सोमवार, फ़रवरी 27, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 रनर अप : कुन फाया कुन जब कहीं पे कुछ नहीं, भी नहीं था, वही था, वही था !

वक़्त आ गया वार्षिक संगीतमाला 2011 के रनर अप गीत के नाम की घोषणा करने का। एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला का ये खिताब जीता है फिल्म रॉकस्टार की कव्वाली 'कुन फाया कुन' ने। यूँ तो ख़ालिस कव्वालियों का दौर तो रहा नहीं पर ए आर रहमान ने अपनी फिल्मों में बड़ी सूझबूझ और हुनर से इनका प्रयोग किया है। इससे पहले फिल्म जोधा अक़बर में उनकी कव्वाली ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा बेहद लोकप्रिय हुई थी। यूँ तो रॉकस्टार के अधिकतर गीत लोकप्रिय हुए हैं पर कुछ गीतों में रहमान का संगीत इरशाद क़ामिल के बेहतरीन बोलों को उस खूबसूरती से उभार नहीं पाया जिसकी रहमान से अपेक्षा रहती है। पर जहाँ तक फिल्म रॉकस्टार की इस कव्वाली की बात है तो यहाँ गायिकी, संगीत और बोल तीनों बेहतरीन है और इसीलिए इस गीत को मैंने इस पॉयदान के लिए चुना।

अगर संगीत की बात करें तो जिस खूबसूरती से मुखड़े या अंतरों में हारमोनियम का प्रयोग हुआ है वो वाकई लाजवाब है। कव्वाली की चिरपरिचित रिदम में बड़ी खूबसूरती से गिटार का समावेश होता है जब मोहित सजरा सवेरा मेरे तन बरसे गाते हैं। रहमान ने इस गीत के लिए अपना साथ देने के लिए जावेद अली को चुना, मोहित तो रनबीर कपूर की आवाज़ के रूप में तो पहले से ही स्वाभाविक चुनाव थे। इन तीनों ने मिलकर जो भक्ति का रस घोला है उसे मेरे लिए शब्दो में बाँधना मुश्किल है। बस इतना कहूँगा कि ये कव्वाली जब भी सुनता हूँ तो रुहानी सुकून सा मिलता महसूस होता है।

इरशाद क़ामिल के बोलों की बात करने से पहले कुछ बातें कव्वाली की पंच लाइन 'कुन फाया कुन' के बारे में। अरबी से लिया हुए  इस जुमले का क़ुरान में कई बार उल्लेख है। मिसाल के तौर पर क़ुरान के द्वितीय अध्याय के सतरहवें छंद में इसका उल्लेख कुछ यूँ है "... and when He decrees a matter to be, He only says to it ' Be' and it is." यानि एक बार परवरदिगार ने सोच लिया कि ऐसा होना चाहिए तो उसी क्षण बिना किसी विलंब के वो चीज हो जाया करती है।

अब थोड़ा इरशाद साहब के शब्दों के चमत्कार को भी देखिए। मुखड़े में एक कितने प्यारे शब्दों में वो ख़ुदा को अपने चाहनेवाले के घर में आकर दिल के शून्य को भरने की बात करते हैं। चाहे अंतरे में भगवन को शाश्वत सत्य मानने की बात हो, या अल्लाह के रूप में रंगरेज़ की कल्पना इरशाद के बोल दिल में समा जाते हैं

या निजाममुद्दीन औलिया, या निजाममुद्दीन सरकार
कदम बढ़ा ले, हदों को मिटा ले
आजा खालीपन में, पी का घर तेरा,
तेरे बिन खाली, आजा खालीपन में..तेरे बिन खाली, आजा खालीपन में
रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंगरेज़ा हो रंगरेज़ा….

कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन फाया कुन,
फाया कुन, फाया कुन ,फाया कुन,
जब कहीं पे कुछ नहीं, भी नहीं था,
वही था, वही था, वही था, वही था
वो जो मुझ में समाया, वो जो तुझ में समाया
मौला वही वही माया
कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन
सदाकउल्लाह अल्लीउल अज़ीम

रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन
ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन

अब गीत के इस टुकड़े को लें

सजरा सवेरा मेरे तन बरसे
कजरा अँधेरा तेरी जान की लौ
क़तरा मिले तो तेरे दर पर से
ओ मौला….मौला…मौला….


इरशाद यहाँ कहना चाहते हैं वैसे तो तुम्हारे दिए हुए शरीर  के कृत्यों से मैं कालिमा फैला रहा था पर तुम्हारे आशीर्वाद के एक क़तरे से मेरी ज़िदगी की सुबह आशा की नई ज्योत से झिलमिला उठी है। अगले अंतरे में इरशाद पैगंबर से अपनी आत्मा को शरीर से अलग करने का आग्रह करते हैं ताकि उन्हे अल्लाह के आईने में अपना सही मुकाम दिख जाए। कव्वाली के अंत तक गायिकी और इन गहरे बोलों का असर ये होता है कि आप अपनी अभी की अवस्था भूल कर बस इस गीत के होकर रह जाते हैं।

कुन फाया कुन, कुन फाया कुन,
कुन फाया कुन, कुन फाया कुन
कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन फाया कुन,
फाया कुन, फाया कुन ,फाया कुन,
जब........वही था

सदकल्लाह अल्लीउम अज़ीम
सदक रसुलहम नबी युनकरीम
सलल्लाहु अलाही वसललम, सलल्लाहु अलाही वसललम,

ओ मुझपे करम सरकार तेरा,
अरज तुझे, करदे मुझे, मुझसे ही रिहा,
अब मुझको भी हो, दीदार मेरा
कर दे मुझे मुझसे ही रिहा, मुझसे ही रिहा…
मन के, मेरे ये भरम, कच्चे  मेरे ये करम
ले के चले है कहाँ, मैं तो जानू ही ना,

तू ही मुझ में समाया, कहाँ लेके मुझे आया,
मैं हूँ तुझ में समाया, तेरे पीछे चला आया,
तेरा ही मैं एक साया, तूने मुझको बनाया
मैं तो जग को ना भाया, तूने गले से लगाया
हक़ तू ही है ख़ुदाया, सच तू ही है ख़ुदाया

कुन फाया, कुन..कुन फाया, कुन
फाया कुन, फाया कुन, फाया कुन, ,फाया कुन,
जब कहीं.....

