। मार कुटौवल के बाद जब ससुर के सामने पंचायत जुड़ती है तो मित्रो अपनी सफाई बड़ी बेबाकी से कुछ यूँ देती है।

"सज्जनो मेरे पति की बात सच भी है और झूठ भी।........ अब आप ही कहो सोने सी अपनी देह झुर झुरकर जला लूँ या गुलजारी देवर की घरवाली की न्याय सुई सिलाई के पीछे जान खपा लूँ? सच तो यूँ जेठ जी कि दीन दुनिया बिसरा मैं मनुक्ख की जात से हँस खेल लेती हूँ। झूठ यूँ कि खसम का दिया राजपाट छोड़ कर मैं कोठे पर तो नहीं जा बैठी।"

पुरुष कालांतर से स्त्री को उसके शरीर से मापता तौलता आया है। पुरुष की इस लोलुपता को उसके स्वाभाव का अभिन्न अंग मान लिया गया। पर स्त्री अगर ऍसा रूप धारण कर ले तो क्या हो इस प्रश्न को कम ही लेखकों ने उपन्यास का विषय बनाया है। पर कृष्णा सोबती ने 1967 में गढ़े इस उपन्यास में एक ऐसे स्त्री चरित्र का निर्माण किया जिसे अपने शरीर और उसकी जरूरतों का ना सिर्फ ख्याल है पर उसे वो हर कीमत पर पाना भी चाहती है। कृष्णा जी ने इस किताब के अंग्रेजी अनुवाद To hell with Mitro के प्रकाशित होने के पूर्व अपने इस उपन्यास के बारे में कहा था कि तब का हिंदी इलाकों का समाज बेहद रुढ़िवादी था। इसके प्रकाशन के समय इस विषय को काफी उत्तेजक कहा गया पर लोगों ने उपन्यास के अंदर के तत्त्व को पहचाना और उसे उसी तरह लिया।

मित्रो मरजानी की उत्पत्ति के बारे में कृष्णा जी का कहना था
एक सुबह मैंने मन ही मन एक दृश्य देखा कि कमरे में छाता लटका हुआ है और एक वृद्ध व्यक्ति नीचे पलंग पर लेटा हुआ है। संयुक्र परिवार के घर की इसी छवि से इस उपन्यास की शुरुआत हुई। मेरी एक बड़ी कमज़ोरी है। कहानी का अगर खाका मेरे मन में हो तो मैं नहीं लिख सकती। मैं चरित्रों को टोहती हूँ, परखती हूँ और आगे बढ़ती हूँ। चरित्रों की सोच पर मैं अपनी सोच नहीं लादती। मित्रो की अतृप्त इच्छाएँ जिस ठेठ भाषा में निकल कर आई हैं वो निहायत उसकी हैं।

कुछ मिसाल देखें

"जिन्द जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म.."

"मेरा बस चले तो गिनकर सौ कौरव जन डालूँ पर अम्मा, अपने लाडले बेटे का भी तो आड़तोड़ जुटाओ! निगोड़े मेरे पत्थर के बुत में भी तो कोई हरकत हो !.."

लेखिका  सिर्फ मित्रो की सोच को सामने नहीं रखती पर साथ साथ परिवार की मर्यादित बड़ी बहू के माध्यम से नारी के लिए बनाए गए सामाजिक मापदंडों का जिक्र करना नहीं भूलती। बड़ी बहू के अब इस कथन की ही बानगी लीजिए

"इस कुलबोरन की तरह जनानी को हया न हो, तो नित-नित जूठी होती औरत की देह निरे पाप का घट है।"
कृष्णा सोबती जी की भाषा शैली एक बार फिर विलक्षण है। सास बहुओं के झगड़े, जेठानी देवरानी के आपसी तानों, मित्रों की बेलगाम जुबान को कृष्णा सोबती ने जिस शैली में लिखा है उसे पढ़कर आप सीधे अपने आपको इन चरित्रों के बीच पाते हैं। जिंदगीनामा की तरह यहाँ भी आंचलिकता का पुट है पर पंजाबी के भारी भरकम शब्दों का बोझ नहीं। ख़ैर वापस चले मित्रों के चरित्र पर...

सोबती जी ने मित्रो के चरित्र के कई रंग दिखाए हें जो श्वेत भी हैं और श्याम भी। मित्रो मुँहफट जरूर है पर उसकी बातों की सच्चाई सामने वाले को अंदर तक कँपा देती है। मित्रो अपनी छोटी देवरानी की तरह काम से जी नहीं चुराती पर अगर उसका मूड ना हो तो उसे उसके शयन कक्ष से बाहर निकालना मुश्किल है। सास के सामने उनके बेटे की नामर्दी के ताने देने से वो ज़रा भी नहीं सकुचाती पर साथ ही छोटी बहू द्वारा सास का अपमान होते देख वो उसकी अच्छी खबर लेती है। साज श्रृंगार में डूबी रहने वाली मित्रो छोटे देवर के गबन से आई मुसीबत को दूर करने के लिए अपने आभूषण देने में एक पल भी नहीं हिचकती। हर रात पति के आने की प्रतीक्षा में घंटो बाट निहारती है तो दूसरी तरफ़ गैर मर्दों से अपनी हसरतों को पूरा करने के स्वप्न भी देखा करती है।

मित्रो की ये चारत्रिक विसंगतियाँ पाठकों के मन में उसके प्रति आकर्षण बनाए रखती हैं। मित्रो अपनी जिंदगी से क्या चाहती है ये तो लेखिका शुरु से ही विश्लेषित करती चलती हैं। पर मित्रों अपनी देवरानियों से अलग अनोखी क्यूँ हुई इसका संकेत उपन्यास के आखिर में जा कर मिलता है जब लेखिका पाठकों को मित्रों की माँ से मिलवाती हैं । जिंदगी भर अपने यौवन का आनंद उठाने वाली और उन्हीं कदमों पर अपनी बेटी को बढ़ावा देने वाली माँ का एक नया रूप मित्रो के सामने आता है जो उसे भीतर तक झकझोर देता है। उपन्यास के अंत में आया ये नाटकीय मोड़ बड़ी खूबी से रचा गया है।

आज जब नारी की आजादी को शारीरिक और मानसिक दोनों नज़रिए से देखने की बहस तेज हो चुकी है ये उपन्यास एक स्त्री के चरित्र की उन आंतरिक परतों को टटोलता है जिस पर हमारा समाज ज्यादातर चुप्पी साध लेता है।मात्र पचास रूपये के पेपरबैक संस्करण को अगर आपने नहीं पढ़ा तो जरूर पढ़ें। मित्रो का चरित्र आपको जरूर उद्वेलित करेगा।

सोमवार, दिसंबर 13, 2010

रंजीत रजवाड़ा : ग़ज़ल गायिकी में पारंगत एक अद्भुत युवा कलाकार...

पिछले दो हफ्तों से मैं सा रे गा मा पा के अपने पसंदीदा प्रतिभागियों के बारे में लिखता आ रहा हूँ। स्निति और सुगंधा के बाद आज बारी थी इस साल के मेरे सबसे चहेते गायक रंजीत रजवाड़ा की। रंजीत के बारे में सोचकर मन में खुशी और दुख दोनों तरह के भाव आ रहे हैं। खुशी इस सुखद संयोग के लिए कि जब रंजीत की गायिकी के बारे में ये प्रविष्टि लिख रहा था तो मुझे पता चला कि आज ग़ज़लों के राजकुमार कहे जाने वाले इस बच्चे का अठारहवाँ जन्मदिन भी है। और साथ ही मलाल इस बात का भी कि रंजीत को सा रे गा मा पा में सुनने का सौभाग्य अब आगे नहीं मिलेगा क्यूँकि पिछले हफ्ते संगीत के इस मंच से उसकी विदाई हो गई।



पर इस बात का संतोष है कि हिंदी फिल्म संगीत के पार्श्वगायकों को मौका देने वाले सा रे गा मा पा के मंच ने एक ख़ालिस ग़ज़ल गायक को भी अपनी प्रतिभा हम तक पहुँचाने का मौका दिया। आज के मीडिया की सबसे बड़ी कमी यही है कि वे हमारी शानदार सांगीतिक विरासत और विभिन्न विधाओं में महारत हासिल किए हुए कलाकारों को सही मंच प्रदान नहीं करती। शास्त्रीय गायिकी हो या सूफ़ी संगीत, लोकगीत हों या भक्ति संगीत, ग़ज़लें हों या कव्वालियाँ इन्हें भी टीवी और रेडिओ के विभिन्न चैनलों में उतनी ही तवज़्जह की दरक़ार है जितने पुराने नग्मों और आज के हिंदी फिल्म संगीत को। पर मीडिया के संगीत व अन्य चैनल शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी से ही इतने परेशान है कि इस ओर भला उनका ध्यान कहाँ जा पाता है? जब तक संगीत की हमारी इस अनमोल विरासत को फ़नकारों के माध्यम से नई पीढ़ी तक नहीं पहुँचाया जाएगा ये उम्मीद भी कैसे की जा सकती है कि उनकी तथाकथित सांगीतिक अभिरुचि बदलेगी?

