शुक्रवार, अक्तूबर 25, 2013

मन्ना डे (1919-2013) : हम ना भूलेंगे तुम्हें अल्लाह कसम..!

कल सुबह कार्यालय पहुँचने के साथ ही मन्ना दा के जाने की ख़बर मिल गयी थी।  अपनी तरह की आवाज़, शास्त्रीयता पर गहरी पकड़ और किसी भी मूड के गीत को निभा पाने की सलाहियत के बावज़ूद मन्ना डे को वो मौके नहीं मिल पाए जिसके वो हक़दार थे। शायद ये उस युग में पैदा होने का दुर्भाग्य था जब रफ़ी, किशोर, लता व मुकेश की तूती बोलती थी। फिर भी मन्ना दा ने जितने भी गीत गाए वो उन्हें बतौर पार्श्व गायक अमरता प्रदान करने के लिए काफ़ी रहे।

सत्तर के उत्तरार्ध और फिर अस्सी के दशक में जब हमारी पीढ़ी किशोरावस्था की सीढ़ियाँ लाँघ रही थी तब हिंदी फिल्मी गीतों में मन्ना डे की भागीदारी बहुत सीमित हो गई थी। ऐसे में रेडियो ही मन्ना दा की आवाज़ को हम तक पहुँचाता रहा था। बचपन में मन्ना डे के जिस गीत ने मुझे सबसे ज्यादा आनंदित किया था वो गीत था फिल्म 'तीसरी कसम' से। गीत के बोल थे  'चलत मुसाफ़िर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया..'। मन्ना डे जब गीत की इस पंक्ति तक पहुँचते  'उड़ उड़ बैठी हलवइया दुकनिया, बर्फी के सब रस ले लिया रे पिंजरे वाली मुनिया' तो बालमन गीत की लय में पूरी तरह तरंगित हो जाता। हाँ ये जरूर था कि गीत के बोल  से मन में इस चिड़िया के बारे मैं कौतूहल जरूर उत्पन्न होता था कि ये कैसे मिठाई व कपड़ों का रस निकाल लेती होगी। अब ये क्या जानते थे कि गीतकार शैलेंद्र की इस विचित्र चिड़िया का संबंध 'खूबसूरत स्त्री' से था।

स्कूल के दिन में शास्त्रीय संगीत की ज्यादा समझ तो नहीं थी पर बहन को रियाज़ करता सुनते रहने से संगीत में उसकी अहमियत का भास जरूर हो आया था। ऐसे में रेडियो पर जब पहली बार मन्ना डे का फिल्म वसंत बहार के लिए गाया गीत 'सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं .'.सुना तो बस इस गीत में डूबता चला गया और इतने दशकों बाद भी इसे गुनगुनाते हुए मन एक अलग ही दुनिया में विचरण करने लगता है। बाँसुरी की आरंभिक धुन के बाद मन्ना डे का आलाप मन को मोह लेता है और जब मन्नाडे की आवाज़ स्वर की साधना को परमेश्वर की आराधना का पर्याय बताती है तो उससे ज्यादा सच्ची बात कोई नहीं लगती।

सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं, सुर के बिना जीवन सूना.
संगीत मन को पंख लगाए,गीतों से रिमझिम रस बरसाए
स्वर की साधना ....,स्वर की साधना परमेश्वर की
सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं
सुर के बिना जीवन सूना.


मैंने मन्ना डे के मुरीद बहुतेरे संगीत प्रेमियों के संग्रह में उनके बेमिसाल शास्त्रीय गीतों की फेरहिस्त देखी है। मजे की बात ये है कि इनमें से अधिकांश ऐसे लोग थे जिन्हें शास्त्रीय संगीत के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। ये मन्ना डे की गायिकी और आवाज़ का ही जादू ही था जो शास्त्रीय संगीत को आम संगीतप्रेमी जनमानस के करीब खींच सका। लपक झपक तू आ रे बदरवा, ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं (राग पीलू), लागा चुनरी में दाग (राग भैरवी), तू छुपी है कहाँ (राग मालकोस) जैसे शास्त्रीय रागों पर आधारित कठिन गीतों को गाकर मन्ना डे ने आम जनमानस से जो वाहवाही लूटी वो किसी से छुपी नहीं है। शास्त्रीय रागों पर आधारित गीतों में मुझे राग अहीर भैरव पर आधारित मन्ना डे का फिल्म तेरी सूरत मेरी आँखें फिल्म का ये गीत बेहद प्रिय है.

पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई 
इक पल जैसे, इक जुग बीता 
जुग बीते मोहे नींद ना आयी
उत जले दीपक, इत मन मेरा
फिर भी ना जाए मेरे घर का अँधेरा
तरपत तरसत उमर गँवाई,
पूछो ना कैसे...



ख़ुद संगीतकार सचिन देव बर्मन अपनी पुस्तक 'सरगमेर निखाद' में इस गीत का जिक्र करते हुए कहते हैं 
"जब भी मैंने अपनी फिल्म के लिए जब भी शास्त्रीय गीत को संगीतबद्ध किया मेरी पहली पसंद मन्ना डे रहे और देखिए ये गीत किस खूबसूरती से मन्ना की आवाज़ में निखरा। ये एक गंभीर और धीमा गीत था जिसे निभाना बेहद कठिन था। मन्ना ने इस अंदाज़ में गीत को निभाया कि वो आज भी उतना ही लोकप्रिय है और मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाले समय में भी ये संगीत के मर्मज्ञों और आम जनों द्वारा समान रूप से सराहा जाएगा। "
सचिन दा के आलावा संगीतकार सलिल चौधरी ने अंत तक मन्ना डे की आवाज़ का बेहतरीन इस्तेमाल किया। सलिल दा और मन्ना डे की इस जुगलबादी से निकले अपने तीन सर्वप्रिय गीतों 'ज़िंदगी कैसी है पहेली हाए..', 'फिर कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको....' और 'हँसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है...' के बारे में पहले भी मैं विस्तार से लिख चुका हूँ।

इतने गुणी गायक होने के बावज़ूद मन्ना डे को फिल्मों में मुख्य नायक को स्वर देने के मौके कम ही मिले। कोई और गायक होता तो इस स्थिति में अवसादग्रस्त हो जाता पर मन्ना जीवटता से डटे रहे। उन्होंने फिल्मों के आम चरित्रों के लिए कुछ ऐसे परिस्थितिजन्य गीत गाए जिनकी पहचान उन फिल्मों से ना होकर उनमें व्यक्त भावों से हुई। आप ही कहिए क्या आप आज भी अपने लाड़ले को देखकर इस गीत की पंक्तियाँ नहीं गुनगुनाते तूझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा ...मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा .....



आज भी जब स्कूलों में प्रार्थना होती है तो फिल्म सीमा का ये गीत तू प्यार का सागर है, तेरी इक बूँद के प्यासे हम..... गाते ही हाथ भगवन की तरफ़ श्रद्धा से जुड़ जाते हैं।



वहीं स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस के दिनों में बजते फिल्म 'काबुलीवाला' के देशभक्ति गीत ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान... सुनकर आँखें डबडबा जाती हैं। 

abc

इसी तरह फिल्म उपहार में चरित्र अभिनेता प्राण पर फिल्माए गीत 
कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं...बातों का क्या, 
कोई किसा का नहीं ये झूठे नाते हैं...नातों का क्या 
में बिना किसी संगीत के जब मन्ना दा की आवाज़ आज भी उभरती है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।




ये सारे गीत इस बात को साबित करते हैं मन्ना दा को भले ही नायकों के पर्दे पर के तिलिस्म का साथ ज्यादा नहीं मिला,फिर भी अपनी बेमिसाल गायिकी से उन्होंने इसकी कमी महसूस नहीं होने दी। ऐसी आवाज़ के मालिक थे मन्ना दा जो हर मूड को अपनी गायिकी से जीवंत कर देते थे। 

