शुक्रवार, अगस्त 17, 2012

विभाजन की विरह गाथा कहता जावेद का ख़त हुस्ना के नाम : पीयूष मिश्रा

याद है आपको 2009 की वार्षिक संगीतमाला जब इस ब्लॉग पर पीयूष मिश्रा की चर्चा गुलाल के लिखे गीतो के लिए बार बार  हुई थी। गुलाल के बाद फिल्मों में उनके लिखे और गाए गीतों को सुनने के लिए दिल तरस गया था। वैसे बतौर अभिनेता वो लाहौर, लफंगे परिंदे,तेरे बिन लादेन,भिंडी बाजार व रॉकस्टार जैसी फिल्मों में दिखते रहे। पर एक संगीतप्रेमी के लिए असली आनंद तो तब है जब उनके खुद के लिखे नग्मे को उनकी आवाज़ में सुन सकें। और लगभग ढाई साल के इस लंबे इंतज़ार के बाद जब उनकी आवाज़ कान के पर्दों से छनती दिल की दरो दीवार से टकराई तो यकीन मानिए उन्होंने जरा भी निराश नहीं किया। 


जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ 'हुस्ना' की जिसे हाल ही में कोक स्टूडिओ के सीज़न दो में प्रस्तुत किया गया था। पीयूष ने हुस्ना को 1995 में लिखा था। कोक स्टूडिओ में इस गीत के संगीत संयोजक हीतेश सोनिक ने ये गीत यार दोस्तों की एक महफिल में 1997 में सुना और तभी से ये गीत उनके ख़्यालों में रच बस गया। हीतेश कहते हैं कि जब पीयूष कोई गीत गाते हैं तो उनके गाए हर एक शब्द के माएने यूँ सामने निकल कर आते हैं। उनकी आवाज़ में एक ग़ज़ब का सम्मोहन है।

सच ये सम्मोहन ही तो हमें उनकी आवाज़ को बार बार सुनने को मजबूर करता है। गीतों के जरिए किसी कहानी को कहना अब तक बहुत कम हुआ है और इस कला में पीयूष जैसी प्रवीणता शायद ही संगीत जगत में अन्यत्र कहीं दिखाई देती है। इससे पहले कि ये गीत सुना जाए ये जानना जरूरी होगा कि आख़िर हुस्ना की पृष्ठभूमि क्या है? कौन थी हुस्ना और इस गीत में कौन उसकी याद में  इतना विकल हो रहा है? पीयूष का इस बारे में कहना है
हुस्ना एक अविवाहित लड़की का नाम है जो वैसी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है जिनकी जिंदगियाँ देश के विभाजन की वज़ह से तबाह हो गई थीं। बात 1947 की है। जावेद और हुस्ना लाहौर में शादी के बंधन में बँधने वाले थे। पर विभाजन ने उनका सपना तोड़ दिया। विभाजन के बाद जावेद लखनऊ आ गया जबकि हुस्ना लाहौर में ही रह गई। 1960 में जावेद की शादी हो गई और फिर वो दो बच्चों का पिता भी बन गया।  ऐसे ही हालातों में जावेद, हुस्ना को एक ख़त लिखता है और जानना चाहता है कि क्या परिवर्तन हुआ नए पाकिस्तान में? क्या मिला हमें हिंदुस्तान और पाकिस्तान बनाकर? देश को दो सरहदों में बाँटकर क्या हम कुछ नया मुकाम हासिल कर सके?
पीयूष जी ने कभी हुस्ना को नहीं देखा। ना वो लाहौर के गली कूचों से वाकिफ़ हैं। पर उनका पाकिस्तान उनके दिमाग में बसता है और उसी को उन्होंने शब्दों का ये जामा पहनाया है। गीत की शुरुआत में  पीयूष द्वारा 'पहुँचे' शब्द का इस्तेमाल तुरंत उस ज़माने की याद दिला देता है जब चिट्ठियाँ इसी तरह आरंभ की जाती थीं। पुरानी यादों को पीयूष, दर्द में डूबी अपनी गहरी आवाज़ में जिस तरह हमारे साझे रिवाज़ों, त्योहारों, नग्मों के माध्यम से व्यक्त करते हैं मन अंदर से भींगता चला जाता है। जावेद की पीड़ा सिर्फ उसकी नहीं रह जाती हम सबकी हो जाती है।

 
लाहौर के उस, पहले जिले के
दो परगना में पहुँचे
रेशम गली की, दूजे कूचे के
चौथे मकाँ में पहुँचे
और कहते हैं जिसको
दूजा मुलुक उस, पाकिस्तां में पहुँचे...
लिखता हूँ ख़त मैं
हिंदुस्तान से, पहलू ए हुस्ना में पहुँचे
ओ हुस्ना...

मैं तो हूँ बैठा ओ हुस्ना मेरी
यादों पुरानी में खोया..
पल पल को गिनता, पल पल को चुनता
बीती कहानी में खोया..
पत्ते जब झड़ते हिंदोस्तान में, यादें तुम्हारी ये बोलें
होता उजाला, हिंदोस्तान में बातें तुम्हारी ये बोलें
ओ हुस्ना मेरी ये तो बता दो
होता है ऐसा क्या उस गुलिस्ताँ में
रहती हो नन्ही कबूतर सी गुम तुम जहाँ
ओ हुस्ना....

पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तान में
वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ
ओ हुस्ना....
होता उजाला क्या वैसा ही है
जैसा होता हिंदोस्तान में हाँ..
ओ हुस्ना....

वो हीरों के राँझे के नग्मे मुझको
अब तक आ आके सताएँ
वो बुल्ले शाह की तकरीरों में
झीने झीने साए
वो ईद की ईदी, लंबी नमाज़ें
सेवइयों की ये झालर
वो दीवाली के दीये संग में
बैसाखी के बादल
होली की वो लकड़ी जिनमें
संग संग आँच लगाई
लोहड़ी का वो धुआँ
जिसमें धड़कन है सुलगाई
ओ हुस्ना मेरी ये तो बता दो
लोहड़ी का धुआँ क्या अब भी निकलता है
जैसा निकलता था उस दौर में वहाँ
ओ हुस्ना....
 

हीतेश सोनिक ने गीत के आरंभिक भाग में नाममात्र का संगीत दिया है। वैस भी पीयूष की आवाज़ के सामने जितना कम संगीत रहे गाना उतना ही ज्यादा कर्णप्रिय लगता है। संगीत की पहली स्वर लहरी तीन मिनट और दस सेकेंड के बाद उभरती है जो पुरानी यादों में डूबे मन को सहलाती हुई निकल जाती है। 

जैसे जैसे गीत आगे बढ़ता है जावेद के दिल के अंदर बढ़ती बैचैनी और हताशा के साथ साथ संगीत और मुखर हो उठता है। गीत के आखिरे हिस्से में इस हताशा को अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के लिए संगीत का टेंपो एकदम से बदल जाता है और उसके बीच निकलता है एक कोरस जो जीवन में बढ़ते अंधकार की ओर इशारा भर करता है।

धुएँ में गुलिस्ताँ ये बर्बाद हो रहा है
इक रंग स्याह काला ईजाद हो रहा है
धुएँ में गुलिस्ताँ ये बर्बाद हो रहा है
इक रंग स्याह काला ईजाद हो रहा है


और आखिर की पंक्तियाँ मानो सब कुछ कह जाती हैं..

कि हीरों के राँझों के
के नग्मे क्या अब भी
सुने जाते हैं वहाँ
ओ हुस्ना
और रोता है रातों में
पाकिस्तान क्या वैसे ही
जैसे हिंदोस्तां ओ हुस्ना


 एक शाम मेरे नाम पर पीयूष मिश्रा

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14 टिप्पणियाँ:

Shailendra Bhardwaj on अगस्त 17, 2012 ने कहा…

Fully Agreed Dear... it's my favourite .. shared one month back ..

दीपिका रानी on अगस्त 17, 2012 ने कहा…

वाह! दिल को भावविभोर कर देने वाला गीत है। पीयूष मिश्रा को सलाम...

Sudhir Sharma on अगस्त 17, 2012 ने कहा…

gazab hai...

Vijay Menghani on अगस्त 17, 2012 ने कहा…

Dear Sir aap itni acchi posting karte ho ki roj intjar rahta hai . Love does not recognize any borders , it keep us bounded with our ancestral land and the sweet people.

Archana Chaoji on अगस्त 18, 2012 ने कहा…

ना जाने कितनी बार सुना था पहले भी और आज भी ना जाने कितनी बार सुना....

Abhishek Ojha on अगस्त 18, 2012 ने कहा…

एक दोस्त ने लिंक शेयर किया था वहां पहली बार सुना था. अद्भुत है !

S.N SHUKLA on अगस्त 19, 2012 ने कहा…


इस खूबसूरत प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने की अनुकम्पा करें, आभारी होऊंगा .

प्रवीण पाण्डेय on अगस्त 20, 2012 ने कहा…

यह गाना सुन न जाने कहाँ खो गया था..

दिगम्बर नासवा on अगस्त 22, 2012 ने कहा…

वाह ... अंतर के कोरों में उतर गया ये दिलकश गीत ... दिल को छूते हुवे कहीं और ले जाता है ये मधुर एहसास ... अध्बुध ...

जयकृष्ण राय तुषार on अगस्त 22, 2012 ने कहा…

बहुत उम्दा पोस्ट सर

Smita Rajan on अगस्त 25, 2012 ने कहा…

Hats off Piyush Mishraji

Vinay Ved on अगस्त 25, 2012 ने कहा…

wah wah .............aur bas wahhhhhh

सुशील छौक्कर on अगस्त 25, 2012 ने कहा…

एक पत्रकार साथी यह गीत पढ़वाया था, तब ही यह दिल में उतर गया था। बाद में जब सुना तो दिल भर आया। पीयूष जी का लेखन सच में लाजवाब है।

Manish Kumar on अगस्त 26, 2012 ने कहा…

शैलेंद्र जी, दीपिका,प्रवीण, सुशील, अभिषेक, अर्चना जी, सुधीर जी, शुक्ला साहब, प्रवीण, दिगंबर, जयकृष्ण, विनय जी, स्मिता आप सब को पीयूष मिश्रा का लिखा और गाया गीत उतना ही पसंद आया जितना मुझे , ये जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई।

विजय प्रेम के बारे में व्यक्त आपके विचारों से पूर्णतः सहमत हूँ।

 

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