इसीलिए जब रंजीत को आडिशन के वक़्त ये दिल ये पागल दिल मेरा ....गाने पर भी चुन लिया गया तो मुझे बेहद खुशी हुई। सा रे गा मा पा में उनका सफ़र और उम्दा हो सकता था अगर माननीय मेन्टरों ने उनकी प्रतिभा से न्याय करते हुए उन्हें सही गीत या ग़ज़लें दी होतीं। आज का युग विशिष्टताओं का युग है। गायिकी के इस दौर में रफ़ी, किशोर , मन्ना डे जैसे हरफ़नमौला गायक आपको कम ही मिलेंगे। पिछले दशक के जाने माने गायकों जैसे सोनू निगम, अभिजीत, उदित नारायण, कुमार शानू, अलका याग्निक, कविता कृष्णामूर्ति फिल्मों में कम और स्टेज शो में ज्यादा सुने जाते है। आज तो हालात ये हैं कि हर नामी संगीतकार खुद ही गायक बन बैठा है। विशाल भारद्वाज, विशाल, शेखर, सलीम,शंकर महादेवन इसकी कुछ जीती जागती मिसालें हैं। इन कठिन हालातों में सिर्फ उन गायकों के लिए पहचान बनाने के अवसर हैं जिनकी गायन शैली विशिष्ट है। सूफ़ियत का तड़का लगाना हो तो राहत फतेह अली खाँ, शफ़क़त अमानत अली, कैलाश खेर, रेखा भारद्वाज,ॠचा शर्मा सरीखी आवाज़ों का सहारा लिया जाता है। ऊँचे सुरों वाले गीत हों तो फिर सुखविंदर और दलेर पाजी अपना कमाल दिखला जाते हैं। मीठे सुर तो श्रेया घोषाल और हिप हॉप तो सुनिधि चौहान। जो जिस श्रेणी में अव्वल है उससे वैसा ही काम लिया जा रहा है।

सा रे गा मा पा के मंच से जब रंजीत रजवाड़ा ने गुलाम अली की तीन चार ग़ज़लें बड़ी काबिलियत से गा लीं तो हमारे मूर्धन्य संगीतकार विशाल जी को लगा कि उनके गायन में कोई विविधता नहीं है। बताइए विविधता की बात वो शख़्स कर रहा है जो खुद सिर्फ हिप हॉप वाले वैसे गीतों को गाता रहा है जिसमें खूब उर्जा (बहुत लोगों को लगेगा कि शोर सही शब्द है) की आवश्यकता होती है। अगर रजवाड़ा से विविधता के नाम पर गुलाम अली के अलावा अन्य मशहूर ग़ज़ल गायकों या पुरानी हिंदी फिल्मों की ग़ज़लें गवाई जाती तो ये फ़नकार समा बाँध देता पर उन्हें कहा गया कि हारमोनियम छोड़ कर कुछ दूसरी तरह का गीत चुनिए। लिहाज़ा रंजीत ने कुछ फिल्मी गीतों पर भी मज़बूरन हाथ आज़माया। नतीजा सिफ़र रहा। वो तो उनकी ग़ज़ल गायिकी से मिल रही लोकप्रियता थी जो उन्हें इतनी साधारण प्रस्तुति के बाद भी बचा ले गई।

रंजीत राजस्थान के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं। पिता को संगीत का शौक था पर संगीत के क्षेत्र में कुछ करने की ललक को वो फलीभूत ना कर सके। पर बेटे में जब उनको वो प्रतिभा नज़र आई तो उन्हें लगा कि जो वो अपनी ज़िदगी में ना कर पाए शायद बेटा कर दे। रंजीत ने भी होटल में काम करने वाले अपने पिता को निराश नहीं किया। चिरंजी लाल तनवर से संगीत सीख रहे रंजीत ने पहले छोटी मोटी प्रतियोगिताएँ जीती और फिर 2005 में तत्कालीन राष्ट्रपति से बालश्री का खिताब पाया। अगले साल आल इंडिया रेडियो द्वारा भी सर्वश्रेष्ठ गायक का ईनाम भी जीता। लता दी और सोनू निगम जैसे माने हुए कलाकार उन्हें यहाँ आने से पहले सुन चुके हैं। अगर आपने अभी तक रंजीत को गाते देखा सुना नहीं तो ये काम अवश्य करें।

दिखने में दुबले पतले और दमे की बीमारी से पीड़ित जब रंजीत गाते हैं तो एक ओर तो हारमोनियम पर उसकी ऊँगलियाँ थिरकती हैं तो दूसरी तरफ़ ग़ज़ल की भावनाओं के अनुरूप उसकी आँखों की पुतलियाँ। रंजीत ने ग़ज़ल गायिकी के पुराने स्वरूप को बड़े सलीके के साथ इन चंद हफ्तों में संगीत प्रेमी जनता तक पहुँचाने का जो काम किया है, उसके लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। आज अंतरजाल पर जगह जगह लोग रंजीत रजवाड़ा की गायिकी की मिसालें देते नहीं थक रहे हैं और खुशी की बात ये है कि इसका बहुत बड़ा हिस्सा वैसे युवाओं का है जिन्होंने ग़ज़ल को कभी ठीक से सुना ही नहीं।

सा रे गा मा पा के इस सफ़र में रंजीत ने ज्यादातर अपने पसंदीदा ग़ज़ल गायक गुलाम अली की ग़ज़लें गायीं। हंगामा हैं क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है...., चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है..., ये दिल ये पागल दिल मेरा.... , आज जाने की जिद ना करो... इन सब की प्रस्तुतियों में उन्होंने खूब तालियाँ बटोरी पर मुझे उनकी सबसे बेहतरीन प्रस्तुति तब लगी जब उन्होंने याद पिया की आए गाया। रघुबीर यादव के सम्मुख गाए इस गीत में रंजीत को दीपक पंडित की वॉयलिन और बाँसुरी पर पारस जैसे नामी साज़कारों के साथ गाने का मौका मिला और उन्होंने इस अवसर पर अपने सुरों में कोई कमी नहीं होने दी। तो सुनिए रंजीत की ये प्रस्तुति




रंजीत आपको एक बार फिर से अपने अठारहवें जन्मदिन की बधाई। मेरी शुभकामना है आप ग़ज़ल गायिकी में जिस मुकाम पर इतनी छोटी उम्र में पहुँचे हैं उसमें आप खूब तरक्की करें और रियाज़ के साथ साथ अपने स्वास्थ का भी ध्यान रखें।

सोमवार, दिसंबर 06, 2010

सुगंधा मिश्रा और उनका गाया वो यादगार पंजाबी टप्पा..

सा रे गा मा पा पर उभरती प्रतिभाओं के बारे में बात करते हुए पिछले हफ्ते आपसे बात हुई स्निति मिश्रा के बारे में। पर आज की ये प्रविष्टि है सुगंधा मिश्रा के बारे में। स्निति की तरह ही सुगंधा भी शास्त्रीय संगीत की उभरती हुई गायिका हैं। सा रे गा मा पा के इस साल के प्रतिभागियों में सुगंधा ही एक ऐसी प्रतिभागी हैं जो यहाँ आने के पहले ही टीवी के दर्शकों के बीच अपनी पहचान बना चुकी हैं। पर ये पहचान उन्हें अपनी गायिकी की वज़ह से नहीं बल्कि स्टार वन में आने वाले कार्यक्रम लॉफ्टर चैलेंज में मिमिकरी करने की वजह से मिली है।


बहुमुखी प्रतिभा की धनी सुगंधा साल दर साल विभिन्न युवा महोत्सवों में शास्त्रीय गायन में ढेर सारे पुरस्कार बटोरने के साथ साथ वेस्टर्न सोलो श्रेणी में भी पुरस्कृत हो चुकी हैं। पर वो आज मेरी इस पोस्ट की केंद्र बिंदु में हैं तो अपने लाजवाब शास्त्रीय गायन की वज़ह से।

पच्चीस वर्षीय सुगंधा के पिता संतोष मिश्रा दूरदर्शन के जालंधर केंद्र में स्टेशन डॉयरेक्टर के पद पर कार्यरत हैं। बहुत छोटी उम्र से उन्होंने अपने दादा पंडित शंकर लाल मिश्रा से संगीत की शिक्षा लेनी शुरु की। सुगंधा का पूरा परिवार संगीत से जुड़ा है। चाचा अरुण मिश्रा सितार वादक हैं। दादा जी इंदौर के उस्ताद अमीर खाँ के शिष्य रहे है। उन्हें सुगंधा का मिमकरी करना और पाश्चात्य संगीत में दखल देना अच्छा नहीं लगता। पर सुगंधा शास्त्रीय संगीत को अपनाते हुए इन विधाओं में भी अपने हुनर को बिखेरते रहना चाहती हैं। आज के युवाओं की तरह सुगंधा के लिए भी शोहरत और पैसे की अहमियत है और वो मात्र शास्त्रीय संगीत का दामन पकड़ कर गुमनामी की जिंदगी नहीं जीना चाहती। मेरे ख्याल से इस तरह की सोच में कोई बुराई नहीं बशर्ते ये उनकी शास्त्रीय गायन की प्रतिभा को प्रभावित नहीं करे।

सुगंधा की मिमकरी के साथ गाने की कई झलकें मैं पहले भी देख चुका था। पर वो शास्त्रीय संगीत में इतनी प्रवीण है इसका अंदाज़ा मुझे पहली बार तब हुआ जब उन्होंने सा रे गा मा के आडिशन में एक पंजाबी टप्पा गा कर सुनाया। टप्पे के बोल थे यार दी मैनूँ तलब...। टप्पे के उस टुकड़े को सुन कर मुझे जिस आनंद की अनुभूति हुई उसका वर्णन करना मुश्किल है। बस इतना ही कहूँगा की आज भी मैं उस छोटी सी रिकार्डिंग को बार बार बार रिवाइंड कर सुनता रहता है और मन में एक गहन शान्ति का अहसास तारी होता रहता है।