सदकउल्लाह अल्लीउल अज़ीम
सदकरसूलहम नबी उलकरीम
सलल्लाहु अलाही वसल्लम, सलल्लाहु अलाही वसललम,
वैसे अगर इरशाद क़ामिल के बारे में आपकी कुछ और जिज्ञासाएँ तो एक बेहतरीन लिंक ये रही

निर्देशक इम्तियाज़ अली ने इस कव्वाली को फिल्माया है दिल्ली में स्थित हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में


तो ये था साल का रनर अप गीत? पर हुजूर वार्षिक संगीतमाला का सरताजी बिगुल अभी बजना बाकी है। अगली पोस्ट में बातें होगीं मेरे साल के सबसे दिलअज़ीज गीत और उन्हें रचने वालों के बारे में। तब तक कीजिए इंतज़ार.
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9 टिप्पणियाँ:

vidya on फ़रवरी 27, 2012 ने कहा…

सुन्दर गीत/कव्वाली...
आपकी समीक्षा से और खूबसूरत बन पड़ा...

शुक्रिया..

प्रवीण पाण्डेय on फ़रवरी 27, 2012 ने कहा…

यह गीत मन स्थिर कर देता है..

Ankit on फ़रवरी 27, 2012 ने कहा…

ये कव्वाली नुमा गीत लाजवाब कर देता है, मुझे लग रहा था की आप इसे सरताज गीत रखेंगे, मगर अब तो सस्पेंस और बढ़ गया है, मेरे हिसाब से सरताज के लिए दावेदार कम से कम २-३ गीत तो है ही.
कुन फाया कुन में एक पंक्ति में मुझे एक जगह कुछ खटकता सा दिखता है, "जब कहीं पे कुछ नहीं, भी नहीं था." इस पंक्ति में 'कुछ नहीं' के बाद जो 'भी' आ रहा है वो मुझे खटकता है.

Prashant Suhano on फ़रवरी 27, 2012 ने कहा…

बहुत ही सुन्दर..
अब तो सरताज गीत का इंतजार है...

Smita Rajan on फ़रवरी 28, 2012 ने कहा…

Kun faya kun is great to listen...rooh ko taskeen ..

Manish Kumar on मार्च 04, 2012 ने कहा…

विद्या, प्रवीण, प्रशांत, स्मिता इस गीत को पसंद करने का शु्क्रिया ! सही कहा आप लोगों ने यह गीय मन को स्थिरता व सुकून प्रदान करता है।

Manish Kumar on मार्च 04, 2012 ने कहा…

अंकित बिल्कुल ! वो 'भी' गीत की वो पंक्ति पढ़ते वक़्त खटकता है पर गाते वक़्त उस 'भी' को लगाने से गीत की लय बरक़रार रहती है। शायद यही वज़ह रही होगी वहाँ 'भी' घुसाने की।

नंबर एक के लिए तुम्हारी पसंद जानना भी दिलचस्प रहेगा। अपनी दृध्टि तो अब मैं ज़ाहिर कर ही चुका हूँ।

Unknown on मार्च 07, 2012 ने कहा…

@Jab kahin par kuchh bhi nahin tha

नासदासीन नो सदासीत तदानीं नासीद रजो नो वयोमापरो यत |
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद गहनं गभीरम ||

सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं, अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या, कहाँ किसने ढका था
उस पल तो अगम अतल जल भी कहां था |

सृष्टि का कौन है कर्ता? कर्ता है या है विकर्ता?
ऊँचे आकाश में रहता, सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता, या नहीं भी जानता
है किसी को नही पता, नही पता
नही है पता...
नही है पता...

Ankit on जनवरी 25, 2013 ने कहा…

मनीष जी, कल राज्यसभा टीवी के यू ट्यूब लिंक पर इरफ़ान जी द्वारा इरशाद कामिल साब का इंटरव्यू देखा। इंटरव्यू के दौरान तकरीबन 22 वें मिनट में इरफ़ान जी ने इस गीत में आया 'भी' वाला मुद्दा उठाया और मेरा दिमाग तुरंत अपने द्वारा की गई इस टिप्पणी पर आ गया।
"जब कही पे कुछ नहीं, भी नहीं था
वही था, वही था, वही था, वही था "
उस 'भी' की परतों को खोलकर इरशाद कामिल साब ने उसमे छिपे आध्यात्म को जिस अच्छे तरीके से समझाया, सारी बात शीशे की तरह साफ़ हो गई। दरअसल, उसका अर्थ इतना गहरा था कि मैं वहां तक पहुँच के भी नहीं पहुँच पाया था और उसे गलती समझ बैठा था, मेरी नादानी। एक बात और भी है कि गीत की ट्यूनिंग में 'भी' जिस तरह से आता है उससे वो गलत सा लगता है, लेकिन है नहीं, उस बात को समझने के बाद वो और गहरे से समझ में आ जाता है। अगर आप चाहे तो उस वीडिओ को यहाँ देख सकते हैं-
https://www.youtube.com/watch?v=D1P87BoZjog&list=PL4EF2D112F6898DE0&index=38

 

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