मन्ना डे ने जहाँ आओ टविस्ट करें जैसे तेज गीत गाए वहीं किशोर, रफ़ी, आशा व लता जैसे दिग्गजों के साथ इक चतुर नार...., ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे...., फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम...., ना तो कारवाँ की तलाश है..., ये रात भीगी भीगी... में भी अपनी उपस्थिति को बखूबी दर्ज किया। गैर फिल्मी गीतों का भी एक बहुत बड़ा खजाना मन्ना डे के नाम है। हरिवंश राय 'बच्चन' की मधुशाला को जन जन तक पहुँचाने का श्रेय जितना अमिताभ को है उतना ही मन्ना डे का है। इतनी बड़ी विरासत अपने पीछे छोड़ जाने वाले इस गायक के बारे में मेरे जैसे संगीतप्रेमी तो यही कहना चाहेंगे हम ना भूलेंगे तुम्हें अल्लाह कसम..!
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10 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय on अक्तूबर 26, 2013 ने कहा…

न जाने कितने कर्णप्रिय गीतों को सहेजने वाला स्वर चला गया।

Mamta Swaroop on अक्तूबर 26, 2013 ने कहा…

मधुशाला को याद करने केलिए बहुत बहुत धन्यवाद ।

Cifar on अक्तूबर 26, 2013 ने कहा…

Manna Dey ki amar awaaz sada humare kano mein gunjti rahegi

HARSHVARDHAN on अक्तूबर 26, 2013 ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति को आज की बुलेटिन गणेश शंकर विद्यार्थी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर .... आभार।।

***Punam*** on अक्तूबर 27, 2013 ने कहा…

ऐसी शख्सियत संसार में आती तो है...
लेकिन संसार से जाती नहीं है...!

Prashant Suhano on अक्तूबर 27, 2013 ने कहा…

मन्ना डे की आवाज में जो गहराई है, वो और कहीं मिलनी मुस्किल है... कुछ गीतों मे वे संवेदनशीलता की पराकाष्ठा पर पहुंचा देते हैं...

Prabin Khetwal on अक्तूबर 27, 2013 ने कहा…

my all time favorite, no more but his melodies will remain for ever. My tribute to the great singer da

Manish Kumar on नवंबर 13, 2013 ने कहा…

प्रवीण,ममता, सिफ़र, हर्षवर्धन,पूनम, प्रशांत, खेतवाल जी मन्ना डे की जादुई आवाज़ में मेरे साथ डूबने के लिए आभार..

Swati Gupta on मई 02, 2019 ने कहा…

मन्ना डे मूलतः एक शास्त्रीय गायक थे और उनकी आवाज़ ज्यादातर नायकों की आवाज़ से मेल नहीं खाती थी, शायद ये दो वजह रही होंगी की उन्होंने हिंदी फिल्मों में बहुत कम गाने गाए। पर फिर भी उनका हर गाना लाजवाब था। बहुत सारे गानों का आपने ज़िक्र किया ही है साथ ही ऐ मेरी जोहरा जबीं, ज़िन्दगी कैसी है पहेली मुझे बहुत पसंद है। उनकी आवाज के बिना तो 'मधुशाला' भी फीकी हो जाएगी :)

Manish Kumar on मई 02, 2019 ने कहा…

Swati सही वज़हें गिनाई आपने। वैसे एक कारण ये भी था कि वे जिस काल खंड में सक्रिय रहे उस वक़्त रफी, किशोर व मुकेश जैसे महान गायक भी रहे, इसलिए उन्हें अच्छे मौके नहीं मिल पाए। इन हालातों में उन्होंने अपनी शास्त्रीय छवि के उलट कई मस्ती भरे गीत भी गाए जो अमूमन चरित्र अभिनेताओं पर फिल्माए गए होते थे।

उनकी गायी मधुशाला और ज़िंदगी कैसी है पहेली मुझे भी पसंद है। :)

 

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