वैसे पूरे टप्पे को ग्वालियर घराने के नामी शास्त्रीय गायक लक्ष्मण कृष्णराव पंडित ने गाया है। शास्त्रीय संगीत के समीक्षक मानते हैं कि टप्पा गाना कठिन भी है और द्रुत गति से गाने के लिए इसमें काफी उर्जा भी लगानी पड़ती है पर सुगंधा ने जब इसे सुनाया तो ऐसा लगा कि उनके लिए तो ये बड़ा ही सहज था।



सा रे गा मा में सुगंधा का सफर मिश्रित रहा है। उन्होंने पूरे कार्यक्रम में अलग अलग कलाकारों के गाए गीतों को अपनी आवाज़ दी है। कुछ को उन्होंने बड़ी बखूबी निभाया तो कुछ में उनका प्रदर्शन खास नहीं रहा। पर जब जब उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों को चुना है तब तब सुनने वालों को उनकी सबसे सशक्त प्रस्तुति देखने को मिली है। मिसाल के तौर पर दिल्ली 6 के गीत भोर भई तोरी बाट तकत पिया जो राग गुजरी तोड़ी पर आधारित है को सुगंधा ने बड़ी मेहनत से निभाया। तो आइए एक बार फिर सुनें सुगंधा को





सुगंधा मिश्रा फिलहाल सा रे गा मा पा के अंतिम पाँच में हैं। वो प्रतियोगिता में अंत तक रहेंगी या नहीं, ये तो वक़्त ही बताएगा। हाँ इतना तो तय है कि अपनी बहुआयामी प्रतिभा को सँजोते हुए अगर वो शास्त्रीय गायिकी में अपनी निष्ठा और लगन को बनाए रखने में सफल हो पाती हैं तो अवश्य सफलता के उस मुकाम तक पहुँचेगी जिसकी उनको तलाश है।

सोमवार, नवंबर 29, 2010

स्निति मिश्रा की आवाज़, नुसरत साहब का गीत : तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ...

सा रे गा मा पा... हमेशा से ही मेरा संगीत का पसंदीदा कार्यक्रम रहा है। इसकी दो खास वज़हें हैं। पहली तो ये कि इसमें हर साल इसमें ऐसे प्रतिभागी आते ही रहते हैं जिनकी प्रतिभा से प्रभावित ना हो पाना किसी संगीतप्रेमी के लिए बड़ा ही मुश्किल है। दूसरे ये कि यही वो कार्यक्रम है जहाँ प्रतियोगी कुछ ऐसे गीत और बंदिशें चुनते हैं जिनको स्टेज पर निभाने के लिए हुनर के साथ बड़े ज़िगर की भी जरूरत होती है।

चार महिने पहले जब ये कार्यक्रम शुरु हुआ तो कमल खाँ और अभिलाषा जैसे मँजे हुए गायकों के अलावा तीन नई प्रतिभाओं ने मेरा दिल जीत लिया था। ये तीन कलाकार थे ग़ज़लों के राजकुमार रंजीत रजवाड़ा और शास्त्रीय संगीत में महारथी दो गायिकाएँ स्निति मिश्रा और सुगंधा मिश्रा। पिछले हफ्ते स्निति अंतिम पाँच में जगह बनाने के पहले ही बाहर हो गयीं।

उड़ीसा के बोलांगीर जिले से ताल्लुक रखने वाली और फिलहाल भुवनेश्वर में अपनी पढ़ाई कर रही स्निति की आवाज़ अपने तरह की एक अलग ही आवाज़ है।



रहमान साहब ने भी कार्यक्रम में आ के ये स्वीकारा कि इस तरह की आवाज़ को वो वर्षों बाद सुन रहे हैं। स्निति फिलहाल भुवनेश्वर में अपने गुरु डा. रघुनाथ साहू से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। उनकी हिम्मत और प्रतिभा का परिचय इसी बात से मिल जाता है कि कोलकाता में हुए प्रारंभिक आडिशन में उन्होंने उस्ताद नुसरत फतेह अली खाँ का गाया गीत सुनाया। पहले ही आलाप ने जजों का मन मोह लिया और स्निति सारेगामापा की मुख्य प्रतियोगिता के लिए चुन ली गयीं। वो गीत था फिल्म बंडित क्वीन का और गीत के बोल थे

मोरे सैयाँ तो हैं परदेस, मैं क्या करूँ सावन को
सूना लागे सजन बिन देश , मैं ढूँढूँ साजन को

देखूँ राहें चढ़ के अटरिया
जाने कब आ जाए साँवरिया
जब से गए मोरी ली ना खबरिया
छूटा पनघट, फूटी गगरिया
सूना लागे सजन बिन देश , मैं ढूँढूँ सावन को
मोरे सैयाँ तो हैं परदेस, मैं क्या करूँ साजन को....

नुसरत साहब जैसे महान कलाकार की रचना को नारी स्वर में सुनना एक अलग ही आनंद दे गया। स्निति ने वैसे दो अंतरों में से एक ही गाया पर उनकी आवाज़ और गायिकी ने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया.। तो आइए सुनें स्निति को



स्निति का नुसरत प्रेम इस प्रतियोगिता में आगे भी ज़ारी रहा और एक महिने पहले उन्होंने इसी फिल्म के लिए नुसरत साहब का गाया एक और गीत तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे... चुना। दरअसल बंडित क्वीन में नुसरत साहब ने जो गीत गाए हैं वे उनके अपने अंदाज़ से थोड़ा हट के थे और स्निति ने इन्हें अपना स्वर दे कर उनका एक ताज़ा रूप हमारे मानस पटल पर अंकित कर दिया। स्निति की खासियत ये है कि वो कोई भी गीत अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में गाती हैं। देखिए तो कितने आत्मविश्वास के साथ स्निति ने निभाया इस गीत को...

सजना, सजना रे,
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे

काटूँ कैसे तेरे बिना बैरी रैना,
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे

पलकों ने बिरहा का गहना पहना
निंदिया काहे ऐसी अँखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे...सजना रे...

बूँदों की पायल बजी, सुनी किसी ने भी नहीं
खुद से कही जो कही, कही किसी से भी नहीं
भीगने को मन तरसेगा कब तक
चाँदनी में आँसू चमकेगा कब तक
सावन आया ना ही बरसे और ना ही जाए
सावन आया ना ही बरसे और ना ही जाए
हो निंदिया काहे ऐसी अँखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ..सजना रे.

जब बंडित क्वीन सिनेमा हॉल में जाकर देखी थी, पता नहीं क्यूँ फिल्म के संगीत पर ज्यादा ध्यान ही नहीं गया था। शायद फिल्म की गंभीरता की वज़ह से ही ऐसा हुआ हो। नुसरत साहब के गाए इन गीतों के बोल भी उतने ही प्यारे हैं जितनी की नुसरत साहब की गायिकी। इस गीत में एक अंतरा और भी है जो कुछ यूँ है

सरगम सुनी प्‍यार की, खिलने लगी धुन कई
खुश्‍बू से 'पर' माँगकर उड़ चली हूँ पी की गली
आँच घोले मेरी साँसों में पुरवा
डोल डोल जाए पल पल मनवा
रब जाने के ये सपने हैं या हैं साए
हो निंदिया काहे ऐसी अँखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ..सजना रे.


स्निति सारेगामा का मंच छोड़ चुकी हैं पर अपनी जो आवाज़ हमें वो सुनाकर गई हैं वो श्रोताओं को बहुत दिनों तक याद रहेगी। आशा है अपनी गायिका में और परिपक्वता ला कर कुछ वर्षों में वो एक प्रतिष्ठित गायिका के रूप में अपने आप को स्थापित कर पाएँगी।

गुरुवार, नवंबर 25, 2010

यह बच्चा भूखा भूखा-सा..यह बच्चा सूखा सूखा-सा..यह बच्चा कैसा बच्चा है? Ye Bachcha kaisa bachcha hai Ibn e Insha

दो साल पहले इब्ने इंशा की रचनाओं को पढ़ते समय उनकी ये लंबी सी कविता पढ़ी थी। एक बार पढ़ने के बाद कविता इतनी पसंद आई थी कि कई कई बार पढ़ी और हर बार अंतिम पंक्तियों तक पहुँचते पहुँचते मन में एक टीस उभर आती थी। कविता तो सहेज कर रख ली थी और सोचा था कि इस साल बाल दिवस के अवसर पर आप तक इसे जरूर पहुँचाऊँगा पर पिछले दो हफ्तों में घर के बाहर रहने की वज़ह से ये कार्य समय पर संभव ना हो सका।

पाकिस्तान के इस मशहूर शायर और व्यंग्यकार की नज़्मों और कविताओं में एक ऐसी सादगी रहती है जिसके आकर्षण में क्या खास, क्या आम सभी खिंचे चले आते हैं। शेर मोहम्मद खाँ के नाम से लुधियाने में जन्मे इब्ने इंशा की गिनती एसे चुनिंदा कवियों में होती है जिन्हें हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं पर समान रूप से महारत थी। इसलिए कभी कभी उनकी रचनाओं को कविता या नज़्म की परिभाषा में बाँधना मुश्किल हो जाता है।

इब्ने इंशा ने ये कविता सत्तर के दशक में आए इथिपोया के अकाल में पीड़ित एक बच्चे का चित्र देख कर लिखी थी। बच्चे की इस अवस्था ने इब्ने इंशा जी को इतना विचलित किया कि उन्होंने उस बच्चे पर इतनी लंबी कविता लिख डाली।

सात छंदों की इस कविता में इब्ने इंशा बच्चे की बदहाली का वर्णन करते हुए बड़ी खूबी से पाठकों के दिलों को झकझोरते हुए उनका ध्यान विश्व में फैली आर्थिक असमानता पर दिलाते हैं और फिर वे ये संदेश भी देना नहीं भूलते कि विभिन्न मज़हबों और देशों की सीमाओं में बँटे होने के बावज़ूद हम सब उसी आदम की संताने हैं जिससे ये सृष्टि शुरु हुई थी। लिहाज़ा दुनिया का हर बच्चा हमारा अपना बच्चा है और उसकी जरूरतों को पूरा करने का दायित्व इस विश्ब की समस्त मानव जाति पर है।

(छायाकार : अमर पटेल)

इस कविता को पढ़ना अपने आप में एक अनुभूति है। शायद इसे पढ़ सुन कर आप भी इब्ने इंशा के ख़यालातों में अपने आप को डूबता पाएँ



1.
यह बच्चा कैसा बच्चा है

यह बच्चा काला-काला-सा
यह काला-सा मटियाला-सा
यह बच्चा भूखा भूखा-सा
यह बच्चा सूखा सूखा-सा
यह बच्चा किसका बच्चा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पे तन्हा बैठा है
ना इसके पेट में रोटी है
ना इसके तन पर कपड़ा है
ना इसके सर पर टोपी है
ना इसके पैर में जूता है
ना इसके पास खिलौनों में
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है कोई झूला है
ना इसकी जेब में धेला है
ना इसके हाथ में पैसा है
ना इसके अम्मी-अब्बू हैं
ना इसकी आपा-ख़ाला है
यह सारे जग में तन्हा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है

2.

यह सहरा कैसा सहरा है
ना इस सहरा में बादल है
ना इस सहरा में बरखा है
ना इस सहरा में बाली है
ना इस सहरा में ख़ोशा (अनाज का गुच्छा) है
ना इस सहरा में सब्ज़ा है
ना इस सहरा में साया है

यह सहरा भूख का सहरा है
यह सहरा मौत का सहरा है

3.

यह बच्चा कैसे बैठा है
यह बच्चा कब से बैठा है
यह बच्चा क्या कुछ पूछता है
यह बच्चा क्या कुछ कहता है
यह दुनिया कैसी दुनिया है
यह दुनिया किसकी दुनिया है

4.

इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्ज़ा है
कहीं बादल घिर-घिर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं ऊँचे महल अटरिया हैं
कहीं महफ़िल है, कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाज़ार सजे
यह रेशम है, यह दीबा है
कहीं गल्ले के अंबार लगे
सब गेहूँ धान मुहय्या है
कहीं दौलत के सन्दूक़ भरे
हाँ ताम्बा, सोना, रूपा है
तुम जो माँगो सो हाज़िर है
तुम जो चाहो सो मिलता है
इस भूख के दुख की दुनिया में
यह कैसा सुख का सपना है ?
वो किस धरती के टुकड़े हैं ?
यह किस दुनिया का हिस्सा है ?

5.

हम जिस आदम के बेटे हैं
यह उस आदम का बेटा है
यह आदम एक ही आदम है
वह गोरा है या काला है
यह धरती एक ही धरती है
यह दुनिया एक ही दुनिया है
सब इक दाता के बंदे हैं
सब बंदों का इक दाता है
कुछ पूरब-पच्छिम फ़र्क़ नहीं
इस धरती पर हक़ सबका है

6.

यह तन्हा बच्चा बेचारा
यह बच्चा जो यहाँ बैठा है
इस बच्चे की कहीं भूख मिटे
{क्या मुश्किल है, हो सकता है)
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
(हाँ दूध यहाँ बहुतेरा है)
इस बच्चे का कोई तन ढाँके
(क्या कपड़ों का यहाँ तोड़ा[अभाव] है ?)
इस बच्चे को कोई गोद में ले
(इन्सान जो अब तक ज़िन्दा है)
फिर देखिए कैसा बच्चा है
यह कितना प्यारा बच्चा है

7.

इस जग में सब कुछ रब का है
जो रब का है, वह सबका है
सब अपने हैं कोई ग़ैर नहीं
हर चीज़ में सबका साझा है
जो बढ़ता है, जो उगता है
वह दाना है, या मेवा है
जो कपड़ा है, जो कम्बल है
जो चाँदी है, जो सोना है
वह सारा है इस बच्चे का
जो तेरा है, जो मेरा है

यह बच्चा किसका बच्चा है ?
यह बच्चा सबका बच्चा है

गुरुवार, अक्तूबर 28, 2010

अलिफ़ अल्लाह चंबे दी बूटी...दम गुटकूँ दम गुटकूँ :आरिफ़ लोहार का शानदार 'जुगनी' लोकगीत

पंजाबी लोकगीतों का अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है। बुल्लेशाह का सूफी गीत हो या हीर और सोहणी महीवाल के प्रेम या विरह में डूबे गीत, सब अपना जादू जगाते रहे हैं। आज आपके सामने पंजाब की एक ऐसे ही एक लोकगीत श्रेणी से परिचय कराने जा रहा हूँ जिसे 'जुगनी' के नाम से जाना जाता है। बरसात की अंधकारमयी रातों में चमकते जुगनू तो हम सब ने देखे हैं। पर जुगनू की भार्या इस जुगनी को देखने या पहचानने का हुनर तो शायद ही हम में से किसी के पास होगा।

पंजाबी लोकगीतों में यही जुगनी एक मासूम पर्यवेक्षक का काम करती है। इन गीतों में जुगनी के इस बिंब से हँसी ठिठोला भी होता है .कटाक्ष भी होते हैं, तो कभी आस पास के परिवेश का दुख इसके मुँह से फूट पड़ता है। पर जुगनी से जुड़े अधिकांश गीत मूलतः एक अध्यात्मिक सोच को आगे बढ़ाते हैं। ये सोच कभी अपने आस पास के संसार को समझने की होती है तो कभी मानव से भगवान के रिश्ता को टटोलने की क़वायद।

वैसे क्या आप ये नहीं जानना चाहेंगे कि जुगनी लोकगीत कैसे रचती है? अब जुगनी का क्या है उड़ कर गली मोहल्ले, स्कूल या बाजार कहीं भी पहुँच सकती है और इन जगहों पर वो जो देखती है उसे ही तीन या चार अंतरों में कह देती है। ठेठ पंजाबी शैली में गाए इन गीतों को आम जन बड़ी आसानी से अपनी ज़िंदगी से जोड़ लेते हैं।

जुगनी से जुड़े लोकगीतों को अपनी गायिकी से सरहद के दोनों ओर के कलाकार लोगों तक पहुँचाते रहे हैं। कुछ साल पहले रब्बी शेरगिल का ऐसा ही एक गीत बेहद चर्चित रहा था। रब्बी के आलावा गुरुदास मान और आशा सिंह मस्ताना ने भी श्रोताओं को कई जुगनी गीत दिए हैं।

सरहद पार यानि अगर पाकिस्तान की बात की जाए तो जुगनी ही क्या पंजाबी लोकगीतों की हर विधा को पूरे मुल्क में मशहूर करने में सबसे पहला नाम आलम लोहार का आता है। आलम लोहार ने साठ और सत्तर के दशक में जुगनी गीतों की एक अलग पहचान बना दी। आलम जब जुगनी गाते थे तो एक अद्भुत वाद्य यंत्र उनके हाथों में रहता था। ये वाद्य यंत्र था चिमटा,! जी हाँ आलम लोहार ने ही इन गीतों के साथ साथ चिमटे के टकराने से निकलने वाली ध्वनि का बीट्स की तरह इस्तेमाल किया। फ्यूजन के इस युग में भी उनके पुत्र आरिफ़ लोहार अपने पिता द्वारा शुरु की गई इस गौरवशाली परंपरा का वहन कर रहे हैं। हाँ लोहे के उस पुराने चिमटे के स्वरूप में जरूर थोड़ा बदलाव हुआ है।



पिछले हफ्ते ही मुझे आरिफ़ लोहार का गाया एक जुगनी लोकगीत सुनने को मिला। ये लोकगीत उन्होंने इस साल पाकिस्तान में कोक स्टूडिओ ( Coke Studio ) के तीसरे सत्र के दौरान गया था। अगर आप ये सोच रहे हों कि ये कोक स्टूडिओ क्या बला है तो ये बताना मुनासिब रहेगा कि कोक स्टूडिओ पाकिस्तान में कोला कंपनी कोक की सहायता से स्थापित किया गया एक सांगीतिक मंच है जो देश के विभिन्न हिस्सों में पनपते परंपरागत संगीत को बढ़ावा देता है। इस मंच पर देश के नामी व नवोदित गायक लाइव रिकार्डिंग के तहत अपनी प्रतिभा को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते हैं।

पहली बार इस जुगनी को सुनते ही आरिफ़ लोहार की गायिकी का मैं शैदाई हो गया। गीत की भावनाओं के अनुरूप ही उनके चेहरे के भाव बदलते हैं। आरिफ लोहार का शब्दों का उच्चारण इतना स्पष्ट है कि गीत को कोई शब्द आपके ज़ेहन से भटकने की जुर्रत नहीं कर पाता। गीत में वो तो डूबते ही हैं सुनने वालों को भी अपने साथ बहा ले जाते हैं। लोहार की बेमिसाल गायिकी के साथ साथ फ्यूजन और कोरस का जिस तरह से इस गीत में प्रयोग हुआ है कि सुनने के साथ हाथ पाँव थिरकने लगते हैं। इस गीत में उनका साथ दिया पाकिस्तान की युवा मॉडल और अब गायिका मीशा शफ़ी ने। जिस तरह हम माता शेरोवाली के भजन गाते समय माता की जयजयकार करते हैं उसी तरह मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि चाहे आपको पंजाबी आती हो या नहीं गीत को सुनने के साथ साथ आप कोरस में उठ रहे जुगनी जी के सुर में सुर मिलाना अवश्य चाहेंगे।






पर इस गीत का पूर्ण आनंद उठाने के लिए पहले ये जानते हैं कि इस गीत में आख़िर जुगनी ने कहना क्या चाहा है ....

अलिफ़ अल्लाह चंबे दी बूटी.
ते मेरे मुर्शिद मन विच लाइ हू

हो नफी उस बात दा पाणी दे के
हर रगे हरजाई हू
हो जुग जुग जीवे मेरा मुर्शिद सोणा
हत्ते जिस ऐ बूटी लाइ हो

मेरे साई ने मेरे हृदय में प्रेम का पुष्प अंकुरित किया है। साई की भक्ति से मेरे आचरण में जो विनम्रता और दया आई है उससे मन का ये फूल और खिल उठा है। मेरा साई, मेरी हर साँस, हर धड़कन में विद्यमान है। मुझमें प्राण भरने वाले साई तुम युगों युगों तक यूँ ही बने रहो।


पीर मेरिआ जुगनी जी
ऐ वे अल्लाह वालियाँ दी जुगनी जी,ऐ वे अल्लाह वालियाँ दी जुगनी जी
ऐ वे नबी पाक दी जुगनी जी, ऐ वे नबी पाक दी जुगनी जी
ऐ वे मौला अली वाली जुगनी जी,ऐ वे मौला अली वाली जुगनी जी
ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी, ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी
ऐ वे सारे सबद दी जुगनी जी, ऐ वे सारे सबद दी जुगनी जी
ओ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ....गुटकूँ गुटकूँ
पढ़े साईं ते कलमा नबी दा, पढ़े साई पीर मेरया


मेरे साथ मेरा मार्गदर्शक है मेरा संत है , मेरी आत्मा, भगवन और उनके दूतों के विचारों से पवित्र है। भगवन जब भी मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ मेरा हृदय एक आनंद से धड़कने लगता है। उल्लास के इन क्षणों में मैं ख़ुद ब ख़ुद तेरे नाम का मैं कलमा पढ़ने लगता हूँ।


जुगनी तार खाईं विच थाल
छड्ड दुनिया दे जंजाल
कुछ नी निभणा बंदया नाल
राक्खी सबद सिध अमाल

ऐ वे अल्लाह .... जुगनी जी


मेरे साई कहते हैं कि तुम्हारे पास जो भी है उसे बाँटना सीखो। मोह माया जैसे दुनिया के जंजालों से दूर रहो। जीवन में ऍसा कुछ भी ऍसा नहीं है जो तुम्हें दूसरों से मिलेगा और जिसे तुम मृत्यु के बाद तुम अपने साथ ले जा सकोगे। इसलिए ऐ अल्लाह के बंदे अपने कर्मों और भावनाओं की पवित्रता बनाए रखो।

जुगनी दिग पई विच रोई
ओथ्थे रो रो कमली होई
ओद्दी वाथ नइ लैंदा कोई
ते कलमे बिना नइ मिलदी तोई

ऐ वे अल्लाह .... जुगनी जी
ओ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ....गुटकूँ गुटकूँ


अब इस जुगनी को ही देखो। लोभ मोह के जाल से ऐसी आसक्त हुई कि पाप की गहराइयों में जा फँसी। अब लगातार रोए जा रही है। पर अब उसे पूछनेवाला कोई नहीं है। इस बात को गाँठ बाँध कर सुन लो बिना सृष्टिकर्ता का ध्यान किए तुम्हें कभी शांति या मोक्ष नहीं मिल सकता।

हो वंगा चढ़ा लो कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ
वंगा चढ़ा लो कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ


हो ना कर तीया खैड़ पियारी
माँ दैंदियाँ गालड़ियाँ
दिन दिन ढली जवानी जाँदी
जूँ सोना पुठिया लरियाँ
औरत मरद शहजादे सोणे
ओ मोती ओ ला लड़ियाँ
सिर दा सरफाँ कर ना जैड़े
पीर प्रेम प्या लड़ियाँ
ओ दाता के दे दरबार चाखो
पावन खैड़ सवा लड़ियाँ

लड़कियों वो वाली चूड़ियाँ पहन लो जो तुम्हें साई के दरबार से मिली थीं। और हाँ अपने यौवन का इतना गुमान ना करना कि तुम्हें अपनी माताओं की डाँट फटकार सुनने को मिल जाए। जैसे जैसे दिन बीतते हैं ये यौवन और बाहरी सुंदरता और फीकी पड़ती जाती है। इस संसार में कोई वस्तु हमेशा के लिए नहीं है। इस सोने को ही लो कितना चमकता है पर एक बार भट्टी के अंदर जाते ही पिघलकर साँचे के रूप में अपने आप को गढ़ लेता है। सच बात तो ये है कि इस दुनिया के वे सारे मर्द और औरत उन माणिकों और मोतियों की तरह सुंदर हैं जो अपनों से ज्यादा दूसरों के लिए सोचते और त्याग करते हैं। ऐसे ही लोग सच्चे तौर पर पूरी मानवता से प्यार करते हैं। इसलिए सच्चे मन से साई का नमन करो वो तुम्हारी झोली खुशियों से भर देंगे।

हो वंगा चढ़ा ला कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ
हो वंगा चढ़ा ला कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ

दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ..करे साईं
पढ़े साई ते कलमा नबी दा, पढ़े साई पीर मेरया
ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी....

एक शाम मेरे नाम पर लोकगीतों की बहार

शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

साजिश में शामिल सारा ज़हाँ है, हर ज़र्रे ज़र्रे की ये इल्तिज़ा है,ओ रे पिया...

राहत फतेह अली खाँ मौसीकी की दुनिया में एक ऐसा नाम है जिसे सुनकर ही मन इस सुकून से भर उठता है कि अब जो आवाज़ कानों में छलकेगी वो दिलो दिमाग को यकीनन 'राहत' पहुँचाएगी। हिंदी फिल्म पाप के अपने गाए गीत लगन लागी तुमसे मन की लगन से.. अपना बॉलीवुड़ का सफ़र शुरु करने वाले राहत हर साल कुछ चुनिंदा गाने गाते हैं पर कमाल की बात ये हैं कि उनमें से अधिकांश आम और खास दोनों तरह के संगीतप्रेमियों के दिल में समान असर डालते हैं।
इस साल भी उन्होंने कुछ कमाल के गीत गाए हैं और इस बात का सुबूत आप एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला 2010 में निश्चय ही पाएँगे। पर इस ब्लॉग पर होने वाले सालाना वार्षिक संगीतमाला का जलसे में तो अभी भी करीब ढाई महिने का समय बाकी है।

राहत साहब का नाम अक्सर उनके चाचा नुसरत फतेह अली खाँ के साथ लिया जाता है। कव्वालियों के बेताज बादशाह नुसरत की सांगीतिक विरासत को राहत ने आगे बढ़ाने की कोशिश की है। पर उनके साथ अपनी किसी तरह की तुलना को वो बेमानी बताते हैं। राहत एक ऍसे परिवार में पैदा हुए जहाँ सिर्फ संगीत की तालीम को असली पढ़ाई माना जाता था। सात साल की आयु से ही उन्हें संगीत की शिक्षा दी जाने लगी थी। और तो और क्या आप मानेंगे की नौ साल की छोटी उम्र में ही उन्होंने अपना पहला स्टेज शो दे दिया था।

संगीत के प्रति उनका ये समर्पण उनकी गायिकी में झलकता है। वे कोई गीत तभी गाते हैं जब उसके बोल उन्हें पसंद आते है् अन्यथा वो गीत गाने से ही मना कर देते हैं। किसी गीत के बोल उसकी आत्मा होते हैं। शायद यही वज़ह है कि गाते वक़्त अपने को गीत की भावनाओं से इस क़दर जुड़ा पाते हैं मानो गीतकार की कही हुई बातें उन पर खुद ही बीत रही हैं।

चलिए आज आपको राहत साहब का वो गाना सुनवाते हैं जो उन्होंने वर्ष 2008 में सलीम सुलेमान के संगीतनिर्देशन में फिल्म 'आजा नच ले' के लिए गाया था। इस गीत के बोल लिखे थे जयदीप साहनी ने। जयदीप के इस गीत में अपने पिया के लिए एक विकल पुकार है। पूरे गीत के बोलों में जगह जगह हाए शब्द का प्रयोग हुआ है। राहत जितनी बार 'हाए' कहते हैं हर बार उसका लहज़ा और उस से जुड़ी तड़प रह रह कर उभरती है।




ओ रे पिया हाए..हाए..हाए

उड़ने लगा क्यूँ मन बावला रे
आया कहाँ से ये हौसला रे
ओ रे पिया हाए

वैसे भी जब हवा की छूती सरसराहट, बारिश की मचलती बूँदें सब मिलकर उनकी ही याद दिलाएँ तो फिर मन को मसोस कर कहाँ तक रखा जा सकता है...

तानाबाना तानाबाना बुनती हवा हाए..
बुनती हवा
बूँदें भी तो आए नहीं, बाज यहाँ हाए..
साजिश में शामिल सारा ज़हाँ है
हर ज़र्रे ज़र्रे की ये इल्तिज़ा है
ओ रे पिया, ओ रे पिया हाए
ओ रे पिया

राहत की गायिकी का सबसे सुखद पहलू है, उनका अपनी गायिकी में शास्त्रीय संगीत की सीखी हुई विधा का अद्भुत प्रयोग। उनके लगभग हर गीत में एक सरगम सुनने को आपको मिलेगी जिसका टेम्पो सरगम के साथ बढ़ता चला जाता है। गीत के साथ जब अंतरे के बाद इस सरगम को सुनते हैं तो गीत प्रेम की भावनाओं से भी कहीं आगे आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाता है। राहत की गायिकी का ये पहलू उन्हें दूसरे गायकों से अलग कर देता है।

नि रे, रे रे गा
गा गा मा
मा मा पा
पा मा गा रे सा
सा रे रे सा
गा गा रे
मा मा गा
पा पा मा
धा धा पा
नि नि सा सा सा
पा सा मा पा धा नि सा नि
रे नि सा सा सा....

नज़रें बोलें दुनिया बोले
दिल कि ज़बाँ हाए दिल कि ज़बाँ
इश्क़ माँगे इश्क़ चाहे कोई तूफाँ

हाए चलना आहिस्ते इश्क नया है
पहला ये वादा हमने किया है
ओ रे पिया हाए ..

नंगे पैरों पे अंगारो
चलती रही हाए चलती रही
लगता है कि गैरों में
मैं पलती रही हाए
ले चल वहाँ जो
मुल्क तेरा है
ज़ाहिल ज़माना
दुश्मन मेरा है
ओ रे पिया हाए ..

राहत को 'लाइव' इस गीत को गाते देखना चाहेंगे....


एक शाम मेरे नाम पर राहत फतेह अली खाँ

मंगलवार, अक्तूबर 19, 2010

एशियाड के 'अप्पू' से कॉमनवेल्थ के 'शेरा' तक :इन खेलों की वो अनमोल यादें...

अक्टूबर 1982 में होश सँभालने के बाद पहली बार शायद दिल्ली जाना हुआ था। दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतें भी तभी देखी थीं पर सबसे ज्यादा जो बात याद रह गई, वो थी उस रात की! पूरी यात्रा के दौरान पिताजी से यही शिकायत करता रहा था कि पापा अगर आप एक महिने देर से हमें यहाँ लाए होते तो हमें एशियाई खेलों को देखने का मौका मिल जाता। बाद में मेरा मन रखने के लिए पिताजी हमें नवनिर्मित जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम के बाहर ले आए थे।

बाहर से ही दूधिया रोशनी से नहाया हुए स्टेडियम को देखना एक छोटे शहर से आए उस बच्चे के लिए कितना रोमांचकारी रहा होगा ये आप भली भांति समझ सकते हैं। मेरी मनः स्थिति को समझ पिताजी हमें स्टेडियम के अंदर दाखिल कर लेने के जुगाड़ में लग गए थे। अंदर उद्घाटन समारोह की तैयारियाँ जोरों पर थीं।

संयोग से स्टेडियम के बाहर तैनात सुरक्षाकर्मी हमारे प्रदेश का था और पिताजी के कहने पर उसने हमें दस मिनट के लिए अंदर जाने की इज़ाजत दे दी थी। सीढ़ियाँ चढ़कर जब स्टेडियम के अंदर मैंने कदम रखा तो अंदर के उस अलौकिक दृश्य हरी दूब की विशाल आयताकार चादर और उसके चारों और फैला हुआ ट्रैक का कत्थई घेरा और मैदान से आती स्वागतम की मधुर धुन। ... को देख सुन कर मन खुशी से झूम उठा था।

इन्ही स्मृतियों को लिए मैं वापस पटना आ गया था। मन में इन खेलों के प्रति उत्साह का ये आलम था कि अगले महिने जब नवंबर से ये खेल प्रारंभ हुए थे तब मेरा पूरा दिन टेलीविज़न के सामने बैठ कर जाता था। ये बताना आवश्यक होगा कि एशियाई खेलों के साथ ही पटना में रंगीन टेलीविज़न की शुरुआत हुई थी। हमारे घर तब रंगीन क्या, श्वेत श्याम टीवी भी नहीं था। पर हम सुबह आठ बजे ही नहा धो कर पड़ोसी के घर चले जाते और वहाँ अन्य बच्चों के साथ ही जमीन पर बैठ कर खिलाड़ियों के कारनामों को अपलक निहारा करते थे।

जिमनास्टिक, घुड़सवारी, नौकायन, गोल्फ, लॉन टेनिस व एथलेटिक्स की विभिन्न प्रतिस्पर्धाएँ क्या होती हैं और कैसे खेली जाती हैं ये मुझे पहली बार इन्ही खेलों के द्वारा पता चला। बीस किमी दौड़ के स्वर्ण पदक विजेता चाँद राम, मध्यम दूरी की धाविका गीता जुत्शी, हमारी गोल्फ टीम तब के हमारे हीरो बन गए थे। वहीं पाकिस्तान से हॉकी के फाइनल में मिली करारी हार जिसमें हमारे गोलकीपर नेगी का लचर प्रदर्शन और कप्तान ज़फर इकबाल का पेनाल्टी स्ट्रोक मिस कर जाना शामिल था, हमें बहुत दिनों तक अखरता रहा था।

इसी लिए जब 28 सालों बाद इतने बड़े स्तर पर राष्टमंडल खेल जैसी खेल प्रतियोगिता की मेज़बानी करने का मौका भारत को मिला तो मुझे हार्दिक खुशी हुई थी। तमाम लोग इस तरह के खेलों को पैसे की बर्बादी बताते रहे हैं पर मेरे मन में इस बात को ले के कभी सुबहा नहीं रहा कि इस तरह के खेलों का आयोजन से देश के प्रतिभावान खिलाड़ियों (जो आधी अधूरी सुविधाओं के बलबूते पर भी अपनी अपनी स्पर्धाओं में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं) को एक अच्छा प्लेटफार्म मिल जाता है। जो रोल मॉडल इन खेलों के ज़रिए चमकते हैं वो कई भावी खिलाड़ियों, युवाओं और बच्चों में एक आशा की किरण, एक सपना जगा जाते हैं कि हम भी कभी उस मुकाम पर पहुँच सकते हैं। इसके अतिरिक्त देश के नागरिकों में ऐसे सफल आयोजन से जिस आत्मगौरव की भावना जाग्रत होती है उसका कोई मोल नहीं है।

पर इन सब बातों का ये मतलब नहीं कि हम इन खेलों के आयोजन में हुए भ्रष्टाचार पर आँखें मूँद लें। दोषियों पर नकेल कसने के लिए जो कार्यवाही चल रही है वो अपने उचित मुकाम पर पहुँचे, यही आशा है।

पिछले दो हफ्तों के आयोजन में कार्यालय से घर आ कर बिताए लमहे मेरे लिए बेहद खुशगवार रहे हैं। तीन दशक पूर्व हुए बचपन के उस अभूतपूर्व अनुभव में फर्क यही था कि इस बार मेरे बचपन को मेरे आठ वर्षीय पुत्र ने जीया और मैं भी उसकी संगत में वही बालक बन गया।

आज मैं कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़ी इन यादों को उन खिलाड़ियों, मज़दूरों, देश के विभिन्न भागों से आए कलाकारों, सुरक्षा बलों के जवानों, स्वेच्छा से अपनी सेवाएँ देने वाले बच्चों को समर्पित करना चाहता हूँ जिनकी अथक मेहनत का फल हमने इस अभूतपूर्व आयोजन में देखा। उद्घाटन समारोह में भारत के विविध रंगों का इतना सुरुचिपूर्ण प्रदर्शन बहुत दिनों तक याद रहेगा। इतने सुंदर नृत्य, मन मोहती पोशाकें और सबसे लाजवाब भारतीय रेल के बिंब के ज्ररिए भारत के आम नागरिकों का सम्मान।

हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश अपनी संकीर्ण सामाजिक पृष्ठभूमि, मादा भ्रूण हत्याओं के लिए बदनाम रहे हैं। पर मुजफ्फरनगर की अलका तोमर और भिवानी की गीता जब अपनी विरोधी पहलवानों को पटखनी दे रही हैं तो मन यही सोच रहा है क्या वे अपने इलाके के लोगों में बच्चियों के लिए नई सोच का सूत्रपात नहीं करेंगी? गौरतलब रहे कि ये महिलाएँ सरकारी मदद से ज्यादा अपने अभिभावकों द्वारा मिले सहयोग से इस मुकाम तक पहुँचने में सफल हुई हैं। ये वो खिलाड़ी हैं जिन्होंने आयातित गद्दों के बजाए मिट्टी के अखाड़ों में कुश्ती की शुरुआत की। जिमनेज्यिम के बजाए खेत खलिहानों में दौड़कर अपनी फिटनेस बनाए रखने की क़वायद की और इन सबसे ज्यादा समाज की परवाह ना करते हुए भी उस स्पर्धा में नाम कमाया जो उनके लिए प्रायः वर्जित थी।

फिर भी जब इनका जज़्बे की मिसाल देखिए। बबिता, गीता की छोटी बहन हैं। चेहरे से अभी भी बच्ची ही दिखती हैं। रजत पदक जीत लिया उन्होंने पर आँखों में आँसू हैं... कुछ गलती हो गई नहीं तो गोल्ड मैं भी ले ही आती..भगवान करे जीत की ये भूख आगे भी बनी रहे...


चलिए परिदृश्य बदलते हैं। बात करते हैं झारखंड की जहाँ हॉकी और तीरंदाजी के प्रतिभावान खिलाड़ियों की अच्छी खासी पौध है। सुविधाओं के नाम पर कुछ एस्ट्रोटर्फ स्टेडियम बने। रख रखाव के आभाव में फट गए हैं पर खिलाड़ी उन्हीं पर अब भी खेलते हैं। स्पोर्ट्स हॉस्टल हैं पर वहाँ खिलाड़ियों को ढंग का भोजन नसीब नहीं है। फिर भी पुरुष और महिला हॉकी टीम में आदिवासी खिलाड़ी अपनी प्रतिभा के बल पर मुकाम बना ही लेते हैं।

दीपिका कुमारी को ही लीजिए पिता आटोरिक्शा चलाते हैं, माँ एक नर्स हैं। बेटी को निशाना साधने का बचपन से ही शौक था। तीर ना सही पत्थर तो थे और लक्ष्य आम का पेड़। पर शीघ्र ही मन में ये आत्मविश्वास समा गया कि अगर मैं ये निशाना अच्छा लगा सकती हूँ तो तीर भी ही निशाने पर ही छोड़ूँगी। एक बार टाटा की तीरंदाजी एकाडमी में प्रवेश मिला तो फिर उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। ग्याहरवीं में पढ़नेवाली ये लड़की गेम्स के फाइनल में अपने विरोधी को अपने स्कोर के पास भी नहीं फटकने देती। हमारे सिस्टम में ये चमत्कार नहीं तो और क्या है !

ऐसी कितनी ही कहानियाँ आपको निशानेबाजों, भारत्तोलकों और एथलीट की मिल जाएँगी जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने देश का सर गर्व से ऊँचा किया है। कॉमनवेल्थ खेलों की सफलता का सारा दारोमदार इन खिलाड़ियों पर है। चलते चलते कुछ लमहे जिन्होंने इन खेलों को मेरे लिए कुछ और खास बना दिया।
खेल हॉकी, मैच भारत बनाम पाकिस्तान ...
भारत के लिए करो या मरो की स्थिति। शुरुआती कुछ मिनट और पाकिस्तान गोल पर ताबड़तोड़ हमले..क्या सुरक्षा पंक्ति, क्या आक्रमण पंक्ति, जगह बदल बदल कर , प्रतिद्वन्दियों को छकाते और मौका पड़ने पर लंबे पॉस देने में भी कोताही नहीं बरतते इन खिलाड़ियों के आक्रमण की लहरें देखते ही बनती थीं। कुछ मिनटों में स्कोर 1-0 से बढ़कर 4-0 हो जाता है और अंततः 7-4 से भारत विजयी होता है। शायद कॉमनवेल्थ हॉकी में अब तक पदकविहीन रही भारतीय टीम के लिए ये एक नई शुरुआत हो.....

खेल हॉकी, मैच भारत बनाम इंग्लैंड...
इंग्लैंड 3-0 से आगे। मैं निराश हो कर टीवी बंद करने की गलती कर बैठता हूँ। पुत्र के आग्रह पर पंद्रह मिनट बाद टीवी खोलता हूँ ये क्या स्कोर 3-3 और फिर पेनाल्टी स्ट्रोक का वो ड्रामा। मन में ज़फर इकबाल का भूत फिर उभरता है पर इस बार की पटकथा कुछ और है.....

खेल बैडमिंटन, मैच भारत बनाम मलेशिया
मलेशिया 2-0 से आगे। साइना रबर को बचाने के लिए मैदान में उतरती हैं। मलेशिया की अनुभवी खिलाड़ी बड़े कम अंतर से पहला सेट अपने नाम करती हैं। साइना जानती हें कि उनके जीतने से भी अंतिम निर्णय में ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला। पर अगले दो सेटों में जोर लगाती हैं। हर अंक के लिए काँटे की टक्कर, लंबी थका देने वाली रैलियाँ । पर साइना अपना आत्मबल नहीं खोती। यही कहानी वो एकल फाइनल मुकाबले में दोहराती हैं। कितने दिनों बाद देखा है इतने मजबूत इरादों वाला खिलाड़ी......

खेल : टेबल टेनिस, पदक वितरण समारोह पुरुष युगल
राष्ट्रधुन के साथ तिरंगे का उठना टेबल टेनिस खिलाड़ी शरद कमल को भावातिरेक कर दे रहा है। भारतीय ध्वज ऊपर उठ रहा है और वो पोडियम पर खड़े हो कर फूट फूट कर रो रहे हैं। खुशी के आँसुओं का सैलाब कितना अनोखा होता है ना....

खेल : एथलेटिक्स, 4 x400 मीटर महिला रिले


पर पूरे खेलों का सबसे आनंददायक क्षण दिया मुझे 4 x400 मीटर की महिला रिले टीम ने। मनजीत कौर, सिनी, अश्विनी और मनदीप की इस चौकड़ी ने जिस तरह से नाइजीरियाई धावकों को पीछे छोड़ा वो अपने आप में एक कमाल था। मनजीत और सिनी ने दूसरे चक्र तक भारत को दूसरे स्थान के करीब रखा था पर अश्विनी ने तीसरे चक्र में पीछे खिसक जाने के बाद जिस तेजी से तीसरे से दूसरे और फिर पहले स्थान पर टीम को ला कर खड़ा कर दिया वो कल्पना से परे था। और मनदीप ने ये बढ़त अंत तक बरकरार रखी...

तो आइए एक बार फिर देखते हें कि ये सब हुआ कैसे..



एक बार फिर से कॉमनवेल्थ के इन महान सिपाहियों को मेरा कोटिशः नमन। आशा है इनकी मेहनत को से हमारा खेल तंत्र और बेहतर ढंग से काम करेगा ताकि सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले इस देश को ऐसे अनेक गौरवशाली क्षणों देखने और महसूस करने का मौका मिले।

सोमवार, अक्तूबर 11, 2010

तुम्हें याद करते करते जाएगी रैन सारी... कामयाबी की बुलंदियों को छूने वाली संगीतकार जोड़ी का एक बेमिसाल नग्मा...

क्या आपको पता है कि एक ज़माना वो भी था जब किसी संगीतकार को हिंदी फिल्मों में हीरो से भी ज्यादा पारिश्रमिक दिया जाता रहा हो? आज के हिंदी फिल्म उद्योग में तो ऐसा होना असंभव ही प्रतीत होगा। पर पचास और साठ के दशक में ऍसी ही एक संगीतकार जोड़ी थी जिसने अपने रचे गीतों की लोकप्रियता के आधार पर ये मुकाम हासिल किया था। ये संगीतकार थे शंकर जयकिशन यानि शंकर सिंह रघुवंशी और जयकिशन दयाभाई पंचाल।


जहाँ शंकर तबला बजाने में प्रवीण थे तो वहीं जयकिशन को हारमोनियम बजाने में महारत हासिल थी। काम के सिलसिले में एक गुजराती निर्देशक के कार्यालय में हुई पहली मुलाकात इनकी दोस्ती का सबब बन गई। तब शंकर पृथ्वी राज कपूर के थियेटर के पृथ्वी में काम किया करते थे। कहते हैं जयकिशन से उनकी ऐसी जमी कि उन्होंने उन्हें पृथ्वी थियेटर में बतौर हारमोनियम वादक काम दिला दिया। ये उन दिनों की बात है जब राज कपूर साहब आग की मिश्रित सफलता के बाद अपनी नई फिल्म बरसात के लिए संगीत निर्देशक की तलाश में थे। पर ये तालाश कैसे पूरी हुई ये वाक़या भी दिलचस्प है। शंकर ने दूरदर्शन में आने वाले कार्यक्रम फूल खिले हैं गुलशन गुलशन में तबस्सुम को दिए अपने एक साक्षात्कार के दौरान इस घटना का जिक्र करते हुए कहा था
राज साहब ने पिक्चर शुरू की ‘बरसात’। तो हरदम मिलते और कहते कि भाई गाने पसन्द आएँगे तो मैं लूँगा, तुम बनाते रहो। तो ऐसे कई गाने बनाए लेकिन उनको कभी पसन्द आए ही नहीं। हम उनको कहते कि भाई आप बनवाते हैं लेकिन लेते तो हैं नहीं। इत्तेफ़ाक़ से हम पूना गए एक वक़्त थिएटर के साथ। रात का वक़्त था , मैंने बाजा लिया। बाजा लेकर कहा – राज साहब! बैठिए, अब ये धुन सुनिए ज़रा – आपको कैसी लगती है! भले ही मत लीजिए लेकिन सुन लीजिए।. ‘अमुआ का पेड़ है, वही मुँडेर है, आजा मोरे बालमा, अब काहे की देर है’ ये गाना मैंने सुनाया। राज जी ने सुनते ही कहा कि भाई! अपन बम्बई चलते हैं और गाने को रिकॉर्ड करते हैं। तो बस फ़िर बम्बई आ गए और वाक़ई वो गंभीरतापूर्वक उस गाने के पीछे लग गए – भाई वो गाना ज़रा फिर सुनाओ! बाद में उस गाने के लिए हसरत मियाँ लिखने के लिए आएऔर हसरत जयपुरी जब आए तो जो गाना बनकर निकला वो था जिया बेक़रार है, छायी बहार है, आजा मोरे बालमा, तेरा इंतज़ार है

ये गीत और बरसात का पूरा संगीत कितना सफल हुआ इससे आप सब वाक़िफ हैं। दरअसल यहीं से शंकर, जयकिशन, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी , लता और मुकेश जैसे कलाकारों का एक ऐसा समूह बना जो जयकिशन के निधन के पहले तक राजकपूर की फिल्मों का एक ट्रेडमार्क बन गया। शंकर जयकिशन ने अपनी आपसी सहमति से यह निर्णय कर रखा था कि दोनों में से अगर कोई दुनिया से चल बसा तो जो बचेगा वो भी अपने गीतों के क्रेडिट में शंकर जयकिशन का नाम ही इस्तेमाल करेगा।

यूँ तो शंकर जयकिशन के तमाम यादगार गीत रहे हैं। पर आम्रपाली के लिए उनका संगीतबद्ध ये गीत मुझे लता जी के गाए हुए गीतों में बेमिसाल लगता है। पिछले महिने लता जी के जन्मदिन के अवसर पर इसे आपके सामने प्रस्तुत करने की तमन्ना थी जो समयाभाव के कारण पूरी नहीं हो पाई। एक ऐतिहासिक प्रेम कथा पर आधारित इस विरह गीत का प्रत्येक अंतरा मन को भिगा देता है। इसे गीत के बोल लिखे थे शैलेंद्र ने।

गीत तो मधुर था ही पर ये बात भी गौर करने की है कि कितनी प्यारी हिंदी का प्रयोग किया था शैलेंद्र ने इस गीत में। दरअसल "बिरहा की इस चिता से तुम ही मुझे निकालो....जो तुम ना आ सको तो, मुझे स्वप्न में बुला लो" और "मन है कि जा बसा है, अनजान इक नगर में,कुछ खोजता है पागल खोई हुई डगर में..".जैसी पंक्तियाँ बड़ी ही तबियत से नायिका के मनोभावों को उभारती हैं। उभारेगीं कैसे नहीं हमारी स्वर कोकिला ने कोई कसर रख छोड़ी है अपनी बेमिसाल गायिकी में?

अधिकतर संगीत समीक्षक इसे शंकर की कम्पोसीशन मानते हैं। कहा तो यही जाता है कि फिल्म आम्रपाली के सारे गानों को शास्त्रीय रागों पर आधारित करने में शंकर का हाथ था। वैसे इस गीत के मुखड़े और अंतरे के पहले सितार की जो मधुर धुन शंकर ने रची है वो तो गीत में बस चार चाँद ही लगा देती है। तो आइए एक बार फिर सुनते हैं इस मीठे सम्मोहक गीत को जो फिल्माया गया था वैजयंतीमाला जी पर।



तुम्हें याद करते करते जाएगी रैन सारी
तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी


मन है कि जा बसा है, अनजान इक नगर में

कुछ खोजता है पागल खोई हुई डगर में
इतने बड़े महल में, घबराऊँ मैं बेचारी

तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी

तुम्हें याद करते करते
.....

बिरहा की इस चिता से तुम ही मुझे निकालो

जो तुम ना आ सको तो, मुझे स्वप्न में बुला लो

मुझे ऐसे मत जलाओ, मेरी प्रीत है कुँवारी

तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी

तुम्हें याद करते करते

तुम्हें याद करते करते
.....

मंगलवार, अक्तूबर 05, 2010

चुपके से चुपके से रात की चादर तले..गुलज़ार, रहमान व साधना की सरगम में बहता संगीत...

ए आर रहमान ने बतौर गीतकार गुलज़ार के साथ कई फिल्में की हैं और जावेद साहब के साथ भी। पर जावेद अख़्तर के बोलों को उनके संगीत के साथ मैंने ज्यादा आत्मसात होते पाया है। यही वज़ह है कि स्वदेश, लगान और जोधा अकबर में इस जोड़ी द्वारा दिया गया गीत संगीत मन के बेहद करीब रहा है। पर गुलज़ार साहब के लफ़्जों के साथ रहमान साहब वो प्रभाव पैदा नहीं कर पाते हैं जो विशाल भारद्वाज करा लेते हैं। वैसे ये भी नहीं कि रावण, दिल से, साथिया, गुरु या फिर स्लमडॉग मिलनियर में इस जोड़ी ने हमें अच्छा संगीत नहीं दिया। गुरु का ऐ हैरते आशिक़ी और दिल से का सतरंगी रे... रहमान की बेहतरीन कम्पोसिशन्स में गिना जाता है। पर जब इन जैसी विभूतियाँ साथ होती हैं तो हमारी अपेक्षाएँ कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती हैं और यही वज़ह है कि ये एलबम पूरी तरह दिल में घर नहीं कर पाते।

साल 2002 में जब साथिया प्रदर्शित हुई थी तो उसका मुख्य गीत साथिया, साथिया मद्धम मद्धम तेरी गीली हँसी.. बेहद लोकप्रिय हुआ था। इस गीत की हर एक पंक्ति पर गुलज़ार की अमिट छाप थी। वहीं ओ हमदम सुनियो रे में गुलजार के शब्दों से कही ज्यादा रहमान का वाद्य संयोजन इस क़दर हावी था कि गीत में चुपके से चाँद नंगे पाँव आ कर कब गुजर जाता था इसका पता ही नहीं लगता था।


इन आठ सालों में इस फिल्म को जो गीत मेरे साथ हमेशा ही साथ साथ ज़ेहन की वादियों में सैर करता रहा है वो है साधना सरगम का गाया चुपके से चुपके से रात की चादर तले... गीत के मुखड़े के पहले का कोरस मुझे हमेशा कॉलेज के दिनों की तरफ़ खींच ले जाता है। दोस्त यारों की वो एकतरफ़ा किस्सा गोई, किसी का रह रह कर ठंडी आहें भरना और किसी का बिलावज़ह तड़पना या उसका अभिनय करना। पर उन प्रेम में डूबे दिलों की व्यथा में शरीक होना भी हमें तब खुशी खुशी मंजूर होता था।

कोरस के बाद इस गीत में रह जाते हैं तो गुलज़ार के हृदय को सहलाते शब्द और साधना सरगम का गीत की भावनाओं में बहता स्वर। ताज़्जुब नहीं की संगीत प्रेमी इस गीत को हमेशा ही साधना सरगम के गाए दस बेहतरीन गीतों में शुमार करते हैं। इससे पहले कि इस गीत की ओर रुख करें कुछ बातें इसकी गायिका के बारे में..

महाराष्ट्र से ताल्लुक रखने वाली साधना घाणेकर ने अपनी माँ नीलाताई घाणेकर से संगीत की आरंभिक शिक्षा ली। भारतीय शास्त्रीय संगीत इन्होंने पंडित जसराज से सीखा। हिंदी फिल्म संगीत में पाँव रखते ही वो साधना सरगम के नाम से मशहूर हुई। फिर तेरी कहानी याद आई, जुर्म, जो जीता वहीं सिकंदर, 1947 Earth में साधना के गाए गीत हमेशा से संगीतप्रेमियों की जुबान पर रहे हैं। पर हिंदी फिल्म जगत ने उन्हें वो मौके नहीं दिये जो उन्हें दक्षिण भारत में जाकर मिले। साधना सरगम आज तक 24 ज़ुबानों में गीत गा चुकी हैं। और तो और दक्षिण का ना हो के भी वर्ष 2007 में तमिल और तेलगु की सर्वश्रष्ठ पार्श्वगायिका का ख़िताब जीत चुकी हैं। ए आर रहमान उमकी गायिकी से इतने प्रभावित रहे हैं कि अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि

उसकी गिनती मैं ऐसी कुछ गायिकाओं में करता हूँ जिन्होंने अपनी अदाएगी से मुझे हर मोड़ पर अचंभित किया है। बहुत सारे गायक इस बात में निपुण होते हैं कि मैंने जैसा कहा उसे वो हू बहू अपनी गायिकी में उतार देते हैं। पर वो तो मेरे अनुदेशों से कहीं आगे गीत को इतनी सरलता से एक ऐसे धरातल पर ले जाती है जो मुझे चकित तो करता ही है और साथ ही उनके साथ काम करने के आनंद को भी बढ़ाता है।

तो आइए सुनते हैं इस गीत को जिसे सबसे पहले साधना ने तमिल में वर्ष 2000 में फिल्म स्नेहिधने के लिए गाया था। तो पहले सुनिए ये तमिल वर्जन





और उसके बाद साथिया के लिए हिंदी में गाया वही गीत..




दोस्तो से
दोस्तो से झूठी-मूठी दूसरों क नाम ले के
तेरी मेरी बातें करना
यारा रात से दिन करना
लंबी जुदाई तेरी
बड़ा मुश्किल है आहों से दिल भरना
यारा रात से दिन करना
कब ये पूरी होगी दूर ये दूरी होगी
कब ये पूरी होगी दूर ये दूरी होगी
रोज़ सफ़र करना
यारा रात से दिन करना

चुपके से चुपके से रात की चादर तले
चाँद की भी आहट ना हो बादल के पीछे चले
जले कतरा-कतरा गले कतरा-कतरा
रात भी ना हिले आधी आधी
रात भी ना हिले आधी आधी ये
चुपके से चुपके से रात की चादर तले


फ़रवरी की सर्दियों की धूप में
मूँदी-मूँदी अँखियों से देखना
हाथ की आड़ से
नीमी-नीमी ठण्ड और आग में
हौले-हौले मारवा के राग में
मीर की बात हो
दिन भी न डूबे रात ना आये शाम कभी ना ढले
शाम ढले तो सुबह न आये रात ही रात चले
चुपके से चुपके से रात की चादर तले.....

तुझ बिना पगली पुरवई
तुझ बिना पगली पुरवई
आके मेरी चुनरी में भर गई
तू कभी ऐसे ही गले लग जैसे ये पुरवई
आ गले लग जैसे ये पुरवई
साथिया सुन तू
कल जो मुझको नींद ना आये पास बुला लेना
गोद में अपनी सर रख लेना लोरी सुना देना
 

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